Saturday, 25 January 2020

जीवन के सांध्यकाल में स्मृतियों के लॉकर को खँगालते ओमीश परुथी





                         किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,
                         किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
                         किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,
                         जीना इसी का नाम है...

फ़िल्म ‘अनाड़ी’ के इस गीत के रचयिता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र जी की तरह तमाम साहित्यकारों ने इस तरह के न जाने कितने ही गीतों के माध्यम से जीवन को व्याख्यायित किया है। मनुष्य की योनि दुर्लभ है और हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार यह हमें चौरासी लाख योनियों के बाद मिलती है। हम सभी अपने-अपने जीवन को अपनी सूझबूझ, ज्ञान और समझ से अच्छी तरह से गुज़ारने का प्रयत्न करते हैं। जीवन के सांध्यकाल में गहन एकांत के क्षणों में बैठकर इस गुजरे जीवन को स्मृत कर उसका आँकलन करने (क्या खोया क्या पाया जग में...) की प्रवृत्ति मानव मन में सदा से रही है। ज़िन्दगी की गुल्लक से स्मृतियों के सिक्कों को देर तक छूना, चूमना और निहारना कितना सुखद और अपनापन-भरा लगता है। तमाम साहित्यकारों ने इस सांध्यकाल के चिंतन पर बेहतरीन काव्य-सृजन किया है, यथा-‘सिमटा पंख साँझ की लाली, जा बैठी अब तरू शिखरों पर/ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरने चंचल स्वर्णिम निर्झर/सूर्य क्षितिज पर होता ओझल...(पंत)’, ‘इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा...’, “मैं जीवन में कुछ कर न सका...’ और ‘बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन मधुशाला...(बच्चन)”, ‘आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे...(पंडित नरेंद्र शर्मा)’,  ‘नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी निकल गई, पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई, हसरतें न निकल सकीं उम्र पर निकल गई...कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे...(नीरज)’, ‘यही जाना कि कुछ न जाना हाए, सो भी इक उम्र में हुआ मालूम. (मीर तक़ी मीर)’...।


   
डॉ. ओमीश परुथी 

आज हम आपको जीवन के सांध्यकाल में लिखी डॉ. ओमीश परुथी जी की कविताओं के सद्य: प्रकाशित संग्रह ‘अस्ताचल के उजाले’ से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। ये कविताएं उनके व्यतीत हुए समस्त जीवन का अनुभव हैं, दृष्टांत हैं, जिन्होंने उनके मन को न जाने कितने बरसों तक भीतर ही भीतर मथा है और अब काव्य-नवनीत के रूप में यह पुस्तकाकार रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। कोई भी लेखक जब निजी अनुभव को काग़ज़ पर उतारता है, तो वो उसे इतने बड़े कैनवास पर उतारता है कि वह सब पाठकों को अपना निजी अनुभव प्रतीत होता है और वो उनका हो जाता है फ़िर लेख़क का उसमें निजी कुछ शेष नहीं रह जाता। यही लेखन की विशेषता है कि जो कभी आपका रहा हो वो सबका हो जाए और लेखन की यही परम उपलब्धि भी है। उनका काव्य-जगत् एक विस्तृत वैचारिक कैनवास पर यथार्थवाद के विभिन्न रंग बिखेरता दिखाई देता है। इसमें जीवन की तमाम जटिलताओं, विडम्बनाओं और  विसंगतियों पर सोच-विचार किया गया है। ये उनकी निजी सम्वेदनाएँ हैं जो काग़ज़ पर शब्दों की शक्ल में मुखरित हो उठी हैं-‘कितनी नदियाँ/निर्झर कितने/महज़ तहखानों में बंद/स्वप्न सजीले/संकल्प हठीले/जीवन-ओढ़नी पर लगे पैबंद/...उल्लास अस्त/भाव पस्त/छलनी लिए खड़ा था छंद/महारथी महान्/सारथि गुणवान/सत्य घेरने को लामबंद’। कविता जीवन के इसी माहौल में पलती-बढ़ती है। गुरूदेव टैगोर ने ताज़महल को काल के कपोल पर ठहरा हुआ आँसू कहा था। परुथी जी लिखते हैं-‘बहते-बहते/जो आँसू/इतिहास के कपोल पर/थम जाता है/काल की शिला पर/जम जाता है/महाप्राण होता है वह/काव्यधारा को कर सिंचित/करता काव्यधारा प्रवाहित’।
जीवन के सांध्यकाल में एकाएक ही अपनी अवस्था का ख़याल आता है-‘चेहरे पर उम्रदराज़ी के निशां/सिर पर सोहे सफ़ेदी/आँखों के तले ग़मों की सोजिश/कर रहे ये निशां बयां/अपनी तो रुत बीत गई/सूनी हो गई उनकी आँखें/न प्रेम, न प्रीत रही/अज़नबी-से हो गए दोस्त/ज़िन्दगी अपनी रीत गई...’, ‘बयार के वे झोंके/थपकियाँ जिनकी महसूसते/जीवन था कटा/निकल जाते हैं अब निकट से/मुँह फेरे, परसे बिना/मानो कभी परसा न हो/पर्त दर पर्त/काई की मोटी पर्तें/जा रही जमतीं/ज़िन्दगी चलती पल भर/फ़िर ठहर थमती’। ऐसे में उसे लगता है-‘कोई होता/मेरी दहकती जमीं पर/बन बहता/बयार का झोंका/चुन लेता/आँख के क़तरे/जा आकाश में बोता/कोई होता!’ फ़िर उसे लगता है कि एक प्रकृति ही है जो आज भी आत्मीय बनी हुई है-‘आदित्य अब भी देता है आशीष/चाँद देख मुस्काता है/बयार ने भी कहाँ छोड़ा/मेरे घर आना-जाना/बाँहों में भर लिपटाना/घास बिछ पैर के तलवों से/चुन लेती है अब भी थकान/प्रकृति और आत्मीय हुई/दूर हुआ भले ही इंसान’। प्रकृति की कृपा सच में अपार है-‘‘झरती है रात भर/तेरी कृपा अरूप/होती दिन में साकार/ले रवि किरणों का रूप/धरा में तेरा/सघन रूप साकार/अनगिन तेरी छवियाँ/अनगिन रूपाकार!!’, ‘हे ब्रह्म! अनादि, अनंत! हे अनाविल, प्रिय कंत!तुम ही धरा की आद्य गंध/तुम ही साँसों का अनुबंध/...कौन जाने सीमा आपकी/कौन जाने है अंत?/वर्चस्व आपका सर्वत्र व्याप्त/फ़ैला वैभव दिग्दिगंत।’ सच में यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम प्रकृति को देख/समझ नहीं पाते वर्ना-‘उस शक्तिमय/शाश्वत शिल्पी ने/न जाने कितनी/लिख दी हैं इबारतें/जिन्हें बिन पढ़े/गुजर जाते हैं/बहुत पास से हम/मगर, जरा ठिठक/देख पाएं कुदरत को/एकटक, एकात्म भाव से/तो उषा से उद्गीथ/चाँदनी से चौपाई/कमल से कवित्त/मेघों से मल्हार/सुनाई देंगे/सरोवर पर सवैये/नद पर नाद/महासागर पर महाकाव्य/उमगते दिखाई देंगे...’। माँ प्रकृति का ही रूप है-माँ/शब्द लघु कितना/जैसे तुलसी-पात/अर्थ मगर दीर्घ इतना/जैसे बरगद-गात/...माँ शब्द शबनम का क़तरा/जैसे करुणा मनभावन/अर्थ मगर इतना भीगा/जैसे बरसता सावन...’।
लड़की के जीवन का यह सामाजिक तथ्य भी कितना अजीब है न-‘लड़की मायके में/पराया धन/ससुराल में/लड़की पराए घर की/अपनत्व से/सदैव अपरिचित/भारतीय नारी/या चिर विस्थापित’। आज के इस भयावह माहौल में तो-‘मैं रोज़/यह सोच के सोता हूँ/अब इससे भी नीचे कहाँ तक गिरेगा आदमी?/पर अगली सुबह/अख़बार का बचा हुआ/कोई पाक़ कोना/भी काला हुआ होता है/कहीं कमीनगी की पीक/कहीं खून के छींटे/कर देते हैं विचलित/वह फ़िर कर देता है/हतप्रभ, अवाक्!’ चिंताजनक बात यह है कि न्याय की उम्मीद भी आज क्षीण होती दिखती है-‘अब भी संविधान हमारा/न माने जाने वाले/कानूनों का पुलिंदा है/देश में लोकतंत्र/बाहुबलियों के सहारे जिंदा है’।
जीवन के आखरी पड़ाव पर कुल मिलाकर यही लगता है-‘वही क़िस्से/वही कहानियाँ/वही मरहले/वही किरदार/न जुनून न जिज्ञासा/ज़िन्दगी बार-बार पढ़ी किताब...’, और अंततः यही लगता है-‘चलकर भी/पहुँचे न कहीं/पहुँच कर भी/नहीं ठहराव’ और ‘कहानी जो न पहुँची/किसी अंजाम तक/बेज़बान, बदनसीब उस कहानी का/मासूम-सा आग़ाज़ हूँ मैं’।
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर समय और स्थान की सीमा की वजह से विश्राम लेना होगा। हमें यकीन है कि परुथी जी के इस काव्य-संग्रह का हिंदी साहित्य जगत् में इसका भरपूर स्वागत होगा। हम उनके सृजन-कर्म हेतु उनको हार्दिक बधाई और उनके स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने हेतु अनेकों शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को सुप्रसिद्ध कवि श्री केदारनाथ सिंह जी की कविता 'उस आदमी को देखो' की इन पंक्तियों के साथ विराम देते हैं:
                               ‘मुझे आदमी का सड़क पार करना
                                हमेशा अच्छा लगता है
                                क्योंकि इस तरह
                                एक उम्मीद सी होती है
                                कि दुनिया जो इस तरफ़ है
                                शायद उससे कुछ बेहतर हो
                                सड़क के उस तरफ़’।

इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
25 जनवरी 2020

सारिका मुकेश



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पुस्तक: अस्ताचल के उजाले (काव्य-संग्रह)
लेखक:  ओमीश परुथी  
प्रथम संस्करण: 2020
प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रेजरी, नई दिल्ली-110017
मूल्य: 295/-रूपये
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4 comments:

  1. ओमीश परुथी25 January 2020 at 16:01

    डा. सारिका मुकेश अँग्रेजी भाषा की प्राध्यापक होकर भी हिंदी भाषा और साहित्य पर अच्छी पकड़ रखती हैं।उन्होंने बड़े मनोयोगपूर्वक "अस्ताचल के उजाले"की समीक्षा की है।उन्होंने हिंदी के अन्य कवियों को उद्धृत करते हुए तुलनात्मक अध्ययन की बानगी भी प्रस्तुत की है।उनकी दृष्टि बड़ी परिपक्व व शैली बड़ी प्रौढ़ है।पाठकों को पुस्तक से साक्षात्कार करवाने में वे सफल रही हैं।

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    1. आपको समीक्षा अच्छी लगी, प्रसन्नता हुई! प्रशंसा के लिए आपका हार्दिक आभार!

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