इतिहास गवाह है कि समय-समय पर कवि, लेखक, चिन्तक, दार्शनिक आदि
अपने विचारों/संदेशों के माध्यम से समाज या देश को सही दिशा दिखाने हेतु अपनी अहम्
भूमिका निभाते रहे हैं। आज वैश्वीकरण और भौगोलीकरण के इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले
युग में किसी व्यक्ति को हमारे नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य को बचाने के लिए
संघर्षरत देख, ज्येष्ठ माह की भरी तपती दुपहरी में शीतल हवा के झोंके-सा सुखद अहसास
होता है। आज हम आपको ऐसे ही कवि डा. सत्य प्रकाश मिश्र 'सजल नयन' जी के गीत संग्रह ‘विधाता
का पश्चाताप’ से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। आज के इस माहौल में उनके तेवर बिल्कुल
भिन्न हैं और उनकी लेखनी प्रेमगीत के स्थान पर ओजपूर्ण गीतों को उगल रही है।
डा. सत्य प्रकाश मिश्र जी इस पुस्तक का आरंभ माँ सरस्वती की वन्दना से करते हुए कहते हैं-‘सजल नयन हो माँ विनती करूँ मैं आज/देश से अज्ञान के तमस को भगाइए/भारत माता का प्यारा चित्र जो विकृत हुआ/ज्ञान के आलोक से माँ चित्र फिर सजाइए’। माँ सरस्वती की वंदना की इन पंक्तियों में भारतमाता के प्रति उनकी चिंता और उसके प्रति प्रेम से ही इस गीत-संग्रह की विषयवस्तु का अंदाज़ा पाठक को सहज ही लग जाता है। फिर अपनी बात की भूमिका बनाते हुए वो अपने अगले गीत में गणतंत्र के मुख से कहलवाते हैं-‘दशा हमारी सोचनीय है कुछ कहते शरमाता हूँ/नहीं अपरिचित तुमसे कोई मैं गणतंत्र कहाता हूँ...’। हम सभी जानते हैं कि आज आज़ादी के बहात्तर वर्ष पूरे होने के बाद भी हमारे देश में एक बड़ा वर्ग मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है, जिन्हें मुहैया कराने के नाम पर आज भी नेतागण चुनावी नारा देते हैं परंतु सरकार बन जाने के बाद, फिर से वही ढाक के तीन पात। हमारे देश में चंद लोग तो इतने अमीर हैं कि वो देश की पूरी अर्थव्यवस्था पर अपना हक़ जमाए रखते हैं और दूसरी तरफ़ करोड़ो लोग दो वक्त की रोटी को जुटाने में ही अपनी ज़िन्दगी निकाल देते हैं। सच में यह विषमताओं का देश है। इस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार हमारे नेता हैं या फिर हम और आप, जो उन्हें चुनकर भेजते हैं और फिर मूक रहकर पांच वर्ष तक विधानसभा/लोकसभा में उनकी फ्रीस्टाइल कुश्ती और रामलीला/रासलीला देखते रहते हैं। देश के इसी मौज़ूदा परिवेश से वो चिंतित हैं और सीधे-सीधे कह उठते हैं-‘इस देश को तो लूट लिया देश के नेताओं ने/देश के आकाओं ने भाग्य विधाताओं ने।
भारत तमाम विभिन्न भाषाओं का देश है। देश की
तमाम भाषाएँ आपस में सहोदरी हैं, हमने कभी किसी भाषा को गैर नहीं
समझा परन्तु यह सच है कि समय-समय पर नेता लोग अपनी तुच्छ तुष्टिकरण के लिए इन
विभिन्नताओं का सहारा आपस में फूट डालने के लिए लेते रहे हैं और एक अजीब-सा
घुटनभरा माहौल पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं। इसी हकीकत को बयाँ करते हुए मिश्र
जी लिखते हैं-‘सब भाषाएँ मेरी अपनी सबसे प्यार समान मुझे/पर हिंदी सिरमौर हमारी इसका
ही अभिमान मुझे/लेकिन ये नेता ही हिंदी को न कभी स्वीकार करें/स्वयं विरुद्ध वचन
कह करके जनता के भी कान भरें’। तमाम राजनीति के कारण ही आजादी के बहात्तर वर्ष बीत
जाने के बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नहीं मिल पाया है और यह देश परायी
भाषा की बैसाखियों पर चलने को विवश है। इसी दर्द के साथ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए
वो अपने गीत ‘राष्ट्रीय भाषा’ में इस देश की जनता और हुक्मरानों को यह सत्य
स्पष्ट रूप से बता देना चाहते हैं-‘हिंदी भाषा प्राण हमारी हम उससे ही जीवित हैं/वही
हमारा स्वाभिमान है हम उसी से गर्वित हैं/हिन्दी ही हो राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही हो
राष्ट्रीय मुख/हिंदी में यदि कार्य करें तो ऐसा और कहाँ है सुख’।
आज नदियों से अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध
वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर बस्तियाँ और शहर बसाना हो या
बालिका-भ्रूण हत्याएं;
सब कुछ असंतुलन ही तो पैदा कर रहा है, जिसके परिणाम हमारी आने वाली
पीढ़ियाँ भोगने के लिए अभिशप्त होंगी। ऐसे परिवेश में कवि का मन भी इससे कैसे अछूता
रह सकता है? यहाँ पर मिश्र जी की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य
हैं-‘मातृ-उदर में अपनी पुत्री की ही जब हिंसा करते/सोचा नहीं कि तुम ऐसा कर अपनी
ही हत्या करते/धर्म-दया-करुणा-ममता से विधि नए इसे नावाज़ा है/नारी वंश बढाएं हम सब
समय का यही तकाज़ा है...’ और ‘जीने का हक़ सभी को पशु-पक्षी हों या मानव/बेटी ही तो
किसी की बनती बहू है तेरी/लाया है तू बहू जो बेटी उसे बना ले/पौधों को रोपना ही है
राष्ट्र-धर्म बेहतर’।
‘गंगा
प्रदूषण’
गीत
गंगा की व्यथा को बड़ी मार्मिकता से चित्रित करता है, उसकी ये पंक्तियाँ
यहाँ पर दृष्टव्य हैं-‘अति दीन भाव से गंगा अब हमें निहार रही है/कर दो उद्धार
हमारा माँ स्वयं पुकार रही है/उद्धार किया है जिसने हम सबका अपने जल से/उद्धार करें
अब उसका धरती के गंदे मल से/आओ हम सब मिलकर के कर दें अब दूर प्रदूषण/जिससे गंगा
माँ फिर हो इस धरती का आभूषण’।
देश में भ्रष्टाचार और अराजकता के अजीब-से माहौल
में न्यायपालिका के फैसलों पर भी लोग कभी-कभी खिन्न हो उठते हैं। यह सब आसानी से
अब एक दिन में बदलने वाला नहीं है। जेसिका लाल, निर्भया जैसी न जाने कितनी ही
अबलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है। मिश्र जी के इस संग्रह के गीत ‘रे
मनु की सन्तान’
की
ये पंक्तियाँ हम यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे-‘शासन भी है लुंज-पुंज अरु शिथिल नियम
कानून बने/दण्डित होने का भय जिससे रंचमात्र भी नहीं रहे/जो भी हैं कानून सही से
पालन कभी न होता है/विविध दाँव-पेचों से दोषी कभी छूट ही जाता है/इसीलिए अपराध
यहाँ पर नितप्रति बढ़ते जाते हैं/हम केवल लफ्फाजी की बातें करते रह जाते हैं’।
हमारे देश की हिफाज़त करने में हमारे वीर सैनिक
दिन-रात सीमा पर आँखे गड़ाए रहते हैं। उन वीर जवानों के शौर्य से ही हमारे देश का
मस्तक गर्व से ऊँचा रहता है। मातृभूमि के लिए दिए गए उनके इस बलिदान के समकक्ष सच
में अन्य कुछ नहीं हो सकता। ‘सबसे बड़ी
तो सेवा निज मातृभूमि की है/तू मातृभूमि के हित बलिदान भाव भर ले’। अपने
कई गीतों में मिश्र जी ने वीर शहीदों को स्मृत किया है। उन शहीदों को नमन करते हुए
मिश्र जी एक गीत में कहते हैं-‘हे भारत के अमर शहीदों! आज तुम्हारा अभिनंदन/हाथ
हमारे और नहीं कुछ केवल भावों का चन्दन/त्याग तुम्हारा जितना ऊँचा अम्बर कभी न हो
सकता/मातृभूमि हित त्याग तुम्हारे जैसा कहीं न हो सकता’।
आज जब हम पूरी दुनिया से इंटरनेट के माध्यम से
जुड़े हैं,
दूसरी तरफ ऐसे में हम अपने
परिवार से, स्वजनों से कहीं दूर भी होते जा रहे हैं। आज
हमारे आपसी सम्बन्धों में कहीं कमी आई है और हम धीरे-धीरे अपने पुराने मूल्यों और
बुजुर्गों को आउट ऑफ़ सिलेबस मानकर उनकी उपेक्षा करने लगे हैं। आज हर कोई व्यस्तता
की झूठी दुहाई देता नज़र आता है। आए दिन ऐसे किस्से अखबारों में भी छपते रहते हैं।
भारतीय संस्कृति की पूजा करने वाले व्यक्ति के लिए इससे दुखदायी और क्या होगा कि
उसकी आँखों के सामने इस अमूल्य संस्कृति का नाश होता रहे, ऐसे
में उसका चुप बैठ पाना मुश्किल ही नहीं असंभव है। मिश्र जी के इस गीत-संग्रह में
अतीत की जाँच-पड़ताल संवेदनाओं के धरातल पर की गई है। इसीलिए वो लिखते हैं-‘ढूँढ़ता
ही रहा ज़िंदगी न मिली’, ‘चेहरों की अब हँसी उड़ गयी स्वाभाविक मुस्कान नहीं/जीवन अब
तो बोझ बन गया जीने में उत्साह नहीं’, ‘जीवन का पथ शूल भरा कैसे आगे बढ़ पाऊँ मैं/जब
चलना हो दुश्वार तो कैसे गीत ख़ुशी के गाऊँ मैं’। फिर भी वो जीवन से निराश नहीं हैं,
वो गीतों की महत्ता से अच्छी तरह परिचित हैं और उत्साह से भरकर सभी
को हँसकर जीने का संदेश देते हुए कहते हैं-‘गीत गा लो कि गुनगुनाने से/लगते जीवन
के पल सुहाने से’ और ‘मुस्कुराते चलो मुस्कुराते चलो/अपने जीवन की बगिया खिलाते
चलो’।
इसी तरह मिश्र जी ने अपने गीत ‘सभी
को गले से लगाया करेंगे’ में एक
सुखद जीवन का सन्देश देने का सफल प्रयास किया है और वहीं अपने गीत ‘हे
भगवन्!’
में
भगवान से जीवन की तमाम विषमताओं की शिकायत करते हुए कहते हैं, ‘हे भगवन्! हमको इतना सीधा इंसान बनाया क्यों?
इस रंगभरी दुनिया में नित मरने को हमें पठाया क्यों? अपनी मातृभूमि को स्मृत करते हुए अपने गीत ‘हमारा प्यारा उत्तराखण्ड’ में
वो न केवल वहाँ जन्म लेने पर हर्षित/गर्वित होते हैं बल्कि वहाँ की ऐतिहासिक
धार्मिक/सांस्कृतिक विरासत की संपूर्ण गाथा कहकर गीत को ऐतिहासिक और पौराणिक
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक बना देते हैं। इसी तरह अपने गीत ‘गुरु-शिष्य सम्बंध’ के माध्यम से गुरु की वृहद् महिमा का वर्णन करते हुए अनेकों पौराणिक
गुरुओं को और उनके महान शिष्यों को स्मृत किया है। एकलव्य को स्मृत करते हुए वो
लिखते हैं-‘द्रोणाचार्य गुरु ने यद्यपि
शिष्य न स्वीकारा उसको/परमभक्त एकलव्य ने फिर भी गुरुवर मान लिया उनको/अपनी गुरुभक्ति
से उसने वह करके दिखलाया है/आचार्य द्रोण का प्रिय अर्जुन जो काम नहीं कर पाया है’।
मित्रों, कहने को तो अभी
बहुत कुछ है पर कहीं न कहीं और कभी न कभी तो विश्राम लेना ही है। हमें यकीन है कि
श्री सत्यप्रकाश जी का यह गीत-संग्रह पाठकों के लिए न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय
सिद्ध होगा और हिंदी साहित्य जगत में इसका भरपूर स्वागत होगा। वर्तमान की तमाम
समस्याओं से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों को हृदय-स्पर्शी ढंग से, अपने
गीतों के माध्यम से उठाते हुए जनमानस तक पहुँचाने का एक प्रशंसनीय और अभिनंदनीय
कार्य करने हेतु डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र जी को हृदय से साधुवाद और अनन्त शुभकामनाएँ
देते हुए हम उनकी इन पंक्तियों के साथ आपसे विदा लेते हैं-‘मानवता पर जो कलंक हो
कभी न ऐसे काम करें/मानवता सबसे बढ़कर है उसका नित सम्मान करें/’सजल नयन’ हम विनती करते भारत माँ की सन्तानों/सब नारी
तेरी माँ बहिनें उनकी गरिमा पहिचानों’।
इत्यलम्।।
सारिका मुकेश
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पुस्तक- विधाता का पश्चाताप (गीत-संग्रह)
पुस्तक- विधाता का पश्चाताप (गीत-संग्रह)
लेखक- डा. सत्य
प्रकाश मिश्र ‘सजल नयन’
प्रकाशक- अयन प्रकाशन,
नई दिल्ली-110030
मूल्य- 220/- रुपये
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