मानव योनि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है और हिन्दू धर्म मतानुसार यह योनि हमें चौरासी लाख योनियों के बाद मिलती है। बाबा तुलसीदास कहते हैं, ‘बड़ा भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथहीं गावा’ और चण्डीदास जी ने कहा, ‘सुन रे मानुष भाई/सबार ऊपर मानुष सत्य/ताहार ऊपर किछु नाई’। प्रेम इस जीवन का मूल तत्व है और यही प्रेम लौकिक से भक्ति मार्ग से होता हुआ अलौकिक रूप धारण कर विराट से साक्षात्कार कराता है...द्वैतमति का आवरण हटा, अनहद आनंद की स्वर लहरी...न मैं एक, न वो और...द्वैत से अद्वैत की ओर...।
हमारे विचार से ज़िक्र प्रेम का चले तो ज़ेहन में
सबसे पहले श्री कृष्ण का नाम उभरता है। भक्ति-मार्ग में सर्वाधिक कवियों ने उन्हीं
पर लिखा है। सच में श्री कृष्ण का जीवन अद्भुत है। उन्होंने जीवन को...जीवन की हर
अवस्था को पूर्ण रूप से ज़िया है...बचपन के कान्हा हो, युवावस्था के रास-रचैया हों, राधा के प्रियतम हों,
सुदामा के मित्र हों, अर्जुन के सखा हों,
पूर्ण योगी योगेश्वर हों या गीता जैसे अद्भुत ग्रन्थ का ज्ञान देने
वाले हों...श्री कृष्ण हर जगह अनुपम हैं, अद्भुत हैं। यही सब
तो है कि आज भी उनके प्रति प्रेम में अपना सब कुछ न्यौछावर करने वालों की कमीं न
केवल भारत में अपितु विदेश तक में भी नहीं हैं। तन पर बिना कोई भस्म लगाए, बिना गेरुआ वस्त्र पहने, बिना गृह-त्याग और वनवासी हुए,
बिना कंठी माला लिए जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहते हुए भगवान के
इस अद्भुत रूप पर अब तक न जाने कितने ही लोग मुग्ध हो उठे हैं। मीरा दीवानी बन
कहती हैं-‘मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई...’ और ‘बसो मेरे नयन में
नन्दलाल...’। रसखान गाते हैं-‘मानुष हो तो वही रसखान, बसो संग गोकुल गाँव के
ग्वारन...’ तो सूरदास ने कृष्ण की बाललीला का अद्भुत वर्णन किया है-‘मैया मोरी मैं
नहीं माखन खायो...’।
भक्ति भाव से भरे मन को तो हर पल ईश्वर का पदचाप
सुनाई देता है। कभी वो स्वर्ण तार से धूप बनाकर बाँटने वाला स्वर्णकार दिखाई देता
है...तो कभी चाँदनी बुनने को उजला रेशम छाँटता हुआ...तो कभी रजनी के आँचल में हीरे
मोती जड़ता श्वेत बर्फ की चादर में किसी तपस्वी-सा दिखता है...तो कभी हृदय में गहरे
राज़ छिपाए शांत गहन विस्तृत सागर दिखता है...तो कभी सीप के उर में मोती भरता...तो
कभी पतझड़ के पटहीन तरुओं को कुसुमित परिधान पहनाता...कभी आँगन में किलकारी भरते
बच्चों में...कभी उनमें बल,
बुद्धि, सौन्दर्य, उमंगें,
यौवन बन छाता हुआ...और कभी वृद्धावस्था में जर्जर तन के थके पथिक की
यात्रा पूरी कराता हुआ...कहाँ नहीं है वो...हर जगह वही तो दिखता है...।
आज भी न जाने कितने ही काव्य संग्रह श्रीकृष्ण
भक्ति को समर्पित प्रकाशित होते रहते हैं। इसी क्रम में राधा-कृष्ण भक्ति में
लिप्त रामवीर जी का ‘बैरिन भई बाँसुरी’ दूसरा भक्ति गीत संग्रह है। जैसा कि नाम से
ही विदित है, यह संग्रह बृजभाषा की मीठी चाशनी से सराबोर है। ज़िक्र कृष्ण का हो और
भाषा बृज हो तो बात ही कुछ और होती है यानि सोने में सुहागा। सरल, सहज, बोधगम्य
भाषा-शैली में प्रेम-प्रीति-समर्पण और भक्ति से रचे ये गीत आज की इस भागमभाग और
कोलाहल भरी ज़िंदगी से दूर एकांत में ले जाकर मन को एक विशिष्ट क़िस्म का सुकून देते
हैं।
माता सरस्वती की वन्दना से संग्रह का आरम्भ करते हुए रामवीर जी लिखते हैं- ‘स्वर देवी को नमन हमारा/हर उमंग में हर तरंग में/चाहिए माँ आशीष तुम्हारा...’। इसके बाद भी एक अन्य गीत ‘माँ की शरण में’ की ये पंक्तियाँ देखिए-‘मैया कर दो नैया पार/फसा हुआ मैं बीच भंवर में/पहुँचा दे उस पार...’।
काव्य-संकलन की देहरी पर खड़ी हुई कवि के अंतस की
मीरा पैरों में बाँध,
वीणा के तारों में वेणुवर साध लिए अनगाये गीतों को गाने को आतुर भाव,
अक्षत, प्रेम दीप और श्रद्धा का हार लिए मन के
मंदिर में पूजा की थाली लिए दीप, गीत, मन,
प्राण, ये धड़कन और ये साँसें...सब कुछ अर्पित
करने को अपने प्रियतम ‘प्रभु’ का
इंतज़ार कर रही हैं। इन गीतों में प्रतीक्षा है, मनुहार है, शिकवा-गिला है तो प्यार
भरी धमकी भी दृष्टव्य है-‘लोक लाज छोड़ि सब, फिरूँ गली-गली अब/ऐसी भई वाबरी बैरिन
भई बाँसुरी...’। ‘बाजी रे बाजी रे मुरलिया श्याम की/यमुना के तीर तीर, पवन चले सीर
सीर/आई सुगंध जाने किस धाम की...’। ‘पिय से मिलेंगे जाय, चलो सखी यमुना
किनारे/खोजेंगे तट तट धाय, चलो सखी यमुना किनारे...’। ‘मन की तुझको माला
लाया/श्रृद्धा का मैंने फूल सजाया/खड़े खड़े सब हुआ बेकार, जागो जागो रे कन्हाई...’।
‘कहाँ छुपे मेरे श्याम सलौने ढूँढत ढूँढत सब दिन ढल गया/रैन गई अब होने...’। ‘तू
जाने घट घट की प्यारे/क्यों नहीं समझे कष्ट हमारे/करूँ याद तुझको जतन क्या न
कीया/बता दे श्याम मेरे जनम क्यों दीया...’। ‘बहुत दिन बीते अजहू न लौटें/क्या हम
इतने लगते खोटे/इतना तो मोहन बताना पड़ेगा...’। ‘कोई न मुझको अपना दीखे जो कन्त
मिलाये/प्रीतम प्यारे बिना तुम्हारे मोहि सबहि सताये/कहे वीर इस निर्दयी जग ने
जीवित ही जलाये’। ‘देर करोगे हाथ मलोगे/फेरि नहीं नाथ देख सकोगे/गहूँ राह मीराबाई
की/जिसने विष का पान किया रे...’। ‘एक झलक
लखवे को तेरी/अँखियाँ तरस गई हैं मेरी/और लगाओगे कितने दिन/श्याम पिया मोहे करो
सुहागन...’।
रामवीर जी ने उसी साँवरिया के नाम चुनरिया रंगों
दी है जो मीरा के गिरधर और राधा के श्याम हैं। गौर से देखा
जाए तो यह सब उनके मन के भीतर की छटपटाहट है, एक पुकार है जिसे वह शब्दों में
ढालकर गीत को जन्म देते हैं। सरल सहज भाषा में रचे ये प्रेम-भक्ति के गीत मन को
भीतर तक भिंगो देते हैं और कुछ क्षणों के लिए हम खुद की सुधि बिसरा देते हैं।
हमें यकीन है कि भक्ति भाव के रसिकों द्वारा श्री
रामवीर सिंह ‘वीर’ जी के इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। हम उनको अहर्निश
शुभकामनाएं देते हुए अपनी वाणी को उनके गीत की इन पंक्तियों के साथ विराम देते हैं...
‘भजन करि लै जीवन थोड़ा है/प्रेम करि लै जीवन
थोड़ा है, यही नाता हरि ने जोड़ा है...’
सारिका मुकेश
23.11.2019
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पुस्तक- बैरिन भई बाँसुरी (गीत संग्रह)
पुस्तक- बैरिन भई बाँसुरी (गीत संग्रह)
लेखक : डॉ. रामवीर सिंह वीर
प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य: 151/- रुपये मात्र
पृष्ठ: 112
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Behtareen!! Shri Krishna Ji ki to baat hi alag hai!!
ReplyDeleteBahut Bahut Badhayi aur Shubhkamnayen Apko!!
Jai ho! Jai Jai Shri Krishna!!
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