इतनी ममता नदियों को भी जहाँ माता कह के बुलाते
हैं,
इतना आदर भगवान तो क्या पत्थर भी पूजे जाते
हैं...
हिंदी सिनेमा जगत् के महान अभिनेता, निर्माता,
निर्देशक और भारत कुमार के नाम से मशहूर श्री मनोज कुमार जी की सुप्रसिद्ध फ़िल्म
‘पूरब और पश्चिम’ (1970) के इस गीत से हम भारतवासियों के मन में नदियों के प्रति
अटूट प्रेम/निष्ठा/आस्था/श्रद्धा भाव का निर्वहन स्पष्ट हो जाता है। आज भी माँ
गंगा और माँ नर्मदा आदि में स्नान का और उनके तट पर संध्या के वक़्त होने वाली भव्य
आरती का अपना विशिष्ट महत्त्व है। कुम्भ के महान पर्व से तो आज सभी भली-भाँति
परिचित हैं। अब ऐसे परिवेश में किसी ऐसे कवि का मन इससे कैसे अछूता रह सकता है,
जिसका जीवन ही माँ गंगा के किनारे स्थित शहरों में व्यतीत हुआ हो और हर सुख-दुख
में नदियाँ उसके जीवन का कुछ यूँ अभिन्न/अहम् हिस्सा बन गई हो-‘मुझमें भी कल तक
बहती थी, कल-कल करती एक नदी/मेरे आँसू जब भी छलके, रही छलकती एक नदी/मैं भी नाचा
बूँदों के संग, चली ठुमकती एक नदी/ मैं रोया तो मेरे अंदर, रही सिसकती एक नदी’ लेकिन
आज उसे ऐसा लगता है-‘जुल्मों पर चुप मुझे देखकर, रही दहकती एक नदी/पत्थर पर सिर
चली फोड़ती, पैर पटकती एक नदी...और शायद इसीलिए डॉ. अजय जनमेजय जी अपनी ख़ामोशी को
तोड़ते हुए समूचा गीत-संग्रह ही नदी-गीत-संग्रह ‘नदी के जलते हुए सवाल’ के रूप में
लेकर प्रस्तुत हैं।

यह अत्यंत दुखद है कि आज हमारी नदियों की स्थिति
बड़ी दयनीय हो चली है-‘सूखते-सूखते इक नदी खो गई/कब किसी ने सुनी उस नदी की
व्यथा/जल भी ऐसा हुआ, विष का प्याला लगे/इक नदी सूखकर, आज नाला लगे/और फ़िर ये
हुआ-/जल रुका तो रुका एक नदी सो गई/कब किसी ने सुनी उस नदी की व्यथा...’ इसलिए कवि
को लगता है-‘जंगल में निर्मल था जिसका, वनवासी-सा रूप/निकट शहर के नदिया का तन,
किसने किया कुरूप?’....’प्रश्न पूछना बहुत ज़रूरी/ऐसी भी थी क्या मजबूरी/तट को छोड़
गई है नदिया-तट को छोड़ गई.../जिसका कल-कल नीर सदा ही/प्यास बुझाता था औरों
की/जिसका शीतल जल छूने से/थकन मिटाता था औरों की/वो जल गायब है नदिया से/लगता है
सूखे के संग में/कर गठजोड़ गई है नदिया/तट को छोड़ गई है नदिया तट को छोड़ गई...’। व्यथित
होकर जनमेजय जी प्रश्न करते हैं-‘नदी जो सरल रही है, वही क्यों विकल रही है?’ और
नदी के बाँध बनने पर पूछते हैं-‘जब नहीं सीमा कभी लाँघी नदी, पूछता हूँ क्यों गई
बाँधी नदी?...’ नदी की यह व्यथा इन शब्दों में कितनी मार्मिक हो उठी है-‘बोल सकती
थी मगर बोली नहीं, पीर में अपनी जुबां खोली नहीं/क्यूँ उसे रुकना पड़ा यूँ राह
में?/क्यूँ उसे बाँधा गया किस चाह में?/एक पल ठिठकी चिपट कर बाँध से/फ़िर नदी रोई
लिपटकर बाँध से...’ और ‘रोकते हैं बाँध मेरी धार को भी/यूं बदलकर रख दिया व्यवहार
को भी/पुत्र जैसे काम कोई भी नहीं हैं/और मुझसे चाहते हो प्यार को भी/पुत्र हो तो
पीर मैं अब सब सहूँगी/ ले प्रदूषित जल भला कब तक बहूँगी/यूँ तो नदिया हूँ, नदिया
ही रहूँगी....’।
सच में, नदी के प्रति उनका यह अगाध प्रेम ही है
कि उसका हृदय द्रवित हो कह उठता है-‘कैसा कारावास नदी को, सारे ही संत्रास नदी
को...’ और ‘दर्द के कुछ शंख लेकर, पीर की कुछ सीपियाँ/सूखती जाती नदी के, पास बस
तन्हाइयाँ...’। यह सच में कितना दुखद है-‘जिनकी खातिर बही अनवरत, उनके ही जंजालों
में/नदी घिर गई फिर से देखो, उलझे चाँद सवालों में/बैठ नदी के तट पर हमने, नदी
वास्ते पीर बुनी/घुले नदी में रोज़ रसायन, चीख़ नदी की नहीं सुनी/ढूँढ़ रही है फ़िर भी
जीवन, नदिया शातिर चालों में/नदी घिर गई फ़िर से देखो, उलझे चंद सवालों में/देह नदी
की चीर रहे हैं, धन के लोभी रोज़ाना/इनको दिखती अपनी जेबें, दुख नदी का कब
जाना?/ज्यों-ज्यों लालच बढ़ा खनन का, नदिया घिरी दलालों में/नदी घिर गई फ़िर से
देखो, उलझे चंद सवालों में...’, कवि जानता है-‘फन फैलाए लेती तृष्णा, खनन माफ़िया
द्वार/ऐसे में नदिया का मुश्किल होना है उद्धार...’ क्योंकि उसे प्रशासन से भी आशा
की ज्योति नहीं दिखती-‘फ़िर पानी पर खींच लकीरें नक़्शे पास किए/पीर नहीं समझी नदिया
की सबने नोट पिए/जिन पर सत्ता की चाबी, वो बैठे मिले तटस्थ/दर्द बढ़ा तो नदी हो गई,
कुंठाओं से ग्रस्त..’।
हमारे देश में आज पीने के पानी की समस्या हो रही
है। जिस देश में कभी दूध और पावन जल की नदियाँ बहती थीं उसमें आज पानी बीस रुपए
लीटर बिक रहा है। जल संरक्षण पर जनमेजय जी की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘जल तो
जल है, जल ही कल है, जल बिन होगी घोर तबाही/जल को व्यर्थ बहाकर हमने-की है भारी
लापरवाही..है सबकी अब ज़िम्मेदारी, बूँद-बूँद अब नीर बचाएं/बारिश का जल करें
सुरक्षित, व्यर्थ न उसको कभी बहाएँ...’।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ गीतकार डॉ. ब्रजेश मिश्र के मतानुसार-‘सभी
गीत लय, प्रवाह व् गेयता से युक्त हैं एवं छंद विधान के अनुशासन में पूर्णतया
निबद्ध हैं। साथ ही ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अवधारणा से अनुप्रमाणित होंने के
कारण इनमें जगत्-कल्याण की उदात्त भावना भी निहित है, जो इनको श्रेष्ठ गीतों की
श्रेणी में स्थापित करती है’।
अंत में, नदी की तमाम समस्याओं से जुड़े ज्वलंत
प्रश्नों को हृदय-स्पर्शी ढंग से, अपने गीतों के माध्यम से उठाते हुए जनमानस तक
पहुँचाने का एक प्रशंसनीय और अभिनंदनीय कार्य करने हेतु डॉ. अजय जनमेजय जी को
हमारा हृदय से साधुवाद और अनन्त शुभकामनाएँ। जनमेजय की इन पंक्तियों के साथ इसी
कामना के साथ आपसे विदा लेते हैं-
‘नीर हर पल बहे, नीर कल-कल बहे
‘नीर हर पल बहे, नीर कल-कल बहे
गुनगुनाती नदी
खिलखिलाती चले
प्यार को जो सभी पर लुटाती चले
कर्म के मर्म को बस सिखाती चले
है जगत् में नदी की तभी मान्यता...’।
कर्म के मर्म को बस सिखाती चले
है जगत् में नदी की तभी मान्यता...’।
इत्यलम्।।
डा. सारिका मुकेश
डा. सारिका मुकेश
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सारिका मुकेश |
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पुस्तक- नदी के जलते हुए सवाल (नदी-गीत-संग्रह)
पुस्तक- नदी के जलते हुए सवाल (नदी-गीत-संग्रह)
लेखक : डा.
अजय जनमेजय
प्रकाशक : अविचल
प्रकाशन, बिजनौर (उ.प्र.)
मूल्य: 200/- रुपये
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