Saturday, 22 February 2020

विषमताओं की धूप और नैतिकता की छाँव से गुजरने का अनुभव कराता गीत संग्रह




इतिहास गवाह है कि समय-समय पर कवि, लेखक, चिन्तक, दार्शनिक आदि अपने विचारों/संदेशों के माध्यम से समाज या देश को सही दिशा दिखाने हेतु अपनी अहम् भूमिका निभाते रहे हैं। आज वैश्वीकरण और भौगोलीकरण के इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले युग में किसी व्यक्ति को हमारे नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य को बचाने के लिए संघर्षरत देख, ज्येष्ठ माह की भरी तपती दुपहरी में शीतल हवा के झोंके-सा सुखद अहसास होता है। आज हम आपको ऐसे ही कवि डा. सत्य प्रकाश मिश्र 'सजल नयन' जी के गीत संग्रह ‘विधाता का पश्चाताप’ से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। आज के इस माहौल में उनके तेवर बिल्कुल भिन्न हैं और उनकी लेखनी प्रेमगीत के स्थान पर ओजपूर्ण गीतों को उगल रही है।  





डा. सत्य प्रकाश मिश्र 'सजल नयन' 















डा. सत्य प्रकाश मिश्र जी इस पुस्तक का आरंभ माँ सरस्वती की वन्दना से करते हुए कहते हैं-‘सजल नयन हो माँ विनती करूँ मैं आज/देश से अज्ञान के तमस को भगाइए/भारत माता का प्यारा चित्र जो विकृत हुआ/ज्ञान के आलोक से माँ चित्र फिर सजाइए’। माँ सरस्वती की वंदना की इन पंक्तियों में भारतमाता के प्रति उनकी चिंता और उसके प्रति प्रेम से ही इस गीत-संग्रह की विषयवस्तु का अंदाज़ा पाठक को सहज ही लग जाता है। फिर अपनी बात की भूमिका बनाते हुए वो अपने अगले गीत में गणतंत्र के मुख से कहलवाते हैं-‘दशा हमारी सोचनीय है कुछ कहते शरमाता हूँ/नहीं अपरिचित तुमसे कोई मैं गणतंत्र कहाता हूँ...’। हम सभी जानते हैं कि आज आज़ादी के बहात्तर वर्ष पूरे होने के बाद भी हमारे देश में एक बड़ा वर्ग मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है, जिन्हें मुहैया कराने के नाम पर आज भी नेतागण चुनावी नारा देते हैं परंतु सरकार बन जाने के बाद, फिर से वही ढाक के तीन पात। हमारे देश में चंद लोग तो इतने अमीर हैं कि वो देश की पूरी अर्थव्यवस्था पर अपना हक़ जमाए रखते हैं और दूसरी तरफ़ करोड़ो लोग दो वक्त की रोटी को जुटाने में ही अपनी ज़िन्दगी निकाल देते हैं। सच में यह विषमताओं का देश है। इस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार हमारे नेता हैं या फिर हम और आप, जो उन्हें चुनकर भेजते हैं और फिर मूक रहकर पांच वर्ष तक विधानसभा/लोकसभा में उनकी फ्रीस्टाइल कुश्ती और रामलीला/रासलीला देखते रहते हैं। देश के इसी मौज़ूदा परिवेश से वो चिंतित हैं और सीधे-सीधे कह उठते हैं-‘इस देश को तो लूट लिया देश के नेताओं ने/देश के आकाओं ने भाग्य विधाताओं ने।
भारत तमाम विभिन्न भाषाओं का देश है। देश की तमाम भाषाएँ आपस में सहोदरी हैं, हमने कभी किसी भाषा को गैर नहीं समझा परन्तु यह सच है कि समय-समय पर नेता लोग अपनी तुच्छ तुष्टिकरण के लिए इन विभिन्नताओं का सहारा आपस में फूट डालने के लिए लेते रहे हैं और एक अजीब-सा घुटनभरा माहौल पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं। इसी हकीकत को बयाँ करते हुए मिश्र जी लिखते हैं-‘सब भाषाएँ मेरी अपनी सबसे प्यार समान मुझे/पर हिंदी सिरमौर हमारी इसका ही अभिमान मुझे/लेकिन ये नेता ही हिंदी को न कभी स्वीकार करें/स्वयं विरुद्ध वचन कह करके जनता के भी कान भरें’। तमाम राजनीति के कारण ही आजादी के बहात्तर वर्ष बीत जाने के बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नहीं मिल पाया है और यह देश परायी भाषा की बैसाखियों पर चलने को विवश है। इसी दर्द के साथ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो अपने गीत राष्ट्रीय भाषामें इस देश की जनता और हुक्मरानों को यह सत्य स्पष्ट रूप से बता देना चाहते हैं-‘हिंदी भाषा प्राण हमारी हम उससे ही जीवित हैं/वही हमारा स्वाभिमान है हम उसी से गर्वित हैं/हिन्दी ही हो राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही हो राष्ट्रीय मुख/हिंदी में यदि कार्य करें तो ऐसा और कहाँ है सुख’।
आज नदियों से अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर बस्तियाँ और शहर बसाना हो या बालिका-भ्रूण हत्याएं; सब कुछ असंतुलन ही तो पैदा कर रहा है, जिसके परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भोगने के लिए अभिशप्त होंगी। ऐसे परिवेश में कवि का मन भी इससे कैसे अछूता रह सकता है? यहाँ पर मिश्र जी की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘मातृ-उदर में अपनी पुत्री की ही जब हिंसा करते/सोचा नहीं कि तुम ऐसा कर अपनी ही हत्या करते/धर्म-दया-करुणा-ममता से विधि नए इसे नावाज़ा है/नारी वंश बढाएं हम सब समय का यही तकाज़ा है...’ और ‘जीने का हक़ सभी को पशु-पक्षी हों या मानव/बेटी ही तो किसी की बनती बहू है तेरी/लाया है तू बहू जो बेटी उसे बना ले/पौधों को रोपना ही है राष्ट्र-धर्म बेहतर’।
गंगा प्रदूषणगीत गंगा की व्यथा को बड़ी मार्मिकता से चित्रित करता है, उसकी ये पंक्तियाँ यहाँ पर दृष्टव्य हैं-‘अति दीन भाव से गंगा अब हमें निहार रही है/कर दो उद्धार हमारा माँ स्वयं पुकार रही है/उद्धार किया है जिसने हम सबका अपने जल से/उद्धार करें अब उसका धरती के गंदे मल से/आओ हम सब मिलकर के कर दें अब दूर प्रदूषण/जिससे गंगा माँ फिर हो इस धरती का आभूषण’।
देश में भ्रष्टाचार और अराजकता के अजीब-से माहौल में न्यायपालिका के फैसलों पर भी लोग कभी-कभी खिन्न हो उठते हैं। यह सब आसानी से अब एक दिन में बदलने वाला नहीं है। जेसिका लाल, निर्भया जैसी न जाने कितनी ही अबलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है। मिश्र जी के इस संग्रह के गीत रे मनु की सन्तानकी ये पंक्तियाँ हम यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे-‘शासन भी है लुंज-पुंज अरु शिथिल नियम कानून बने/दण्डित होने का भय जिससे रंचमात्र भी नहीं रहे/जो भी हैं कानून सही से पालन कभी न होता है/विविध दाँव-पेचों से दोषी कभी छूट ही जाता है/इसीलिए अपराध यहाँ पर नितप्रति बढ़ते जाते हैं/हम केवल लफ्फाजी की बातें करते रह जाते हैं’।
हमारे देश की हिफाज़त करने में हमारे वीर सैनिक दिन-रात सीमा पर आँखे गड़ाए रहते हैं। उन वीर जवानों के शौर्य से ही हमारे देश का मस्तक गर्व से ऊँचा रहता है। मातृभूमि के लिए दिए गए उनके इस बलिदान के समकक्ष सच में अन्य कुछ नहीं हो सकता। सबसे बड़ी तो सेवा निज मातृभूमि की है/तू मातृभूमि के हित बलिदान भाव भर ले। अपने कई गीतों में मिश्र जी ने वीर शहीदों को स्मृत किया है। उन शहीदों को नमन करते हुए मिश्र जी एक गीत में कहते हैं-‘हे भारत के अमर शहीदों! आज तुम्हारा अभिनंदन/हाथ हमारे और नहीं कुछ केवल भावों का चन्दन/त्याग तुम्हारा जितना ऊँचा अम्बर कभी न हो सकता/मातृभूमि हित त्याग तुम्हारे जैसा कहीं न हो सकता’।
आज जब हम पूरी दुनिया से इंटरनेट के माध्यम से जुड़े हैं, दूसरी तरफ ऐसे में  हम अपने परिवार से, स्वजनों से कहीं दूर भी होते जा रहे हैं। आज हमारे आपसी सम्बन्धों में कहीं कमी आई है और हम धीरे-धीरे अपने पुराने मूल्यों और बुजुर्गों को आउट ऑफ़ सिलेबस मानकर उनकी उपेक्षा करने लगे हैं। आज हर कोई व्यस्तता की झूठी दुहाई देता नज़र आता है। आए दिन ऐसे किस्से अखबारों में भी छपते रहते हैं। भारतीय संस्कृति की पूजा करने वाले व्यक्ति के लिए इससे दुखदायी और क्या होगा कि उसकी आँखों के सामने इस अमूल्य संस्कृति का नाश होता रहे, ऐसे में उसका चुप बैठ पाना मुश्किल ही नहीं असंभव है। मिश्र जी के इस गीत-संग्रह में अतीत की जाँच-पड़ताल संवेदनाओं के धरातल पर की गई है। इसीलिए वो लिखते हैं-‘ढूँढ़ता ही रहा ज़िंदगी न मिली’, ‘चेहरों की अब हँसी उड़ गयी स्वाभाविक मुस्कान नहीं/जीवन अब तो बोझ बन गया जीने में उत्साह नहीं’, ‘जीवन का पथ शूल भरा कैसे आगे बढ़ पाऊँ मैं/जब चलना हो दुश्वार तो कैसे गीत ख़ुशी के गाऊँ मैं’। फिर भी वो जीवन से निराश नहीं हैं, वो गीतों की महत्ता से अच्छी तरह परिचित हैं और उत्साह से भरकर सभी को हँसकर जीने का संदेश देते हुए कहते हैं-‘गीत गा लो कि गुनगुनाने से/लगते जीवन के पल सुहाने से’ और ‘मुस्कुराते चलो मुस्कुराते चलो/अपने जीवन की बगिया खिलाते चलो’।
इसी तरह मिश्र जी ने अपने गीत सभी को गले से लगाया करेंगेमें एक सुखद जीवन का सन्देश देने का सफल प्रयास किया है और वहीं अपने गीत हे भगवन्!में भगवान से जीवन की तमाम विषमताओं की शिकायत करते हुए कहते हैं, हे भगवन्! हमको इतना सीधा इंसान बनाया क्यों? इस रंगभरी दुनिया में नित मरने को हमें पठाया क्यों? अपनी मातृभूमि को स्मृत करते हुए अपने गीत हमारा प्यारा उत्तराखण्डमें वो न केवल वहाँ जन्म लेने पर हर्षित/गर्वित होते हैं बल्कि वहाँ की ऐतिहासिक धार्मिक/सांस्कृतिक विरासत की संपूर्ण गाथा कहकर गीत को ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक बना देते हैं। इसी तरह अपने गीत गुरु-शिष्य सम्बंधके माध्यम से गुरु की वृहद् महिमा का वर्णन करते हुए अनेकों पौराणिक गुरुओं को और उनके महान शिष्यों को स्मृत किया है। एकलव्य को स्मृत करते हुए वो लिखते हैं-‘द्रोणाचार्य गुरु  ने यद्यपि शिष्य न स्वीकारा उसको/परमभक्त एकलव्य ने फिर भी गुरुवर मान लिया उनको/अपनी गुरुभक्ति से उसने वह करके दिखलाया है/आचार्य द्रोण का प्रिय अर्जुन जो काम नहीं कर पाया है’।
मित्रों, कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहीं न कहीं और कभी न कभी तो विश्राम लेना ही है। हमें यकीन है कि श्री सत्यप्रकाश जी का यह गीत-संग्रह पाठकों के लिए न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगा और हिंदी साहित्य जगत में इसका भरपूर स्वागत होगा। वर्तमान की तमाम समस्याओं से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों को हृदय-स्पर्शी ढंग से, अपने गीतों के माध्यम से उठाते हुए जनमानस तक पहुँचाने का एक प्रशंसनीय और अभिनंदनीय कार्य करने हेतु डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र जी को हृदय से साधुवाद और अनन्त शुभकामनाएँ देते हुए हम उनकी इन पंक्तियों के साथ आपसे विदा लेते हैं-‘मानवता पर जो कलंक हो कभी न ऐसे काम करें/मानवता सबसे बढ़कर है उसका नित सम्मान करें/’सजल नयनहम विनती करते भारत माँ की सन्तानों/सब नारी तेरी माँ बहिनें उनकी गरिमा पहिचानों’।

इत्यलम्।।

सारिका मुकेश

सारिका मुकेश

      
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पुस्तक- विधाता का पश्चाताप (गीत-संग्रह)
लेखक-  डा. सत्य प्रकाश मिश्र ‘सजल नयन’
प्रकाशक- अयन प्रकाशन, नई दिल्ली-110030
मूल्य- 220/- रुपये
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Thursday, 20 February 2020

सदी के बहरे मौसम में, अक्षरों में खिले, साँसों में फूलों-से महकते गीत







आज हम आपको एक सहज गीतकार श्री जयकृष्ण राय तुषार जी के गीतों से रू-ब-रू कराने के लिए उपस्थित हुए हैं। बहुत ही भाव-प्रवण और सरल सहज भाषा में रचे, मन को मोहित कर लेने वाले ये गीत सच में अद्भुत और अप्रतिम हैं। गीत-ऋषि नीरज जी आशीर्वचन के रूप में लिखते हैं-“अधिकांश नवगीत एक ही पैटर्न पर लिखे जा रहे हैं किन्तु तुषार जी का अपना अलग रास्ता है। उनके नवगीतों में मौलिकता है जो उन्हें अन्य नवगीतकारों से बिल्कुल अलग करती है। इनके गीतों की जो सुगन्ध है उसमें आत्मभोगी अनुभूति है, वह हर समुदाय को प्रभावित करती है। मुझे तो उन्होंने अपने गीतों से बहुत प्रभावित किया है’। सुप्रसिद्ध गीतकार माहेश्वर तिवारी जी के शब्दों में-‘तुषार पट्टाबद्ध नहीं, स्वतंत्र चेतना के जनवादी कवि हैं। इसीलिए वे मन की कम जन की बात करते हैं। ये गीत आम जन के संघर्षशील और प्रतिरोध के सहपाठी जैसे हैं’।


श्री जयकृष्ण राय तुषार 















चलिए, अब हम आपको बिना किसी अतिरिक्त भूमिका के सदी को सुनते/गुनते/गाते इस गीतकार के उपवन में लेकर चलते हैं। आज के माहौल में गीतकार इस दुविधा में है-‘किसको मंगल/गीत सुनाएं/मौसम बहरा है/असमंजस की छत के नीचे/रिश्ते-नाते हैं/घुटन-बेबसी-ओढ़े हम सब/हँसते गाते हैं/पल-पल/अपने ऊपर बस/तिथियों का पहरा है’। पुराने दिनों को याद कर एक उजाला भरती गीतकार की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘घर-गिरस्ती में/हुई धूमिल/मौसमों के रंग वाली भाभियाँ/जब कभी हम/बंद तालों से हुए/यही होतीं थी हमारी चाभियाँ/चलो फिर/रूठी हुई इन/भाभियों को हम मनाएं/चलो फ़िर/गुलमोहरों के होंठ पर/ये दिन सजाएं/आधुनिक/सन्दर्भ वाले/कुछ पुराने गीत गाएं’।
स्मृति शेष पूज्य पिता जी को स्मृत करते हुए उनका ये एक शेर देखिए-‘ये सूखी घास अपने लॉन की काटो न तुम भाई/पिता की याद आयेगी तो ये फ़िर से नमीं देगी’। इसी के साथ मन को भीतर तक स्पर्श करती गीत की ये पंक्तियाँ देखिए-‘अब नहीं/आराम कुर्सी/बस कथाओं में रहोगे/प्यार से/छूकर हमारा मन/समीरन में बहोगे/फूल की/इन ख़ुशबुओं में/लॉन में रहना/यज्ञ की आहुति/कथा के पान में रहना/पिता!/घर की खिड़कियों/दालान में रहना’। माँ को स्मृत करते हुए उनका ये एक शेर देखिए-‘नये घर में पुराने एक दो आले तो रहने दो/दिया बनकर वहीं से माँ हमेशा रौशनी देगी’। चुपचाप आँसुओं के सागर पी जीवन भर दुःख के पहाड़ को ढोती, मन को फूलों-सा महकाती, आँखों में बच्चों की खातिर स्वप्न संजोती माँ को बार-बार स्मृत कर वो लिखते हैं-‘हम तो नहीं भागीरथ जैसे, कैसे सिर से कर्ज़ उतारें/तुम तो खुद की गंगाजल हो, तुमको हम किस जल से तारें/तुम पर फूल चढ़ाएं कैसे, तुम तो स्वयं कमल होती हो/माँ तुम गंगाजल होती हो/माँ तुम गंगाजल होती हो’।
बेटी के महत्त्व पर इस शेर की चाँदनी देखिए-‘फ़रक बेटे औ बेटी में है बस महसूस करने का/वो तुमको रौशनी देगा ये तुमको चाँदनी देगी’। अपनी बात को आगे बढ़ाते वो एक गीत में कहते हैं-‘ज़िन्दगी में पर्व ये/त्यौहार लाती हैं/सुर्ख रंगोली बनाकर/गीत गाती हैं/यज्ञ की वेदी यही/पूजा-हवन सी हैं/ये कभी थकती नहीं/नन्हें हिरन सी हैं/बेटियाँ तो भोर की/पहली किरन सी हैं’।
माँ गंगा के प्रति एक गीत में वो कहते हैं-‘वर्षों का इतिहास समेटे/कथा कह रही/आँसू पीते मलबा ढोते/मगर बह रही/टुकड़ों में बँट जाती है/यह हर कटान पर/थककर बैठी हुई/उम्र की इस ढलान पर/कभी बहा करती थी/यह गंगा उफान पर’। तुषार जी की यही गुज़ारिश है-‘ये माँ से भी अधिक उजली इसे मलबा न होने दो/ये गंगा है यही दुनिया को फ़िर से ज़िन्दगी देगी’।
आज के परिवेश में वो भारतमाता की तस्वीर खींचने में दुविधा में है-‘लूटपाट/अपहरण/फ़िरौती, हिंसा है/नये दौर में/ये ही/सत्य अहिंसा है/...राजमार्ग पर/टोल टैक्स के/पहरे हैं/लालकिले के/भाषण/बहुत सुनहरे हैं/काशी/मगहर चुप है/किसे कबीर लिखूँ/भारत माता/तेरी/क्या तस्वीर लिखूँ?’ वो अच्छी तरह से जानते हैं-‘सिंहासन पर/मौन मुखौटे/कठपुतली दरबारी/राजकोष से/अपने घर की/भरें तिजौरी सारी/लौटे हैं/बेउर, तिहाड़ से/फ़िर भी चौड़ा सीना...एक टाट पर/मिलकर बैठे/काशी और मदीना’...’सोयी है/ये राजव्यवस्था/मुँह पर पानी डालो/खून हमारा/बर्फ़ हो रहा/कोई इसे उबालो’...अजीब-सी कशमकश है लेकिन उन्हें एक दिया जलने भर की प्रतीक्षा है-‘जिनका है/ईमान हुए वो/बन्दी कारागारों में/भ्रष्टाचारी पूजनीय हैं/राजा के दरबारों में...एक दिया भी/अगर जला तो/भय होगा अंधियारों में’।
आज के आतंकी माहौल में उनके गीतों की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘बम दिल्ली/न्यूयार्क में फटे या/लाहौर, कराची/आँसू सबके/एक तरह हैं/लंदन हो या रांची'...एक अन्य गीत में-‘फूल सरीखे बच्चे/अपनी कालोनी में/अब डरते हैं/गुर्दा, धमनी/जिगर, आँख का/अपराधी सौदा करते हैं/...महिलाएं/अब कहाँ सुरक्षित/घर में हो या दफ़्तर में/...हर घटना पर/गिर जाता है/तंत्र सुरक्षा का धड़ाम से/...आज़ादी है/मगर व्यवस्था की/निगाह में हम गुलाम से’...वो पूछना चाहते हैं-‘सत्य-अहिंसा के/सीने पर वार सहेंगे/आखिर कब तक?/हत्यारों का/इस धरती पर भर सहेंगे/आखिर कब तक?’
आदरणीय निराला जी का स्थान हिन्दी साहित्य में अजर-अमर है। नए साल की नई सुबह में निकलने वाले दिनमान से तुषार जी कहते हैं-‘संगम पर/आने से पहले/मेलजोल की धारा पढ़ना/अनगढ़/पत्थर, छेनी लेकर/अकबर, पन्त, निराला गढ़ना/हर महफ़िल से/मधुशाला की/लिए सुरीली तान निकलना/अगर राह में/मिले बनारस/खाकर मघई पान निकलना...’ और एक अन्य निराला को समर्पित गीत की ये कुछ पंक्तियाँ-‘पर्वतों की/घाटियों से/जब इलाहाबाद आना/ओ सदानीरा/निराला के/सुनहरे गीत गाना/आज भी/वह तोड़ती पत्थर/पसीने में नहाये/सर्वहारा/के लिए अब/कौन ऐसा गीत गाये/एक फक्कड़/कवि हुआ था/पीढ़ियों को तुम बताना...’।
गाँव की बदलती तस्वीर पर वो आहत हो लिखते हैं-‘रोजगार/गारंटी की/यह बातें करता है/पीढ़ी दर/पीढ़ी किसान बस/कर्ज़ा भरता है/काग़ज़ पर/सद्भाव/धरातल पर शैतानी है/जिसका है/सरपंच उसी का/दाना-पानी है/पहले जैसी/नहीं गाँव की/रामकहानी है’।
आज के इस डिजिटल युग में सम्वादों की दुनिया वाट्सएप, ट्विटर, फ़ेसबुक और ईमेल आदि में खोकर रह गई है। पत्र भले ही गुज़रे वक्त की बात हो गए हों पर उनकी अपनी महत्ता रही है। शायद इसीलिए आज भी वो अपने प्रिय से चिट्ठी लिखने को कहते हैं-‘चिट्ठियों में/लिखे अक्षर/मुश्किलों में काम आते हैं/हम कभी/रखते किताबों में इन्हें/कभी सीने से लगाते हैं/चिट्ठियाँ/होतीं/सुनहरे वक़्त का सपना/हो गया/मुश्किल शहर में/डाकिया दिखना/फ़ोन पर/बातें न करना/चिट्ठियां लिखना’। इसी तरह उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध पर्व करवाचौथ को इन पंक्तियों में उन्होंने जीवंत कर दिया है-‘आज करवाचौथ/का दिन है/आज हम तुमको सँवारेंगे/...आज चलनी में/कनखियों देखना/और फ़िर यह व्रत अनोखा तोड़ना/है भले/पूजा तुम्हारी ये/आरती हम भी उतारेंगे/देख लेना/तुम गगन का चाँद/मगर हम तुमको निहारेंगे’। अगर किसी को इलाहाबाद में ही पेरिस, अबूधाबी देखना हो तो ये पंक्तियाँ देखिए-‘शरद में/ठिठुरा हुआ मौसम/लगा होने गुलाबी/हो गया/अपना इलाहाबाद/पेरिस, अबू धाबी’।
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर स्थानाभाव की वजह से इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम श्री जयकृष्ण राय तुषार जी को इस गीत-संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हैं। संग्रह का कवर पेज बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैंजिसके लिए प्रकाशक ‘साहित्य भंडार’ साधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं कि साहित्य जगत में उनके गीत संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। अब हम आपको समीक्षा के इस पुल से उतर, इस गीत संग्रह की नदी में उतरने का निमंत्रण, हिंदी साहित्य के मूर्धन्य कवि श्री नरेश सक्सेना जी की कविता 'पार' की इन पंक्तियों के साथ देते हैं-
‘पुल पार करने से/पुल पार होता है/नदी पार नहीं होती/नदी पार नहीं होती/नदी में धंसे बिना/नदी में धंसे बिना/पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता/नदी में धंसे बिना/पुल पार करने से/पुल पार नहीं होता/सिर्फ़ लोहा-लंगड़ पार होता है/कुछ भी नहीं होता पार/नदी में धँसे बिना/न पुल पार होता है/न नदी पार होती है’।

इत्यलम्।।


सारिका मुकेश

सारिका मुकेश



    
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पुस्तक- सदी को सुन रहा हूँ मैं (गीत संग्रह)
लेखक : जयकृष्ण राय तुषार
प्रकाशक : साहित्य भंडार, इलाहाबाद (उ.प्र.)
मूल्य: 50/-रूपये (पेपरबैक संस्करण)
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Sunday, 9 February 2020

कला को समर्पित रचनाकार डॉ. सारिका मुकेश






एक नये जीवन को जन्म देने में एक नये अस्तित्व के साथ स्त्री का रोआँ-रोआँ तरंगयित और आंदोलित हो जाता है। बच्चे को जन्म देने में वह परमात्मा का माध्यम बन जाती है। तब वह स्रष्टा बन जाती है। उसके शरीर का रोआँ-रोआँउसके शारीर का पोर-पोर एक नयी धुन के साथ थिरकने लगता है। उसके अस्तित्व में एक नया गीतनयी धुन सुनायी देने लगती है। वह परम आनंद में डूब जाती है।
ठीक यही स्थिति है कवि की। जब वह कविता की रचना करता हैतो बहुत से अनचाहे विचारों को छिटककर सुंदर विचारों को एक नयी माला में पिरोता हैएक नयी धुन में ढालता है। जब कविता पूर्ण हो जाती हैतो उसके आनंद की सीमा नहीं होती। किसी कवि के लिए कविता उसकी संतान की तरह है। वह ख़ुशी से झूमता हैनाचता हैगाता है और तमाम कष्टों को सहकर प्राप्त हुई उस कविता को गले लगाकर माँ सरस्वती को धन्यवाद देता है। जब भी किसी की कोई नयी पुस्तक आती हैतो वह आनंद के सागर में ग़ोते लगाने लगता है। 




सारिका मुकेश















मुझे सारिका मुकेश जी के हाइकू-संग्रह शब्दों के कोलाज के दर्शन हुए। पुस्तक को खोलते ही सर्वप्रथम उसके ब्लर्ब पर ये पंक्तियाँ पढ़ने को मिलींसाहित्यकलासंस्कृति और सभ्यता सदा-सदा से एक देश से दूसरे देश का निर्बाध सफ़र करती रही हैं I हिन्दी कविता में नवीन प्रयोगवादी कवियों के द्वारा जापान से जिस नई विधा 'हाइकूका पदार्पण हुआउसका प्रचलन आजकल हिंदी साहित्य में जोरों पर हैमात्र तीन पंक्तियों और केवल 17 (5+7+5=17) वर्णों में पूर्ण रूप से व्यक्त होने वाला और छोटा-सा दिखने वाला हाइकू स्वयं में एक पूर्ण कविता है। इसको पढ़ने में भले ही आपको कुछ सेकंड्स मात्र लगें परंतु इसमें निहित अर्थों की गंभीरता को देखकर आप निश्चित तौर पर इसके प्रशंशक होने को विवश हो जाएँगे। यथा: बिखरे पत्र/उदास तन्हाइयाँ/सूखे गुलाबनारी का शील/गरीब के सपने/काँच की चूड़ीचला सूरज/समेटकर ज्योति/अपने घरविस्तृत नभ/खील जैसे बिखरे/असंख्य तारेइस ब्लर्ब को पढ़ने के उपरांत पुस्तक स्वयं खुलती चली गयीडा सारिका मुकेश जी ने अपनी इस पुस्तक को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र भगवानमाँ जानकीशेषनाग अवतार श्री लक्ष्मण एवं रामभक्त पवनसुत हनुमान को समस्त श्रद्धा एवं आदर सहित समर्पित किया है। इस संग्रह की यह विशेषता है कि विभिन्न स्थितियों और घटनाओं से संबंधित हाइकू विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत प्रकाशित किए गए हैं। प्रत्येक हाइकू के नीचे उसकी रचना तिथि एवं स्थान प्रकाशित किया गया है। दो शब्द शीर्षक के अंतर्गत रचनाकार ने अपने विचार व्यक्त किए हैं- कभी-कभी हमें ऐसा प्रतीत होता  है कि मानो यह दुनिया घटनाओं का कोई पिटारा है और वक़्त का जादूगर दिन-रात उसका संचालन करता है I अगर हम ध्यान से देखें तो हमारा संपूर्ण जीवन घटनाओं का एक दस्तावेज़ या कोलाज मात्र ही तो है I सुबह से लेकर शाम तक हमारे चारों ओर ना जाने कितना कुछ घटित/विघटित होता है I हमारा समूचा व्यक्तित्व और जीवन उससे कहीं न कहीं प्रभावित होता है परंतु जीवन की आपाधापी में हम अक्सर अनेकों तथ्यों को नज़रंदाज़ करते चले जाते हैं I लेकिन उनमें से बहुत कुछ ऐसा भी होता है जो हमें कहीं भीतर तक विचलित कर देता है और हम उस पर सोचने/लिखने के लिए मजबूर हो जाते हैंतमाम पत्र/पत्रिकाएँकथा/कविता/गीत/उपन्यास बहुत हद तक फ़िल्में भी इसी का तो परिणाम हैं I हम कितना ही कुछ कह लेंकितना ही कुछ लिख लें पर हमेशा बहुत कुछ अनकहा-अनलिखा शेष रह जाता हैशायद यही हमें जीने का संबल देता है कि अभी जीवन में बहुत कुछ शेष है-जीवन चुका नहीं है I जीवन की गति होप्रकृति हो या नियति...इन्हें शब्दों में पूरी तरह आज तक कहाँ कोई बाँध पाया है I फिर भी मन में उड़ान भरते विचारों के पंछियों को मानव ने समय-समय पर शब्दों/चित्रों/संगीत आदि के रूप में अभिव्यक्ति देने का अथक प्रयास किया है I जो उस काल के कोलाज के रूप में देखा जा सकता हैI
सारिका मुकेश जी ने बहुत सही लिखा है कि कविता नदी की मानिंद हैजो स्वयं अपना रास्ता तलाश लेती है। वह बहुत-सी कठिनाईयों के बावजूद अपने गंतव्य को प्राप्त कर लेती है। कवि भी चूँकि इसी समाज का अंग है और उसके पास उपलब्ध उपकरण भी इसी समाज द्वारा प्रदत्त हैंइसलिए यह संभव ही नहीं है कि वह समाज से विमुख हो जाए। यही कारण है कि कवि अपनी ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के लिए सदैव समाज से जुड़ा रहता है। समाज में घटित हो रही अच्छी-बुरी घटनाओं को वह बड़े ध्यान से देखता है और अपनी कविता के माध्यम से अपने विचार प्रगट करता है। कविता हमारे जीवन की घटनाओं का अनुवाद ही तो है। पुस्तक पढ़ने के उपरांत इस बात की पुष्टि सहज ही हो जाती है कि सारिका मुकेश जी की पैनी दृष्टि ने अपने चारों ओर के वातावरण को जितनी ज़िम्मेदारी के साथ निहारा हैउसे उसी ज़िम्मेदारी के साथ अपने शब्दों में व्यक्त किया है। पुस्तक में प्रकाशित चंद हाइकू मैं यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ- सीखो चाँद से/साहस से लड़ना/अंधकार सेआदमी कहाँ/मशीन ही मशीन/यहाँ से वहाँबनो सशक्त/लो मुट्ठी में आकाश/खूँदो जहानमीत मन के/दीवारों पर टँगे/स्मृति बन केहो रामायण/या हो महाभारत/मूल में नारीसंबंध सारे/बनते बिगड़ते/ओस के मोतीचाँदनी तले/मुहब्बत के दीप/मन में जले....
समर्पित कलाकार अपने लिए नहींबल्कि अपनी कला के लिए जीता है। डा. सारिका मुकेश ने भी कला के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया है I सारिका मुकेश केवल दो शब्दों का संग्रह नहींबल्कि भावनात्मक गहराइयों के लहराते समर्पित समुद्र का नाम है। ऐसा समुद्र जो अपनी लहरों को अपनी शक्ति समझता हैऐसी लहरें जो अपने समुद्र को अपने भावातिरेक की ऊँचाइयाँ समझती हैं। शब्दों के कोलाज की भूमिका में उन्होंने लिखा है- ‘‘पिछले आठ वर्षों से हम पति-पत्नी अपने लेखन के प्रकाशन कार्य में संयुक्त नाम सारिका मुकेश से जुटे रहकर अपनी पुस्तकों के माध्यम से आपसे रूबरू होते रहे हैं।’’
प्रसिद्धि तो उस वेश्या का नाम हैजिसे पाने के लिए लोग अपने निकटतम सहयोगियों को टँगड़ी मारकर उनसे आगे निकल जाने की होड़ में रहते हैं। लेकिनयहाँ तो मामला ही दूसरा है। यहाँ सारिका जी और मुकेश जी दोनों एक-दूसरे के सहयोगी ही नहींबल्कि पूरक हैं और जब यह निश्छलता जीवन की अनुमागिनी बन जाती हैतो कठिन से कठिन परिस्थितियाँ हाथ जोड़कर पीछे हट जाती हैं और उन सहयात्रियों का मार्ग आसान ही नहीं करतींबल्कि उसमें फूलों की चादर बिछा देती हैं। ईश्वर उनके इस प्रेम के समर्पण भाव को यूँ ही अक्षुण्ण बनाये रखें और उन्हें दीर्घायु देंवे।
बढ़िया आवरणमुद्रणसंयोजनसाज-सज्जा और अच्छे क़िस्म के काग़ज़ ने इस पुस्तक को और अधिक मूल्यवान बना दिया हैजिसके लिए प्रकाशक की प्रशंसा की ही जानी चाहिए। मुझे विश्वाश है कि डा. सारिका मुकेश के हिंदी हाइकू कविताओं के इस पुष्पस्तबक को सभी सुधीजनों का अपार स्नेह मिलेगा और यह पुस्तक उनकी लेखन-यात्रा-क्रम में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगी। मैं सारिका मुकेश जी को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रस्तुत करते हुए माँ सरस्वती से प्रार्थना करता हूँ कि वह इनसे और भी उत्कृष्ट साहित्य का सृजन कराए।
डॉ. कृष्ण कुमार नाज़





समीक्षक - डॉ. कृष्ण कुमार नाज़
सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार/शायर 
मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.) 
             



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पुस्तक - शब्दों के कोलाज (हाइकू-संग्रह)
लेखक - सारिका मुकेश
प्रकाशक - जाहान्वी प्रकाशनदिल्ली
मूल्य - रु. 250/-
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