साहित्य, सभ्यता, कला और संस्कृति सदियों से एक देश से दूसरे देश का सफ़र
निर्बाध रूप से करती रही हैं। हिन्दी के साहित्य ने भी न जाने कितनी अन्य भाषा की विधाओं
को अपने में समाविष्ट किया है। उनमें से ही एक महत्त्वपूर्ण और अत्यंत चर्चित विधा
है-ग़ज़ल। फ़ारसी से उर्दू के रास्ते हिन्दी साहित्य में प्रवेश कर ग़ज़ल ख़ूब
पोषित/पल्लवित और पुष्पित हुई है और आज यह हिन्दी साहित्य में अच्छी तरह से रच-बस
गई है। प्रयोग के तौर पर आज आप कोई भी हिन्दी साहित्य की पत्रिका उठा लें या कवि
सम्मलेन देख लें, ग़ज़ल अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज़ अवश्य कराती मिलेगी। हिन्दी
साहित्य में ग़ज़ल को यहाँ तक लाने में अनेक महत्त्वपूर्ण और बड़े-बड़े नाम शामिल हैं,
उन सबकी चर्चा करना यहाँ संभव नहीं है पर उनका यह योगदान सदा अभिनन्दनीय रहेगा।
यह सच है कि आज सोशल मीडिया द्वारा हर किसी को अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त
स्थान मिला हुआ है और लोग दिन-रात लिखने में लगे हैं। लेखक होना अब स्टेटस सिम्बल
बनता जा रहा है। इसी दौड़ में ग़ज़ल के नाम पर आज बहुत कुछ ऐसा भी लिखा जा रहा है जो
उसे संदेह के घेरे में खड़ा करता है। लेकिन दूसरी तरफ़ बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो
शोर-शराबे से दूर कहीं एकांत में बैठे बहुत गंभीरता से इसके उत्कृष्ट सृजन करने
में लगे हैं। ऐसे ही ग़ज़ल के एक हस्ताक्षर हैं-जनाब सागर सियालकोटी साहब। उनकी
ग़ज़लों का तीसरा संग्रह ‘एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल’ आज हमारे समक्ष रखा है और हम आपको उससे
रू-ब-रू कराना चाहते हैं। इन ग़ज़लों के शिल्प के बारे में कोई वैयाकरण,
छंदशास्त्री, नामी गिरामी ग़ज़लगो या फ़िर ग़ज़लों के उस्ताद ही बता सकते हैं परंतु
जहाँ तक ग़ज़लों के कथ्य की बात है तो उसमें उनकी व्यक्तिगत पीड़ा है, कुछ सामाजिक और
राजनैतिक सरोकार हैं। यह संग्रह अच्छी साफ सुथरी ग़ज़लें लिए उनकी सृजन क्षमता का
आकर्षक और जीवंत उदाहरण है। भाषा में हिन्दी-उर्दू का समन्वय है पर कथ्य को बोझिल
होने से पूरी तरह बचाया गया है। यही वज़ह है कि उनके शेर बड़े सलीके से दिल-ओ-दिमाग
में अपनी पैठ बना लेते हैं और उनका यह शेर एकदम खरा उतरता है-“सुराही जाम को
झुककर ही मिलती है, ग़ज़ल कोई भी हो ‘सागर’ मज़ा देगी”।
अपनी शायरी के बारे में वो बड़ी सहजता से फरमाते हैं-‘हाल अपना सुना दिया मैंने/गम
हवा में उड़ा दिया मैंने’। उनकी सादगी और निश्छलता देखिए-‘तुमसे मिलकर सकून
मिलता है/फ़ोन पर ये बता दिया मैंने’। उनके लेखन के बारे में यह कथन
महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है-‘लोग भटके हुए थे जंगल में/एक दीपक जला दिया मैंने’।
सच में उनकी शायरी इस अंधेरे बियावान में उजाला करने की एक कोशिश है। हालाँकि वो
जानते हैं कि ‘ज़माने को मुहब्बत से शिकायत ही शिकायत है’ लेकिन उनका मानना
है, ‘प्यार है तो प्यार का इज़हार होना चाहिए’ क्योंकि उसे ज़माने से क्या
डर, ‘मुहब्बत करने वालों में बगावत ही बगावत है’ और शायद यही वज़ह है कि उनकी
शायरी रोमानियत के अहसासों से भरी पड़ी है-‘उसको छू कर संवर गया हूँ मैं/संग
खुश्बू बिखर गया हूँ मैं’ और ये देखिए-‘हुश्न वालों के कुछ तो नखरे हैं/ये
भी हम शौक से उठा लेंगे’। वो आज के रिश्तों की हक़ीकत को बयां करते हुए लिखते
हैं-‘प्यार धोखा वफ़ा जफ़ा क्या क्या/इस जहां में कहां नहीं होता’ और ‘मुहब्बत
कौन करता है तिजारत बन गए रिश्ते’। लेकिन रिश्तों की नाजुकी और अहमियत को
समझते हुए वो बड़ी संजीदगी से लिखते हैं-‘मुहब्बत में तिजारत फ़ायदा हरगिज़ नहीं
देती’। ‘वो रिश्ते टूट जाते हैं जो पड़ जाएं दलीलों में’, ‘दोस्ती ज़िन्दा रहे ऐतबार
होना चाहिए’ और ‘मैं दगा उसको दे नहीं सकता/बस यही इक ईमान है मेरा’। ऐसे में पुराने दिनों को याद कर कहते हैं-‘पुराने
लोग रिश्तों को निभाना जानते थे/बहन भाई वो रूठों को मनाना जानते थे’। आज के
इस वैमनस्य भरे माहौल में वो लोगों से कहते हैं-‘चलो रूठों को मिल जुल कर मनाते
हैं जहां वालो/बुजुर्गों ने सबक हमको यही तो इक सिखाया है’। बेटियों के
महत्त्व को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-‘जहां में बेटियों से घर-बार चलते
हैं...’ लेकिन साथ-ही साथ वो यह सलाह भी देते हैं कि ‘गुजारिश है संभालो
बेटियों को ए जहां वालो...’ और उनकी शिक्षा पर जोर देते हुए कहते हैं-“पढ़ेंगी
बेटियां ‘सागर’ तभी तो जाग पाएंगी/पढ़ाई के बिना कहिए कहां संस्कार चलते हैं”।
माँ के रिश्ते पर ये पंक्तियाँ देखिए-‘सभी रिश्तों में नाजुक माँ का रिश्ता है
ज़माने में/गिरे जब शाख से पत्ता उसे भी दर्द होता है’।
देश की व्यवस्था से दु:खी होकर कहते हैं-‘देखकर रात का सियाह मन्जर/और चुप
भी रहा नहीं जाता’ और ‘मिरे हालात ही मुझको बहुत मजबूर करते हैं/कहाँ जाऊँ
मुझे दिन रात चकनाचूर करते हैं’। लेकिन एक सच्चे कलमकार की मुश्किल ये है कि ‘लोग
तारीफ़ चाहते हैं बस/झूठ को सच कहा नहीं जाता’। अंततः राजनीति, राजनेता और
राजनैतिक षड्यंत्र पर सागर साहब ने अपने अंदाज़ में ही कुछ लिखा हैं, बानगी के तौर
पर ये पंक्तियाँ देखिए-‘सितम बस्ती पे ढाया जा रहा है/घरों को यूँ जलाया जा रहा
है’। ‘चलो बेदार हो जाओ कि इन चोरों से बच निकलें/सियासत में बहुत गुन्डे क़यामत ही
क़यामत है’। ‘उसे अख़बार में रहने की आदत पड़ गई है/नगर में हादिसा ना हो तो उसे
अच्छा नहीं लगता’। ‘नहीं कोई करपशन में यहाँ सानी हमारा...’। ‘नहीं कशमीर का
मुद्दा ये बाज़ी है सियासी’। ‘पड़ौसी की ये साजिश है मगर गद्दार शामिल हैं/ज़रूरी है
तबाह करना ठिकानों को जो घर में हैं’। इस सबके बावजूद वो कहते हैं-‘चलो मिलकर सभी
नफ़रत मिटाते हैं’। भाषाई प्रेम और सौहार्द पर उनकी ये सोच बहुत माकूल है-‘जुबां
कोई भी हो अपनी जगह वो खूबसूरत है/अदब सबका ज़रूरी है ये सब मंजूर करते हैं’।
वो इस जीवन की हक़ीकत से भलीभांति परिचित हैं-‘ज़र्द पत्ते हुए तो पेड़ गिरा
देता है’ और इसलिए कहते हैं-‘ज़िन्दगी इक कहानी है ‘सागर’/गुज़रे तो फिर
ख्याल आता है’। इसलिए वो कहना चाहते हैं-‘काम कोई तो नेक कर ‘सागर’/देने
वाला तुझे सिला देगा’। वो जानते हैं-‘अपने कर्मों का लेना देना है/कौन
किसको यहाँ सज़ा देगा’। वो ईश्वर में पूर्ण आस्था के साथ यह मानते हैं-‘मैं
जुगनूँ मेरी औकात क्या है मेरे मालिक /तू सूरज तेरी तो बात क्या है मेरे मालिक’। वो
आगे लिखते हैं-‘उसकी रहमत से जिये जाता है ‘सागर’/जो भी देता है मेरा खुदा देता
है’।
समय और स्थान की सीमा को ध्यान में रख विश्राम लेने
से पूर्व यही कहेंगे कि सागर साहब की यह ग़ज़ले निश्चित रूप से उनके मिज़ाज़ से रू-ब-रू कराने में सफ़ल
होंगी और यह कृति न केवल पठनीय
बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगी। उनको सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ, उन्हीं की इन
पंक्तियों के साथ, देते हुए विदा लेते हैं:
हर जगह मत निकाल कर रखना/अपने आँसू संभाल कर रखना
ज़िन्दगी मुश्किलों से मिलती है/ज़िन्दगी को संभाल कर रखना
19.10.2019
![]() |
सारिका मुकेश |
_______________________________________________________________
पुस्तक : एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल (ग़ज़ल-संग्रह)
लेखक : श्री सागर सियालकोटी
प्रकाशक : साहित्य कलश पब्लिकेशन, पटियाला
(पंजाब)
प्रथम संस्करण: 2017
मूल्य: 250/-
पृष्ठ: 96
________________________________________________________________
No comments:
Post a Comment