साहित्य संप्रेषण का माध्यम है और संप्रेषण के
लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम अपनी बात अधिक शब्दों में ही कहें, कई बार कम शब्दों में भी अधिक बात कही जाती है। अगर ध्यान से देखा जाए तो
कम शब्दों में अधिक बात कहना एक कला है। अंग्रेजी भाषा में इसे "इफेक्टिव स्पीकिंग"
कहा जाता है। हिंदी साहित्य में ऐसी ही प्राचीन विधाओं में से एक
विधा है-दोहा। भले ही हम इसके व्याकरण को न भी जानते हों पर हम सब इससे बखूबी
परिचित हैं। स्वभाव से फक्कड़ माने जाने वाले कबीरदास जी के दोहे आज भी गाँव/देहात
तक में लोगों को मुंहजुबानी याद हैं और वे दैनिक जीवन में उनका खूब उपयोग करते
हैं। उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से ही समाज में जनजागृति का कार्य किया था।
उनके बाद तुलसीदास, सूरदास, रहीम और
बिहारी आदि ने इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इसे समृद्ध किया। दोहों में मात्र दो
पंक्तियों के माध्यम से ही इतनी बड़ी बात कही जा सकती है जो बड़ी कविता में भी
स्पष्ट कर पाने में मुश्किल हो सकती है। तभी तो यह कहा गया होगा: ‘सतसैया के दोहे
ज्यों नाविक के तीर/देखन में छोटन लगें घाव करें गंभीर’।
जीवन की विसंगतियो को मन के दर्पण से देखकर
लिखने वाले श्री कृष्ण मित्र जी अपनी पुरानी संस्कृति के संवाहक तो हैं ही, साथ ही साथ उसके संरक्षण हेतु भी वो चिंतित और कार्यरत दिखाई पड़ते हैं। वो
अपने जीवन काल में कवि के अतिरक्त पत्रकार/संपादक और शिक्षक भी रहे हैं और शायद
यही वजह है कि उनके अधिकतर दोहों में हमें एक शिक्षा का संदेश दिखाई देता है। उनके
लेखन का कैनवास बहुत विस्तृत है। माता-पिता, भाई-बहन,
पुत्र-पुत्री, राजनैतिक/सामाजिक जीवन के तमाम
पहलू आदि कितना ही कुछ है उनके लेखन संसार में। आइए, अब सीधे
उनके संग्रह की ओर चलें।
श्री कृष्ण मित्र जी भारतीय संस्कृति की
परंपरानुसार अपने दोहा-संग्रह ‘तुम छाया तुम धूप’ का शुभारम्भ माँ सरस्वती जी की
वन्दना से करते हुए लिखते हैं-‘जयतु-जयतु माँ शारदे, दो ऐसा
वरदान/विमल हृदय को मिल सके, धवल बुद्धि औ’ ज्ञान’।
माँ सरस्वती के चरणों में अपने 11 दोहे रखते हुए वो अपने आराध्य साईं बाबा जी को 21 दोहों
से नवाजते हैं। एक दोहा देखिए-‘साईं के दर्शन मिलें, मन में
हो विश्वाश/बाबा के आशीष से, पूरी होगी आस’। इसके उपरांत ‘आस्था के आयाम’ में वो आस्था-पुष्प चढ़ाते हुए कहते
हैं-‘मन्दिर की दहलीज़ पर, पहुंचे नंगे पाँव/मन-पंछी को मिल
सकी, तब पीपल की छाँव’ और ‘प्रभुचरणों की हो कृपा, तो मिलता संतोष/उसके पुण्य प्रताप से, मिलता
अमृत-कोष’। जब भगवान की बात होती है तो गुरु का स्मरण स्वत: हो उठता है। गुरु को
तमाम लोगों ने भगवान से ऊँचा दर्जा दिया है। गुरु की महत्ता पर वो लिखते हैं-‘गुरु
की संगत जब मिले, तम होता है दूर/यह संगत ही हृदय को,
देती सच्चा नूर’ और ‘पुस्तक से जो प्राप्त हो, भले बड़ा हो ज्ञान/बिन गुरु के निर्देश वह, ज्ञान रहे
अज्ञान’।

भरत-लक्ष्मण-शत्रुघ्न, से हों सबके भ्रात’ और ‘पुत्र श्रवण जैसा मिले, हो
ऐसा सौभाग्य/तो ऐसे माँ-बाप को, सुख देता वैराग्य’।
बेटियों के लिए वो चिंतित हैं और उन्हें उच्च
शिक्षा के साथ-साथ उच्च संस्कार देने के पक्षधर हैं जिससे वो ससुराल में भी अपनी
जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह कर सकें-‘बेटी है ससुराल में, मन में है संदेह/हर आहात पर चौंकना, है कैसा यह नेह’
और ‘बेटी को भी दीजिए, लज्जा के संस्कार/क्योंकि उसे भी
देखना, है अपना परिवार’।
भाई-बहन के बीच के प्यार की कड़ी है रक्षा-बंधन के
त्यौहार पर यह ख़ूबसूरत दोहा देखिए-‘यह रक्षा के सूत्र ही, गढ़ते हैं सम्बन्ध/भाई के प्रति बहन के, हैं पवित्र
अनुबंध’, लेकिन आज के इस भागमभाग वाले दौर में ऐसी विषमताओं ने जन्म लिया है कि
त्यौहार भी अब अपना पुराना महत्त्व खोते जा रहे हैं-‘भाई को फुर्सत नहीं, बहन खड़ी है द्वार/सूनी रही कलाईयाँ, राखी का त्यौहार’
और ‘पति-पत्नी के बीच भी, होने लगे विवाद/अस्त-व्यस्त है
जिन्दगी, बंद हुए संवाद’।
संचार क्रांति में मोबाईल ने अपना सिक्का कैसे
जमाया है,
देखिए-‘बहुत दिनों से बंद है, अब तो पत्राचार/मोबाईल
से आजकल, व्यक्त हो रहा प्यार’ और ‘इस मोबाईल फोन की,
महिमा अपरम्पार/धर्मपुत्र भी बोलते, दिन में
झूठ हजार’।
आज की शासन-व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, बेरोज़गारी,
नारी उत्पीड़न, बारूदी खेल जैसे विषयों पर उनकी
चिंता और दुःख उनके दोहों में स्पष्ट रूप से उज़ागर होता है-‘भ्रष्ट व्यवस्था ने
किया, कैसा अद्भुत काम/राजनीति में आ गए, रिश्वतखोर तमाम’, ‘वर्दी में भी छिपे हैं, अपराधों
के जिन्न/नहीं फ़रिश्ते अमन के, इनके कृत्य अभिन्न’, अख़बारों
की सुर्खियाँ, करती हैं भयभीत/हत्या-हिंसा-राहजनी, अपहरणों के गीत’, ‘दुष्कर्मों के जुर्म में, फँसे
विधायक नेक/हत्या के अपराध में, धारा लगीं अनेक’, ‘जब जनता
भूखी मरे, रोटी मिले ना दाल/उस विकास का क्या करें, देश रहे कंगाल’, ‘उत्पीड़न नारी सहे, वृद्ध सहें
अपमान/कैसा सभ्य समाज है, कैसा देश महान’, ‘बारूदी में
दुर्गन्ध का, दिशा-दिशा में स्त्रोत/उड़ें खुले आकाश में,
कैसे शांति-कपोत’।
आज कवि सम्मेलनों में होने वाली चुटकुलेबाज़ी और
द्विअर्थी फूहड़ किस्म के हास्य सर्वविदित हैं। बच्चन जी ने भी एक बार कहा था कि अब
कवि सम्मेलनों में कविता का स्तर गिर गया है। सुप्रसिद्ध कवि
और गीतकार श्री नीरज जी ने कहीं पर कहा था कि कवि सम्मेलन अब कपि सम्मेलन हो गए
हैं। मित्र जी भी इस विषय में चिंतित दिखते हैं-‘कविताओं के नाम पर, सुना रहे जो काव्य/उसके कारण हो रहा, नष्ट सभी
सम्भाव्य’, ‘पहन घोर अश्लीलता, खड़ा मंच पर हास/हँसी नहीं यह
शर्म का, सौंप रहा एहसास’। अनेकों
विषमताओं के बीच वो शांति. भाईचारे, सौहार्द की कामना करते
हुए लिखते हैं-‘मित्र जला ऐसे दिये, अपने मन के द्वार/लील सके दीपावली, नफ़रत का अँधियार’।
जैसा कि संप्रेषण के विषय में कवि केदारनाथ
अग्रवाल कहते हैं,
“संप्रेषणीयता का सवाल केवल शिल्प और भाषा का सवाल नहीं है।
संप्रेषणीयता तो शत-प्रतिशत आदि से लेकर अंत तक मानवीय और प्राकृतिक संबंधों की
वजह से ही बनती है और जहाँ इसका अभाव होता है, वहीं
संप्रेषणीयता लुप्त हो जाती है।" इस परिभाषा को ध्यान में रखते हुए हम सहज ही
कह सकते हैं कि श्री कृष्ण मित्र जी का यह संग्रह इसमें पूरी तरह से खरा उतरता है।
उनके दोहे जन-जीवन के विभिन्न पड़ाव हैं और इसीलिए पाठक स्वयं को हर जगह उंनसे जुड़ा
हुआ महसूस करता है। उनका जन संदेश भीतर तक उतर जाता है। उनका यह दोहा संग्रह जन-जन
तक पहुँचे और खूब ख्याति अर्जित करे और वो स्वस्थ और सानंद रहकर हमें भविष्य में
भी अपनी ऐसी ही बेहतरीन कृतियों से आनन्दित और लाभान्वित करते रहें, हमारी यही कामना है। अंत में हम सार-रूप में उनका यह दोहा प्रस्तुत कर
विदा लेंगे-
‘खुद को ही पहचानना, है अनुपम आनंद
जिस क्षण जाना स्वयं को, वह क्षण परमानंद’।
‘खुद को ही पहचानना, है अनुपम आनंद
जिस क्षण जाना स्वयं को, वह क्षण परमानंद’।
इत्यलम।।
सारिका मुकेश
No comments:
Post a Comment