यह सच है कि हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा को
लम्बे समय तक उपेक्षित होने का दंश झेलना पड़ा है। कई दिग्गज़ व्यंग्यकारों के सीन
पर उपस्थित रहकर निरंतर संघर्ष करने के बावजूद बरसों तक हिन्दी के नामवर आलोचकों
की दृष्टि ने इसे गम्भीर सृजन की कोटि में नहीं रखा परन्तु फिर भी पाठकों के भरपूर
स्नेह और आशीर्वाद से उर्जस्वित होकर यह निरन्तर पल्लवित और पुष्पित होता चला गया
और शायद यही वज़ह है कि आख़िरकार एक दिन ज्ञानपीठ पुरस्कार द्वारा इसका संज्ञान लेना
पड़ा और अंततः व्यंग्यकारों को कुछ सुकून मिला। अब यह निर्विवाद रूप से स्वीकार कर
लिया गया है कि व्यंग्य एक शक्तिशाली औज़ार है और वह हिन्दी साहित्य में अपना एक
विशिष्ट स्थान बना चुका है। उसकी पहुँच और प्रभाव के दायरे में लगभग सब कुछ आता
दिख रहा है। पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य का होना आवश्यक-सा हो गया है। और
प्रतिवर्ष न जाने कितने व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। यही कारण है कि अनेक
रचनाकार साहित्य की अन्य विधाओं पर लेखनी चलाने के साथ-साथ व्यंग्य लेखन भी पूरी
शिद्दत के साथ कर रहे हैं।

पेशे से शिक्षक, विनम्र,
सरल सहज व्यक्तित्व वाले श्री अमरेन्द्र कुमार सिंह जी ने अपनी
बौद्धिक सजगता और सामाजिक प्रतिबद्धता के मद्देनज़र अपनी एक विशिष्ट पहचान बनायी
है। उनका यह तीसरा व्यंग्य संग्रह है और इसके अतिरिक्त वे एक व्यंग्य संग्रह का
सम्पादन भी कर चुके हैं। व्यंग्य के प्रति उनके गहन समर्पण को इसी तथ्य से समझा जा
सकता है कि आज जबकि हिन्दी पत्रिकाएं बन्द होने के कगार पड़ खड़ी हैं, ऐसे माहौल में वो एक पत्रिका का संचालन निजी बलबूते पर करते आ रहे हैं जो
कि हास्य व्यंग्य को ही समर्पित है।
वो ‘फ़ैशन’ के लिए व्यंग्य नहीं लिखते बल्कि व्यंग्य लिखना उनके लिए एक ‘पैशन’ है। उनके रचनाकर्म में एक आवेग, बेचैनी, बेसब्री और रचनात्मक व्यग्रता है। वो अपने
लेखन को फ़ालतू के जुमलो से सजाने-सँवारने का प्रयत्न नहीं करते। उनका लेखन पाठक के
समक्ष सम्पूर्ण दृश्य-चित्र उपस्थित करने में सक्षम है।
विश्व में एक बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरते
हुए इस समृद्ध भारत में अभावों में आदमी कैसी संत्रास भरी ज़िन्दगी जीता है...कैसे
घुट-घुट कर जीने और अपमान के घूँट पिटे हुए तिल-तिल मरने को विवश है...उसकी गरीबी
और उसका साधारण होना उसे न केवल अग्रिम पंक्ति से पीछे की पंक्ति में धकेल देता है
बल्कि सच पूछिए तो उसे हाशिए पर ला पटकता है। कुव्यवस्था,अफ़सरशाही, भ्रष्टाचार और वोट के बदले में मिलती
निरन्तर चोट उसके मन को भीतर तक आहत कर जाती है। लोकतन्त्र उसे ठगतंत्र नज़र आने
लगा है। इस बाज़ारवाद और चकाचौंध वाले युग में हाथ में मोबाइल और ज़ेब में एटीएम
कार्ड रखे आम/साधारण आदमी की पीड़ा और उसके मनावेगों की चीत्कार का स्वर हर ओर
सुनाई देता है। सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह जुटा व्यक्ति जीवन में आनन्द
के मानी ही भूल गया है। विश्व से जुड़ा होने के बावजूद वो अपनों से इस तरह कट चुका
है कि ‘मन की बात’कहने के लिए उसे अपने
पास कोई नज़र नहीं आता। कभी-कभी तो उसे मानव होने पर भी शक और शर्म का बोध होता है
और इस जीवन के प्रति उसके मन में विरक्ति और नैराश्य का भाव उभरने लगता है। अपने
मन में एक अजीब से कशमकश लिए मानो वो जीते चले जाने को अभिशप्त है।
यह सत्य है कि दर्द हमें पीड़ा देता है, रुलाता है पर कभी-कभी कोई आदमी दर्द से ही सवाल करने लगता है, उसको ही चिकोटी काटने लगता है...दर्द को ही दवा बनाकर उसी से दर्द का इलाज़
करने लगता है...अपने व्यंग्य लेखन के माध्यम से कुछ ऐसा ही काम करते हैं श्री
अमरेन्द्र जी। उन्होंने यह व्यंग्य वैभवशाली जीवन जीते हुए बुद्धि विलास के लिए
नहीं लिखे हैं बल्कि वो उनके स्वयं के द्वारा क़दम-क़दम पर जीवन में भोगे हुए यथार्थ
की पीड़ा हैं, उसके दंश का दस्तावेज़ हैं। वो सुबह की चाय पीते
हुए पेपर की जुगाली करते हुए व्यंग्य नहीं लिखते बल्कि अपनी दिनचर्या में उनसे
मुठभेड़ कर, उनसे दो चार करते हुए उसे काग़ज़ पर उतारते हैं।
यही वज़ह है कि आप उन्हें पढ़ते हुए एक अज़ीब-सी कशिश, एक अज़ीब
सा जुड़ाव और अपनापन महसूस करते हुए उनके शब्द-शिल्प को अपने आसपास के वातावरण में
साँस लेते महसूस करते हैं, अपने आसपास या ख़ुद के साथ घटता
महसूस करते हैं।
वो फ़ालतू के कोरे उपदेश देने या किसी विशेष की
टांग खिंचाई करने के लिए व्यंग्य नहीं लिखते हैं बल्कि इस जीवन की विसंगतियों पर
लिखते हैं। वो ज़िन्दगी की थाली के लज़ीज़ व्यंजनों से कुटके (रोड़ी, कंकड़) बाहर निकाल फेंक कर उसमें अपने लेखन का ऐसा तड़का लगाते हैं कि आप
दाँतों तले अँगुली दबा लें।
जीवन की कड़वी हक़ीकत से टकराना और उस पर लिखना
उनका रचनाकर्म है। वो वैश्वीकरण और भौगोलीकरण के इस डिजिटल दौर में,जबकि पूरी दुनिया हमारी मुट्ठी में आ गई है परन्तु अपने लोग, रिश्ते, संस्कृति और मूल्य हमारी मुट्ठी से रेत की
भाँति निकलते/फ़िसलते जा रहे हैं, मानस मन के रहस्यों को
खोलकर रख देते हैं। उनके व्यंग्यों को पढ़ते हुए पाठक आज के यंत्रवत होते जा रहे
मानव जीवन की अंतर्यात्रा से तो गुजरता ही है पर साथ ही साथ उसमें समायी
अंतर्व्यथा भी पाठक की रग-रग में समा जाती है। जीवन को सच्चे अर्थों में उद्घाटित
करते,परोसते ये व्यंग्य विशिष्ट भी हैं और नायाब भी।
तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों के बावजूद उनका
दृष्टिकोण सकारात्मक है। उनकी भाषा सरल,सहज और प्रवाहमयी
है। कहीं भी उन्होंने उसे अनावश्यक रूप से सजाने-सँवारने का उपक्रम न कर बोझिल
होने से बचाया है। उनकी भाषा उनके हृदय से स्वत: प्रवाहमयी होकर पृष्ठों पर बहती
चली जाती है। सच कहें तो अपने इन व्यंग्यों में सम्वाद स्थापित करते दिखाई देते
हैं। संक्षेप में, इतने सरल और सहज रूप से लिखे गए ये
व्यंग्य किसी के भी दिल में अपना स्थान खुद तलाश लेने में पूर्ण रूप से समर्थ
दिखते हैं। श्री अमरेन्द्र जी के शब्दों में यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहेंगे कि ‘व्यंग्यकार का काम समाज को आईना दिखाना होता है। समाज आईने में अपनी विकृत
सूरत देखे या सूरत में आई विकृति को देखने से बचने के लिए आँखें बन्द कर ले,
यह तो समाज पर निर्भर करता है’।
हमें यकीन है कि श्री अमरेन्द्र कुमार सिंह जी
का यह व्यंग्य संग्रह समस्त साहित्य प्रेमियों के लिए न केवल पठनीय बल्कि
संग्रहणीय सिद्ध होगा और हिंदी साहित्य जगत् में इसका भरपूर स्वागत होगा। हम उनके
सृजन कर्म हेतु अपनी ओर से हार्दिक बधाई और उनके स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने हेतु
शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को यही विराम देते हैं।
इत्यलम।।
सारिका मुकेश
______________________________________________
पुस्तक
: कफ़न में जेब है (व्यंग्य संग्रह)
लेखक
: श्री अमरेन्द्र कुमार सिंह
प्रकाशक
: साहित्य संस्थान,
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)
मूल्य:
350/-
पृष्ठ:
120
______________________________________________________
No comments:
Post a Comment