एक नये जीवन को जन्म देने में एक नये अस्तित्व
के साथ स्त्री का रोआँ-रोआँ तरंगयित और आंदोलित हो जाता है। बच्चे को जन्म देने
में वह परमात्मा का माध्यम बन जाती है। तब वह स्रष्टा बन जाती है। उसके शरीर का
रोआँ-रोआँ, उसके शारीर का पोर-पोर एक नयी धुन के साथ थिरकने लगता है। उसके अस्तित्व
में एक नया गीत, नयी धुन सुनायी देने लगती है। वह परम
आनंद में डूब जाती है।
ठीक यही स्थिति है कवि की। जब वह कविता की रचना
करता है, तो बहुत से अनचाहे विचारों को छिटककर सुंदर विचारों को एक नयी माला में
पिरोता है, एक नयी धुन में ढालता है। जब कविता पूर्ण हो
जाती है, तो उसके आनंद की सीमा नहीं होती। किसी कवि के
लिए कविता उसकी संतान की तरह है। वह ख़ुशी से झूमता है, नाचता है, गाता है और तमाम कष्टों को सहकर
प्राप्त हुई उस कविता को गले लगाकर माँ सरस्वती को धन्यवाद देता है। जब भी किसी की
कोई नयी पुस्तक आती है, तो वह आनंद के सागर में ग़ोते
लगाने लगता है।


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सारिका मुकेश |
मुझे सारिका मुकेश जी के हाइकू-संग्रह ‘शब्दों के कोलाज’ के दर्शन हुए। पुस्तक को खोलते ही सर्वप्रथम उसके ब्लर्ब पर ये पंक्तियाँ पढ़ने को मिलीं, “साहित्य, कला, संस्कृति और सभ्यता सदा-सदा से एक देश से दूसरे देश का निर्बाध सफ़र करती रही हैं I हिन्दी कविता में नवीन प्रयोगवादी कवियों के द्वारा जापान से जिस नई विधा 'हाइकू' का पदार्पण हुआ, उसका प्रचलन आजकल हिंदी साहित्य में जोरों पर हैI मात्र तीन पंक्तियों और केवल 17 (5+7+5=17) वर्णों में पूर्ण रूप से व्यक्त होने वाला और छोटा-सा दिखने वाला हाइकू स्वयं में एक पूर्ण कविता है। इसको पढ़ने में भले ही आपको कुछ सेकंड्स मात्र लगें परंतु इसमें निहित अर्थों की गंभीरता को देखकर आप निश्चित तौर पर इसके प्रशंशक होने को विवश हो जाएँगे। यथा: ‘बिखरे पत्र/उदास तन्हाइयाँ/सूखे गुलाब’, ‘नारी का शील/गरीब के सपने/काँच की चूड़ी’, ‘चला सूरज/समेटकर ज्योति/अपने घर’, विस्तृत नभ/खील जैसे बिखरे/असंख्य तारे’I इस ब्लर्ब को पढ़ने के उपरांत पुस्तक स्वयं खुलती चली गयीI डा सारिका मुकेश जी ने अपनी इस पुस्तक को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र भगवान, माँ जानकी, शेषनाग अवतार श्री लक्ष्मण एवं रामभक्त पवनसुत हनुमान को समस्त श्रद्धा एवं आदर सहित समर्पित’ किया है। इस संग्रह की यह विशेषता है कि विभिन्न स्थितियों और घटनाओं से संबंधित हाइकू विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत प्रकाशित किए गए हैं। प्रत्येक हाइकू के नीचे उसकी रचना तिथि एवं स्थान प्रकाशित किया गया है। ‘दो शब्द’ शीर्षक के अंतर्गत रचनाकार ने अपने विचार व्यक्त किए हैं- “कभी-कभी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह दुनिया घटनाओं का कोई पिटारा है और वक़्त का जादूगर दिन-रात उसका संचालन करता है I अगर हम ध्यान से देखें तो हमारा संपूर्ण जीवन घटनाओं का एक दस्तावेज़ या कोलाज मात्र ही तो है I सुबह से लेकर शाम तक हमारे चारों ओर ना जाने कितना कुछ घटित/विघटित होता है I हमारा समूचा व्यक्तित्व और जीवन उससे कहीं न कहीं प्रभावित होता है परंतु जीवन की आपाधापी में हम अक्सर अनेकों तथ्यों को नज़रंदाज़ करते चले जाते हैं I लेकिन उनमें से बहुत कुछ ऐसा भी होता है जो हमें कहीं भीतर तक विचलित कर देता है और हम उस पर सोचने/लिखने के लिए मजबूर हो जाते हैंI तमाम पत्र/पत्रिकाएँ, कथा/कविता/गीत/उपन्यास बहुत हद तक फ़िल्में भी इसी का तो परिणाम हैं I हम कितना ही कुछ कह लें, कितना ही कुछ लिख लें पर हमेशा बहुत कुछ अनकहा-अनलिखा शेष रह जाता है, शायद यही हमें जीने का संबल देता है कि अभी जीवन में बहुत कुछ शेष है-जीवन चुका नहीं है I जीवन की गति हो, प्रकृति हो या नियति...इन्हें शब्दों में पूरी तरह आज तक कहाँ कोई बाँध पाया है I फिर भी मन में उड़ान भरते विचारों के पंछियों को मानव ने समय-समय पर शब्दों/चित्रों/संगीत आदि के रूप में अभिव्यक्ति देने का अथक प्रयास किया है I जो उस काल के कोलाज के रूप में देखा जा सकता हैI”
सारिका मुकेश जी ने बहुत सही लिखा है कि कविता
नदी की मानिंद है, जो स्वयं अपना रास्ता तलाश लेती है। वह बहुत-सी कठिनाईयों के बावजूद अपने
गंतव्य को प्राप्त कर लेती है। कवि भी चूँकि इसी समाज का अंग है और उसके पास
उपलब्ध उपकरण भी इसी समाज द्वारा प्रदत्त हैं, इसलिए यह
संभव ही नहीं है कि वह समाज से विमुख हो जाए। यही कारण है कि कवि अपनी
ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के लिए सदैव समाज से जुड़ा रहता है। समाज में घटित हो रही
अच्छी-बुरी घटनाओं को वह बड़े ध्यान से देखता है और अपनी कविता के माध्यम से अपने
विचार प्रगट करता है। कविता हमारे जीवन की घटनाओं का अनुवाद ही तो है। पुस्तक पढ़ने
के उपरांत इस बात की पुष्टि सहज ही हो जाती है कि सारिका मुकेश जी की पैनी दृष्टि
ने अपने चारों ओर के वातावरण को जितनी ज़िम्मेदारी के साथ निहारा है, उसे उसी ज़िम्मेदारी के साथ अपने शब्दों में व्यक्त किया है। पुस्तक में
प्रकाशित चंद हाइकू मैं यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ- ‘सीखो चाँद से/साहस से लड़ना/अंधकार से’, ‘आदमी कहाँ/मशीन
ही मशीन/यहाँ से वहाँ’, ‘बनो सशक्त/लो मुट्ठी में आकाश/खूँदो जहान’, ‘मीत मन के/दीवारों पर टँगे/स्मृति बन के’, ‘हो रामायण/या
हो महाभारत/मूल में नारी’, ‘संबंध सारे/बनते बिगड़ते/ओस के मोती’, ‘चाँदनी तले/मुहब्बत के दीप/मन में जले’....
समर्पित कलाकार अपने लिए नहीं, बल्कि अपनी कला के लिए जीता है। डा. सारिका मुकेश ने भी कला के लिए स्वयं
को समर्पित कर दिया है I ‘सारिका मुकेश’ केवल दो ‘शब्दों का संग्रह’ नहीं, बल्कि भावनात्मक गहराइयों के लहराते
समर्पित समुद्र का नाम है। ऐसा समुद्र जो अपनी लहरों को अपनी शक्ति समझता है, ऐसी लहरें जो अपने समुद्र को अपने भावातिरेक की ऊँचाइयाँ समझती हैं। ‘शब्दों के कोलाज’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है- ‘‘पिछले आठ वर्षों से हम पति-पत्नी अपने लेखन के प्रकाशन कार्य में संयुक्त
नाम ’सारिका मुकेश’ से जुटे रहकर अपनी पुस्तकों के माध्यम से
आपसे रूबरू होते रहे हैं।’’
प्रसिद्धि तो उस वेश्या का नाम है, जिसे पाने के लिए लोग अपने निकटतम सहयोगियों को टँगड़ी मारकर उनसे आगे निकल
जाने की होड़ में रहते हैं। लेकिन, यहाँ तो मामला ही
दूसरा है। यहाँ सारिका जी और मुकेश जी दोनों एक-दूसरे के सहयोगी ही नहीं, बल्कि पूरक हैं और जब यह निश्छलता जीवन की अनुमागिनी बन जाती है, तो कठिन से कठिन परिस्थितियाँ हाथ जोड़कर पीछे हट जाती हैं और उन
सहयात्रियों का मार्ग आसान ही नहीं करतीं, बल्कि उसमें
फूलों की चादर बिछा देती हैं। ईश्वर उनके इस प्रेम के समर्पण भाव को यूँ ही अक्षुण्ण
बनाये रखें और उन्हें दीर्घायु देंवे।
बढ़िया आवरण, मुद्रण, संयोजन, साज-सज्जा और अच्छे क़िस्म के काग़ज़ ने
इस पुस्तक को और अधिक मूल्यवान बना दिया है, जिसके लिए
प्रकाशक की प्रशंसा की ही जानी चाहिए। मुझे विश्वाश है कि डा. सारिका मुकेश के
हिंदी हाइकू कविताओं के इस पुष्पस्तबक को सभी सुधीजनों का अपार स्नेह मिलेगा और यह
पुस्तक उनकी लेखन-यात्रा-क्रम में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगी। मैं
सारिका मुकेश जी को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रस्तुत करते हुए माँ सरस्वती से
प्रार्थना करता हूँ कि वह इनसे और भी उत्कृष्ट साहित्य का सृजन कराए।
समीक्षक - डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’
सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार/शायर
मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)
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पुस्तक - शब्दों के कोलाज (हाइकू-संग्रह)
लेखक - सारिका मुकेश
प्रकाशक - जाहान्वी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य - रु. 250/-
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Jai ho
ReplyDeleteबधाई हो
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