Wednesday, 4 December 2019

पता नहीं कब देश समय के संदेशों को समझेगा...





आज जबकि हम एक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहे हैं ऐसे में सच्चे मार्गदर्शकों की बेहद ज़रूरत है जो समाज को, इस देश को और उसकी नौजवानपीढ़ी को सही दिशा दिखा सके। हमें यह जानके बेहदख़ुशी होती है कि आज भी हमारे बीच ऐसे वरिष्ठ कवि मौजूद हैं जो श्रृंगार/प्रेमकविताओं से अलग जाकर राष्ट्र प्रेम/जन-चेतना की कविताओं का सृजन करने में व्यस्त रहते हैं। हमें अपार प्रसन्नता है कि आज हम आपके सामने राष्ट्रप्रेम और जनजागरण को पूरा जीवन समर्पित करने वाले श्री कृष्णमित्र जी का काव्य-संग्रह खुलने लगे पृष्ठ सारेलेकर उपस्थित हैं। असीम प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित उनके इस काव्य-संग्रह में 39 कविताएं संकलित की गई हैं। हम श्री कृष्ण मित्र जी के स्नेह और आत्मीयता के लिए सदा शुक्रगुजार रहेंगे कि वो अपनी पुस्तक हमें स्नेह और आशीष के साथ भेंट करते हैं; हार्दिक आभार और नमन।
15 अक्टूबर 1934 को गुजरावाला शहर (अब पाकिस्तान में) जन्में श्री कृष्ण मित्र जी 1949 में अपने माता-पिता के साथ गाजियाबाद आ गए। उन्होंने आजादी की लड़ाई को भी देखा और उसके बाद देश के विभाजन के दंश के भी साक्षी रहे और फिर आजादी के बाद आज तक अमर शहीदों के सपनों को धराशायी होते देख वो अपने दर्द को लेखनी से उतारते चले गए। अगर गौर से देखें तो वो हमारे लिए एक इतिहास की किताब से कम नहीं हैं, जिससे हम बहुत समय तक दूर नहीं रह सकते; उन्होंने सच ही लिखा है-‘संस्मरणों के बृहद ग्रन्थ में/यादों के सन्दर्भ बहुत हैं.../कब तक नहीं सुनोगे प्रियवर/अब तक हुए छलों की बातें/चाहो तो रेखांकित कर लो/बीते हुए पलोंकी बातें...’
उनकी हर किताब आजादी के गीत से शुरू होती है। अपनी दो शानदार कविताओं के माध्यम से वो इस किताब में भी वीर शहीदों को स्मृत करना/कराना वो नहीं भूलते-‘स्वतंत्रता के पुण्य पर्व पर स्मरण करें बलिदानों का/बलिवेदी पर झूल गए जो माँ के अमर जवानों का.../साठ बरस की आज़ादी है/आओ इसे प्रणाम करें/वन्दे मातरम् गीतों को/भारत माँ के नाम करें.../भारत माँ कीजय में उन गुंजित अमर तरानों को/बलिवेदी परझूल गए जो माँ के अमर जवानों को...’। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमर शहीद श्री मंगल पाण्डेय पर एक शानदार कविता लिखी है-‘अगर न होतामंगल पाण्डेय तो क्या लिखती कलम-सियाही/क़दम-क़दम परहमें दे रहा लाल फौज़ की लाल गवाही...’।
राज ठाकरे के उत्तर भारत के लोगों के विरुद्ध विष वमन पर वो व्यथित तो होते ही हैं साथ में चिंतित भी हो उठते हैं। वो फिर से देश के टुकड़े होने के भय से सिहरकर अपनी वेदना को यूँ अभिव्यक्ति देते हैं-‘फिर अंधेरोंकी वकालत/बेबसी में फिर अदालत/जर्जरित होती प्रथाएँ/फिर विभाजन की कथाएँ.../शिष्टता पर आवरण है/बदलता-सा व्याकरण है/राष्ट्र पर अलगाववादी/शक्तियों का आक्रमण है/हो सके तो संगठन के मन्त्र की मेंहदी रचा लो/देवदूतों! देश को विध्वंस के विष से बचा लो...’
भारत तमाम विभिन्न भाषाओं का देश है...देश की तमाम भाषाएँ आपस में सहोदरी हैं। हमने कभी किसी भाषा को गैर नहीं समझा। भाषा, जाति, धर्म और सम्प्रदाय की तमाम विभिन्नता लिए हमारा देश भारत एकता के सूत्र में बंधा है। आजादी के बाद समय-समय पर नेता लोग अपनी तुच्छ तुष्टिकरण के लिए इन विभिन्नताओं का सहारा आपस में फूट डालने के लिए लेते रहे हैं और एक अजीब-सा घुटन-भरा माहौल पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं। जबकि हकीकत को बयाँ करते हुए मित्र जी लिखते हैं-‘यह अकारण-सी निराशा/पल्लवित प्रत्येक भाषा/यह मराठी या कि हिंदी/भारती के भालबिंदी.../रक्त के संबंध हैं ये/निष्कपट अनुबंध हैं ये/बेवजह सीमा न बाँधो/व्यर्थ के प्रतिबंध हैं ये...’। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो इस देश की जनता और हुक्मरानों से सीधे-सीधे पूछते हैं-‘कब तक देश लड़ेगा बोलो/जहर उगलते इन नारों से/महाराष्ट्र वाली हठधर्मी/के आक्रोषित व्यवहारोंसे.../प्रांतवादी यह विभीषिका/आमंत्रण झंझावातों को/कौन निमंत्रण देता है अब/विद्रोहों को उत्पातों को/राष्ट्र नहीं अब महाराष्ट्र की/सम्मुख आई नयी चुनौती/भाषाई विद्रोह बन गया/नेताओं की नयी बपौती...’। सच्चा/अच्छा कवि वो होता है जो समस्या देखता है, लिखता है तो कुछ समाधान भी देता है और यहाँ भी अंत में मित्र जी समाधान देते हुए सभी को एक संदेश देते हुए लिखते हैं-‘क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर/राष्ट्रवाद की बात करें हम/घृणा और अलगाव दूर कर/नफ़रत पर आघात करें हम/जैसे भी हो रहें बनाए/स्नेह-युक्त सद्संबंधों को/स्वाभिमान से पूरित होकर/पुष्ट करें नव अनुबंधों को...’।
आजादी के इतने बरस गुज़र जाने के बाद भी आज हमारी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा मूलभत सुविधाओं से भी वंचित है। महंगाई की वजह से आज जीना दूभर होता जा रहा है। आज भी न जाने कितने ही बच्चों को भूखे पेट कहानी सुनकर सो जाना पड़ता है। आजादी के बाद एक ख़ुशहाल और समृद्ध भारत की परिकल्पना की गयी थी पर आज तक हम उसे सच में नहीं उतार पाए हैं। कवि श्री कृष्ण मित्र जी की यही व्यथा इन सुन्दर शब्दों में देखिए-‘हर आँगन में चहल-पहल हो रोटी हो/रोटी के हित नीयत कभी न खोटी हो/लेकिन सारा करोबार हवाई है/पता नहीं कैसी आज़ादी आई है.../जीना है लाचार बहुत महंगाई है/चहुँ दिशि हाहाकार बहुत महंगाई है...’।
देश में भ्रष्टाचार और अराजकता के माहौल और न्यायपालिका के फैसलों पर भी लोग कभी-कभी खिन्न हो उठते हैं। यह सब आसानी से एक दिन में बदलने वाला नहीं है। जेसिका लाल, निर्भया जैसी न जाने कितनी ही अबलाओं को न्याय न मिल पाने पर कवि की पीड़ा देखिए-‘अबला की अस्मत पर हमले/निर्बल की किस्मत पर हमले/संकट में निरीह बचपन है/सहमा-सहमा सा घर आँगन है.../अय्याशी करते ये मंत्री/बड़े-बड़े शातिर षड्यंत्री/कैसे-कैसे बने विधायक/अमरमणि जैसे खलनायक.../कविता, शशि, मधुमिता, शिवानी/सबकी है वीभत्स कहानी/इन कहानियों का खारापन/उच्छ्रंखल यह आवारापन.../न्यायालयों में अपराधों की बदल रही परिभाषायें/न्यायाधीशों के निर्णय से होती सिर्फ़ निराशाएं.../टूट गए सारे गवाह निर्दोष  हो गए हत्यारे/सूरज असमंजस है क्यों जीत गए हैं अंधियारे...’।
संसद में होनेवाली रामलीला और महाभारत से आज पूरा देश अच्छी तरह परिचित है और अपने गणमान्य नेताओं के व्यवहार से आए दिन शर्मिंदा होता रहता है । हमारे हुक्मरान द्वारा आए दिन अपनी सरकार को बचाने की लिए नम्बरों का खेल पैसे से खेला जाता है । इस पर श्री मित्र जी का दर्द देखिए-‘सौ करोड़ के लोकतंत्र का/हुआ तमाशा संसद में/भ्रष्टाचारोंके दृश्यों का/रूप तराशासंसद में.../सिंहासन के लिए लड़ाई/होती है बटमारों में/क्रय-विक्रय के नए सिलसिले/संसद के गलियारों में.../शर्मनाक कृत्यों का हर प्रयत्न ज़ारी है/एक महाभारत की फिर से तैयारी है...’।
आज के इस दौर में जब कोई भी किसी को सुनने/समझने के लिए तैयार नहीं है; पुराने मूल्य विदा हो रहे हैं और नयी पाश्चात्य संस्कृति अपनी जड़े जमा रही/चुकी है। इतना सब कुछ पढ़ने/समझने/लिखने के बाद हम कवि की वाणी में यही कहना चाहेंगे-‘ऐसे में क्या नया जमाना उपदेशों को समझेगा/पता नहीं कब देश समय के संदेशों को समझेगा...’।
हमें यकीन है कि मित्र जी का यह काव्य-संग्रह पाठकों के लिए न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगा। हम इसके सृजन हेतु श्री कृष्ण मित्र जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए आपको आमंत्रित करते हुए यही कहते हैं-‘आओ अब इस इन्द्रधनुष के/रंग इसी जीवन में घोलें/सच को सच कहने वाली/इस पुस्तक के सब पन्ने खोलें...’।
                                                                   इत्यलम

सारिका मुकेश


सारिका मुकेश



किताब का नाम-खुलने लगे फिर पृष्ठ सारे (काव्य-संग्रह)
ISBN-978-81-922655-3-7
लेखक-कृष्णमित्र
प्रकाशन-असीम प्रकाशन, दिल्ली-110 006   
मूल्य-200/-रू. 






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