किसी भी समाज या देश को सही दिशा दिखाने हेतु समय-समय पर कवि, लेखक, चिन्तक, दार्शनिक आदि अपने विचारों/संदेशों के माध्यम से अपनी अहम् भूमिका निभाते रहे हैं। वैश्वीकरण और भौगोलीकरण के इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले युग में जबकि हमारे नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत हैं। चारों ओर संबंधों में स्वार्थ और लालच ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है और प्रेम के नाम पर इंटरनेट और फेसबुक के माध्यम से छल और फ़रेब के संग वासना का क्रूर खेल खेला जा रहा है। आज जबकि हम परिवर्तन के एक संक्रमण दौर से गुज़र रहे हैं, ऐसे में सच्चे मार्गदर्शकों की बेहद ज़रूरत है जो समाज को, इस देश को और उसकी नौजवान पीढ़ी को सही दिशा दिखा सकें। ऐसे माहौल में ऐसा सोचना भले ही आपको बेमानी-सा लगे पर यह हकीकत है कि आज भी लोग विशुद्ध प्रेम और अपनी सांस्कृतिक विरासत के विषय में न केवल सोचते हैं बल्कि उसे लेखन का विषय भी बनाते हैं।
हमें अपार प्रसन्नता है कि श्री कुशलेंद्र
श्रीवास्तव जी अपनी सद्यः प्रकाशित कृति “सरयू के तट पर...: भरत मिलाप का नाट्य
रूपान्तरण” के माध्यम से इस देश की जनता
को भक्ति की हाला का रसास्वादन कराने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। हम उनके
स्नेह और आत्मीयता के लिए सदा शुक्रगुज़ार हैं कि उन्होंने अपने लेखन यात्रा-क्रम
में हमें भी सहभागी होने का अवसर दिया।
महादेवी वर्मा जी ने
लिखा है, ‘मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा
के लिए जो पाथेय लेकर चलता है, उसका बहुत सा अंश उसे जन्म
के साथ उत्तराधिकार में प्राप्त हो जाता है। शेष की उपलब्धि उसे यात्रा-क्रम में
अपने अनुभव, कल्पना, चिंतन आदि
से होती रहती है।’ साहित्यकार के
साहित्यिक कमल का मूल्यांकन करते वक़्त भी उसके जीवन को अगर थोड़ा समझ लिया जाए तो
हम न केवल साहित्यिक कमल के सौंदर्य से बल्कि उसके परिवेश की उन तमाम परिस्थितियों
और विसंगतियों से भी रु-ब-रु हो जाएंगे जिनके बीच वह निर्लिप्त रहते हुए खिल सका।
साहित्यकार को भूमि भी तो इन्हीं से मिलती है...यहीं से उसे भाव मिलते हैं जो
कालांतर में फूलने-फलने पर कविता, चित्र, गीत बनकर न जाने कितने ही रहस्य के द्वार खोल देते हैं। प्रकृति के
प्रेमी कुशलेन्द्र जी स्वयं कहते हैं कि बाल्यकाल से ही नरसिंहगढ़ (जिसे मध्यप्रदेश
की छोटी पचमढ़ी भी कहा जाता है) में रहकर वहाँ की सुरम्य झील, झरने, नदी, तालाब,
पहाड़ी पर बने छोटे-बड़े महादेव के मंदिर और वहाँ के अन्य
प्राकृतिक सौंदर्य उनके तन-मन को आनंदित करते रहे। यही प्राकृतिक सौंदर्य कालांतर
में उनके लेखन में चार चाँद लगाने का पुनीत कार्य करने लगा। तमाम जीवन अनेक कस्बों,
नगरों एवं ग्रामीण अंचलों में घूमते हुए कुशलेन्द्र जी मिट्टी से
जुड़े व्यक्तियों में से हैं। माता-पिता में धार्मिकता कूट-कूट कर भारी होने के
कारण धार्मिक और अध्यात्मिक परिवेश में पले-बढ़े कुशलेन्द्र जी स्वयं भी धार्मिक और
‘सादा जीवन, उच्च विचार’ में
आस्था रखने वाले व्यक्ति हैं। शायद यही वजह है कि अपने जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव और
आर्थिक विषमताओं के बावजूद वो हौंसले के साथ न केवल खुद सतत लेखन-कर्म से जुड़े हैं
बल्कि कई साहित्यिक संस्थानों में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहकर अन्य व्यक्तियों को
भी साहित्य से जोड़ने, उन्हें सम्मानित, पुरस्कृत करने जैसे उल्लेखनीय कार्यों से संबद्ध हैं।
भक्ति का अपना एक नशा
है। सच पूछिये तो भक्ति का नशा किसी भी अन्य नशे से बड़ा है। जब भक्ति का नशा चढ़ने
लगता है और हम सुरूर की स्थिति में जा पहुँचते हैं तो मन का चमन और आसपास का
वातावरण उस परमात्मा प्यारे की सुवास से सुवासित हो उठता है और तब दिल कोयल बनकर
सुमधुर गीत गाने लगता है...कुशलेन्द्र जी की यह कृति इस तथ्य को प्रमाणित करती है।
उनकी यह कृति रामकथा के सुप्रसिद्ध प्रसंग भरत मिलाप को केंद्र में रखकर लिखी गई
है। इसके पूर्व किशोरावस्था में ‘मातृ आदेश: राम वनगमन का नाट्य रूपांतरण’ का
प्रकाशन वर्ष 1986 में हो चुका है, जिसे
विद्वजनों का खूब स्नेह और दुलार मिला। यह ईश्वरीय प्रेरणा और अनुकम्पा का ही सुफल
है कि आज रामकथा पर उनकी दूसरी कृति हमारे हाथों में है।
आज जब हम पूरी दुनिया से इंटरनेट के माध्यम से
जुड़े हैं, दूसरी तरफ ऐसे में हम
अपने परिवार से, स्वजनों से कहीं दूर भी होते जा रहे हैं। आज
हमारे आपसी सम्बन्धों में कहीं कमी आई है और हम धीरे-धीरे अपने पुराने मूल्यों और
बुजुर्गों को आउट ऑफ़ सिलेबस मानकर उनकी उपेक्षा करने लगे हैं। ऐसे माहौल में
रामकथा से जुड़ी यह कृति पारिवारिक, सामाजिक और नैतिक मूल्यों की अवधारणा
प्रस्फुटित करती है। सुख और दुखों से परिपूर्ण इस कथा में नैतिक मूल्यों के उच्चतम
शिखरों को प्रस्तुत किया गया है। यह कथा हमें तमाम कष्टों, वेदनाओ और संघर्षपूर्ण
जीवन में भी जीवन जीने की सही दिशा प्रदान करती है।
इस कृति से कुछ प्रसंगों की संक्षिप्त चर्चा
करना यहाँ प्रासंगिक होगा।
कैकयी से पिता के अवसान की ख़बर सुनकर भरत कहते
हैं, ‘माँ बड़े भैया श्री राम कहाँ होंगे अभी...पिता के आभाव में बड़े भ्राता तो
पितृ तुल्य हो जाते हैं...मैं उनकी गोद में सर रखकर रो लेना चाहता हूँ माँ...जब
उनका वरदहस्त मेरे मस्तिष्क को छुयेगा तो...मेरा दुःख कुछ तो कम हो जायेगा...’।
‘माँ मैं उनके गले लगकर रो लेना चाहता हूँ और उनसे भी कहूँगा कि आप भी जी भरकर रो
लें...पिताजी का अवसान तो वो भी सहन नहीं कर पा रहे होंगे...’।
जब कैकयी भरत को दशरथ से श्री राम को वनवास और
उनके लिए राजतिलक के वरदान माँगने की सूचना देती है तब भरत की मनोदशा का वर्णन
देखिए, ‘भरत अचंभित थे...उन्हें लगा कि जैसे वे यकायक राजकुमार से राक्षस बन गए
हों जो अपने ही कुल का विनाश कर देता है...भले ही उनकी माता ने उनकी जानकारी के
बिना उनके शुभ की आकांक्षा से सारा खेल रचा हो पर केंद्र में तो वो ही हैं
न...उन्हें महसूस हो रहा था कि जैसे उन्हें गहरे कूप में गिरा दिया गया हो...वे
अपने क्रोध को दबाने का प्रयास करते रहे पर क्रोध आज उबल पड़ना चाह रहा था...वे
असंयत हो गये।
भरत को दल-बल के साथ चित्रकूट में आता देख
लक्ष्मण राम से कहते हैं, ‘भरत हमारा शत्रु है...भरत के बाद कैकई और उसके सगे
सम्बन्धियों का भी वध किया जाना न्यायसंगत ही
होगा भ्राता...आज समय आ गया है कि इस पुन्य धरा को पापमुक्त कर ही दिया
जाय...आप मुझे रोकने का प्रयास न करना भैया...’।
राम लक्ष्मण को समझाते हुए कहते हैं, ‘...भरत
भ्रातभक्त हैं...वे मुझसे बहुत स्नेह भी करते हैं...अयोध्या में जो कुछ भी घटित
हुआ उसे तो वे जानते भी नहीं थे...’।...“मैं भरत को तुमसे अधिक जनता हूँ
अनुज...मैं यदि भरत से कह दूँ कि ‘भरत राज्य अनुज लक्ष्मण को दे दो’ तो मुझे
विश्वाश है कि वह कुछ भी विचार किये बिना आपको राज्य दे देगा...इतने कर्त्ताव्यशील
अनुज पर संदेह करना अपराध है लक्ष्मण...”।...‘भले ही मुझे स्वत: गिरना पड़े...यदि
राम वृक्ष पर भरत की आशा की अमरबेल चढ़कर उसके जीवन रस को पीकर लहलहाना चाहती है तो
राम का जीवन समर्पण करने को तैयार रहेगा...मेरे जीवन में भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न
को छोड़कर और कोई सुख नहीं है अनुज...जब जब भी भरत के मुख पर लालिमा होगी तब तब ही
राम के मुख पर आनंद परिलक्षित होगा...इसलिए अपने मन को शांत करो...’।
राम-भरत मिलाप के इस दृश्य की सजीवता तो आप
स्वयं महसूस कर लीजिए...‘भैया...’ एक वेदनायुक्त वाणी चित्रकूट के निर्जन वन में
गूंजी...फिर वह पर्वत से टकराती हुई अनेक बार गूंजती हुई सुनाई देने लगी.../‘भैया...भैया...भैया...भैया...’/राम
चौंक गए.../मेरा प्यारा अनुज आ गया...भरत.../एक बार फ़िर पर्वतों से श्री राम की
वाणी चहुंदिशी प्रसारित हुई, ‘भरत...भरत...भरत...भरत...’/भरत श्री राम के चरणों
में बिछ चुके थे...उनके नेत्रों से मन्दाकिनी से अधिक तीव्र वेग के साथ अश्रु बह
रहे थे...समुद्र से अधिक तेज गति से ज्वार उठता दिखाई दे रहा था.../गिरिवर
चित्रकूट का पाषाण स्तंभित हो गया था...वन में विचरण करने वाले पशु-पक्षी...वेदना
के इन स्वरों को श्रवण करने ठहर गये थे।/भरत बिलख रहे थे/राम प्रलाप कर रहे
थे...शांत वातावरण में केवल ‘भैया...’ और ‘प्रिय भरत...’ की अनुगूंज ही सुनाई दे
रही थीं।
राम जब भरत को समझाते हुए उन्हें राज्य का
उत्तराधिकारी बताते हैं तो भरत कहते हैं, ‘कभी नहीं भैया...हम उत्तराधिकारी कभी
नहीं होंगे...हम तो केवल अपने भ्राता श्री राम के सेवक हैं...वे राजकाज के सम्बन्ध
में जो कार्य सौंपेंगे भरत उसका पालन करेगा...इससे अधिक भरत की कोई आकांक्षा नहीं
है...’।
पुस्तक का एक-एक
प्रसंग दिल को मोहित कर लेता है। निश्चित रूप से
कुशलेंद्र जी ने इस कृति के माध्यम से एक
सुखद, प्रेममय और आदर्श जीवन जीने का सन्देश जन-जन को देने का सफल प्रयास किया है।
समय और स्थान की सीमा को ध्यान में रख विश्राम लेना पड़
रहा है वर्ना ऐसी कृतियों की चर्चा तो गंगा-यमुना में गोते लगाने जैसी है, जिसमें
छिपे अनिर्वचनीय सुख का आनंद ही ऐसा है कि उससे कभी आपका मन नहीं भरता।
हमें यकीन है कि श्री कुशलेन्द्र जी की यह पावन
कृति जनमानस के लिए न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय सिद्ध होगी। हम उनके सृजन-कर्म
हेतु उनको अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को इन
शब्दों के साथ विराम देते हैं:
‘होवे
सम्वाद परमपिता से
आओ
करें कुछ ऐसा प्रबंध
इससे
पहले कि पूरे हों
इन
साँसों के अनुबंध.’
सारिका मुकेश
०१ अक्तूबर २०१९
**********************************************************************
पुस्तक का नाम: सरयू के तट पर... : भरत मिलाप का नाट्य रूपांतरण
लेखक का नाम: श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
प्रकाशक: सुभांजलि प्रकाशन, कानपुर
प्रथम संस्करण: २०१९
कुल पृष्ठ: २००
मूल्य: पेपर बैक: ३००/- रुपए & हार्ड बाउंड: ४५०/-रुपए
************************************************************************
No comments:
Post a Comment