एकाएक
ही सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा जी का स्मरण हो आया है। उन्होंने किसी
को उद्धृत करते हुए कहीं लिखा है: ‘कहानीकार मानव आत्मा का डिटेक्टिव होता है...’।
यह एकदम सच है तब ही तो वह मानव शरीर के भीतर का पूरा सच जाँचता परखता है और उसे
पाठकों के समक्ष ला रखता है। आज हम आपको ऐसे ही एक डिटेक्टिव (कहानीकार) गुडगाँव
निवासी प्रो. डॉ. ओमीश परुथी जी के कहानी संग्रह ‘सुलगती साँझ’ से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं।
कला
और शिल्प के तौर पर परूथी जी कहानियों के विषय में यही कहा जा सकता है कि वो किसी
भी वाद से परे, शब्दों की क्लिष्टता से दूर रह बिना किसी आडम्बर के अपनी संयमित और
संतुलित सरल सहज और संप्रेषणीय भाषा से कहानी बुनते हैं। पेशे से पूर्व में
प्रोफ़ेसर रहने की वजह से वो कहानी में कहीं भी अनावश्यक विस्तार देने और/या
जबरदस्ती अपनी दखलंदाज़ी से बचे हैं। उनकी कहानियाँ नपी-तुली और संतुलित हैं-एक
सटीक और सारगर्भित व्याख्यान की तरह लेकिन कहानीपन लिए हुए। सभी कहानियाँ कक्षा
में सुनाई जा सकती हैं। वो कहानी को पाठक के समक्ष ऐसे रखते हैं कि पाठक को उनकी
उपस्थिति अपने आसपास ही महसूस होती है। समय की आहट को महसूस करते हुए जीवन में आए
बदलाव और उसके सूक्ष्म अनुभवों को सटीक ढंग से बुनकर ये कहानियाँ रची गई हैं। सरल
सहज और प्रवाहमयी भाषा से पठनीयता और संप्रेषणीयता सतत बनी रहती है। आप एक बार
किताब उठा लें तो पूरी ख़त्म होने से पूर्व उसे छोड़ नहीं पाएंगे। परूथी जी को
चित्रकारिता का भी शौक है और शायद यही वजह है कि उनकी कहानियों में कई जगह शब्द
चित्रण सजीव हो उठते हैं।
कथ्य
की दृष्टि से उनकी कहानियाँ विविधवर्णी हैं। उनकी कहानियों में मनोवैज्ञानिक,
अस्तित्वगत और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ रोजमर्रा जीवन के सामान्य और
भयावह सच लिए मानवीय अनुभव भी हैं जिनमें उनके संस्कार, प्रेरणा और अंतर्दृष्टि की
अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। वो अपनी पुरानी भारतीय संस्कृति और
नैतिक मूल्यों के प्रति सजग और सावधान रह उसकी रक्षा के प्रति चिंतित भी दिखाई
देते हैं।
इस
संग्रह की पहली शीर्षक कहानी ‘सुलगती साँझ’ सात-आठ बरस पहले रिटायर हुए जमनादास जी
की कहानी है, जो रिटायरमेंट के बाद नौकरी की जिम्मेदारियों से मुक्त हो अब कुछ पल
चैन-औ-अमन के साथ अपने घर-परिवार के साथ बिताना चाहता है पर कुछ ही समय बाद उसका
इकलौता पुत्र सत्येन्द्र उनकी ड्यूटी घर के गेट पर बैठकर, टयूशन पढ़ने आए
स्टूडेंट्स के वाहनों की देखभाल करने के लिए लगा देता है। ऐसे में जमनादास जी की
मनोदशा का मार्मिक वर्णन बड़ा पीड़ादायी हो उठा है और हम यह सोचने के लिए मजबूर हो
जाते हैं कि क्या बच्चे ताउम्र अभिभावकों पर ही निर्भर रहते हैं? क्या अभिभावकों का
निजी जीवन कभी नहीं होता? कहानी का अंत लेखक ने उनके पोते मयंक की बालसुलभ बात से मन
को झंकृत करते हुए किया है-‘अंकल, दादा जी को भी वैसी ही यूनिफार्म व् टोपी ले दो
न, जो बाहर गार्ड ने पहन रखी है। वे भी बड़े स्मार्ट लगेंगे ड्यूटी देते हुए’।...आने
वालों की निगाहें सवालिया थीं और घरवालों की झुकी-झुकी।
संग्रह
की दूसरी कहानी ‘एक बार फिर से’ अकेलेपन से उपजे अवसाद भरे जीवन की कहानी है।
मानवीय संवेदनाओं का चित्रण देखिए कितना सुंदर और सजीव बन पड़ा है...“जाने की बात
सुनकर अम्मा का चेहरा फ़क्क हो गया-‘तू भी जाण की...’, आगे उससे बोला नहीं गया। वह
वहीं रास्ते में बैठ गई”।
संग्रह
की तीसरी कहानी मर्दों की चिरपरिचित गंदी मानसिकता की कहानी है जो स्त्री को सिर्फ़
भोग्या के रूप में देखते हैं। जिसके चलते घरों में काम करने वाली माईयां भी मानसिक
और शारीरिक शोषण की शिकार होती हैं। कहानी का अंतिम वाक्य हिला देता है, “पास से
गुज़र रही बेटी ने कहा-‘ओ हो, पापा! लगा लिया न दाग!” पुरुष की इसी मानसिकता पर एक
एनी कहानी भी है-‘इंतिहा’, जिसमें एक लाचार स्त्री एक सिपाही के शोषण का शिकार होने
पर आक्रोश से भर उठती है और...। इस कहानी का अंत पढ़कर एकाएक ही श्री विष्णु
प्रभाकर जी की एक कहानी की स्मृति ताज़ा हो उठती है।
‘पिंटू
की पतलून’ कहानी एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसकी ट्रेन सफ़र में जेब कट जाती है
और उसका यात्रा-टिकट भी उसी में चला जाता है। इसके बाद टिकट चेकिंग और टीटी, पुलिस
से मिली मानसिक यंत्रणा का रूह कंपा देने वाला वर्णन है। इस तरह कुल मिलाकर यह
संग्रह कुल चौदह कहानियों का एक अनूठा संसार है, जिसमें अंतिम कहानी ‘अंतहीन’ एक
लम्बी कहानी है।
हमें
यकीन है कि यह कहानी संग्रह न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगा। हम परुथी जी
को उनके सृजन-कर्म हेतु अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए अपनी
वाणी को यहीं विराम देते हैं।
इत्यलम।।
---सारिका मुकेश
20.10.2019
20.10.2019
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पुस्तक : सुलगती साँझ (कहानी संग्रह)
लेखक : प्रो. डॉ. ओमीश परुथी
प्रकाशक
: कलावती प्रकाशन, नई
दिल्ली
प्रथम
संस्करण: 2015
मूल्य:
350/-
पृष्ठ:
104
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