मानव मन
सदा से संवेदनशील रहा है और यही गुण उसके भीतर एक छटपटाहट, एक अज़ीब क़िस्म की बेचैनी उत्पन्न करता है। अगर इसी बेचैनी को व्यक्त करने
के लिए कोई कविता को माध्यम बनाए और कविता कहने से पूर्व आपकी इजाज़त माँगे तो दिल
में ऐसे शख्स की विनम्रता के लिए कुछ स्नेह तो अवश्य उमड़ता है। जी हाँ,
कोलकाता के श्री दीनेश चन्द्र प्रसाद 'दीनेश'
ने अपने काव्यसंग्रह का नाम ही रखा है-'अगर
इज़ाज़त हो'। यह उनका प्रथम संग्रह है। इस संग्रह में जगह-जगह
संवेदनाएँ बिखरी पड़ी हैं। ग़ौर से देखा जाए तो यह सब कवि के मन के भीतर की छटपटाहट
है, जिसे लिखकर किसी को दुःख पहुँचाने या अपमानित करने का
उसका उद्देश्य कदापि नहीं है, बल्कि वो तो इसे शब्दों में
ढालकर कविता की शक्ल में काग़ज़ के वक्ष पर शायद इस आशा से उतार रहा है कि शायद इससे
कहीं कुछ सकारात्मक परिवर्तन हो जाए। संग्रह की भूमिका में अपने लेखन और इस संग्रह
की कविताओं के विषय में स्वयं कवि ने काफ़ी कुछ स्पष्ट कर दिया है। उनमें न केवल
समकालीन वास्तविकताओं को समझने-परखने की क्षमता है, अपितु
विषमताओं के प्रति मन में एक कड़वाहट है और अकुलाहट है इनका रुख मोड़ने की।
प्रस्तुत कविता-संग्रह इसका साक्ष्य साबित हो; ऐसी कामना है।
यह हक़ीक़त
है कि हम भले ही कितनी समता की बातें कर लें पर आज भी हमारी आधी आबादी पूर्ण रूप
से न तो स्वतंत्र ही हो सकी है और न ही उसे बराबरी का दर्ज़ा मिल सका है। यह समस्या
सिर्फ़ हमारे देश भारत की ही नहीं बल्कि कमोबेश समूचे विश्व की है। स्त्री-जीवन की
आज भी अपनी अनेक समस्याएं हैं, जिन पर विमर्श होना चाहिए। ऐसे
ही कुछ मुद्दों पर जब दीनेश जी की कलम चलती है तो संवेदनाएं भीतर से निकलकर आती
हैं और बात कुछ अलग दिखती है। उनकी लेखनी से स्त्री-विमर्श में न तो कोई झूठी
हमदर्दी दिखती है और न ही झूठे अहंकार की मालिकाना बू आती है। इन विसंगतियो को
देखकर दीनेश जी विचलित होते हैं लेकिन साथ ही साथ वो अपनी पुरानी संस्कृति के
संवाहक हैं और उसके संरक्षण हेतु भी चिंतित और कार्यरत दिखाई पड़ते हैं। बात भी सही
है, नैतिकता और आदर्श के संग कहीं समझौता न करना पड़े,
तब स्वतंत्रता और समानता के सही मानी होंगे वरना उसकी स्थिति
सामान्य से भी बद्तर ही कही जाएगी। 'माँ' पर लिखी उनकी कविताओं में वात्सल्य की विशिष्ट महक आती है।
उनके लेखन
का कैनवास विस्तृत है। उनकी सजग और सचेतन दृष्टि से दैनिक जीवन की तमाम अनुभूतियों
के साथ-साथ राजनैतिक परिवेश से लेकर शिक्षा, समाज, संस्कृति, धर्म आदि जैसा कोई भी विषय नहीं बच पाया
है और उन्होंने अपनी कलम बखूबी चलायी है, जो उन्हें अलग
पहचान देने में सक्षम होगी।
निष्कर्ष
के तौर पर यही कहा जा सकता है कि उनके इस संग्रह को पढ़ने के बाद एक तरह की अज़ीब-सी
बेचैनी महसूस होती है और पाठक को सोचते रहने को विवश करती हैं। जो उनके प्रथम
प्रयास को प्रशंसनीय बनाती है और उनके आशावान भविष्य की ओर संकेत भी करती है।
उत्तम
क़िस्म के काग़ज़ पर छपी इस पुस्तक का श्री सुनील निंबरे द्वारा बनाया कवर पेज सुन्दर
है और छपाई भी आकर्षक और पठनीय है, जिसके लिए मुद्रक
एवं प्रकाशक, आर. के.पब्लिकेशन, मुंबई
बधाई के पात्र हैं ।
हमें यकीन
है कि उनका यह प्रथम काव्य-संग्रह साहित्य-प्रेमियों को रुचिकर लगेगा और इसका
स्वागत होगा। हम अंतस की गहराइयों से कवि श्री दीनेश जी को हार्दिक बधाई देते हैं, साथ ही भविष्य में लेखन-प्रक्रिया जारी रख हिंदी साहित्य में निरंतर
संवृद्धि करने हेतु अपनी अहर्निश शुभकामनाएं देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम
देते हैं।
इत्यलम।।
सारिका
मुकेश
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पुस्तक :
अगर इजाज़त हो (कविता संग्रह)
लेखक :
श्री दिनेश चन्द्र प्रसाद 'दीनेश'
प्रकाशक :
आर के पब्लिकेशन,
दहिसर, मुम्बई
मूल्य: 175/-
पृष्ठ: 122
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