Thursday, 3 October 2019

वर्तमान के कैनवास पर संवेदनाओं और आंतरिक संवेगों को चित्रित करता काव्य-संग्रह: ‘कुबेरों के पड़ाव’






सुप्रसिद्ध सौम्य कवि श्री सुमित्रा नंदन पन्त जी ने लिखा है:
वियोगी होगा पहल कवि आह से उपजा होगा गान,
निकलकर नयनों से चुपचाप बही होगी कविता अंजान
मानव मन संवेदनाओं का पिटारा है और कवि-मन मन तो इस सम्पदा के मामले में सदा से विशेष रहा है। यही संवेदनाएं मन के भीतर एक अज़ीब-सी बेचैनी/अकुलाहट पैदा कर इस मन के पिटारे के बारीक़ झरोंखो से निकलकर न जाने कितने ही क़िस्म और रंग लिए जब शब्दों का आकार ग्रहण करती हैं तो वो कविता के रूप में बह निकलती है-हमारे अंतस के भावों/विचारों की गंगा, यमुना, सरस्वती बनकर...
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा जी ने लिखा है, ‘समस्याएं चाहे एक-सी हों, कवि के चिंतन के औज़ार, सोचने का ढंग, विचारों को छूने की प्रक्रिया कुछ अलग होती है। श्री सुभाष जावा जी के कविता-संग्रह कुबेरों के पड़ावमें यह प्रक्रिया काफ़ी प्रभावी महसूस होती है। उनका कविता संसार एक विस्तृत वैचारिक कैनवास पर यथार्थवाद के विभिन्न रंग बिखेरता दिखाई देता है। उनकी कविताएं ज़ेहन में बिम्बित/प्रतिबिम्बित होकर असंख्य चित्र बनाती हैं और हमें बार-बार कविता के उसी परिवेश में लौटाकर खड़ा करती रहती हैं। इस कविता-संग्रह में वर्तमान के कैनवास पर संवेदनाओं और आंतरिक संवेगों को चित्रित करने में वो पूर्ण रूप से सफ़ल हुए हैं। उदाहरण के तौर पर:
मतलब के दीवाने लोग,
सब अपने बेगाने लोग
श्री सुभाष जावा (लेखक)
चाक गिरेबां घायल मन
हम ठहरे दीवाने लोग
हो या फ़िर
‘कैसे पाँव कहाँ के काँधे,
अर्थी अपनी ढो ले बाबा’।



 वो दिल से दिल की बातें करते हैं; कहीं कोई किसी प्रकार की औपचारिकता या बनावट नहीं है। शायद यही सब कुछ उनकी कविताओं को एक नैसर्गिक सौन्दर्य प्रदान करता है और पाठक को खुद से एक विशिष्ट अपनत्व के साथ जोड़ता है।  ये कविताएं सिर्फ़ लिखने के उद्देश्य से नहीं लिखी गई हैं बल्कि कवि पाठक से उनकी संवेदनाओं/अनुभूतियों को खुद महसूस करने को मजबूर करता है। वो मजबूर करता है यह सोचने के लिए कि हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी
ये कविताएं उनके जीवन का अनुभव हैं...
ऐ मन, पागल मन
तू निरा पागल ही ठहरा
क्यों तकता है उन्हीं राहों को
जिनके लिए तू, अजनबी ठहरा…
इनमें जीवन का दृष्टान्त है, देखिए...
‘ज़िन्दगी के सफ़र में
लम्बे सफ़र में
देखकर कोई दीया
दूर टिमटिमाता हुआ
मैं यूँ ही देर तक
चलता रहा
बिन हमसफ़र
बिन हमसफ़र...
इस सफ़र में कुछ फूल हैं तो कुछ अंगारे भी हैं...यथा एक जगह तो शेर में वो यह कहते हैं कि,
इक-इक दिल बेदर्द मिला
इक इक रिश्ता सर्द मिला
हरियाली की चाहत थी
पत्ता-पत्ता ज़र्द मिला’ 
तो वहीं दूसरी तरफ़ वो यह भी सूचना देते हैं कि,
दुःख में माथा चूम लिया,
एक ऐसा हमदर्द मिला
न जाने कितने ही मुद्दे हैं, जिन्होंने उनके मन को न जाने कितने बरसों तक भीतर ही भीतर मथा है और अब नवनीत के रूप में यह कविता-संग्रह बनकर हमारे समक्ष प्रस्तुत है। कोई भी लेखक/कवि जब निजी अनुभव को काग़ज़ पर उतारता है तो वो उसे इतने बड़े कैनवास पर उतरता है कि उसमें उसका निजी कुछ शेष नहीं रह जाता, वह सब पाठकों का हो जाता है, उनका अपना निजी अनुभव हो जाता है। लेखन की यही व्यापकता तो उसे विशिष्टता प्रदान करती है कि जो कभी आपका अपना अनुभव रहा हो वो सबको अपना अनुभव लगे और सबका हो जाए। यही लेखन की परम उपलब्धि है।
प्रेम ईश्वरीय वरदान है और उसकी अनुभूति स्वर्गीय अनुभूति जैसी होती है। ज़िन्दगी प्रेम में कितनी खुशनुमा दिखती है! सारे दुःख, चिंता, विषाद तो मानो कहीं तिरोहित हो जाते हैं। यही वजह है कि ज़िन्दगी के उन खूबसूरत लम्हों को हम सहेजकर रखना चाहते हैं सदा-सदा के लिए...और बार-बार उसी लोक में खोना चाहते हैं। इस संग्रह में भी कवि द्वारा मन में बसे और आँखों में खिले गुलमोहर को याद करना और उसी को यह संग्रह समर्पित करना अत्यंत सुखद लगा।
‘मन विचरने लगा
देखा जो एक पक्षी
गुलमोहर की छाँव में...
पा ही गया हो जैसे
कल्पना का आँचल
अपना जीवन
अपनी अभिलाषा...
तुम भी बन जाओ
गुलमोहर मेरे लिए
यह पढ़ते हुए एकाएक ही आँखों के सामने श्री दुष्यंत कुमार अपना यह शेर लेकर आ खड़े हुए-
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
यह एकदम सच है कि प्रेम की सौंधी-मीठी सुगंध से भरपूर कविता पाठक के मन को भीतर तक छू जाती है। देखिए, प्रेम की कितनी सहज और सुन्दर अभिव्यक्ति है,
आओ फिर
एक बार मिलें हम
ढूँढे यूँ ही
एक दूजे को
एक दूजे में
अपनेपन का अहसास लिए
और एक अन्य कविता में,
कुल मिलाकर
तुम चाहत हो
तमन्ना हो
आरजू हो और इल्तिज़ा भी
और भी कुछ शेष है तो
कह देना कि
तुम सिर्फ़ तुम हो
ज़िन्दगी हो मेरी’
उनकी अनुभूति एक आमजन की अनुभूति है जो प्रेम चाहता है, इस संसार में अमन-चैन भाईचारा चाहता है और शायद यही वजह है कि उनकी यह अनुभूति सहज ही पाठक की अनुभूति बन जाती है और पाठक स्वयं को उनके साथ जुड़ा महसूस करता है।
पत्रकारिता के कटु अनुभव और उनकी व्यंग्यात्मक शैली की सच्ची तस्वीर खींचती उनकी सुप्रसिद्ध कविता सिलसिला जारी हैकी यह पक्तियाँ दृष्टव्य हैं:
ना कहीं मौन है, ना शोक, ना श्रद्धांजलि...
सिर्फ़ अख़बारों की सुर्ख़ियों में है
चालीस लोगों के पंक्तिबद्ध
भून दिए जाने की व्यथा
नहीं कोई नहीं मरा
कोई नहीं हुआ हलाक
सिर्फ़ घाटियों की वोटर लिस्ट से
उन्तीस नाम कटे हैं
गुजरे सालों की तरह
सिलसिला ज़ारी है...
इसी के आगे वो आज की राजनीति के नंगे सच को सामने रखते हुए और अधिक पैने व्यंग्यात्मक लहज़े में कविता ज़ारी रखते हुए लिखते हैं:
राजनीति की कालिख ले
एक दूसरे के चेहरों पर मलें
आपस में लड़ने का स्वांग रचें
बाहर आकर गले मिलें
आश्रम रूपी फार्म हाऊस पर
जमकर दारू पिएं...
और अंत में-
देर रात तक
रात घनी होने तक
महँगी-महँगी चिकनी सतहों पर
फिसलने का खेल खेलेंगे...
आजकल आए दिन अख़बारों में ऐसे वीभत्स खेल की ख़बरें/तस्वीरें छपी देख मन कसैला सा हो जाता है।
इसी तरह एक अन्य कविता हाथों के जंगलमें उनकी ये पंक्तियाँ शूल सी चुभती हैं:
कुछ हाथ...
भयावहता से उदासीन
रेंगते रहते हैं
नग्न या अर्द्ध नग्न यौवन पर
और कुछ हाथ...
बढ़ते रहते हैं
उसी भयानक रात के  
पहरेदारों की गर्दनों की ओर
आहिस्ता-आहिस्ता
योजनाबद्ध
वहीं एक और छोटी-सी अन्य कविता फुटपाथियेमें उनका व्यंग्य दृष्टव्य है-
कौन कहता है
हम फुटपाथिये हैं
हमारा घर नहीं है
घर है
चार दीवारी नहीं है
छत नहीं है
बस
कोठेकविता में दिन ढले आँचल ढलकाए खिड़कियों पर रेशमी लिबास में लिपटी डोलती चन्दनी देह की व्यथा है और अभागिनकविता में भी ऐसा ही दर्द और इस सबके बावजूद कवि की अपनी विवशता:
‘...और मैं?
मात्र एक कविता लिखूँगा
क्योंकि मैं एक कवि हूँ
केवल कवि
यह कविता बहुत कुछ सोचने को मज़बूर करती है। इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि काश हम कविता लिखने के स्थान पर उन अबलाओं के लिए कोई सार्थक क़दम उठा पाते...ऐसे विषय पर कविता लिखना सिर्फ़ लफ्फाज़ी है या सिर्फ़ एक बौद्धिक व्यायाम या बौद्धिक विलासिता...इसके सिवा शायद कुछ भी नहीं। नारी पीड़ा पर एक कविता रूपकँवरभी है। इसी क्रम में एक ग़ज़ल के ये शेर-
सिक्कों का व्यवहार हुआ था
जिस्मों का व्यापार हुआ था
अबला थी होना ही क्या था
वर्दी में व्यभिचार हुआ था
पीड़ा को कई गुना बढ़ा देते हैं और कवि के शब्द कौशल को रेखांकित करते हैं। तमाम बेबसी और लाचारी की इस अवस्था के पीछे कवि की यह पंक्तियाँ एकदम खरी उतरती हैं-
‘कुछ हम लोग निकम्मे थे,
कुछ सिस्टम नामर्द मिला’
आज के व्यस्ततम माहौल में जब हम बच्चों के संस्कारों और उनकी जीवन शैली पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते हैं, उसके परिणामों को दर्शाती कविता बच्चेआईने का सच है। आज की इस गलाकाट प्रतियोगिता और तमाम महत्त्वाकांक्षाओं के चक्रव्यूह में जीवन के एक कड़वे सच को ज़ाहिर करते हुए शेर की यह पंक्तियाँ मन को छू जाती हैं:
‘बहुत मनचली थीं उड़ाने तिरी
परों को किसी दिन कतरना ही था
कोई हादसों में बचे किस तरह
ये शीशा किसी दिन चटखना ही था’
या फ़िर कभी-कभी सहसा ही ये पंक्तियाँ ज़ेहन में उभर उठती हैं,
‘पल में टूटा एक घरौंदा
वर्षों में तैयार हुआ था’
कुल मिलाकर तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों के बावजूद कवि का दृष्टिकोण सकारात्मक है। उनकी भाषा सरल, सहज और प्रवाहमयी है। कहीं भी उन्होंने उसे अनावश्यक रूप से सजाने-सँवारने का उपक्रम न कर बोझिल होने से बचाया है। उनकी भाषा उनके हृदय से स्वत: प्रवाहमयी होकर पृष्ठों पर बहती चली जाती है। सच कहें तो अपनी इन कविताओं में सम्वाद स्थापित करते दिखाई देते हैं। संक्षेप में, इतनी सरल और सहज रूप से लिखी गई ये कविताएं किसी के भी दिल में अपना स्थान खुद तलाश लेने में पूर्ण रूप से समर्थ दिखती हैं। यहाँ एक बात ज़रूर कहना चाहेंगे कि संग्रह में ग़ज़लों का कम होना काफ़ी अखरता है, अगर कुछ और ग़ज़लें दी जातीं तो पाठकों का आनंद चार-गुना हो जाता।
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर कहीं न कहीं और कभी न कभी तो विश्राम लेना ही है और फिर इस अद्भुत संग्रह की कविताओं की गंगा-जमना में गोते लगाने और उसमें छिपे अनिर्वचनीय सुख का आनंद आपको स्वयं भी तो लेना होगा।
हमें यकीन है कि श्री सुभाष जावा जी का यह कविता संग्रह समस्त साहित्य-प्रेमियों के लिए न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगा और हिंदी साहित्य जगत् में इसका भरपूर स्वागत होगा। हम उनके सृजन-कर्म हेतु उनको अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और उनके स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने हेतु अनेकों शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं। पत्रकार, वकील, साहित्यकार, लेख़क आदि के रूप में उनका बहुमुखी व्यक्तित्व प्रशंसनीय है।
इत्यलम।।



सारिका मुकेश 
                                                                ०३ अक्तूबर २०१९ 



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                पुस्तक : कुबेरों के पड़ाव (कविता संग्रह)
                लेखक/कवि : श्री सुभाष जावा 
                प्रकाशक : साहिल प्रकाशनचाँदपुर, बिजनौर  (उ.प्र.)
                प्रथम संस्करण: 1999
                मूल्य: 80/- (सजिल्द)
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