Friday, 20 December 2019

जीवन-अनुभव और सीख के सुंदर और अमर तोरणों से सजा दोहा-संग्रह





साहित्य संप्रेषण का माध्यम है और संप्रेषण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम अपनी बात अधिक शब्दों में ही कहें, कई बार कम शब्दों में भी अधिक बात कही जाती है। अगर ध्यान से देखा जाए तो कम शब्दों में अधिक बात कहना एक कला है। अंग्रेजी भाषा में इसे "इफेक्टिव स्पीकिंग" कहा जाता है। हिंदी साहित्य में ऐसी ही प्राचीन विधाओं में से एक विधा है-दोहा। भले ही हम इसके व्याकरण को न भी जानते हों पर हम सब इससे बखूबी परिचित हैं। स्वभाव से फक्कड़ माने जाने वाले कबीरदास जी के दोहे आज भी गाँव/देहात तक में लोगों को मुंहजुबानी याद हैं और वे दैनिक जीवन में उनका खूब उपयोग करते हैं। उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से ही समाज में जनजागृति का कार्य किया था। उनके बाद तुलसीदास, सूरदास, रहीम और बिहारी आदि ने इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इसे समृद्ध किया। दोहों में मात्र दो पंक्तियों के माध्यम से ही इतनी बड़ी बात कही जा सकती है जो बड़ी कविता में भी स्पष्ट कर पाने में मुश्किल हो सकती है। तभी तो यह कहा गया होगा: ‘सतसैया के दोहे ज्यों नाविक के तीर/देखन में छोटन लगें घाव करें गंभीर’।  
जीवन की विसंगतियो को मन के दर्पण से देखकर लिखने वाले श्री कृष्ण मित्र जी अपनी पुरानी संस्कृति के संवाहक तो हैं ही, साथ ही साथ उसके संरक्षण हेतु भी वो चिंतित और कार्यरत दिखाई पड़ते हैं। वो अपने जीवन काल में कवि के अतिरक्त पत्रकार/संपादक और शिक्षक भी रहे हैं और शायद यही वजह है कि उनके अधिकतर दोहों में हमें एक शिक्षा का संदेश दिखाई देता है। उनके लेखन का कैनवास बहुत विस्तृत है। माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, राजनैतिक/सामाजिक जीवन के तमाम पहलू आदि कितना ही कुछ है उनके लेखन संसार में। आइए, अब सीधे उनके संग्रह की ओर चलें।
श्री कृष्ण मित्र जी भारतीय संस्कृति की परंपरानुसार अपने दोहा-संग्रह ‘तुम छाया तुम धूप’ का शुभारम्भ माँ सरस्वती जी की वन्दना से करते हुए लिखते हैं-‘जयतु-जयतु माँ शारदे, दो ऐसा वरदान/विमल हृदय को मिल सके, धवल बुद्धि औज्ञान’।
माँ सरस्वती के चरणों में अपने 11 दोहे रखते हुए वो अपने आराध्य साईं बाबा जी को 21 दोहों से नवाजते हैं। एक दोहा देखिए-‘साईं के दर्शन मिलें, मन में हो विश्वाश/बाबा के आशीष से, पूरी होगी आस’। इसके उपरांत आस्था के आयाममें वो आस्था-पुष्प चढ़ाते हुए कहते हैं-‘मन्दिर की दहलीज़ पर, पहुंचे नंगे पाँव/मन-पंछी को मिल सकी, तब पीपल की छाँव’ और ‘प्रभुचरणों की हो कृपा, तो मिलता संतोष/उसके पुण्य प्रताप से, मिलता अमृत-कोष’। जब भगवान की बात होती है तो गुरु का स्मरण स्वत: हो उठता है। गुरु को तमाम लोगों ने भगवान से ऊँचा दर्जा दिया है। गुरु की महत्ता पर वो लिखते हैं-‘गुरु की संगत जब मिले, तम होता है दूर/यह संगत ही हृदय को, देती सच्चा नूर’ और ‘पुस्तक से जो प्राप्त हो, भले बड़ा हो ज्ञान/बिन गुरु के निर्देश वह, ज्ञान रहे अज्ञान’।
ऐसा माना जाता है कि माँ हमारी पहली गुरु होती है। माँ की भूमिका हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण होती है। अनेकों मनीषियों ने माँ को स्त्री का सर्वश्रेष्ठ रूप भी कहा है। माँ पर लिखे उनके दोहों में से इन पर नज़र डालिए-‘माँ से बढकर है किसे, इस घर की परवाह/घोर अभावों में वही, करती है निर्वाह’ और ‘माँ के पैरों में बसा, है स्वर्गिक आनंद/माँ की सेवा से मिले, नव जीवन स्वच्छंद’। कितनी सहज भाषा में माँ के मर्म को सामने रख दिया है। माँ के साथ-साथ पिता का भी हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है (वो अलग बात है कि पिता पर कम लोग ही लिखते हैं), मित्र जी ने पिता पर भी बहुत अच्छा लिखा है, देखें-‘पिता बड़ा आकाश से, उसकी कीर्ति महान/उसके ही संस्कार से, बनता है इंसान’ और ‘पिता प्रकृति का देवता, पिता पुनीत पवित्र/पुत्र उसी का रूप है, कथनी नहीं विचित्र’। परंतु आज पिता और पुत्र के बीच होने वाले विवादों से वो आहत हो लिखते हैं-‘पिता  पुत्र में बेवजह, होती है तकरार/संस्कारों की भीड़ में, हावी हाहाकार’ और वो दुखी हो लिखते हैं-‘पिता पुत्र में हो रही, बँटवारे की बात/पुत्र कह रहा पिता से, क्या तेरी औकात’ और ‘रात-रात भर जागकर, देखें जिसकी राह/उस सपूत की क्या कहें, है किसको परवाह’। उनकी दृष्टि में तो पुत्र ऐसा होना चाहिए-‘मात-पिता-भाई-बहन, सबसे करें स्नेह/ऐसा पुत्र सुपुत्र ही, उन्नति करता देह’ क्योंकि ‘पुत्र करे परिवार की, संस्कृति की पहचान/उसके सद् व्यवहार से, सबका हो सम्मान’। पौराणिक ग्रंथों को याद कर वो लिखते हैं-‘राम सरीखे पुत्र हों, दशरथ से हों तात/
भरत-लक्ष्मण-शत्रुघ्न, से हों सबके भ्रात’ और ‘पुत्र श्रवण जैसा मिले, हो ऐसा सौभाग्य/तो ऐसे माँ-बाप को, सुख देता वैराग्य’।
बेटियों के लिए वो चिंतित हैं और उन्हें उच्च शिक्षा के साथ-साथ उच्च संस्कार देने के पक्षधर हैं जिससे वो ससुराल में भी अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह कर सकें-‘बेटी है ससुराल में, मन में है संदेह/हर आहात पर चौंकना, है कैसा यह नेह’ और ‘बेटी को भी दीजिए, लज्जा के संस्कार/क्योंकि उसे भी देखना, है अपना परिवार’।
भाई-बहन के बीच के प्यार की कड़ी है रक्षा-बंधन के त्यौहार पर यह ख़ूबसूरत दोहा देखिए-‘यह रक्षा के सूत्र ही, गढ़ते हैं सम्बन्ध/भाई के प्रति बहन के, हैं पवित्र अनुबंध’, लेकिन आज के इस भागमभाग वाले दौर में ऐसी विषमताओं ने जन्म लिया है कि त्यौहार भी अब अपना पुराना महत्त्व खोते जा रहे हैं-‘भाई को फुर्सत नहीं, बहन खड़ी है द्वार/सूनी रही कलाईयाँ, राखी का त्यौहार’ और ‘पति-पत्नी के बीच भी, होने लगे विवाद/अस्त-व्यस्त है जिन्दगी, बंद हुए संवाद’।
संचार क्रांति में मोबाईल ने अपना सिक्का कैसे जमाया है, देखिए-‘बहुत दिनों से बंद है, अब तो पत्राचार/मोबाईल से आजकल, व्यक्त हो रहा प्यार’ और ‘इस मोबाईल फोन की, महिमा अपरम्पार/धर्मपुत्र भी बोलते, दिन में झूठ हजार’।
आज की शासन-व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, बेरोज़गारी, नारी उत्पीड़न, बारूदी खेल जैसे विषयों पर उनकी चिंता और दुःख उनके दोहों में स्पष्ट रूप से उज़ागर होता है-‘भ्रष्ट व्यवस्था ने किया, कैसा अद्भुत काम/राजनीति में आ गए, रिश्वतखोर तमाम’, ‘वर्दी में भी छिपे हैं, अपराधों के जिन्न/नहीं फ़रिश्ते अमन के, इनके कृत्य अभिन्न’, अख़बारों की सुर्खियाँ, करती हैं भयभीत/हत्या-हिंसा-राहजनी, अपहरणों के गीत’, ‘दुष्कर्मों के जुर्म में, फँसे विधायक नेक/हत्या के अपराध में, धारा लगीं अनेक’, ‘जब जनता भूखी मरे, रोटी मिले ना दाल/उस विकास का क्या करें, देश रहे कंगाल’, ‘उत्पीड़न नारी सहे, वृद्ध सहें अपमान/कैसा सभ्य समाज है, कैसा देश महान’, ‘बारूदी में दुर्गन्ध का, दिशा-दिशा में स्त्रोत/उड़ें खुले आकाश में, कैसे शांति-कपोत’।
आज कवि सम्मेलनों में होने वाली चुटकुलेबाज़ी और द्विअर्थी फूहड़ किस्म के हास्य सर्वविदित हैं। बच्चन जी ने भी एक बार कहा था कि अब कवि सम्मेलनों में कविता का स्तर गिर गया है। सुप्रसिद्ध कवि और गीतकार श्री नीरज जी ने कहीं पर कहा था कि कवि सम्मेलन अब कपि सम्मेलन हो गए हैं। मित्र जी भी इस विषय में चिंतित दिखते हैं-‘कविताओं के नाम पर, सुना रहे जो काव्य/उसके कारण हो रहा, नष्ट सभी सम्भाव्य’, ‘पहन घोर अश्लीलता, खड़ा मंच पर हास/हँसी नहीं यह शर्म का, सौंप रहा एहसास’। अनेकों विषमताओं के बीच वो शांति. भाईचारे, सौहार्द की कामना करते हुए लिखते हैं-‘मित्र जला ऐसे दिये, अपने मन के द्वार/लील सके दीपावली, नफ़रत का अँधियार’।
जैसा कि संप्रेषण के विषय में कवि केदारनाथ अग्रवाल कहते हैं, “संप्रेषणीयता का सवाल केवल शिल्प और भाषा का सवाल नहीं है। संप्रेषणीयता तो शत-प्रतिशत आदि से लेकर अंत तक मानवीय और प्राकृतिक संबंधों की वजह से ही बनती है और जहाँ इसका अभाव होता है, वहीं संप्रेषणीयता लुप्त हो जाती है।" इस परिभाषा को ध्यान में रखते हुए हम सहज ही कह सकते हैं कि श्री कृष्ण मित्र जी का यह संग्रह इसमें पूरी तरह से खरा उतरता है। उनके दोहे जन-जीवन के विभिन्न पड़ाव हैं और इसीलिए पाठक स्वयं को हर जगह उंनसे जुड़ा हुआ महसूस करता है। उनका जन संदेश भीतर तक उतर जाता है। उनका यह दोहा संग्रह जन-जन तक पहुँचे और खूब ख्याति अर्जित करे और वो स्वस्थ और सानंद रहकर हमें भविष्य में भी अपनी ऐसी ही बेहतरीन कृतियों से आनन्दित और लाभान्वित करते रहें, हमारी यही कामना है। अंत में हम सार-रूप में उनका यह दोहा प्रस्तुत कर विदा लेंगे-
                                ‘खुद को ही पहचानना
, है अनुपम आनंद
                                 जिस क्षण जाना स्वयं को
, वह क्षण परमानंद’।
                     
  इत्यलम।।


सारिका मुकेश

सारिका मुकेश



Saturday, 14 December 2019

वैज्ञानिक युग में भावुकता का घर-बार बनाते गीतकार श्री राजेन्द्र राजन




सुप्रसिद्ध गीतकार/कवि श्री नीरज जी ने एक साक्षात्कार में बड़े दुख के साथ कहा था-‘कवि मंच’ तो आजकल ‘कपि मंच’ हो गए हैं। उनका इशारा आज के कवि-सम्मलेन के गिरते स्तर की ओर था। अख़बारों की सुर्ख़ियों से लेकर द्विअर्थीय हास्य व्यंग्य, चुटकुलेबाज़ी से लेकर संचालक महोदय और कवयित्री के बीच होती अश्लील छेड़छाड़...कवि-सम्मेलनों के स्तर को कहाँ से कहाँ ले आई है, यह आज किसी से छिपा नहीं है। ऐसे परिवेश में यदि कोई कवि अपने गीतों से मंत्रमुग्ध-सा कर, अपने सृजन के बलबूते पर श्रोताओं से लोहा मनवा ले तो मरुथल में एक ताज़ी ठण्डी बयार/फ़ुहार का आनन्द भीतर तक शीतलता देता है। हमें प्रसन्नता है कि हम आज आपको ऐसे ही एक गीतकार श्री राजेन्द्र ‘राजन’ जी से रु-ब-रु कराने जा रहे हैं जो पिछले कई बरसों से लालकिला, दूरदर्शन और तमाम कवि-सम्मेलनों में अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान बना चुके हैं।
राजन जी को गीत गाते सुनते वक़्त पंत जी की स्मृति लिए यह पंक्तियाँ साकार हो उठती हैं-‘वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान/निकलकर नयनों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान’। न केवल उनके गीतों में बल्कि उनके गायन में एक अजीब-सी पीड़ा है जो आपको उनसे भीतर तक ऐसे जोड़ देती है कि उनके शब्द, उनकी सम्वेदना, उनकी पीड़ा कब आपकी अपनी हो उठती है, आपको पता ही नहीं चलता और आप देर तक उसमें डूबे रह जाते हैं। ईश्वर लेखन के साथ-साथ अच्छा कंठ और सम्वेदना भी दे तो सोने में सुहागा हो जाता है। उनके गीत कोयल का सुर लिए पपीहे की रटन हैं। चुप और संकोची-से दिखने वाले राजन जी जब माइक के सामने परत-दर-परत खुलते चले जाते हैं तो मन में यही विचार आता है कि हे दाता, क्या सारे ज़माने का दुख तूने सिर्फ़ इन कवियों के नाम ही लिखा है! कवि अपना दुख नहीं गाता, वो तो ज़माने का दुख और उसकी पीड़ा ही गाता है, मानो वो प्रतिनिधि हो इस ज़माने का-इस युग का-इस कालखण्ड का! वो मंच पर सिर्फ़ गीत पढ़कर चले जाने वाले कवि नहीं हैं बल्कि वो अपने गीतों/मुक्तकों से श्रोताओं के दिलों में अपनी एक विशिष्ट पैठ बना लेते हैं। उसके बाद कितने ही बरसों बाद तक आप उनकी पंक्तियाँ गुनगुनाकर उन्हें स्मरण करते रहेंगे।


   



राजन जी की विराटता को उनके शब्दों में सहजता से समझा जा सकता है जब वो कहते हैं-‘केवल दो गीत लिखे मैंने-इक गीत तुम्हारे मिलने का, इक गीत तुम्हारे खोने का...’। यही तो उनकी जीवन भर की गहन तपस्या का फल है। इन दो गीतों को लिखने में, इनमें वसंत भरने की चाह में सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों, नदियों-नदियों, लहरों-लहरों भटकते हुए उन्होंने क्या कुछ नहीं झेला है, उन्हीं के शब्दों में-‘मैं रात-रात भर जगा तुम्हें भुलाने के लिए/मैं पात-पात झर गया, बसंत लाने के लिए...’। इस यात्रा-क्रम में कितने ही विश्वाश टूटे और न जाने कितने ही साथी छूट गए पर वो इस मरुथल जैसे जीवन में दो रंग साथ लिए अनवरत चलते रहे-‘एक रंग तुम्हारे हँसने का, इक रंग तुम्हारे रोने का’, यानि कि आरम्भ से इति तक अथ श्री प्रेम की ही कथा, कथा है ये प्रेम की, निज प्रेम की विश्व प्रेम की...सच में राजन जी मूलतः प्रेम के ही कवि हैं और मूल रूप से उन्हें प्रेम के गीतकार की प्रसिद्धि हाँसिल है। 
प्रेम जीवन का मूल तत्त्व है, जीवन का सार है। सारी प्रकृति प्रेममय है। इसलिए कहा भी गया है-‘लव इज गॉड एंड गॉड इज लव’, अर्थात् प्रेम ईश्वर है और ईश्वर प्रेम है। इसी प्रेम के सागर के नायाब मोती हैं राजन जी के गीत, जिन्हें पढ़कर आपको आनन्द आएगा परन्तु सुनने के बाद तो यह आपके हृदय में ऐसे उतरेंगे कि आपके हृदय में सदा-सदा के लिए अपनी सीट ‘कन्फर्म रिजर्व’ करा लेंगे।
आज हम उनके गीत-संग्रह ‘ख़ुशबू प्यार करती है’ के साथ आपके समक्ष उपस्थित हैं। यद्यपि उन्होंने बड़ी सावधानी से काँटे बचाकर सलीके से महकते गुलाबों का यह गुलदस्ता बनाया है पर फ़िर भी काँटों का अहसास हो ही जाता है। उनके शब्दों के पीछे छिपे दर्द और सम्वेदना मुखर हो उठते हैं। उनके गीतों में प्रेम का विछोह है, पीड़ा है, टीस है, व्यथा है, सुधा है, आशा है, प्रत्याशा है...। प्रस्तुत गीत-संग्रह ‘ख़ुशबू प्यार करती है’ में रिश्तों की ख़ुशबू है, वतन की माटी की ख़ुशबू है, रोजमर्रा के जीवन की जद्दोजहद करते आम आदमी के पसीने की ख़ुशबू है, वर्षा के बाद धरती से उठने वाली माटी की सौंधी ख़ुशबू है, प्यार की ख़ुशबू है, तकरार की ख़ुशबू है, मनुहार की ख़ुशबू है, अभिसार की ख़ुशबू है, चन्दन की ख़ुशबू है, पावन मन की ख़ुशबू है, रेशमी बालों की ख़ुशबू है, सुरमुई ख़यालों की ख़ुशबू है...। उनके गीतों से गुज़रते हुए हम इन तमाम ख़ुश्बुओं से अपने को सराबोर पाते हैं पर उन्हें छू नहीं सकते, जैसा कि ख़ुद राजन जी का एक शेर है-‘ख़ुश्बुओं का तन नहीं होता मुझे मालूम था, फ़िर भी तुझको रोज़ मैं छूने की ज़िद करता रहा’
गीतों के उपवन में भीनी-भीनी ख़ुशबू से रु-ब-रु कराने हेतु वो निमंत्रण देते हैं-‘चले आओ बहारों में हवाओं का निमंत्रण है, नशीली रात में पावन गुनाहों का निमंत्रण है...’, लेकिन आगाह करते हुए यह भी कहते हैं कि ‘ये ख़ुशबू प्यार करती है, ये ख़ुशबू रूठती भी है/इसे तुम छू न पाओगे नुकीली उँगलियों वालों!/न बन्दी कर सकोगे तुम ओ कारागार के तालों!/घिनौनी हरकतें हों तो ये ख़ुशबू कूटती भी है...’।

इस जीवन के कटु यथार्थ पर दो गीतों की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘मरने के अवसर हैं पल-पल, जीने के आसार नहीं हैं/सबसे ज़्यादा दुखिया जीवन, यदि जीवन में प्यार नहीं है..कौन यहाँ कब तक के साथी, कुछ भी तो आधार नहीं है...कसमें-वादे, घुटन यहाँ पर, ज्यौं कमरे का एक झरोखा/तड़पन-सिहरन औ’ आलिंगन लगता है जैसे कोई धोखा/वैज्ञानिक युग में भावुकता का कोई घर-बार नहीं है...’ और ‘विश्वास करने वाले विश्वास तोड़ देंगे/कुछ दूर तक चलेंगे, फ़िर साथ छोड़ देंगे/...अनुकूलता है जब तक, रिश्ता बना रहेगा/शर्तों के दायरे में मन अनमना रहेगा/...शीशा भी काट डालें हीरे मिलेंगे ऐसे/मन तो बहुत सरल है उनसे बचेगा कैसे? पूजा को हर क़दम पर बस ठोकरें मिलेंगी/हट भावना की कलियाँ क्या फूल बन खिलेंगी? सपने सुहावने-से तन को झिंझोड़ देंगे/कुछ दूर तक दिखेंगे, फ़िर साथ छोड़ देंगे’।  
प्रेम पर इन पंक्तियाँ की पवित्रता दृष्टव्य है-‘दो इकाई-इकाई गुणा हो गईं, धीरे-धीरे निलम्बित हुईं दूरियाँ/एक भी मेघ आकाश में था ही नहीं, किन्तु महसूस होती रही बिजलियाँ/थी अँधेरी भरी रात छाई मगर, मैं दिवाली मनाता रहा रात भर’।
आज के इस महँगाई की मार से त्रस्त आम आदमी की पीड़ा का चित्र देखिए-‘वेतन से दुगुने ख़र्च रोज़, चल पाता हूँ गिरता-झुकता/साँसों का कैसा क़र्ज़ जहाँ तन भी चुकता, मन भी चुकता/बच्चों की फ़ीसों का प्रबन्ध, रोटी-पानी की जोड़-तोड़/जीवन है केवल समझौता, सबके अहसासों का निचोड़/हर पल समाज को ललकारा, पर सुरसा-सी महँगाई से/मैं रहता हूँ भयभीत, सखे! क्या लिख पाऊँगा गीत, सखे!’
आम आदमी की क़िस्मत में तो बस चक्की में पिसना लिखा है-‘हो देवता कोई भी हम आरती रहे हैं, विष को सुधा समझकर, चुपचाप पी रहे हैं/...दिल कौन है कि जिसमें, अरमां नहीं भरे हैं/एक ज़िन्दगी की खातिर, सौ बार हम मरे हैं/कोई चाँदनी को तरसे, कोई आँगना को तरसे/तरसे कोई हृदय को, कोई भावना को तरसे/अपनी जगह अधूरे, सब लोग जी रहे हैं/विष को सुधा समझकर, चुपचाप पी रहे हैं’।
एक गीतकार/कवि/शायर की पीड़ा पर गीतों की यह पंक्तियाँ देखिए-‘तुम जिसे हो गीत कहते, वह सुलगती बेबसी है,/विविध मंचों पर हृदय की पीर गाता फिर रहा हूँ...’, और ‘शायर को जीवन भर आँसू को गाना है/जग ने कब समझा है, जग ने कब जाना है...’, वो जानते हैं-‘जितना ज़्यादा आँखें रोई उतना ही हम मशहूर हुए’, और ‘हम पीड़ा के सौदागर हैं, आँसू के हम हैं व्यापारी। जिन लोगों ने हमें उछाला, हम उन सबके भी आभारी।।
यहाँ कुछ और पंक्तियाँ देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं...
‘ज़माने में ख़ुशी के यूँ सदा आलम नहीं होंगे/कभी हम-तुम नहीं होंगे, कभी मौसम नहीं होंगे
‘रोते-हँसते जलते-बुझते अंगारों पर चलना होगा, रुकते-बढ़ते इन राहों में गिरना और सँभलना होगा...’
‘मन तो सागर से भी गहरा, फ़िर तूफ़ानों से क्या डरना/पत्थर बेशक रस्ता रोके, लेकिन कब रुकता है झरना...’
‘क़दम-क़दम पहचान न पाये कौन बुरा है, कौन भला/प्यार को जब तक कुछ-कुछ समझे, तब तक जीवन छूट चला...’
क्या नया विस्तार पाया आदमी ने! ज्ञान का संसार पाया आदमी ने,/स्वर्ग भी सूना हुआ जिन हरकतों से, उनको दुहराकर दिखाया आदमी ने।
‘पंख पसारे खुले गगन में—जब-जब उड़ता पंछी देखूँ/बार-बार यह प्रश्न उभरता-मैं इसमें कितना शामिल हूँ...’
‘उड़ते-उड़ते कभी गगन से, मैं धरती पर आ गिरता हूँ/सूरज की गर्मी है मुझमें, लेकिन संध्या से डरता हूँ/रातों का अँधियारा निष्ठुर, मैं जगमग करने को आतुर/मुझसे मेरी जंग न छीनो’।
‘हम ना होंगे तो मंचों पर आँसू को कौन दुलारेगा/फ़िर नाम तुम्हारा बार-बार गीतों में कौन पुकारेगा’!
‘अपना बिस्तर अपने काँधे, भूल-भुलैया राह दिखे/मैंने सबकी पीड़ा लिख दी, मेरी पीड़ा कौन लिखे...’
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर स्थानाभाव की वजह से इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम श्री राजेन्द्र राजन जी को इस गीत-संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हैं। संकलन का कवर पेज भी बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैंजिसके लिए प्रकाशक (अमृत प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली-32) साधुवाद के पात्र हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत में राजन जी के इस गीत-संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। 

अंत में, उनकी इन पंक्तियों के साथ हम अपनी बात को विराम देते हैं-
                              समय ना बीत जाए प्यार का भरपूर सुख ले लो
                              मगर विश्वास से जाने-अजाने मत कहीं खेलो
                              सभी पल ज़िन्दगी के तो सदा उत्तम नहीं होंगे
                              कभी हम-तुम नहीं होंगे कभी मौसम नहीं होंगे

इत्यलम।।

सारिका मुकेश
14.12.2019


सारिका मुकेश



किताब का नाम-ख़ुशबू प्यार करती है (गीत-संग्रह)
ISBN-978-81-8280-182-0
लेखक-राजेन्द्र राजन
प्रकाशन-अमृत प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली-110032   
मूल्य-250/-रू.



Tuesday, 10 December 2019

अधरों के बिस्तर पर गान सो गए...





हिन्दी साहित्य की व्यंग्य-वृहत् त्रयी के श्री रवीन्द्रनाथ त्यागी यशस्वी व्यंग्यकार रहे हैं। त्यागी जी व्यंग्य और कविता साथ-साथ लिखते रहे पर यह दुखद ही कहा जाएगा कि आज बहुत कम लोग ही इस तथ्य से परिचित हैं कि त्यागी जी जितने अच्छे व्यंग्यकार थे, उतने ही अच्छे कवि भी थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजेडी शायद यह भी रही कि उनके व्यंग्यकार की लोकप्रियता ने उनके कवि को आगे नहीं आने दिया। यह भी तब हुआ जबकि न केवल उनके समकालीन बल्कि पूर्ववर्ती दिग्गज़ कवियों ने उनकी काव्य प्रतिभा का लोहा माना और मुक्त कंठ से उनकी काव्य-प्रतिभा को सराहा और उसकी प्रशंसा की। हरिशंकर परसाई ने लिखा है-‘मैं रवीन्द्रनाथ त्यागी को एक श्रेष्ठ कवि व्यंग्यकार स्वीकार करता हूँ...’।
उनके कविता-संग्रह ‘आदिमराग’ (1968) के पुरोवाक पर सुमित्रानंदन पन्त लिखते हैं-‘सरल मधुर सुन्दर प्रेरणाएं...ऐसा लगता है अपने आप काव्य की भाषा में ढल गई हैं जैसे इधर उधर से चिड़िया उड़कर चहकने लगी हों और उनके गीत स्वर बन गए हों...’। उपेन्द्रनाथ अश्क जी के शब्दों में-‘पिछले कुछ वर्षों से नयी कविताओं के संग्रह में प्रबुद्ध आलोचकों को व्यक्तित्वहीनता का जो दोष दिखाई दिया है, वह उन्हें इस संग्रह की कविताओं में दिखाई नहीं देगा’। प्रभाकर माचवे जी लिखते हैं-‘रवीन्द्रनाथ त्यागी की कविताओं की ताज़गी ने मुझे आकृष्ट किया। एकदम नए बिम्ब और इमेज़ पैटर्न्स। ऐसा लगता है कि एक कलाकार ने जीवन को उत्कटता से अनुभव किया है, सर्वेन्द्रियों से वह जीवन के गहरे प्रवाह में डूबा है...’।
उनके कविता संग्रह ‘आखिरकार’ (1978) के पुरोवाक में अशोक वाजपेयी जी का मानना था-‘रवीन्द्रनाथ त्यागी के पास एक सुथरापन और एक सुघरता है जो कवि-कौशल के ऐसे तत्त्व हैं जिनका पिछले दिनों और अवमूल्यन हुआ है। यह संतोष की बात है कि उन्होंने उसका सधा इस्तेमाल कर अपनी कविता को बेवजह अराजक और बिखरी होने से बचाया है। उनकी कविताओं के बारे में यह निसंकोच कहा जा सकता है कि वे सुगठित रचनाएं हैं...’, जबकि रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरीसहृदयता और स्वतंत्रता को त्यागी जी के कवि के सबसे बड़े गुणों में गिनते थे।
अब इससे अधिक और क्या कहा जाए कि त्यागी जी के कविता संग्रह सलीब से नाव तक(1983) के बारे में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सुप्रसिद्ध कवि श्री हरिवंशराय बच्चन जी ने उन्हें लिखा था-“अज्ञेय को कितनी नावों में कितनी बारपर एक बार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया है तो ‘सलीब से नाव तक’ पर कम से कम दो बार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए”।
अपने कवि के बारे में खुद त्यागी जी की काव्यपंक्ति है-‘जिसने देखा नहीं मेरा कवि, उसने देखी नहीं मेरी सच्ची छवि’। इसके अतिरिक्त वो अपने व्यंग्य लेख ‘पूरब खिले पलाश’ में लिखते हैं-‘मैं काव्य-प्रेमी व्यक्ति हूँ। स्थिति यह कि नित्य लीला से जो कुछ भी समय शेष बचता है, वह काव्य-पाठ को ठीक उसी भाँति दिया जाता है जिस प्रकार विनोबा जी को उर्वर धरती दान में दी जाती रही’। 
हमें अत्यधिक प्रसन्नता है कि हम श्री रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की मधुर स्मृतियों को अपने हृदय में संजोकर आज उनकी कविताओं की चर्चा के संग आपसे रू-ब-रू हो रहे हैं। त्यागी जी ने कहीं लिखा है-‘मैं कविता तो सीरियस लिखता हूँ और गद्य नॉन-सीरियस’। यह एकदम सच है कि उनके हास्य-व्यंग्य आपको गुदगुदी करते हैं और फ़िर चिकोटी काटते हैं पर कविता में हास्य कहीं नहीं दिखता, वहाँ एक गंभीरता है, एक सीरियसनेस है जो चिंतन के क्षणों में ज़रूरी होती है जो सूक्ष्म निरीक्षण और पैनी पकड़ के साथ व्याप्त विसंगतियों पर तीखा प्रहार करती है। उनकी कविताओं में भी प्रखर व्यंग्य के दर्शन होते हैं। फ़ाइल, अफ़सर, दफ़्तर, कर्मचारी, नेता, समुद्र, मेघ, वर्षा, चाँद, वन, जंगल, पर्वत, पलाश, वसन्त, धूप, पत्नी, कोट, टाई, सूट, रूपवती महिलाएं, आलोचक, सम्पादक, किसानों की लड़कियाँ, धन की फ़सल, ग़रीब बच्चे, कुली आदि कितना ही कुछ उनकी कविताओं में शामिल हैं। सहज, सरल भाषा और सुबह की ओस जैसी ताज़गी लिए, एक अद्भुत शैली में अपने अनुभवों, प्राकृतिक सौन्दर्य और उसका मानवीकरण, कविताओं पर मुग्ध कर देता है। एक बेबसी, बेचैनी, घुटन और पीड़ा/वेदना का अहसास होता है, जिससे वो मुक्त हो जाना चाहते हैं। जीवन के तमाम अंधकारमय हिस्सों को वो प्रकाश में लाने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है कि वो समूची व्यवस्था को बदल देना चाहते हैं। परिवर्तन की इसी चाहत के कारण ही शायद उन्हें वसन्त से बहुत प्रेम है। उनकी कविताएं आम आदमी की पीड़ा, निराशा को अभिव्यक्ति देकर हमारे अंतर्मन पर दस्तक देती हैं और उसके प्रति एक सच्ची सहानुभूति पैदा करती हैं। पढ़ने के बाद अक्सर ऐसा लगता है कि हम कभी ऐसा क्यों नहीं सोच पाए?
त्यागी जी से मिलने का और उन्हें देर तक सुनने का कई बार सौभाग्य मिला। त्यागी जी शांत, शालीन, अनुशासित, व्यवस्थित और संयमित जीवन जीते थे। उनकी चालढाल और रहन-सहन के साथ-साथ उनके बात करने के तरीके में अफ़सर और व्यंग्यकार/कवि स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते थे। अगर मूड सही होता तो खूब बातें करते थे। वो कर्मप्रधान विश्व रुचिराखा के साथ-साथ भाग्य में भी विश्वास रखते थे। उनकी बातों में न जाने कितने ही सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के प्रेरक प्रसंग और क़िस्से शामिल होता थे। उनका सेंस ऑफ़ हयूमर ग़ज़ब का था। वो खुले दिल से अन्य लेखकों की तारीफ़ किया करते थे। कालिदास, प्रेमचंद, निराला, शरतचंद्र, पन्त, बच्चन की ख़ूब बातें करते थे। अंग्रेजी लेखकों को भी ख़ूब पढ़ते और सराहते थे। इस सबके बावजूद वो निराला से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपनी स्टडी-टेबल पर फ़्रेम में जड़ी निराला की तस्वीर रखी हुई थी। उनकी यह कविता हमें बहुत प्रिय है-‘जब मैंने देखे थे निराला और पंत/आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व/मुझे वे बिल्कुल नहीं लगे थे गन्धर्व या किन्नर/....कहाँ छिपी थी उनकी स्वर्ण-छवि/मेरी भाषा के वे अजर और अमर कवि...’। उनकी अनेकों स्मृतियाँ इस वक़्त ज़ेहन में कौंध रही हैं। आज वो सब याद करके बस यही कह सकते हैं कि उनसे मिलना आफ़ताब से मिलना...।
स्थानाभाव के चलते उनकी पूरी कविताएँ दे पाना तो सम्भव नहीं है पर चलिए उनके काव्य की अनुपम छटा की एक झलक ही देख ली जाए, यथा-‘जेब कतरों जैसा चौकन्ना मौसम/घुंघरू बाँध नाचती हवाएँ/समुद्र को तट पर छोड़/वापस लौटती अधेड़ सड़कें-/पहिले बनेंगी झील/फिर वोट क्लब और हवाई अड्डा/फिर चमकदार रेस के घोड़े...’, ‘घास के तिनकों से जूड़ा बाँधे/किसानों की लडकियाँ.../बादाम का जिस्म/आग के खेत/दूध की हवा’, ‘सामने के फ्लैट पर/जाड़ों की सुबह ने/अलसा कर जूड़ा बाँधा;/नीचे के तल्ले में/मफ़लर से मुँह ढाँप/सुबह ने सिगरेट पी...’, ‘पलाश जैसी मखमली हँसी हँसती वे युवतियाँ/अपने सख्त चमड़े में जिल्दों जैसे बंधे वे दार्शनिक/वसन्त से सजे वे युवक...’, ‘बादलों के जाल से/सहसा छूटे/सूर्यास्त के कबूतर’, ‘सिगरेटदानी में गिरती रही उनके ठहाकों की राख़/लड़कियाँ लजाती रहीं निर्लज्जता के संग...’, ‘पत्ते इस भाँति झड़ने लगे पेड़ों से/जैसे शब्दों से अर्थ गिरते हैं/वृक्ष हो गए उदास/बिना चूड़ियों के कलाई कोई...’, ‘फाँसी पर टंग गया आकाश/समुद्र अपने ही भँवर में दूब गया/....पहिले मरा संगीत/फिर मरे प्रेम, यौवन और रूप...’, ‘न रहे वे तट/न वे समुद्र/न वे पाल/पर एक चीज वही है वही-/मेरा पीछा करता हुआ/बीते दिनों का जहाज़/वह नहीं डूबा’, ‘आँखों की खिड़की पर/अभी भी लटका है वह बन्दरगाह/उस समुद्र के टुकड़े/जेब में शायद अभी भी हों...’, ‘पंख कटी बारिश/चाँद का संगमर्मर/लान पर बिछे कहकहे/केक पर चिपके इन्द्रधनुष/पोस्टरों में जलता शाम का शव/बीयर के समुद्र में/स्तनों के तट/नितम्बों की मछलियाँ/कमर के रेलिंग/और इन सबके ऊपर/निरन्तर हँसता कोई उदास...’, ‘उम्मीदों के हैट में से/कब निकलेगा खुशियों का खरगोश?/ड्रेसिंग गाउन पहिने मेरा भाग्य/क्या बालकनी में इसी तरह/शराब पीता रहेगा?’, ‘तुम्हारी आवाज़ की गर्मी और हँसी की तुर्श हवा/मौसम की भाँति तुम्हारे ओठों का खुलना/नाव के पाल की तरह तुम्हारी पलकों का उठान-/यह सब मैं शायद नहीं सह सकता...’, ‘कितनी वर्षा की ऋतुएँ देखि मैंने/पर जब-जब आई वर्षा/वह हमेशा पिछली से अलग थी’, ‘इस बार जो पतझर आया/वह अन्तिम था/अब मेरे पास टूटने को कुछ नहीं रहा’, ‘कितनों को भेज चुका काश्मीर/ख़ुद वह कहीं नहीं जा पाया कभी/जीवन बीत गया/जम्मू तवी स्टेशन/कुली नम्बर तिरपन’, ‘यक्ष से खड़े चीड़ के पेड़/मंथर गति मंदाक्रांता मेघ/इतने दुःख का गीत/कवि तुमने क्यों गाया?’
अपने एक व्यंग्य लेख में त्यागी जी ने लिखा है-‘मेरे इस अनायास दु:खी होने का क्या कारण? कहीं वह वसन्त तो नहीं आ गया? वसन्त की ऋतु जहाँ दु:खी होने के लिए प्रसिद्ध है वहाँ काव्य-रचना के सन्दर्भ में इसने काफी नाम पाया है...’। लेकिन यह भी सच है कि त्यागी जी को वसन्त से एक मोह भी है तभी तो जहाज का पंछी जिस प्रकार उड़-उड़कर फिर जहाज पर आ जाता है उसी प्रकार उनकी कविताओं में फ़िर-फ़िर वसन्त आ जाता है। आप स्वयं कुछ दृश्य देख लीजिए-‘मुस्कराहटों की मोमबत्ती पर...वसन्त का वह छबीला दिन...’, ‘सीटी दे देकर युवतियों को बुलाता/सदा का प्रेमी वसन्त...’,’तुम नहीं देखना वसन्त को इस बार/वह सिर्फ़ मेरे लिए आया है/सिर्फ़ मेरे लिए...’, ’रात भर नाचते रहे वे लोग/वर्षा का नाच/युवावस्था का नाच/प्रेम और वसन्त का नाच...’, ’इसी वसन्त के नीचे बसी/झुग्गियों में रहते मजदूर/पत्थर तोड़ती युवतियाँ/बतियाती वृद्धाएँ...’, ‘ओ वसन्त के फूल/ओ पलाश की लाज...मैं हाथ जोड़ता हूँ मुझे छोड़ दो इस बार/तुम्हारा वार झेलने की शक्ति/मुझमें नहीं रही’, ’फूलों की सीटियाँ बजाता/वसन्त फिर आ गया.../वसन्त का सच्चा गीत/सिर्फ़ उदासी का गीत/एक दिन तुम भी यही बात मानोगी’, ’इसी मोमबत्ती की तरह बुझेंगे हम/केक की तरह एक दूसरे को काटेंगे/आओ, तब तक बटोर लें कुछ और वसन्त...’।
अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में वो लिखते हैं-‘मैंने नहीं खोजे शब्द/शब्दों ने मुझे खोजा/मैंने नहीं लिखी कविता/कविता ने मुझे लिखा...’ और ‘जहाँ कहीं दीखा कोई दुखी/मेरी कलम अपने आप रुकी/जब भी आई वर्षा/मेरा प्राण पुलक-पुलक हर्षा.../तुम कभी नहीं कर सकते बंद/मेरे वर्ण, मेरे प्राण, मेरे छन्द’। एक कविता में लेखन-कर्म से असंतुष्ट हो लिखते हैं-‘तुम तो गाते रहे कविता/तुम तो लिखते रहे कथा.../दूसरों का दुःख तुमने ख़ूब भुनाया/ग़रीबों के आँसुओं से बाँध ली कविता/और तुमने किया ही क्या/तुमने सही नहीं कभी सच्ची व्यथा’।
त्यागी जी की खास बात उनकी उन्मुक्तता (गगन को चूमती उन्मुक्त मगर संयमित और संतुलित पतंग के जैसी) और उनका लालित्यपूर्ण लेखन है। उनमें एक अजीब क़िस्म की जिन्दादिली रही और उनका रचना-संसार काफी विविध और व्यापक रहा। वे लेखकों की छपने और प्रचारप्रियता की मारामारी, गुटबाजी और फिरकापरस्ती आदि से सदा अलग ही रहे। उन्होंने बिना कोई समझौता किए, पूरे स्वाभिमान के साथ एक निष्कलंक जीवन जिया। अफ़सरशाही, राजनीति के साथ-साथ ज़िन्दगी के तमाम अन्य विविध स्तरीय अन्तर्विरोध और असंगतियाँ उनके लेखन का विशिष्ट हिस्सा रहीं।
अब हमारे बीच त्यागी जी की स्मृतियाँ ही शेष हैं। उनकी कविताओं पर अभी बहुत काम/शोध होना बाकी है। आशा है लेखक/आलोचक/शिक्षाविद और शोधार्थी उनके ‘कवि’ के साथ न्याय कर उन्हें वो स्थान दिलाएंगे जिसके वो सच में हक़दार हैं। अंत में, उनकी स्मृति को हम कोटि-कोटि नमन/प्रणाम करते हुए अपनी बात को फैज़ साहब की इन पंक्तियों के साथ विश्राम देंगे-‘आख़िर-ए-शब के हमसफ़र/फैज़ न जाने क्या हुए/रह गई किस जगह सबा/सुबह किधर निकल गई’। 
                                                               इत्यलम।।

--सारिका मुकेश




सारिका मुकेश

Wednesday, 4 December 2019

पता नहीं कब देश समय के संदेशों को समझेगा...





आज जबकि हम एक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहे हैं ऐसे में सच्चे मार्गदर्शकों की बेहद ज़रूरत है जो समाज को, इस देश को और उसकी नौजवानपीढ़ी को सही दिशा दिखा सके। हमें यह जानके बेहदख़ुशी होती है कि आज भी हमारे बीच ऐसे वरिष्ठ कवि मौजूद हैं जो श्रृंगार/प्रेमकविताओं से अलग जाकर राष्ट्र प्रेम/जन-चेतना की कविताओं का सृजन करने में व्यस्त रहते हैं। हमें अपार प्रसन्नता है कि आज हम आपके सामने राष्ट्रप्रेम और जनजागरण को पूरा जीवन समर्पित करने वाले श्री कृष्णमित्र जी का काव्य-संग्रह खुलने लगे पृष्ठ सारेलेकर उपस्थित हैं। असीम प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित उनके इस काव्य-संग्रह में 39 कविताएं संकलित की गई हैं। हम श्री कृष्ण मित्र जी के स्नेह और आत्मीयता के लिए सदा शुक्रगुजार रहेंगे कि वो अपनी पुस्तक हमें स्नेह और आशीष के साथ भेंट करते हैं; हार्दिक आभार और नमन।
15 अक्टूबर 1934 को गुजरावाला शहर (अब पाकिस्तान में) जन्में श्री कृष्ण मित्र जी 1949 में अपने माता-पिता के साथ गाजियाबाद आ गए। उन्होंने आजादी की लड़ाई को भी देखा और उसके बाद देश के विभाजन के दंश के भी साक्षी रहे और फिर आजादी के बाद आज तक अमर शहीदों के सपनों को धराशायी होते देख वो अपने दर्द को लेखनी से उतारते चले गए। अगर गौर से देखें तो वो हमारे लिए एक इतिहास की किताब से कम नहीं हैं, जिससे हम बहुत समय तक दूर नहीं रह सकते; उन्होंने सच ही लिखा है-‘संस्मरणों के बृहद ग्रन्थ में/यादों के सन्दर्भ बहुत हैं.../कब तक नहीं सुनोगे प्रियवर/अब तक हुए छलों की बातें/चाहो तो रेखांकित कर लो/बीते हुए पलोंकी बातें...’
उनकी हर किताब आजादी के गीत से शुरू होती है। अपनी दो शानदार कविताओं के माध्यम से वो इस किताब में भी वीर शहीदों को स्मृत करना/कराना वो नहीं भूलते-‘स्वतंत्रता के पुण्य पर्व पर स्मरण करें बलिदानों का/बलिवेदी पर झूल गए जो माँ के अमर जवानों का.../साठ बरस की आज़ादी है/आओ इसे प्रणाम करें/वन्दे मातरम् गीतों को/भारत माँ के नाम करें.../भारत माँ कीजय में उन गुंजित अमर तरानों को/बलिवेदी परझूल गए जो माँ के अमर जवानों को...’। इसके अतिरिक्त उन्होंने अमर शहीद श्री मंगल पाण्डेय पर एक शानदार कविता लिखी है-‘अगर न होतामंगल पाण्डेय तो क्या लिखती कलम-सियाही/क़दम-क़दम परहमें दे रहा लाल फौज़ की लाल गवाही...’।
राज ठाकरे के उत्तर भारत के लोगों के विरुद्ध विष वमन पर वो व्यथित तो होते ही हैं साथ में चिंतित भी हो उठते हैं। वो फिर से देश के टुकड़े होने के भय से सिहरकर अपनी वेदना को यूँ अभिव्यक्ति देते हैं-‘फिर अंधेरोंकी वकालत/बेबसी में फिर अदालत/जर्जरित होती प्रथाएँ/फिर विभाजन की कथाएँ.../शिष्टता पर आवरण है/बदलता-सा व्याकरण है/राष्ट्र पर अलगाववादी/शक्तियों का आक्रमण है/हो सके तो संगठन के मन्त्र की मेंहदी रचा लो/देवदूतों! देश को विध्वंस के विष से बचा लो...’
भारत तमाम विभिन्न भाषाओं का देश है...देश की तमाम भाषाएँ आपस में सहोदरी हैं। हमने कभी किसी भाषा को गैर नहीं समझा। भाषा, जाति, धर्म और सम्प्रदाय की तमाम विभिन्नता लिए हमारा देश भारत एकता के सूत्र में बंधा है। आजादी के बाद समय-समय पर नेता लोग अपनी तुच्छ तुष्टिकरण के लिए इन विभिन्नताओं का सहारा आपस में फूट डालने के लिए लेते रहे हैं और एक अजीब-सा घुटन-भरा माहौल पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं। जबकि हकीकत को बयाँ करते हुए मित्र जी लिखते हैं-‘यह अकारण-सी निराशा/पल्लवित प्रत्येक भाषा/यह मराठी या कि हिंदी/भारती के भालबिंदी.../रक्त के संबंध हैं ये/निष्कपट अनुबंध हैं ये/बेवजह सीमा न बाँधो/व्यर्थ के प्रतिबंध हैं ये...’। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो इस देश की जनता और हुक्मरानों से सीधे-सीधे पूछते हैं-‘कब तक देश लड़ेगा बोलो/जहर उगलते इन नारों से/महाराष्ट्र वाली हठधर्मी/के आक्रोषित व्यवहारोंसे.../प्रांतवादी यह विभीषिका/आमंत्रण झंझावातों को/कौन निमंत्रण देता है अब/विद्रोहों को उत्पातों को/राष्ट्र नहीं अब महाराष्ट्र की/सम्मुख आई नयी चुनौती/भाषाई विद्रोह बन गया/नेताओं की नयी बपौती...’। सच्चा/अच्छा कवि वो होता है जो समस्या देखता है, लिखता है तो कुछ समाधान भी देता है और यहाँ भी अंत में मित्र जी समाधान देते हुए सभी को एक संदेश देते हुए लिखते हैं-‘क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर/राष्ट्रवाद की बात करें हम/घृणा और अलगाव दूर कर/नफ़रत पर आघात करें हम/जैसे भी हो रहें बनाए/स्नेह-युक्त सद्संबंधों को/स्वाभिमान से पूरित होकर/पुष्ट करें नव अनुबंधों को...’।
आजादी के इतने बरस गुज़र जाने के बाद भी आज हमारी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा मूलभत सुविधाओं से भी वंचित है। महंगाई की वजह से आज जीना दूभर होता जा रहा है। आज भी न जाने कितने ही बच्चों को भूखे पेट कहानी सुनकर सो जाना पड़ता है। आजादी के बाद एक ख़ुशहाल और समृद्ध भारत की परिकल्पना की गयी थी पर आज तक हम उसे सच में नहीं उतार पाए हैं। कवि श्री कृष्ण मित्र जी की यही व्यथा इन सुन्दर शब्दों में देखिए-‘हर आँगन में चहल-पहल हो रोटी हो/रोटी के हित नीयत कभी न खोटी हो/लेकिन सारा करोबार हवाई है/पता नहीं कैसी आज़ादी आई है.../जीना है लाचार बहुत महंगाई है/चहुँ दिशि हाहाकार बहुत महंगाई है...’।
देश में भ्रष्टाचार और अराजकता के माहौल और न्यायपालिका के फैसलों पर भी लोग कभी-कभी खिन्न हो उठते हैं। यह सब आसानी से एक दिन में बदलने वाला नहीं है। जेसिका लाल, निर्भया जैसी न जाने कितनी ही अबलाओं को न्याय न मिल पाने पर कवि की पीड़ा देखिए-‘अबला की अस्मत पर हमले/निर्बल की किस्मत पर हमले/संकट में निरीह बचपन है/सहमा-सहमा सा घर आँगन है.../अय्याशी करते ये मंत्री/बड़े-बड़े शातिर षड्यंत्री/कैसे-कैसे बने विधायक/अमरमणि जैसे खलनायक.../कविता, शशि, मधुमिता, शिवानी/सबकी है वीभत्स कहानी/इन कहानियों का खारापन/उच्छ्रंखल यह आवारापन.../न्यायालयों में अपराधों की बदल रही परिभाषायें/न्यायाधीशों के निर्णय से होती सिर्फ़ निराशाएं.../टूट गए सारे गवाह निर्दोष  हो गए हत्यारे/सूरज असमंजस है क्यों जीत गए हैं अंधियारे...’।
संसद में होनेवाली रामलीला और महाभारत से आज पूरा देश अच्छी तरह परिचित है और अपने गणमान्य नेताओं के व्यवहार से आए दिन शर्मिंदा होता रहता है । हमारे हुक्मरान द्वारा आए दिन अपनी सरकार को बचाने की लिए नम्बरों का खेल पैसे से खेला जाता है । इस पर श्री मित्र जी का दर्द देखिए-‘सौ करोड़ के लोकतंत्र का/हुआ तमाशा संसद में/भ्रष्टाचारोंके दृश्यों का/रूप तराशासंसद में.../सिंहासन के लिए लड़ाई/होती है बटमारों में/क्रय-विक्रय के नए सिलसिले/संसद के गलियारों में.../शर्मनाक कृत्यों का हर प्रयत्न ज़ारी है/एक महाभारत की फिर से तैयारी है...’।
आज के इस दौर में जब कोई भी किसी को सुनने/समझने के लिए तैयार नहीं है; पुराने मूल्य विदा हो रहे हैं और नयी पाश्चात्य संस्कृति अपनी जड़े जमा रही/चुकी है। इतना सब कुछ पढ़ने/समझने/लिखने के बाद हम कवि की वाणी में यही कहना चाहेंगे-‘ऐसे में क्या नया जमाना उपदेशों को समझेगा/पता नहीं कब देश समय के संदेशों को समझेगा...’।
हमें यकीन है कि मित्र जी का यह काव्य-संग्रह पाठकों के लिए न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगा। हम इसके सृजन हेतु श्री कृष्ण मित्र जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए आपको आमंत्रित करते हुए यही कहते हैं-‘आओ अब इस इन्द्रधनुष के/रंग इसी जीवन में घोलें/सच को सच कहने वाली/इस पुस्तक के सब पन्ने खोलें...’।
                                                                   इत्यलम

सारिका मुकेश


सारिका मुकेश



किताब का नाम-खुलने लगे फिर पृष्ठ सारे (काव्य-संग्रह)
ISBN-978-81-922655-3-7
लेखक-कृष्णमित्र
प्रकाशन-असीम प्रकाशन, दिल्ली-110 006   
मूल्य-200/-रू. 






Tuesday, 26 November 2019

कितने मन के पहलू हैं अनगिनत भाव के छंदों में...





वैश्वीकरण और भौगोलीकरण के इस वर्तमान युग में संचार क्रांति का प्रमुख स्थान है। आज एक क्लिक से विश्व-सम्पर्क का द्वार खुल जाता है। ब्लॉग, फ़ेसबुक, वाट्सएप, इन्स्टाग्राम, ट्विटर आदि से इलेक्ट्रॉनिक सोशल मीडिया आज अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन चुका है। भागमभाग के इस युग में ट्विटर के छूते-छोटे त्वरित संदशों का उपयोग नेता, राजनेता, लेखक, अभिनेता से लेकर आम आदमी भी धड़ल्ले से कर रहा है। भले ही आज हम अपनों से दूर होते जा रहे हैं पर दूरियों को समेटने में सोशल मीडिया कामयाब हुआ है। आमंत्रण/निमंत्रण से लेकर फूल, बुके, खाने-पीने की वस्तुओं तक का आदान-प्रदान सोशल मीडिया पर दिन-रात चल रहा है। इसने सभी को अपनी बात रखने का पर्याप्त/असीमित स्थान उपलब्ध कराया है। इसके आ जाने से आम आदमी भी कविता, गीत, लघुकथा से लेकर आज कहानी, उपन्यास जैसी विधाओं में न केवल स्वयं को आजमा रहा है बल्कि सिद्ध भी कर रहा है। तमाम दैनिक, साहित्यिक अख़बार भी साहित्य को स्थान देकर कनिष्ठ से वरिष्ठ तक के रचनाकारों की रचना प्रकाशित कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिसमें ‘इंदौर समाचार’ एवं 'स्वैच्छिक दुनिया' का भी प्रमुख स्थान/योगदान है और हिन्दी साहित्य को बढ़ावा देने के इस योगदान के लिए ये सभी बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई के पात्र हैं।
आज हम आपको ऐसे ही एक युवा रचनाकार श्री विजय कुमार कन्नौजिया से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, जिन्होंने इन सुविधाओं का सकारात्मक उपयोग कर अपनी साहित्यिक सृजनशीलता को पल्लवित/पुष्पित कर उसे नए आयाम देकर एक अच्छे मुकाम तक पहुँचाने का प्रयास किया है। जब कभी भी समय मिलता है तो ये कुछ न कुछ लिखते रहते हैं। ईशकृपा से इनकी रचनाएँ कई साझा संकलनों और दैनिक/साप्ताहिक अख़बारों और मासिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। जिसका सुखद परिणाम आज हमारे समक्ष उनके कविता संग्रह ‘प्रेम अगर है, अनबन कैसी...?’ के रूप में उपस्थित है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट हो रहा है, विजय जी की कविताओं का मूल तत्व प्रेम है। प्रेम इस जीवन का मूल तत्व है। प्रेम हमें जीने के लिए नयी ऊर्जा देता है...एक बल देता है, प्रेम एक विश्वाश है...एक निस्वार्थ समर्पण है पर कभी-कभी इस असार संसार के कुछ अनुभव इन परिभाषाओं को हिला डालते हैं। विजय जी की इन कविताओं में प्रतीक्षा है, मनुहार है, शिकवा-गिला है, बनते-बिगड़ते सम्बन्ध हैं तो देखे गए मधुर सपनों का सुख और उनके बिखरने की व्यथा/पीड़ा भी दृष्टव्य है। विजय जी की इन कविताओं की, समय और स्थानाभाव की वजह से, प्रेम के विभिन्न मौसमों की कुछ झलकियाँ ही दे पा रहे हैं। सबसे पहले तो आप प्रेमी युगल की अपने प्रेम और उसके मधुर भाव को सदा बनाए रखने की ख्वाहिश पर ये पंक्तियाँ देखिए-‘नेह का ये स्नेहिल बंधन/यूँ ही सदा बनाए रखना/साथ बिताए हर्ष को यूँ ही/दिल में सदा बसाए रखना...’ और ‘हे मीत मेरे, मनमीत मेरे/मेरे जीवन के हर पथ पर/तुम साथ मेरा देते रहना/मेरे गुनगुनाते होठों पर/संगीत सदा देते रहना...’ । लेकिन अपने प्रिय के व्यवहार में ज़रा सा भी बदलाव आने पर या उसे परेशान देखकर मन चिंतित हो कह उठता है-‘बदले-बदले क्यूँ लगते हो/फिर भी अपने क्यूँ लगते हो/जो होना है होता ही है/सहमे-सहमे क्यूँ लगते हो...जीवन तो है गहरी नदिया/फिर लहरों से क्यूँ डरते हो...’ और फ़िर उसी मौसम में यह पंक्तियाँ देखिए-‘नयन आज आतुर से क्यूँ हैं? मन में कुछ हलचल सी क्यूँ है? पलकों की पंखुड़ियाँ गीली, बारिश सा ये मौसम क्यूँ है?...’ परन्तु कभी-कभी कालांतर में जब परिस्थितियोंवश जीवन में एक अजीब-सा विरह का मोड़ आता है, तब एकाकीपन के गहन अंधकार में फँसा व्यक्ति सोचता है-‘अब तो मलाल भी इस बात का है कि मलाल किससे करूँ? जब कोई साथ नहीं है पाना कहने वाला! अब तो रूठूँ तो रूठूँ किससे? जब कोई पास नहीं है मनाने वाला...’ और उस परिस्थिति में ऐसा लगता है-‘अब तो ख़यालों पर भी बंदिशों का पहरा है...’ और मन ही मन सोचता है-‘रिश्तों में सच्चाई ढूँढूँ, अपनों की परछाई ढूँढूँ/रिश्तों की जो गहराई थी/वो सब अब बदलाव लिए हैं...’ और ‘अब तो डर सा लगता है, इस प्रेम नेह के बंधन से/रिश्तों में तकनीक हो गई, अपनों से तकलीफ़ हो गई...’। लेकिन फ़िर भी उसे इसे इस बात की ख़ुशी होती है कि-‘हमने तो बस प्रीत निभाई, संबंधों की नीति निभाई/स्वार्थ भरी इस दुनिया में भी, हमने मन की रीति निभाई...’। फ़िर एक दिन अचानक बिछड़े प्रेम से मुलाकात होती है-‘उलझन ये है उलझन कैसी? प्रेम अगर है अनबन कैसी?...’ और ‘कितने वर्षों बाद मिले हो, कुछ तो हाल बयाँ कर जाओ/कुछ सुन लो कुछ कह दो अपनी/दिल को कुछ बहला तो जाओ...’। एकाएक ही सब कुछ कितना मधुर और भला लगने लगता है जीवन में एक नयी आशा का संचार होता है और समूचा माहौल खुशनुमा हो जाता है-‘आशाओं की आशा ने एक नए पंख का सृजन किया है/जो अब उड़ने को है आतुर अभिलाषा के अम्बर में...’ और ‘आज फिर से ख़याल आया है, बंद पलकों में ख़्वाब आया है/रुंधे गले की सिसकियों ने जो दस्तक दी है/अब तो आँखों का भी रोने का मन बन आया है...’। प्रेम पुन: जागृत हो उठता है और फ़िर से एक नयी उड़ान का ख़्वाब-‘चलो चलें सपने बुनते हैं/महफ़िल में अपने चुनते हैं/रिश्तों में जो कड़वाहट है/उसका समाधान करते हैं...’।
इन जैसी अन्य तमाम रोमानी कविताओं के साथ-साथ इस संग्रह की कुछ कविताएँ जीवनोपयोगी बन पड़ी हैं, यथा-‘जिंदगी के किसी भी मोड़ पर/जब हों क़दम डगमग कभी/तुम व्यथित होना नहीं/रुकना नहीं, थकना नहीं/होगा सहज फिर पथ तुम्हारा/जिंदगी के मोड़ पर...’ और ‘मन जब व्यथा से उथल-पुथल हो/तुम अपना मन व्यथित न करना/जीवन की हर पगडण्डी पर/सदा निरंतर चलते रहना...’
निष्कर्ष के तौर पर देखा जाए तो यह संग्रह मूलत: कवि के अंतर्मन के कोने में दबे प्रेम के अहसास की व्यथा है, प्रेम में अधूरे रह गए सपनों की दस्तकें हैं, जीवन की रंगोली में भरे जाने वाले प्रेम के रंग हैं, प्रेम के रंग-बिरंगे बनते/बिगड़ते सपने हैं, जिन्हें वह शब्दों में ढालकर कविता को जन्म देते हैं। सरल, सहज और प्रवाहमयी भाषा में लिखी ये कविताएँ मन को भीतर तक भिंगो देती हैं और कुछ क्षणों के लिए हम उसी में खोकर रह जाते हैं। विजय जी का यह प्रथम प्रयास साहित्य जगत में अपनी सीट कन्फर्म कराने में कामयाब हुआ है। भविष्य में उत्तरोत्तर विकास करते रहने की उनको अहर्निश शुभकामनाएं देते हुए हम अपनी वाणी को उनकी कविता की इन पंक्तियों के साथ विराम देते हैं...
‘मन को मत व्यथित करो इतना/सुख-दुःख तो आनी जानी है/यूँ ही कट जाएगा जीवन/जीवन की यही निशानी है...’
                                                इत्यलम्।


सारिका मुकेश



सारिका मुकेश
   
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पुस्तक- प्रेम अगर है, अनबन कैसी (कविता संग्रह)
लेखक :  विजय कन्नौजिया
प्रकाशक : विजय कन्नौजियाजोरबाग, नई दिल्ली
मोबाइल: 9818884701
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Saturday, 23 November 2019

पिय से मिलेंगे जाय, चलो सखी यमुना किनारे...




मानव योनि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है और हिन्दू धर्म मतानुसार यह योनि हमें चौरासी लाख योनियों के बाद मिलती है। बाबा तुलसीदास कहते हैं, ‘बड़ा भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथहीं गावाऔर चण्डीदास जी ने कहा, ‘सुन रे मानुष भाई/सबार ऊपर मानुष सत्य/ताहार ऊपर किछु नाई। प्रेम इस जीवन का मूल तत्व है और यही प्रेम लौकिक से भक्ति मार्ग से होता हुआ अलौकिक रूप धारण कर विराट से साक्षात्कार कराता है...द्वैतमति का आवरण हटा, अनहद आनंद की स्वर लहरी...न मैं एक, न वो और...द्वैत से अद्वैत की ओर...।
हमारे विचार से ज़िक्र प्रेम का चले तो ज़ेहन में सबसे पहले श्री कृष्ण का नाम उभरता है। भक्ति-मार्ग में सर्वाधिक कवियों ने उन्हीं पर लिखा है। सच में श्री कृष्ण का जीवन अद्भुत है। उन्होंने जीवन को...जीवन की हर अवस्था को पूर्ण रूप से ज़िया है...बचपन के कान्हा हो, युवावस्था के रास-रचैया हों, राधा के प्रियतम हों, सुदामा के मित्र हों, अर्जुन के सखा हों, पूर्ण योगी योगेश्वर हों या गीता जैसे अद्भुत ग्रन्थ का ज्ञान देने वाले हों...श्री कृष्ण हर जगह अनुपम हैं, अद्भुत हैं। यही सब तो है कि आज भी उनके प्रति प्रेम में अपना सब कुछ न्यौछावर करने वालों की कमीं न केवल भारत में अपितु विदेश तक में भी नहीं हैं। तन पर बिना कोई भस्म लगाए, बिना गेरुआ वस्त्र पहने, बिना गृह-त्याग और वनवासी हुए, बिना कंठी माला लिए जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहते हुए भगवान के इस अद्भुत रूप पर अब तक न जाने कितने ही लोग मुग्ध हो उठे हैं। मीरा दीवानी बन कहती हैं-‘मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई...’ और ‘बसो मेरे नयन में नन्दलाल...’। रसखान गाते हैं-‘मानुष हो तो वही रसखान, बसो संग गोकुल गाँव के ग्वारन...’ तो सूरदास ने कृष्ण की बाललीला का अद्भुत वर्णन किया है-‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो...’।
भक्ति भाव से भरे मन को तो हर पल ईश्वर का पदचाप सुनाई देता है। कभी वो स्वर्ण तार से धूप बनाकर बाँटने वाला स्वर्णकार दिखाई देता है...तो कभी चाँदनी बुनने को उजला रेशम छाँटता हुआ...तो कभी रजनी के आँचल में हीरे मोती जड़ता श्वेत बर्फ की चादर में किसी तपस्वी-सा दिखता है...तो कभी हृदय में गहरे राज़ छिपाए शांत गहन विस्तृत सागर दिखता है...तो कभी सीप के उर में मोती भरता...तो कभी पतझड़ के पटहीन तरुओं को कुसुमित परिधान पहनाता...कभी आँगन में किलकारी भरते बच्चों में...कभी उनमें बल, बुद्धि, सौन्दर्य, उमंगें, यौवन बन छाता हुआ...और कभी वृद्धावस्था में जर्जर तन के थके पथिक की यात्रा पूरी कराता हुआ...कहाँ नहीं है वो...हर जगह वही तो दिखता है...।
आज भी न जाने कितने ही काव्य संग्रह श्रीकृष्ण भक्ति को समर्पित प्रकाशित होते रहते हैं। इसी क्रम में राधा-कृष्ण भक्ति में लिप्त रामवीर जी का ‘बैरिन भई बाँसुरी’ दूसरा भक्ति गीत संग्रह है। जैसा कि नाम से ही विदित है, यह संग्रह बृजभाषा की मीठी चाशनी से सराबोर है। ज़िक्र कृष्ण का हो और भाषा बृज हो तो बात ही कुछ और होती है यानि सोने में सुहागा। सरल, सहज, बोधगम्य भाषा-शैली में प्रेम-प्रीति-समर्पण और भक्ति से रचे ये गीत आज की इस भागमभाग और कोलाहल भरी ज़िंदगी से दूर एकांत में ले जाकर मन को एक विशिष्ट क़िस्म का सुकून देते हैं।


श्री रामवीर सिंह 'वीर' 















माता सरस्वती की वन्दना से संग्रह का आरम्भ करते हुए रामवीर जी लिखते हैं- ‘स्वर देवी को नमन हमारा/हर उमंग में हर तरंग में/चाहिए माँ आशीष तुम्हारा...’। इसके बाद भी एक अन्य गीत ‘माँ की शरण में’ की ये पंक्तियाँ देखिए-‘मैया कर दो नैया पार/फसा हुआ मैं बीच भंवर में/पहुँचा दे उस पार...’।
काव्य-संकलन की देहरी पर खड़ी हुई कवि के अंतस की मीरा पैरों में बाँध, वीणा के तारों में वेणुवर साध लिए अनगाये गीतों को गाने को आतुर भाव, अक्षत, प्रेम दीप और श्रद्धा का हार लिए मन के मंदिर में पूजा की थाली लिए दीप, गीत, मन, प्राण, ये धड़कन और ये साँसें...सब कुछ अर्पित करने को अपने प्रियतम प्रभुका इंतज़ार कर रही हैं। इन गीतों में प्रतीक्षा है, मनुहार है, शिकवा-गिला है तो प्यार भरी धमकी भी दृष्टव्य है-‘लोक लाज छोड़ि सब, फिरूँ गली-गली अब/ऐसी भई वाबरी बैरिन भई बाँसुरी...’। ‘बाजी रे बाजी रे मुरलिया श्याम की/यमुना के तीर तीर, पवन चले सीर सीर/आई सुगंध जाने किस धाम की...’। ‘पिय से मिलेंगे जाय, चलो सखी यमुना किनारे/खोजेंगे तट तट धाय, चलो सखी यमुना किनारे...’। ‘मन की तुझको माला लाया/श्रृद्धा का मैंने फूल सजाया/खड़े खड़े सब हुआ बेकार, जागो जागो रे कन्हाई...’। ‘कहाँ छुपे मेरे श्याम सलौने ढूँढत ढूँढत सब दिन ढल गया/रैन गई अब होने...’। ‘तू जाने घट घट की प्यारे/क्यों नहीं समझे कष्ट हमारे/करूँ याद तुझको जतन क्या न कीया/बता दे श्याम मेरे जनम क्यों दीया...’। ‘बहुत दिन बीते अजहू न लौटें/क्या हम इतने लगते खोटे/इतना तो मोहन बताना पड़ेगा...’। ‘कोई न मुझको अपना दीखे जो कन्त मिलाये/प्रीतम प्यारे बिना तुम्हारे मोहि सबहि सताये/कहे वीर इस निर्दयी जग ने जीवित ही जलाये’। ‘देर करोगे हाथ मलोगे/फेरि नहीं नाथ देख सकोगे/गहूँ राह मीराबाई की/जिसने विष का पान किया रे...’।  ‘एक झलक लखवे को तेरी/अँखियाँ तरस गई हैं मेरी/और लगाओगे कितने दिन/श्याम पिया मोहे करो सुहागन...’।
रामवीर जी ने उसी साँवरिया के नाम चुनरिया रंगों दी है जो मीरा के गिरधर और राधा के श्याम हैं। गौर से देखा जाए तो यह सब उनके मन के भीतर की छटपटाहट है, एक पुकार है जिसे वह शब्दों में ढालकर गीत को जन्म देते हैं। सरल सहज भाषा में रचे ये प्रेम-भक्ति के गीत मन को भीतर तक भिंगो देते हैं और कुछ क्षणों के लिए हम खुद की सुधि बिसरा देते हैं। 
हमें यकीन है कि भक्ति भाव के रसिकों द्वारा श्री रामवीर सिंह ‘वीर’ जी के इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। हम उनको अहर्निश शुभकामनाएं देते हुए अपनी वाणी को उनके गीत की इन पंक्तियों के साथ विराम देते हैं...
‘भजन करि लै जीवन थोड़ा है/प्रेम करि लै जीवन थोड़ा है, यही नाता हरि ने जोड़ा है...’

सारिका मुकेश
23.11.2019


सारिका मुकेश


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पुस्तक- बैरिन भई बाँसुरी (गीत संग्रह)
लेखक :  डॉ. रामवीर सिंह वीर
प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशननई दिल्ली
मूल्य: 151/- रुपये मात्र
पृष्ठ: 112
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