हम सब भारतवासी बड़े ख़ुशनसीब हैं कि सूर्य देव
प्रतिदिन अपनी रश्मिरथी के साथ हमारी पावन भूमि को प्रकाशमान करते हैं। जीवन में
कितने ही अंधकार हों पर धूप आती तो है...यही धूप हमें ऊर्जावान कर आशावान बनाए
रखती है और हम जीवन की तमाम विषमताओं से लड़ते-जूझते रहते हैं। कुछ ऐसी ही धूप को
लेकर ‘शब्दध्वज
पत्रिका’
का
अंक-28 उपस्थित हुआ है श्री पंकज पटेरिया के नवीनतम् काव्य-संग्रह ‘धूप
आती तो है.....’
के
रूप में। जीवन की बगिया के तमाम फूलों और काँटों को स्पर्श करती यह धूप आपके भीतर
तक उतरकर अपनी पैठ बनाने को आतुर दिखती है और बहुत हद तक सक्षम भी है।
मानवीय मन की अतीत में झाँकने की प्रवृत्ति होती
है पर जब वर्तमान सुखद और मधुर स्मृतियों/सुविधाओं से भरा
हो तो मन अतीत को भुला देना चाहता है। फिर यह कैसी विसंगति है कि आज जब हम
दिन-प्रतिदिन तमाम सुख और सुविधाओं के संग प्रगति और विकास के पथ पर अग्रसर हैं तब
हमारा मन पुराने बीते समय की गली-कूचे में घूमने-फिरने को आमादा है और वो उन
खट्टी-मीठी स्मृत/विस्मृत होती स्मृतियों से बाहर ही नहीं आना चाहता।
नर्मदा किनारे होशंगाबाद में रहने की वजह से
नदियों से पटौरी जी को विशेष जुड़ाव, आस्था और आत्मीयता
के साथ-साथ उनके प्रति मन में एक कौतूहल सा है और कवि मन गा उठता है: ‘जाने कहाँ जाती नदियाँ, गुनगुनाती
गाती नदियाँ...’। इसी के साथ एकाएक वो सूखती जा रही अनेकों नदियों के प्रति चिंतित हो गा
उठता है: ‘सूख रही गंगा,
यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा,
ताप्ती नदियाँ...’ और ‘अब बहुत बेचैन
रहती नर्मदा, फ़िक्र में डूबी रहती है नर्मदा...क्षीण होती
देहयष्टि/गिर रही सेहत/ढह रही सीढ़ियाँ/ गुरजे और तट/सुलगते प्रश्न क्या बचेगी
नर्मदा...एक भींगी स्मृति रह जायेगी नर्मदा’। प्रतिदिन कटते हुए वनों को देख सुप्रसिद्ध
साहित्यकार/कवि श्री भवानी प्रसाद मिश्र जी को याद करते हुए यह पंक्तियाँ देखिए; ‘भवानी भाई का घना/जंगल लुट रहा है/सतपुरा सीने
पर/ पत्थर रख रो रहा है/गोद में जिसकी पली बढ़ी नर्मदा’। प्रकृति से उनका एक आत्मीयता का रिश्ता है।
वो अपनी इन कविताओं में ‘रोज
सुबह आँगन में डोलती और चावल बीनती पत्नी को छेड़ती
गोरैया, सलेटी शाल ओढ़े रेवा का दर्शन करने आती हुई साँझ,
आग उगलते भट्टी से शहर में कच्ची दीवारों शीश महल से अच्छा कच्चे
छप्पर वाला अपना घर...’ और ‘फूलों का अख़बार बाँचती गुनगुनी धूप....ओस का टॉप
और दूबिया जींस पहन गुलाबी स्कार्फ़ लपेटे आँखों में उतरती यादों की धूप/जाड़े की
धूप...’ के साथ-साथ एक शाम
अपने घर ईशान परिसर से हाईवे पर घूमने जाते हुए एकाएक तवा कॉलोनी के आवास एच-34 के
द्वार के सामने नीलगिरी के उन तीन पेड़ों को याद करते हैं, जिनके
नीचे घुटैयाँ-घुटैयाँ लुढ़कते चलते-फिरते उनके बच्चों लकी-मिकी की किलकारियाँ
गूँजती थीं, जो पत्नी रीता को मंद-मंद मुस्काते आशीष लुटाते
थे। नीलगिरी के उन पेड़ों के प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हुए यह पंक्तियाँ दृष्टव्य
हैं: ‘हमारे कितने संकटों
को/अपने सीने पर झेलते रहे तने खड़े हुए/और घर आँगन में मौज मस्ती भरी/कटती रही
हमारी जिन्दगी....नीलगिरी के तीन पेड़ तुम सदा झूमते रहते हो/हमारे मन आँगन में/और
आज भी, और रोज भी, हमारी यादों
में/बजते रहते तुम्हारी पत्तियों के मंजीरे’। प्रकृति के प्रति इतनी आत्मीयता, विनम्र धन्यवाद ज्ञापन और अहोभाव पटेरिया जी की विशेष पूँजी हैं। ईश्वर
इसमें दिन-रात तरक्की करे और प्रकृति के प्रति यही आत्मीयता और प्रेम आम जनमानस को
भी प्रदान करे।
अम्मा और पिता जी को स्मरण करते हुए भी कविता
सुंदर बन पड़ी हैं: ‘अम्मा के जाते ही घर टूट गया/सबको जोड़े था वह
धागा छूट गया...इस तरह मुँह फेर लिया आईनों ने/जैसे अपना साया भी रूठ गया’ और यह कविताएं: ‘अम्मा का विश्वाश हमारे बाबू जी थे/घर की
बुनियाद हमारे बाबू जी थे’...‘ता उमर सलामती की दुआए दे गए, चूमकर माथा सारी बलाये
ले गए...’ ।
वर्तमान का चित्रण करने में भी वो पूरी तरह से
सफ़ल रहे हैं। उनकी नज़र में आज भी हालत पहले जैसे है हैं, लगता है कुछ नहीं बदला...‘मुंशी
प्रेमचंद का होरी/आज भी जिंदा है/हमारे आसपास मौजूद है/उसकी तकलीफ़ें आज भी हरी हैं’...वो आज भी फटी, बड़ी
लंगोटी में क़र्ज़ से लदा अफ़सरशाही के सामने हाथ जोड़े रहमोंकरम की भीख मांगने को
विवश है और अच्छे दिन की प्रतीक्षा कर रहा है: ‘राग दरबारी जारी है/वही तमाशा जारी है... अच्छे दिन के स्वागत में/आँखें
बिछी हमारी हैं’।
आत्मीय सम्बन्ध तो अब किताबी बातें हो गए। पुराने दिनों और आज के दौर के यथार्थ को रेखांकित करती दो कविताओं की यह
पंक्तियाँ देखिए: ‘गर्मी जाड़ा
बारिशें तब भी होती थी/दुःख तकलीफें सभी तब भी होती थी/कितना अच्छा था लेकिन जो
वक्त गुज़र गया/आधे-पौने में भी गुज़र ख़ुशी-ख़ुशी होती थी...’ तथा आज के बदले हुए दौर पर ये पंक्तियाँ: ‘संबंधों के धुंधले दर्पण/जाये कहाँ उदास मन...’ और ऐसे माहौल में-‘किसके घर
मिल आएं/बोल बैठ बतिया आएं...घर के दर्पण मुह फेरे हैं/आस-पड़ौस गूँगे-बहरे
हैं/कैसे उत्सव कैसे मेले/खुद में बंद कैद अकेले हैं....’ अंत में पटेरिया जी कहते हैं: ‘अब तो फ्लैटों में बंद हो गए लोग/2-बीएचके, 3-बीएचके
में कैद हो गए लोग/अब तो बस उगती जा रही हैं/ कॉलोनियां-कॉलोनियां /जिनमें रहते
हैं बेगाने-बेगानियाँ’।
श्री पटेरिया जी का यह काव्य-संग्रह क्लिष्ट
शाब्दिक आडम्बर से दूर सरल सहज भाषा में अपनी अनुभूतियों/संवेदनाओं और सामायिक
मुद्दों पर पाठक को आदि से अंत तक बांधे रखने में सफ़ल है। सच कहें तो इसके माध्यम
से पटेरिया जी काव्य-सम्वाद करते नज़र आते हैं और यही इस संग्रह की आत्मिक विशेषता
है। हम इस सृजन के लिए उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हैं। हमें विश्वाश
है कि साहित्य प्रेमी उनके इस काव्य-सम्वाद से न केवल खुद जुड़ेंगे बल्कि इसको आगे
बढ़ाएंगे।
अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि जीवन में हमेशा
आशावान और ऊर्जावान रहकर अपने कार्य-क्षेत्र में आगे आगे बढ़ते रहिए:
माना कि जीवन में दुश्वारियाँ हमें बहुत सताती
तो हैं
रुक-रुक कर सही, छन-छन कर
सही, धूप आती तो है।
सारिका मुकेश
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