आज हम आपको एक सहज गीतकार श्री जयकृष्ण राय
तुषार जी के गीतों से रू-ब-रू कराने के लिए उपस्थित हुए हैं। बहुत ही भाव-प्रवण और
सरल सहज भाषा में रचे, मन को मोहित कर लेने वाले ये गीत सच में अद्भुत और अप्रतिम
हैं। गीत-ऋषि नीरज जी आशीर्वचन के रूप में लिखते हैं-“अधिकांश नवगीत एक ही पैटर्न
पर लिखे जा रहे हैं किन्तु तुषार जी का अपना अलग रास्ता है। उनके नवगीतों में
मौलिकता है जो उन्हें अन्य नवगीतकारों से बिल्कुल अलग करती है। इनके गीतों की जो
सुगन्ध है उसमें आत्मभोगी अनुभूति है, वह हर समुदाय को प्रभावित करती है। मुझे तो
उन्होंने अपने गीतों से बहुत प्रभावित किया है’। सुप्रसिद्ध गीतकार माहेश्वर
तिवारी जी के शब्दों में-‘तुषार पट्टाबद्ध नहीं, स्वतंत्र चेतना के जनवादी कवि हैं।
इसीलिए वे मन की कम जन की बात करते हैं। ये गीत आम जन के संघर्षशील और प्रतिरोध के
सहपाठी जैसे हैं’।
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श्री जयकृष्ण राय तुषार |
चलिए, अब हम आपको बिना किसी अतिरिक्त भूमिका के सदी
को सुनते/गुनते/गाते इस गीतकार के उपवन में लेकर चलते हैं। आज के माहौल में गीतकार
इस दुविधा में है-‘किसको मंगल/गीत सुनाएं/मौसम बहरा है/असमंजस की छत के
नीचे/रिश्ते-नाते हैं/घुटन-बेबसी-ओढ़े हम सब/हँसते गाते हैं/पल-पल/अपने ऊपर बस/तिथियों
का पहरा है’। पुराने दिनों को याद कर एक उजाला भरती गीतकार की ये पंक्तियाँ
दृष्टव्य हैं-‘घर-गिरस्ती में/हुई धूमिल/मौसमों के रंग वाली भाभियाँ/जब कभी हम/बंद
तालों से हुए/यही होतीं थी हमारी चाभियाँ/चलो फिर/रूठी हुई इन/भाभियों को हम
मनाएं/चलो फ़िर/गुलमोहरों के होंठ पर/ये दिन सजाएं/आधुनिक/सन्दर्भ वाले/कुछ पुराने
गीत गाएं’।
स्मृति शेष पूज्य पिता जी को स्मृत करते हुए
उनका ये एक शेर देखिए-‘ये सूखी घास अपने लॉन की काटो न तुम भाई/पिता की याद आयेगी
तो ये फ़िर से नमीं देगी’। इसी के साथ मन को भीतर तक स्पर्श करती गीत की ये
पंक्तियाँ देखिए-‘अब नहीं/आराम कुर्सी/बस कथाओं में रहोगे/प्यार से/छूकर हमारा
मन/समीरन में बहोगे/फूल की/इन ख़ुशबुओं में/लॉन में रहना/यज्ञ की आहुति/कथा के पान
में रहना/पिता!/घर की खिड़कियों/दालान में रहना’। माँ को स्मृत करते हुए उनका ये एक
शेर देखिए-‘नये घर में पुराने एक दो आले तो रहने दो/दिया बनकर वहीं से माँ हमेशा
रौशनी देगी’। चुपचाप आँसुओं के सागर पी जीवन भर दुःख के पहाड़ को ढोती, मन को
फूलों-सा महकाती, आँखों में बच्चों की खातिर स्वप्न संजोती माँ को बार-बार स्मृत
कर वो लिखते हैं-‘हम तो नहीं भागीरथ जैसे, कैसे सिर से कर्ज़ उतारें/तुम तो खुद की
गंगाजल हो, तुमको हम किस जल से तारें/तुम पर फूल चढ़ाएं कैसे, तुम तो स्वयं कमल
होती हो/माँ तुम गंगाजल होती हो/माँ तुम गंगाजल होती हो’।
बेटी के महत्त्व पर इस शेर की चाँदनी देखिए-‘फ़रक
बेटे औ बेटी में है बस महसूस करने का/वो तुमको रौशनी देगा ये तुमको चाँदनी देगी’।
अपनी बात को आगे बढ़ाते वो एक गीत में कहते हैं-‘ज़िन्दगी में पर्व ये/त्यौहार लाती
हैं/सुर्ख रंगोली बनाकर/गीत गाती हैं/यज्ञ की वेदी यही/पूजा-हवन सी हैं/ये कभी
थकती नहीं/नन्हें हिरन सी हैं/बेटियाँ तो भोर की/पहली किरन सी हैं’।
माँ गंगा के प्रति एक गीत में वो कहते
हैं-‘वर्षों का इतिहास समेटे/कथा कह रही/आँसू पीते मलबा ढोते/मगर बह रही/टुकड़ों
में बँट जाती है/यह हर कटान पर/थककर बैठी हुई/उम्र की इस ढलान पर/कभी बहा करती
थी/यह गंगा उफान पर’। तुषार जी की यही गुज़ारिश है-‘ये माँ से भी अधिक उजली इसे
मलबा न होने दो/ये गंगा है यही दुनिया को फ़िर से ज़िन्दगी देगी’।
आज के परिवेश में वो भारतमाता की तस्वीर खींचने
में दुविधा में है-‘लूटपाट/अपहरण/फ़िरौती, हिंसा है/नये दौर में/ये ही/सत्य अहिंसा
है/...राजमार्ग पर/टोल टैक्स के/पहरे हैं/लालकिले के/भाषण/बहुत सुनहरे
हैं/काशी/मगहर चुप है/किसे कबीर लिखूँ/भारत माता/तेरी/क्या तस्वीर लिखूँ?’ वो
अच्छी तरह से जानते हैं-‘सिंहासन पर/मौन मुखौटे/कठपुतली दरबारी/राजकोष से/अपने घर
की/भरें तिजौरी सारी/लौटे हैं/बेउर, तिहाड़ से/फ़िर भी चौड़ा सीना...एक टाट पर/मिलकर बैठे/काशी
और मदीना’...’सोयी है/ये राजव्यवस्था/मुँह पर पानी डालो/खून हमारा/बर्फ़ हो रहा/कोई
इसे उबालो’...अजीब-सी कशमकश है लेकिन उन्हें एक दिया जलने भर की प्रतीक्षा
है-‘जिनका है/ईमान हुए वो/बन्दी कारागारों में/भ्रष्टाचारी पूजनीय हैं/राजा के
दरबारों में...एक दिया भी/अगर जला तो/भय होगा अंधियारों में’।
आज के आतंकी माहौल में उनके गीतों की ये
पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘बम दिल्ली/न्यूयार्क में फटे या/लाहौर, कराची/आँसू
सबके/एक तरह हैं/लंदन हो या रांची'...एक अन्य गीत में-‘फूल सरीखे बच्चे/अपनी
कालोनी में/अब डरते हैं/गुर्दा, धमनी/जिगर, आँख का/अपराधी सौदा करते
हैं/...महिलाएं/अब कहाँ सुरक्षित/घर में हो या दफ़्तर में/...हर घटना पर/गिर जाता
है/तंत्र सुरक्षा का धड़ाम से/...आज़ादी है/मगर व्यवस्था की/निगाह में हम गुलाम
से’...वो पूछना चाहते हैं-‘सत्य-अहिंसा के/सीने पर वार सहेंगे/आखिर कब
तक?/हत्यारों का/इस धरती पर भर सहेंगे/आखिर कब तक?’
आदरणीय निराला जी का स्थान हिन्दी साहित्य में
अजर-अमर है। नए साल की नई सुबह में निकलने वाले दिनमान से तुषार जी कहते हैं-‘संगम
पर/आने से पहले/मेलजोल की धारा पढ़ना/अनगढ़/पत्थर, छेनी लेकर/अकबर, पन्त, निराला गढ़ना/हर
महफ़िल से/मधुशाला की/लिए सुरीली तान निकलना/अगर राह में/मिले बनारस/खाकर मघई पान
निकलना...’ और एक अन्य निराला को समर्पित गीत की ये कुछ पंक्तियाँ-‘पर्वतों
की/घाटियों से/जब इलाहाबाद आना/ओ सदानीरा/निराला के/सुनहरे गीत गाना/आज भी/वह
तोड़ती पत्थर/पसीने में नहाये/सर्वहारा/के लिए अब/कौन ऐसा गीत गाये/एक फक्कड़/कवि
हुआ था/पीढ़ियों को तुम बताना...’।
गाँव की बदलती तस्वीर पर वो आहत हो लिखते हैं-‘रोजगार/गारंटी
की/यह बातें करता है/पीढ़ी दर/पीढ़ी किसान बस/कर्ज़ा भरता है/काग़ज़ पर/सद्भाव/धरातल पर
शैतानी है/जिसका है/सरपंच उसी का/दाना-पानी है/पहले जैसी/नहीं गाँव की/रामकहानी
है’।
आज के इस डिजिटल युग में सम्वादों की दुनिया
वाट्सएप, ट्विटर, फ़ेसबुक और ईमेल आदि में खोकर रह गई है। पत्र भले ही गुज़रे वक्त
की बात हो गए हों पर उनकी अपनी महत्ता रही है। शायद इसीलिए आज भी वो अपने प्रिय से
चिट्ठी लिखने को कहते हैं-‘चिट्ठियों में/लिखे अक्षर/मुश्किलों में काम आते हैं/हम
कभी/रखते किताबों में इन्हें/कभी सीने से लगाते हैं/चिट्ठियाँ/होतीं/सुनहरे वक़्त
का सपना/हो गया/मुश्किल शहर में/डाकिया दिखना/फ़ोन पर/बातें न करना/चिट्ठियां
लिखना’। इसी तरह उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध पर्व करवाचौथ को इन पंक्तियों में
उन्होंने जीवंत कर दिया है-‘आज करवाचौथ/का दिन है/आज हम तुमको सँवारेंगे/...आज
चलनी में/कनखियों देखना/और फ़िर यह व्रत अनोखा तोड़ना/है भले/पूजा तुम्हारी ये/आरती
हम भी उतारेंगे/देख लेना/तुम गगन का चाँद/मगर हम तुमको निहारेंगे’। अगर किसी को
इलाहाबाद में ही पेरिस, अबूधाबी देखना हो तो ये पंक्तियाँ देखिए-‘शरद में/ठिठुरा
हुआ मौसम/लगा होने गुलाबी/हो गया/अपना इलाहाबाद/पेरिस, अबू धाबी’।
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर स्थानाभाव की वजह
से इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम श्री जयकृष्ण राय तुषार जी को इस गीत-संग्रह
के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हैं। संग्रह का कवर
पेज बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और
आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैं, जिसके लिए प्रकाशक ‘साहित्य भंडार’ साधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं
कि साहित्य जगत में उनके गीत संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। अब हम आपको समीक्षा के
इस पुल से उतर, इस गीत संग्रह की नदी में उतरने का निमंत्रण, हिंदी साहित्य के
मूर्धन्य कवि श्री नरेश सक्सेना जी की कविता 'पार' की इन पंक्तियों के साथ देते हैं-
‘पुल पार करने से/पुल पार होता है/नदी पार नहीं
होती/नदी पार नहीं होती/नदी में धंसे बिना/नदी में धंसे बिना/पुल का अर्थ भी समझ
में नहीं आता/नदी में धंसे बिना/पुल पार करने से/पुल पार नहीं होता/सिर्फ़
लोहा-लंगड़ पार होता है/कुछ भी नहीं होता पार/नदी में धँसे बिना/न पुल पार होता है/न
नदी पार होती है’।
इत्यलम्।।
सारिका मुकेश
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सारिका मुकेश |
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पुस्तक- सदी को सुन रहा हूँ मैं (गीत संग्रह)
पुस्तक- सदी को सुन रहा हूँ मैं (गीत संग्रह)
लेखक : जयकृष्ण राय तुषार
प्रकाशक : साहित्य भंडार, इलाहाबाद (उ.प्र.)
मूल्य: 50/-रूपये (पेपरबैक संस्करण)
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मनभावन समीक्षा की आपने! बधाई और शुक्रिया!
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