आज वैश्वीकरण/भूमंडलीकरण के इस
संचार क्रांति के युग में जीते हुए हमारे जीवन और मूल्यों में अनेकों परिवर्तन हुए
हैं। ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की संस्कृति में विश्वाश रखने
वाले हम लोग आज खुद में सिमटकर खोते जा रहे हैं। जीवन परिवर्तनशील है, यहाँ क्षण-प्रतिक्षण सब कुछ बदलता है। किसी ने सच कहा है कि हम जिस नदी
में आज स्नान करते हैं, उसी नदी में दोबारा स्नान करना असंभव
है। परिवर्तन इस संसार का नियम है। परिवर्तन बुरा भी नहीं होता परंतु उससे होने
वाले परिणामों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। कहीं कुछ अतिरिक्त मिलता है तो कहीं
बहुत कुछ पीछे छूट भी जाता है, यह एक शाश्वत नियम है परंतु
यह भी हकीकत है कि हम प्राय: अपने गुजरे समय को याद कर वर्तमान का आँकलन करते रहते
हैं और यह भी सदा से सच रहा है कि ‘अपने युग की सबको अनुपम
ज्ञात हुई अपनी हाला’। आज हम आपको गुजरात से निकलने वाली
हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका ‘विश्वगाथा’ के सम्पादक श्री पंकज त्रिवेदी जी के काव्य-संग्रह
“हाँ! तुम जरूर आओगी” से रू-ब-रू करवा
रहे हैं, जिसमें अतीत की जाँच-पड़ताल संवेदनाओं के धरातल पर की गई है। पंकज जी मिट्टी
से जुड़े व्यक्ति रहे हैं और चाहकर भी अपनी पुरानी मिट्टी, गाँव,
खलिहान, पुष्प, प्रेम के
साथ-साथ माता-पिता, बहन को भुला नहीं पाते और उन्हें कविताओं
के माध्यम से स्मरण करते दिखाई पड़ते हैं-‘यही धूप/मेरे गाँव के तालाब में पानी पर
नृत्य करते हुए/मेरी आँखों को चकाचौंध कर रही थी/मेरे भीतर दिव्य उजास फैलाती हुई/मेरी
प्रसन्नता बढाती हुई वही धूप आज भी/मुझ पर बरस रही है/जैसे कि मेरी मेहनतकश माँ का
आशीर्वाद हो’, और पिता को स्मरण करते हुए ये पंक्तियाँ-‘एक वक्त था जब मेरे आने के/इंतजार
में पिता जी बैठे रहते थे/सूखी आँखों में सपने लिए/कुछ कहने को बेकरार से/किताबें-पत्रिकाएँ
भी तो वो ही करती हैं/पिता जी की तरह/चैन-बेचैन से/कभी धैर्य से/इंतजार करती हैं
मेरा’। स्वयं के विषय में उनकी यह पंक्तियाँ उनको अच्छे से परिभाषित करती हैं-‘मैं/कुछ
भी तो नहीं हूँ/मिट्टी से जुड़ा हुआ हूँ बस/हवा में उड़ना तो आता है मुझे/मगर मेरा
गर्भनाल मिट्टी से ही जुड़ा है/वो माँ है मेरी/और माँ से कैसे छूट पाऊँगा मैं?/उसकी सुगंध और संस्कार/मैं कर्जदार हूँ उसका...’।
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श्री पंकज त्रिवेदी |
माँ और बहन का स्नेह उनके मन पर इस
तरह हावी है कि उन्हें अपनी प्रियतमा में कभी माँ दिखती है तो कभी बेटी ही माँ और
बहन का स्मरण करा जाती है...वैसे अगर ध्यान से देखा जाए तो यह सच है कि एक ही नारी
समय-समय पर हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रगट होती है-‘बेटी को देखता
हूँ तो/उसके चहरे में माँ की ममता/बहन का शरारत भरा स्नेह/रिसता है...’ और ‘मेरी
थकान को उतारती मीठी बातों से/प्रियतमा से कब माँ बन जाती हो तुम’।
वो आज शहरी जीवन जीते हुए याद करते
हैं कि जब गाँव शहर की ओर भाग रहा था तो उस क्रम में कितना ही कुछ तब पीछे छूट गया
था-‘गाँव का आदमी जब/शहर की ओर भागने लगा था/सब कुछ पाने की चाह से/कितना लाचार था
और बेबस भी.../बँगलों में भले लगाए हों पेड़ मगर/वो स्पर्श मिलता नहीं मिट्टी का/गाँव
में छोड़कर आए थे नंगे पाँव के निशाँ/दूध दूहती माँ का प्यार/गाय की मीठी नज़र/मक्खन
से भरे बर्तनों से उठती सुगंध/छूट गया है प्यार हर चीज से/माँ वृद्धाश्रम में बैठी,
हमारा समय भी हो गया...’।
अक्सर हम यह देखते हैं कि ग़रीबों
में आज भी रिश्तों की मिठास, अपनापन,
जुड़ाव अधिक है। वो हर पल को साथ रहकर आनंद से बिताते हैं, वहाँ शायद
एक-दूसरे से अपेक्षाएं कम है और हर कोई अपने दायित्व को जल्दी समझ जाता है और वे जल्दी
ही आत्मनिर्भर होने की सोचते हैं। समझदारी वहाँ जल्दी प्रवेश कर जाती है और वहाँ
आज भी रिश्तों का महत्त्व है शायद। पंकज जी कहते हैं-‘यहाँ से न माँ, न बाप जाते हैं वृद्धाश्रम में/न फड़फड़ाते हैं यहाँ डिवोर्स के काग़ज़/गरीबी
ने हमें जकड़ लिया है भले/मगर जकड़न भी है/रिश्तों की रेशमी डोर की...’। पंकज जी शहरी
जीवन की कृत्रिमता को वो भलीभांति पहचानते हैं । वो जानते हैं कि यहाँ सब मुखौटे लगाकर
जीते हैं, यहाँ संवेदनाएँ भी मृत हो चुकी हैं या फिर वो भी कृत्रिम ही हैं,
शायद इसीलिए वो लिखते हैं-‘मेरे आँसू को/तराशने की कोशिश मत करो/न
उसे खरीदने की.../मेरे आँसू/ऐसे नहीं जो तोड़ सको/खरीद सको और जब चाहो पा सको’। हम
सभी जानते हैं कि आज आदमी बदल चुका है, वो अहसान के बदले
आँखे तरेरता है। बदलते हालात में आदमी की बदलती फ़ितरत पर ये पंक्तियाँ देखें-‘आज/वक्त
बदल गया है/कल तक तुम्हारे आदेश पे चलते थे/जो लोग और वक्त/आज तुम्हारे सामने खड़े
हैं सीना तानकर’।
वो अपने अतीत के गर्भ में दबे प्रेम को आज भी महसूस कर उस पर कुछ
लिखना चाहते हैं पर उस पर वक्त की एक ऐसी गर्त चढ़ चुकी है कि अब उस पर लिखे जाना
क्या कल्पना तक कर पाना संभव नहीं जान पड़ता-‘न जाने कब काँच की खिड़की से/झाँकती
हुई तुम.../मेरे दिल में उतर जाती हो और मैं/अपनी कलम को उसी अतीत में डुबो कर/लम्हा-लम्हा
अलेखता हुआ/फिर से तुम्हारे साथ एक नयी जिंदगी/बसर करने का मन बनाता हूँ/मगर देखता
हूँ तो मेरे अहसासों की स्याही अब/बर्फ़ बन गयी है और तुम भी शायद/ऐसा ही महसूस
करती हुई/लौटने लगती हो उसी पगडंडी से/पहाड़ियों की ओर/जिसके उस पार अक्सर कल्पना
भी नहीं/पहुँच पाती...’।
आज हम सब अपने-अपने सलीब खुद ढो रहे
हैं। एक पुराने गीत की याद आ रही है, ‘चल
अकेला, चल अकेला, चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला’। आज हम भीड़ में
होते हुए भी प्राय: खुद को अकेला महसूस करते हैं, आज की इसी स्थिति पर वो यूँ
लिखते हैं-‘मेले में अकेले और/अकेले में मेले सा/फिर भी अंदर से कुछ टूटता हुआ/कुछ
अधूरेपन की कसक लिए/पूर्णता की चाह में आगे बढ़ता हुआ.../बुद्ध की महिमा गाते गाते/बुद्धत्व
की ओर/बढ़ रहा हूँ मैं!’
अच्छी किताबें हमारे जीवन को
सजाती-सँवारती हैं। हमें तो सदा से ही इनसे ज्यादा प्यारा साथी और कोई नहीं लगा। अच्छी
किताबें हमारे जीवन को सही दिशा देकर जीवन की दशा बदल, जीवन में उजाला भर देती हैं।
इसी तथ्य को पंकज जी ने इन शब्दों में उभारा है-‘किताबों के पन्नों पर खिलती धूप
से/काले अक्षर भी सुनहरे बन जाते हैं/मन समृद्धि से भर जाता है/अच्छे विचारों से
उभरते शब्द/मेरे अंदर जी रहे इंसान को/आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते हैं सदा’।
इस संसार में प्रेम का स्वरूप सदा
से भिन्न रहा है और वो सदा से मानव मन को तपती हुई दुपहरी जैसे जीवन में शीतल हवा
के झोंकों से आनंदित करता रहा है। प्रेम में अपने प्रेमी को स्वीकारने की अद्भुत
क्षमता होती है, हम स्वयं को दूसरे की हिसाब से
ढाल लेते हैं और शायद यही वजह उस रिश्ते को अद्वितीय बना डालती है। पंकज जी
विस्मित हो लिखते हैं- ‘आजकल किसे फुर्सत है/सपने देखने की.../मगर मैं तो हमेशा
देखता हूँ/एक सपना/और सपने में तुम आती-जाती रहती हो/हवा का झोंका बनकर।’...‘मेरे
निर्बंध व्यक्तित्व की मुखरता को/तुमने कैसे स्वीकार कर लिया है.../अपने हर शब्द
में खुलता खिलता हूँ मैं/और तुम उसी अंदाज़ में ढल जाती हो/मेरी ख़ुशी के लिए/मैं
ताज्जुब में हूँ।’
इस सबके बावजूद पंकज जी अपनी
वर्तमान स्थिति के प्रति कुछ यूँ आश्वस्त हैं-‘मेरी
पहचान, मेरी हैसियत से भी ज्यादा है...’ परंतु फिर भी पता नहीं ऐसा क्या है और कौन है वो जिसकी प्रतीक्षा पंकज जी
के दिल में अपनी जड़े जमाए बैठी है और वो पूर्ण रूप से आश्वस्त हैं कि वो ज़रूर आएगी!
हम भी उन्हें अपनी शुभकामनाएँ देते हैं कि उनकी प्रतीक्षा पूरी हो और उनका
लेखन-कर्म बराबर चलता रहे। तो लीजिए, इस काव्य-संग्रह की
अंतिम पंक्तियाँ आपकी सेवा में पेश हैं-‘मुझे मालूम है-/न समय तय है और न तिथि.../बस-एक
उम्मीद बाँध बैठा हूँ/जो दूर-दूर तक एक दिए की तरह/टिमटिमाती हुई नज़र आती है मुझे/मैं
उम्मीद पर अब भी कायम हूँ,/हाँ, तुम ज़रूर आओगी!/इसी दहलीज़
पे...ज़रूर आओगी !/हाँ, तुम ज़रूर आओगी!!
सारिका मुकेश
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सारिका मुकेश |
किताब का नाम- हाँ ! तुम ज़रूर आओगी
(काव्य-संग्रह)
लेखक का नाम- पंकज त्रिवेदी
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद (उ.प्र.)
मूल्य-20/= रूपए
कवि श्री. पंकज त्रिवेदी जी और समीक्षक आद. सारिका मुकेश जी को दिल से अभिनंदन
ReplyDeleteहार्दिक आभार मैडम!
Deleteआदरणीया डॉ सारिका मुकेश जी का इस समीक्षा के लिए आभारी हूँ। आपने कविताओं के मूल भावों को बख़ूबी उकेरा है। ये सारी कविताएं अपने भावों और संवेदनशीलता से ही ज्यादा मुखर हुई है। आपने सच में आत्मसात करके लिखा है।
ReplyDeleteपंकज त्रिवेदी
आपको समीक्षा अच्छी लगी, ख़ुशी हुई! यूँ ही लिखते रहिए! हार्दिक शुभकामनाएँ और धन्यवाद!
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