Sunday, 20 October 2019

मानवीय संवेदनाओं का कोलाज़ है कहानी संग्रह ‘सुलगती साँझ’





एकाएक ही सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा जी का स्मरण हो आया है। उन्होंने किसी को उद्धृत करते हुए कहीं लिखा है: ‘कहानीकार मानव आत्मा का डिटेक्टिव होता है...’। यह एकदम सच है तब ही तो वह मानव शरीर के भीतर का पूरा सच जाँचता परखता है और उसे पाठकों के समक्ष ला रखता है। आज हम आपको ऐसे ही एक डिटेक्टिव (कहानीकार) गुडगाँव निवासी प्रो. डॉ. ओमीश परुथी जी के कहानी संग्रह ‘सुलगती साँझ’ से रू-ब-रू  कराने जा रहे हैं।
कला और शिल्प के तौर पर परूथी जी कहानियों के विषय में यही कहा जा सकता है कि वो किसी भी वाद से परे, शब्दों की क्लिष्टता से दूर रह बिना किसी आडम्बर के अपनी संयमित और संतुलित सरल सहज और संप्रेषणीय भाषा से कहानी बुनते हैं। पेशे से पूर्व में प्रोफ़ेसर रहने की वजह से वो कहानी में कहीं भी अनावश्यक विस्तार देने और/या जबरदस्ती अपनी दखलंदाज़ी से बचे हैं। उनकी कहानियाँ नपी-तुली और संतुलित हैं-एक सटीक और सारगर्भित व्याख्यान की तरह लेकिन कहानीपन लिए हुए। सभी कहानियाँ कक्षा में सुनाई जा सकती हैं। वो कहानी को पाठक के समक्ष ऐसे रखते हैं कि पाठक को उनकी उपस्थिति अपने आसपास ही महसूस होती है। समय की आहट को महसूस करते हुए जीवन में आए बदलाव और उसके सूक्ष्म अनुभवों को सटीक ढंग से बुनकर ये कहानियाँ रची गई हैं। सरल सहज और प्रवाहमयी भाषा से पठनीयता और संप्रेषणीयता सतत बनी रहती है। आप एक बार किताब उठा लें तो पूरी ख़त्म होने से पूर्व उसे छोड़ नहीं पाएंगे। परूथी जी को चित्रकारिता का भी शौक है और शायद यही वजह है कि उनकी कहानियों में कई जगह शब्द चित्रण सजीव हो उठते हैं।  




कथ्य की दृष्टि से उनकी कहानियाँ विविधवर्णी हैं। उनकी कहानियों में मनोवैज्ञानिक, अस्तित्वगत और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ रोजमर्रा जीवन के सामान्य और भयावह सच लिए मानवीय अनुभव भी हैं जिनमें उनके संस्कार, प्रेरणा और अंतर्दृष्टि की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। वो अपनी पुरानी भारतीय संस्कृति और नैतिक मूल्यों के प्रति सजग और सावधान रह उसकी रक्षा के प्रति चिंतित भी दिखाई देते हैं।
इस संग्रह की पहली शीर्षक कहानी ‘सुलगती साँझ’ सात-आठ बरस पहले रिटायर हुए जमनादास जी की कहानी है, जो रिटायरमेंट के बाद नौकरी की जिम्मेदारियों से मुक्त हो अब कुछ पल चैन-औ-अमन के साथ अपने घर-परिवार के साथ बिताना चाहता है पर कुछ ही समय बाद उसका इकलौता पुत्र सत्येन्द्र उनकी ड्यूटी घर के गेट पर बैठकर, टयूशन पढ़ने आए स्टूडेंट्स के वाहनों की देखभाल करने के लिए लगा देता है। ऐसे में जमनादास जी की मनोदशा का मार्मिक वर्णन बड़ा पीड़ादायी हो उठा है और हम यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि क्या बच्चे ताउम्र अभिभावकों पर ही निर्भर रहते हैं? क्या अभिभावकों का निजी जीवन कभी नहीं होता? कहानी का अंत लेखक ने उनके पोते मयंक की बालसुलभ बात से मन को झंकृत करते हुए किया है-‘अंकल, दादा जी को भी वैसी ही यूनिफार्म व् टोपी ले दो न, जो बाहर गार्ड ने पहन रखी है। वे भी बड़े स्मार्ट लगेंगे ड्यूटी देते हुए’।...आने वालों की निगाहें सवालिया थीं और घरवालों की झुकी-झुकी।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘एक बार फिर से’ अकेलेपन से उपजे अवसाद भरे जीवन की कहानी है। मानवीय संवेदनाओं का चित्रण देखिए कितना सुंदर और सजीव बन पड़ा है...“जाने की बात सुनकर अम्मा का चेहरा फ़क्क हो गया-‘तू भी जाण की...’, आगे उससे बोला नहीं गया। वह वहीं रास्ते में बैठ गई”।
संग्रह की तीसरी कहानी मर्दों की चिरपरिचित गंदी मानसिकता की कहानी है जो स्त्री को सिर्फ़ भोग्या के रूप में देखते हैं। जिसके चलते घरों में काम करने वाली माईयां भी मानसिक और शारीरिक शोषण की शिकार होती हैं। कहानी का अंतिम वाक्य हिला देता है, “पास से गुज़र रही बेटी ने कहा-‘ओ हो, पापा! लगा लिया न दाग!” पुरुष की इसी मानसिकता पर एक एनी कहानी भी है-‘इंतिहा’, जिसमें एक लाचार स्त्री एक सिपाही के शोषण का शिकार होने पर आक्रोश से भर उठती है और...। इस कहानी का अंत पढ़कर एकाएक ही श्री विष्णु प्रभाकर जी की एक कहानी की स्मृति ताज़ा हो उठती है।
‘पिंटू की पतलून’ कहानी एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसकी ट्रेन सफ़र में जेब कट जाती है और उसका यात्रा-टिकट भी उसी में चला जाता है। इसके बाद टिकट चेकिंग और टीटी, पुलिस से मिली मानसिक यंत्रणा का रूह कंपा देने वाला वर्णन है। इस तरह कुल मिलाकर यह संग्रह कुल चौदह कहानियों का एक अनूठा संसार है, जिसमें अंतिम कहानी ‘अंतहीन’ एक लम्बी कहानी है।
हमें यकीन है कि यह कहानी संग्रह न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगा। हम परुथी जी को उनके सृजन-कर्म हेतु अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं।
इत्यलम।।

---सारिका मुकेश
   20.10.2019

                                                                       
सारिका मुकेश 

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पुस्तक : सुलगती साँझ (कहानी संग्रह)
लेखक : प्रो. डॉ. ओमीश परुथी   
प्रकाशक : कलावती प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण: 2015
मूल्य: 350/-
पृष्ठ: 104
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Saturday, 19 October 2019

अंधेरे बियावान में उजाला करने की एक कोशिश करता ग़ज़ल संग्रह - ‘एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल’





साहित्य, सभ्यता, कला और संस्कृति सदियों से एक देश से दूसरे देश का सफ़र निर्बाध रूप से करती रही हैं। हिन्दी के साहित्य ने भी न जाने कितनी अन्य भाषा की विधाओं को अपने में समाविष्ट किया है। उनमें से ही एक महत्त्वपूर्ण और अत्यंत चर्चित विधा है-ग़ज़ल। फ़ारसी से उर्दू के रास्ते हिन्दी साहित्य में प्रवेश कर ग़ज़ल ख़ूब पोषित/पल्लवित और पुष्पित हुई है और आज यह हिन्दी साहित्य में अच्छी तरह से रच-बस गई है। प्रयोग के तौर पर आज आप कोई भी हिन्दी साहित्य की पत्रिका उठा लें या कवि सम्मलेन देख लें, ग़ज़ल अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज़ अवश्य कराती मिलेगी। हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल को यहाँ तक लाने में अनेक महत्त्वपूर्ण और बड़े-बड़े नाम शामिल हैं, उन सबकी चर्चा करना यहाँ संभव नहीं है पर उनका यह योगदान सदा अभिनन्दनीय रहेगा।
यह सच है कि आज सोशल मीडिया द्वारा हर किसी को अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त स्थान मिला हुआ है और लोग दिन-रात लिखने में लगे हैं। लेखक होना अब स्टेटस सिम्बल बनता जा रहा है। इसी दौड़ में ग़ज़ल के नाम पर आज बहुत कुछ ऐसा भी लिखा जा रहा है जो उसे संदेह के घेरे में खड़ा करता है। लेकिन दूसरी तरफ़ बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो शोर-शराबे से दूर कहीं एकांत में बैठे बहुत गंभीरता से इसके उत्कृष्ट सृजन करने में लगे हैं। ऐसे ही ग़ज़ल के एक हस्ताक्षर हैं-जनाब सागर सियालकोटी साहब। उनकी ग़ज़लों का तीसरा संग्रह ‘एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल’ आज हमारे समक्ष रखा है और हम आपको उससे रू-ब-रू कराना चाहते हैं। इन ग़ज़लों के शिल्प के बारे में कोई वैयाकरण, छंदशास्त्री, नामी गिरामी ग़ज़लगो या फ़िर ग़ज़लों के उस्ताद ही बता सकते हैं परंतु जहाँ तक ग़ज़लों के कथ्य की बात है तो उसमें उनकी व्यक्तिगत पीड़ा है, कुछ सामाजिक और राजनैतिक सरोकार हैं। यह संग्रह अच्छी साफ सुथरी ग़ज़लें लिए उनकी सृजन क्षमता का आकर्षक और जीवंत उदाहरण है। भाषा में हिन्दी-उर्दू का समन्वय है पर कथ्य को बोझिल होने से पूरी तरह बचाया गया है। यही वज़ह है कि उनके शेर बड़े सलीके से दिल-ओ-दिमाग में अपनी पैठ बना लेते हैं और उनका यह शेर एकदम खरा उतरता है-“सुराही जाम को झुककर ही मिलती है, ग़ज़ल कोई भी हो ‘सागर’ मज़ा देगी”।





अपनी शायरी के बारे में वो बड़ी सहजता से फरमाते हैं-‘हाल अपना सुना दिया मैंने/गम हवा में उड़ा दिया मैंने’। उनकी सादगी और निश्छलता देखिए-‘तुमसे मिलकर सकून मिलता है/फ़ोन पर ये बता दिया मैंने’। उनके लेखन के बारे में यह कथन महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है-‘लोग भटके हुए थे जंगल में/एक दीपक जला दिया मैंने’। सच में उनकी शायरी इस अंधेरे बियावान में उजाला करने की एक कोशिश है। हालाँकि वो जानते हैं कि ‘ज़माने को मुहब्बत से शिकायत ही शिकायत है’ लेकिन उनका मानना है, ‘प्यार है तो प्यार का इज़हार होना चाहिए’ क्योंकि उसे ज़माने से क्या डर, ‘मुहब्बत करने वालों में बगावत ही बगावत है’ और शायद यही वज़ह है कि उनकी शायरी रोमानियत के अहसासों से भरी पड़ी है-‘उसको छू कर संवर गया हूँ मैं/संग खुश्बू बिखर गया हूँ मैं’ और ये देखिए-‘हुश्न वालों के कुछ तो नखरे हैं/ये भी हम शौक से उठा लेंगे’। वो आज के रिश्तों की हक़ीकत को बयां करते हुए लिखते हैं-‘प्यार धोखा वफ़ा जफ़ा क्या क्या/इस जहां में कहां नहीं होता’ और ‘मुहब्बत कौन करता है तिजारत बन गए रिश्ते’। लेकिन रिश्तों की नाजुकी और अहमियत को समझते हुए वो बड़ी संजीदगी से लिखते हैं-‘मुहब्बत में तिजारत फ़ायदा हरगिज़ नहीं देती’। ‘वो रिश्ते टूट जाते हैं जो पड़ जाएं दलीलों में’, ‘दोस्ती ज़िन्दा रहे ऐतबार होना चाहिए’ और ‘मैं दगा उसको दे नहीं सकता/बस यही इक ईमान है मेरा’।  ऐसे में पुराने दिनों को याद कर कहते हैं-‘पुराने लोग रिश्तों को निभाना जानते थे/बहन भाई वो रूठों को मनाना जानते थे’। आज के इस वैमनस्य भरे माहौल में वो लोगों से कहते हैं-‘चलो रूठों को मिल जुल कर मनाते हैं जहां वालो/बुजुर्गों ने सबक हमको यही तो इक सिखाया है’। बेटियों के महत्त्व को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-‘जहां में बेटियों से घर-बार चलते हैं...’ लेकिन साथ-ही साथ वो यह सलाह भी देते हैं कि ‘गुजारिश है संभालो बेटियों को ए जहां वालो...’ और उनकी शिक्षा पर जोर देते हुए कहते हैं-“पढ़ेंगी बेटियां ‘सागर’ तभी तो जाग पाएंगी/पढ़ाई के बिना कहिए कहां संस्कार चलते हैं”। माँ के रिश्ते पर ये पंक्तियाँ देखिए-‘सभी रिश्तों में नाजुक माँ का रिश्ता है ज़माने में/गिरे जब शाख से पत्ता उसे भी दर्द होता है’।
देश की व्यवस्था से दु:खी होकर कहते हैं-‘देखकर रात का सियाह मन्जर/और चुप भी रहा नहीं जाता’ और ‘मिरे हालात ही मुझको बहुत मजबूर करते हैं/कहाँ जाऊँ मुझे दिन रात चकनाचूर करते हैं’। लेकिन एक सच्चे कलमकार की मुश्किल ये है कि ‘लोग तारीफ़ चाहते हैं बस/झूठ को सच कहा नहीं जाता’। अंततः राजनीति, राजनेता और राजनैतिक षड्यंत्र पर सागर साहब ने अपने अंदाज़ में ही कुछ लिखा हैं, बानगी के तौर पर ये पंक्तियाँ देखिए-‘सितम बस्ती पे ढाया जा रहा है/घरों को यूँ जलाया जा रहा है’। ‘चलो बेदार हो जाओ कि इन चोरों से बच निकलें/सियासत में बहुत गुन्डे क़यामत ही क़यामत है’। ‘उसे अख़बार में रहने की आदत पड़ गई है/नगर में हादिसा ना हो तो उसे अच्छा नहीं लगता’। ‘नहीं कोई करपशन में यहाँ सानी हमारा...’। ‘नहीं कशमीर का मुद्दा ये बाज़ी है सियासी’। ‘पड़ौसी की ये साजिश है मगर गद्दार शामिल हैं/ज़रूरी है तबाह करना ठिकानों को जो घर में हैं’। इस सबके बावजूद वो कहते हैं-‘चलो मिलकर सभी नफ़रत मिटाते हैं’। भाषाई प्रेम और सौहार्द पर उनकी ये सोच बहुत माकूल है-‘जुबां कोई भी हो अपनी जगह वो खूबसूरत है/अदब सबका ज़रूरी है ये सब मंजूर करते हैं’।
वो इस जीवन की हक़ीकत से भलीभांति परिचित हैं-‘ज़र्द पत्ते हुए तो पेड़ गिरा देता है’ और इसलिए कहते हैं-‘ज़िन्दगी इक कहानी है ‘सागर’/गुज़रे तो फिर ख्याल आता है’। इसलिए वो कहना चाहते हैं-‘काम कोई तो नेक कर ‘सागर’/देने वाला तुझे सिला देगा’। वो जानते हैं-‘अपने कर्मों का लेना देना है/कौन किसको यहाँ सज़ा देगा’। वो ईश्वर में पूर्ण आस्था के साथ यह मानते हैं-‘मैं जुगनूँ मेरी औकात क्या है मेरे मालिक /तू सूरज तेरी तो बात क्या है मेरे मालिक’। वो आगे लिखते हैं-‘उसकी रहमत से जिये जाता है ‘सागर’/जो भी देता है मेरा खुदा देता है’।
समय और स्थान की सीमा को ध्यान में रख विश्राम लेने से पूर्व यही कहेंगे कि सागर साहब की यह ग़ज़ले निश्चित रूप से उनके मिज़ाज़ से रू-ब-रू कराने में सफ़ल होंगी और यह कृति न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगी। उनको सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ, उन्हीं की इन पंक्तियों के साथ, देते हुए विदा लेते हैं:
               हर जगह मत निकाल कर रखना/अपने आँसू संभाल कर रखना
               ज़िन्दगी मुश्किलों से मिलती है/ज़िन्दगी को संभाल कर रखना

--सारिका मुकेश
  19.10.2019

                                                                                                                                                              

सारिका मुकेश



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पुस्तक : एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल (ग़ज़ल-संग्रह)
लेखक : श्री सागर सियालकोटी  
प्रकाशक : साहित्य कलश पब्लिकेशन, पटियाला (पंजाब)
प्रथम संस्करण: 2017
मूल्य: 250/-
पृष्ठ: 96
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Thursday, 3 October 2019

वर्तमान के कैनवास पर संवेदनाओं और आंतरिक संवेगों को चित्रित करता काव्य-संग्रह: ‘कुबेरों के पड़ाव’






सुप्रसिद्ध सौम्य कवि श्री सुमित्रा नंदन पन्त जी ने लिखा है:
वियोगी होगा पहल कवि आह से उपजा होगा गान,
निकलकर नयनों से चुपचाप बही होगी कविता अंजान
मानव मन संवेदनाओं का पिटारा है और कवि-मन मन तो इस सम्पदा के मामले में सदा से विशेष रहा है। यही संवेदनाएं मन के भीतर एक अज़ीब-सी बेचैनी/अकुलाहट पैदा कर इस मन के पिटारे के बारीक़ झरोंखो से निकलकर न जाने कितने ही क़िस्म और रंग लिए जब शब्दों का आकार ग्रहण करती हैं तो वो कविता के रूप में बह निकलती है-हमारे अंतस के भावों/विचारों की गंगा, यमुना, सरस्वती बनकर...
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा जी ने लिखा है, ‘समस्याएं चाहे एक-सी हों, कवि के चिंतन के औज़ार, सोचने का ढंग, विचारों को छूने की प्रक्रिया कुछ अलग होती है। श्री सुभाष जावा जी के कविता-संग्रह कुबेरों के पड़ावमें यह प्रक्रिया काफ़ी प्रभावी महसूस होती है। उनका कविता संसार एक विस्तृत वैचारिक कैनवास पर यथार्थवाद के विभिन्न रंग बिखेरता दिखाई देता है। उनकी कविताएं ज़ेहन में बिम्बित/प्रतिबिम्बित होकर असंख्य चित्र बनाती हैं और हमें बार-बार कविता के उसी परिवेश में लौटाकर खड़ा करती रहती हैं। इस कविता-संग्रह में वर्तमान के कैनवास पर संवेदनाओं और आंतरिक संवेगों को चित्रित करने में वो पूर्ण रूप से सफ़ल हुए हैं। उदाहरण के तौर पर:
मतलब के दीवाने लोग,
सब अपने बेगाने लोग
श्री सुभाष जावा (लेखक)
चाक गिरेबां घायल मन
हम ठहरे दीवाने लोग
हो या फ़िर
‘कैसे पाँव कहाँ के काँधे,
अर्थी अपनी ढो ले बाबा’।



 वो दिल से दिल की बातें करते हैं; कहीं कोई किसी प्रकार की औपचारिकता या बनावट नहीं है। शायद यही सब कुछ उनकी कविताओं को एक नैसर्गिक सौन्दर्य प्रदान करता है और पाठक को खुद से एक विशिष्ट अपनत्व के साथ जोड़ता है।  ये कविताएं सिर्फ़ लिखने के उद्देश्य से नहीं लिखी गई हैं बल्कि कवि पाठक से उनकी संवेदनाओं/अनुभूतियों को खुद महसूस करने को मजबूर करता है। वो मजबूर करता है यह सोचने के लिए कि हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी
ये कविताएं उनके जीवन का अनुभव हैं...
ऐ मन, पागल मन
तू निरा पागल ही ठहरा
क्यों तकता है उन्हीं राहों को
जिनके लिए तू, अजनबी ठहरा…
इनमें जीवन का दृष्टान्त है, देखिए...
‘ज़िन्दगी के सफ़र में
लम्बे सफ़र में
देखकर कोई दीया
दूर टिमटिमाता हुआ
मैं यूँ ही देर तक
चलता रहा
बिन हमसफ़र
बिन हमसफ़र...
इस सफ़र में कुछ फूल हैं तो कुछ अंगारे भी हैं...यथा एक जगह तो शेर में वो यह कहते हैं कि,
इक-इक दिल बेदर्द मिला
इक इक रिश्ता सर्द मिला
हरियाली की चाहत थी
पत्ता-पत्ता ज़र्द मिला’ 
तो वहीं दूसरी तरफ़ वो यह भी सूचना देते हैं कि,
दुःख में माथा चूम लिया,
एक ऐसा हमदर्द मिला
न जाने कितने ही मुद्दे हैं, जिन्होंने उनके मन को न जाने कितने बरसों तक भीतर ही भीतर मथा है और अब नवनीत के रूप में यह कविता-संग्रह बनकर हमारे समक्ष प्रस्तुत है। कोई भी लेखक/कवि जब निजी अनुभव को काग़ज़ पर उतारता है तो वो उसे इतने बड़े कैनवास पर उतरता है कि उसमें उसका निजी कुछ शेष नहीं रह जाता, वह सब पाठकों का हो जाता है, उनका अपना निजी अनुभव हो जाता है। लेखन की यही व्यापकता तो उसे विशिष्टता प्रदान करती है कि जो कभी आपका अपना अनुभव रहा हो वो सबको अपना अनुभव लगे और सबका हो जाए। यही लेखन की परम उपलब्धि है।
प्रेम ईश्वरीय वरदान है और उसकी अनुभूति स्वर्गीय अनुभूति जैसी होती है। ज़िन्दगी प्रेम में कितनी खुशनुमा दिखती है! सारे दुःख, चिंता, विषाद तो मानो कहीं तिरोहित हो जाते हैं। यही वजह है कि ज़िन्दगी के उन खूबसूरत लम्हों को हम सहेजकर रखना चाहते हैं सदा-सदा के लिए...और बार-बार उसी लोक में खोना चाहते हैं। इस संग्रह में भी कवि द्वारा मन में बसे और आँखों में खिले गुलमोहर को याद करना और उसी को यह संग्रह समर्पित करना अत्यंत सुखद लगा।
‘मन विचरने लगा
देखा जो एक पक्षी
गुलमोहर की छाँव में...
पा ही गया हो जैसे
कल्पना का आँचल
अपना जीवन
अपनी अभिलाषा...
तुम भी बन जाओ
गुलमोहर मेरे लिए
यह पढ़ते हुए एकाएक ही आँखों के सामने श्री दुष्यंत कुमार अपना यह शेर लेकर आ खड़े हुए-
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
यह एकदम सच है कि प्रेम की सौंधी-मीठी सुगंध से भरपूर कविता पाठक के मन को भीतर तक छू जाती है। देखिए, प्रेम की कितनी सहज और सुन्दर अभिव्यक्ति है,
आओ फिर
एक बार मिलें हम
ढूँढे यूँ ही
एक दूजे को
एक दूजे में
अपनेपन का अहसास लिए
और एक अन्य कविता में,
कुल मिलाकर
तुम चाहत हो
तमन्ना हो
आरजू हो और इल्तिज़ा भी
और भी कुछ शेष है तो
कह देना कि
तुम सिर्फ़ तुम हो
ज़िन्दगी हो मेरी’
उनकी अनुभूति एक आमजन की अनुभूति है जो प्रेम चाहता है, इस संसार में अमन-चैन भाईचारा चाहता है और शायद यही वजह है कि उनकी यह अनुभूति सहज ही पाठक की अनुभूति बन जाती है और पाठक स्वयं को उनके साथ जुड़ा महसूस करता है।
पत्रकारिता के कटु अनुभव और उनकी व्यंग्यात्मक शैली की सच्ची तस्वीर खींचती उनकी सुप्रसिद्ध कविता सिलसिला जारी हैकी यह पक्तियाँ दृष्टव्य हैं:
ना कहीं मौन है, ना शोक, ना श्रद्धांजलि...
सिर्फ़ अख़बारों की सुर्ख़ियों में है
चालीस लोगों के पंक्तिबद्ध
भून दिए जाने की व्यथा
नहीं कोई नहीं मरा
कोई नहीं हुआ हलाक
सिर्फ़ घाटियों की वोटर लिस्ट से
उन्तीस नाम कटे हैं
गुजरे सालों की तरह
सिलसिला ज़ारी है...
इसी के आगे वो आज की राजनीति के नंगे सच को सामने रखते हुए और अधिक पैने व्यंग्यात्मक लहज़े में कविता ज़ारी रखते हुए लिखते हैं:
राजनीति की कालिख ले
एक दूसरे के चेहरों पर मलें
आपस में लड़ने का स्वांग रचें
बाहर आकर गले मिलें
आश्रम रूपी फार्म हाऊस पर
जमकर दारू पिएं...
और अंत में-
देर रात तक
रात घनी होने तक
महँगी-महँगी चिकनी सतहों पर
फिसलने का खेल खेलेंगे...
आजकल आए दिन अख़बारों में ऐसे वीभत्स खेल की ख़बरें/तस्वीरें छपी देख मन कसैला सा हो जाता है।
इसी तरह एक अन्य कविता हाथों के जंगलमें उनकी ये पंक्तियाँ शूल सी चुभती हैं:
कुछ हाथ...
भयावहता से उदासीन
रेंगते रहते हैं
नग्न या अर्द्ध नग्न यौवन पर
और कुछ हाथ...
बढ़ते रहते हैं
उसी भयानक रात के  
पहरेदारों की गर्दनों की ओर
आहिस्ता-आहिस्ता
योजनाबद्ध
वहीं एक और छोटी-सी अन्य कविता फुटपाथियेमें उनका व्यंग्य दृष्टव्य है-
कौन कहता है
हम फुटपाथिये हैं
हमारा घर नहीं है
घर है
चार दीवारी नहीं है
छत नहीं है
बस
कोठेकविता में दिन ढले आँचल ढलकाए खिड़कियों पर रेशमी लिबास में लिपटी डोलती चन्दनी देह की व्यथा है और अभागिनकविता में भी ऐसा ही दर्द और इस सबके बावजूद कवि की अपनी विवशता:
‘...और मैं?
मात्र एक कविता लिखूँगा
क्योंकि मैं एक कवि हूँ
केवल कवि
यह कविता बहुत कुछ सोचने को मज़बूर करती है। इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि काश हम कविता लिखने के स्थान पर उन अबलाओं के लिए कोई सार्थक क़दम उठा पाते...ऐसे विषय पर कविता लिखना सिर्फ़ लफ्फाज़ी है या सिर्फ़ एक बौद्धिक व्यायाम या बौद्धिक विलासिता...इसके सिवा शायद कुछ भी नहीं। नारी पीड़ा पर एक कविता रूपकँवरभी है। इसी क्रम में एक ग़ज़ल के ये शेर-
सिक्कों का व्यवहार हुआ था
जिस्मों का व्यापार हुआ था
अबला थी होना ही क्या था
वर्दी में व्यभिचार हुआ था
पीड़ा को कई गुना बढ़ा देते हैं और कवि के शब्द कौशल को रेखांकित करते हैं। तमाम बेबसी और लाचारी की इस अवस्था के पीछे कवि की यह पंक्तियाँ एकदम खरी उतरती हैं-
‘कुछ हम लोग निकम्मे थे,
कुछ सिस्टम नामर्द मिला’
आज के व्यस्ततम माहौल में जब हम बच्चों के संस्कारों और उनकी जीवन शैली पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं, उसके परिणामों को दर्शाती कविता बच्चेआईने का सच है। आज की इस गलाकाट प्रतियोगिता और तमाम महत्त्वाकांक्षाओं के चक्रव्यूह में जीवन के एक कड़वे सच को ज़ाहिर करते हुए शेर की यह पंक्तियाँ मन को छू जाती हैं:
‘बहुत मनचली थीं उड़ाने तिरी
परों को किसी दिन कतरना ही था
कोई हादसों में बचे किस तरह
ये शीशा किसी दिन चटखना ही था’
या फ़िर कभी-कभी सहसा ही ये पंक्तियाँ ज़ेहन में उभर उठती हैं,
‘पल में टूटा एक घरौंदा
वर्षों में तैयार हुआ था’
कुल मिलाकर तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों के बावजूद कवि का दृष्टिकोण सकारात्मक है। उनकी भाषा सरल, सहज और प्रवाहमयी है। कहीं भी उन्होंने उसे अनावश्यक रूप से सजाने-सँवारने का उपक्रम न कर बोझिल होने से बचाया है। उनकी भाषा उनके हृदय से स्वत: प्रवाहमयी होकर पृष्ठों पर बहती चली जाती है। सच कहें तो अपनी इन कविताओं में सम्वाद स्थापित करते दिखाई देते हैं। संक्षेप में, इतनी सरल और सहज रूप से लिखी गई ये कविताएं किसी के भी दिल में अपना स्थान खुद तलाश लेने में पूर्ण रूप से समर्थ दिखती हैं। यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहेंगे कि संग्रह में ग़ज़लों का कम होना काफ़ी अखरता है, अगर कुछ और ग़ज़लें दी जातीं तो पाठकों का आनंद चार-गुना हो जाता।
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहीं न कहीं और कभी न कभी तो विश्राम लेना ही है और फिर इस अद्भुत संग्रह की कविताओं की गंगा-जमना में गोते लगाने और उसमें छिपे अनिर्वचनीय सुख का आनंद आपको स्वयं भी तो लेना होगा।
हमें यकीन है कि श्री सुभाष जावा जी का यह कविता संग्रह समस्त साहित्य-प्रेमियों के लिए न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगा और हिंदी साहित्य जगत् में इसका भरपूर स्वागत होगा। हम उनके सृजन-कर्म हेतु उनको अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और उनके स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने हेतु अनेकों शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं। पत्रकार, वकील, साहित्यकार, लेख़क आदि के रूप में उनका बहुमुखी व्यक्तित्व प्रशंसनीय है।
इत्यलम।।



सारिका मुकेश 
                                                                ०३ अक्तूबर २०१९ 



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                पुस्तक : कुबेरों के पड़ाव (कविता संग्रह)
                लेखक/कवि : श्री सुभाष जावा 
                प्रकाशक : साहिल प्रकाशनचाँदपुर, बिजनौर  (उ.प्र.)
                प्रथम संस्करण: 1999
                मूल्य: 80/- (सजिल्द)
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