Monday, 11 November 2019

मौज़ूदा समय के आसपास 'शब्दों के कैनवास'





डॉ. सारिका मुकेश का हाइकु-संग्रह शब्दों के कैनवास मेरे सम्मुख है। इससे पूर्व उनके तीन हाइकु-संग्रह पाठकों द्वारा अत्यन्त स्नेह से देखे और पढ़े गए हैं। प्रत्येक पृष्ठ पर तीन-तीन हाइकु दे कर पाठक के लिये सुविधाजनक स्थिति बना दी गई है । हाइकु कब और कहाँ पर लिखा गया हैयह विवरण भी प्रत्येक हाइकु के साथ उसके नीचे अंकित है। अपने प्रिय पुत्रों अगस्त्य और औरव को समर्पित डॉ. सारिका मुकेश का यह हाइकु-संग्रह कवि के जीवन की डायरी लगता हैजिसमें उन्होंने अपने हर सुख-दु:खअपने हर अनुभव के यथार्थ को हाइकु के रुप में कलमबद्ध कर इस जगत् से साझा करने का प्रयास किया है। कुल 112 पृष्ठ की सम्पूर्ण पुस्तक में अनेक विषयों को स्थान दिया गया है ।  







सारिका मुकेश













हाइकु मूल रूप से एक जापानी विधा हैजिसका प्रचलन आजकल हिंदी साहित्य में जोरों पर हैआजकल हिंदी में हाइकु विधा पर खूब पुस्तकें आ रही हैंमात्र तीन पंक्तियों और केवल 17 (5+7+5=17) वर्णों में पूर्ण रूप से व्यक्त होने वाला हाइकु दिखने में भले ही छोटा-सा लगे पर यह स्वयं में एक पूर्ण कविता है। यथा:चहके पक्षी/खिल उठी कलियाँ/हुई सुबह और ईश्वर शक्ति/मन का तम हरे/मूल्य से परे-इसको पढ़ने के लिए कितना समय चाहिएमगर इसकी स्वाभाविकता को पढ़ने के लिए बुद्धि-कौशल की क्षमता की प्रशंशा की जानी चाहिए। हाइकु की समर्थता पर ही हाइकु को इतनी प्रशंसा मिली है कि अचंभित होकर मुख से यही निकलता है: हुआ अचंभा/अदना-सा हाइकु/इत्ती प्रशंसा
 इस नये हाइकु-संग्रह का प्रारम्भ वन्दना से किया गया है: पुकारे मन/आ भी जाओ प्रभु/दे दो दर्शन‘करूँ वन्दन/आन बसो हे प्रभु/मन आँगन‘माँ सरस्वती/तुझको समर्पित/प्रथम दीप और पुस्तक का अंतिम हाइकु सदा मैं करूँ/बस तेरा ही ध्यान/हे भगवान,  ईश्वर के प्रति अगाध आस्था और प्रेम के रूप में देखे जा सकते हैं।
प्रकृति के पग-पग परिवर्तित होते स्वरूप का वर्णन भी यहाँ प्रभावी रूप से देखा और उसका आनन्द लिया जा सकता है: महकी हवा/पेड़ों पे आया बौर/बौराया मनइच्छा अनंत/रूप का नहीं अंत/सुनो वसंतपुष्पों के जैसी/महकती हुई-सी/दिखी सुबहखिला-सा मन/चहक उठे पक्षी/हुई सुबहकली खिलती/जैसे अबोध शिशु/खोले अँखियाँ
इस संग्रह में करुणा और प्रेम दोनों मानवीय भाव की अजस्त्र धारा निनादित है। दृष्टव्य: हर ले पीड़ा/तेरी एक मुसकान/ओ मेरे प्राणदेख के तुम्हें/हो उठे प्रज्ज्वलित/आशा के दीपजिसे भी कभी/तूने प्रेम से छुआ/पारस हुआतुझ-सा प्यार/ना मिल सका कहीं/ढूँढा संसार‘बसूँ तुम में/मैं बनकर खुश्बू/जैसे गुलाबये अभिलाषा/पढ़ सको तो पढ़ो/मन की भाषाले चल वहाँ/हो जहाँ ताज़ी हवा/खुला आकाश
आज की दुनिया में प्रेम के स्थान पर छल-कपट, चालबाज़ी और पैसा आ गए हैं। इस माहौल में ये हाइकु देखिए: चलन कैसा/हो गया सब कुछ/पैसा ही पैसानिकला काम/हो गए उड़न-छू/फिर कौन तूना हो यकीन/क्यों टूटते विश्वाश/पल भर मेंक्या करूँ यकीं/लूटा किए अपने/मुझे ता-उम्र और ये कैसी दास्ताँ/डुबोया अपनों ने/सदा कारवाँ 
मानव जीवन के यथार्थ को बख़ूबी उकेरते ये हाइकु दृष्टव्य हैं: उम्र का बोझ/अधेड़ लालसाएं/अतृप्त प्यासबढ़ती कहाँ/घटे वक़्त के संग/हमारी उम्रझुर्रियों बीच/वक़्त के हस्ताक्षर/चेहरे पर और थका पथिक/मृत्यु आई निकट/खो गए तट। वृद्धावस्था आज एक समस्या-सी बन गई है। विदेशों में बसे बच्चे और यहाँ एकांतवास की पीड़ा भोगते माता-पिता आज की कड़वी सच्चाई हैं: आया बुढ़ापा/नहीं है ज़रूरत/हमारी अब, नहीं है वक्त/हमारे लिए अब/किसी के पास, कभी तो बच्चे/पंछियों की तरह/आते मिलनेयह दर्द लाज़िमी है क्योंकि हर किसी की यह चाह होती है: इतना मिले/दो वक़्त का भोजन/थोड़ा-सा प्यार
नारी की दशा और दिशा पर प्रकाश डालते ये हाइकु सामाजिक और वैचारिकता के धरातल की भी एक पड़ताल हैं: अजीब व्याख्या/करें चीरहरण/पूजते नारीले के अक्सर/बचे फिरते दुष्ट/धर्म की ओटओ रे मानव/क्यों करे शर्मसार/यूँ मानवताबदले युग/मानव तुम कभी/हुए न सभ्य। आप सोच सकते हैं कि कितनी मानसिक पीड़ा के साथ इन हाइकुओं की उत्पत्ति हुई होगी: मासूम कली/पड़ी दुष्ट हाथों/धूल में मिली, ‘चीखती रही/गूँजते रहे बस/हवा में शब्द’, वामा होने की/कितनी ही दामिनी/भोगती सज़ाबेबस नारी/अजीब-सा माहौल/कैसा मखौल
ये तो महज बानगी है...पता नहीं ऐसे कितने ही हाइकु इस संग्रह में संकलित हैंजिन्हें बार-बार पढ़ने को मन करता है। सब हाइकु अंतस को स्पर्श कर जाते हैं। पुस्तक के पार्श्व पृष्ठ पर इस पुस्तक के नामकरण को जन्म देते विचारों को इस कविता के रूप में उभारा गया है: यहाँ-वहाँइधर-उधर/हर जगहहर कहीं/हीरे-माणिक-मोतियों से/बिखरे पड़े दीखते हैं शब्द/कभी शोर करते/तो कभी मौन से पड़े/कभी अजनबियों से प्रेम करते/कभी अपनों से लड़े/कभी गीता का संदेश बने/कभी बने गुरुवाणी/कभी रामायणमहाभारत बन गए/कभी पुराण और वेदों की वाणी/जहाँ कहीं भी नज़र जाती है/दूर हो या पास/सर्वत्र बिखरे दीखते हैं मुझे/शब्दों के कैनवास। इसी भाव को समेटे इस हाइकु का भी ज़वाब नहीं-यहाँ से वहाँ/शब्दों के कैनवास/रंग बिरंगे
मुझे विश्वास है कि साहित्य जगत में इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। संकलन का कवर पेज भी बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैंजिसके लिए प्रकाशक साधुवाद के पात्र हैं।
अंत में, इनकी लेखन-प्रक्रिया अनेकानेक ऊँचाइयों को स्पर्श कर साहित्य को समृद्ध करें, इसी कामना के साथ डॉ. सारिका मुकेश को हार्दिक बधाई देते हुए इस संग्रह के अपने अन्य पसंदीदा इन तीन हाइकुओं के साथ विदा लेती हूँ: ‘मैं और तुम/अपने समय के/ये हस्ताक्षर’, ‘यूँ काम आओ/ज्यों लाइटहाउस/राह दिखाए’  और दीप से बनो/बिखराओ उजाला/मिटाओ तम’।



                                                            अनामिका त्यागी, द्वारका, दिल्ली




पुस्तक का नाम: शब्दों के कैनवास (हाइकु-संग्रह)
ISBN:          978-81-88464-65-4
कवि: डॉ. सारिका मुकेश
प्रकाशन: जाह्नवी प्रकाशनदिल्ली-110095
कुल पृष्ठ: 112
मूल्य: रु. 250/-




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