Thursday, 21 May 2020

तितली के पंखों पर बैठकर दुनिया की सैर को निकली डा. अनु सपन




भटका रहे हैं मन को प्रतिबन्ध आजकल के/अँधियार बो रहे हैं अनुबन्ध आजकल के



गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल... सृष्टि के हर स्पन्दन में लय और संगीत विद्यमान है। गीत मानव जीवन का स्वर है, उसकी अभिव्यक्ति है। गीत ही शायद काव्य की सबसे पुरानी विधा है। मानव जीवन के साथ ही लोकगीत का भी जन्म हुआ होगा। महाप्रयाण निराला ने लिखा है-गीत-सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी नि:शब्द-संगीत से स्वर सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व, स्वर का पूंजीभूत रूप है। पाश्चात्य दार्शनिक हीगेल ने लिखा है-गीत सृष्टि की एक विशेष मनोवृत्ति होती है। इच्छा, विचार और भाव उसके आधार होते हैं। केदारनाथ सिंह का कहना है-गीत कविता का एक अत्यन्त निजी स्वर है, गीत सहज़, सीधा और अकृत्रिम होता है। महादेवी वर्मा के विचार से-गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र दुःख-सुखात्मक अनुभूति का वह शब्द-रूप है, जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गीत सम्पूर्ण मानवीय सम्वेदनाओं की सार्थक और संगीतात्मक अभिव्यक्ति है। जब यह व्यक्तिपरक उद्गार से निकल आम आदमी के हृदय की आवाज़ बन जाता है, तो कालजयी हो जाता है।
हमारे देश के कवि सम्मेलनों में अपने कालखण्ड में बच्चन जी और नीरज जी ने जो धूम मचाई, उससे हम सभी परिचित हैं। कालांतर में, गीत को हाशिए पर धकेल देने के अथक प्रयासों के बावजूद, आज भी हर कवि सम्मेलन में अनेक गीतकार अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर डालते हैं। आज हम आपको ऐसी ही एक कवयित्री से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, जिनसे हमारा परिचय सुप्रसिद्ध गीतकार श्री राजेन्द्र राजन जी ने यह कहते हुए कराया-'शाब्दिक लिबास पहने एक गीतात्मक अभिव्यक्तियुक्त संज्ञा के रूप में मंच पर अवतरित होने वाली शख्सियत का नाम है-डा. अनु सपन। डा. कुँअर बेचैन जी के शब्दों में-बड़ी बात यह है कि उनकी रचनाएँ काग़ज़ पर भी रचनाएँ होती हैं और काव्य-मंचों पर भी वे उतनी ही गरिमा लिए होती हैं। गीतकार श्री सुमेर सिंह शैलेश लिखते हैं-देश की कम ही कवयित्रियाँ हैं, जो मंचों से उतरने के बाद साहित्य जगत् में भी प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं, अनुउन्हीं में से एक हैं। आज हम आपसे इन्हीं डा. अनु सपन के गीत-संग्रह , मन! तुझसे बात करूँकी चर्चा करने के लिए उपस्थित हुए हैं।




डा. अनु सपन

















सरस्वती वन्दना से पुस्तक का श्री गणेश हुआ है-नमामि मातु शारदे, नमामि मातु शारदे/ज्ञान के प्रकाश से तू विश्व को सँवार दे/...दूर हो सके तपन हाथ जोड़ती सपन/मन की आँख पढ़ सकूँ मैं मुझको वो सिंगार दे...। माँ सरस्वती की कृपा से, कवयित्री ने मन की आँख से ही इस असार-संसार को देखकर यह संग्रह दिया है। छोटी उम्र से ही जीवन-संघर्ष करते हुए वो इस पुरुष-प्रधान समाज के तमाम अवरोधी पत्थरों के बीच से किसी तरह अपना रास्ता बनाती हुई एक झरने की तरह इस धरा पर अवतरित हुई हैं। पाब्लो नेरूदा ने ठीक ही लिखा है कि लेखक का काम केवल लिखना नहीं है, बल्कि एक तरह से वह सामाजिक प्रतिक्रिया की शक्तियों का सामना करने की चुनौतियाँ भी स्वीकारता है और यह एक बड़ा जोख़िम का काम है, क्योंकि लेखक फ़िर सच्चाई के रखवाले की तरह से बोलता है। अनु जी ने बड़ी निर्भीकता से समाज में व्याप्त स्वार्थ, छल-कपट, दोगले चरित्र आदि पर खुलकर लिखा है। आज की पुरुष-मानसिकता और मंच के वातावरण से वो भली-भाँति परिचित हैं-केंचुली पहने हुए कुछ/लोग ऐसे भी मिले हैं/रूप का उत्कर्ष समझा/था जिन्हें, वे अधखिले हैंऔर प्यार के हर रास्ते के/बीच में अन्धा कुआँ है/प्रीत की हर आग में/लपटें नहीं केवल धुआँ है। नारी अस्मिता पर उनके गीत की यह पंक्तियाँ रेखांकित किए जाने योग्य हैं-इस तरह से मुझे आप मत देखिए, भावसूची नहीं हूँ मैं बाज़ार की/मेरी हर साँस में इक उपन्यास है, कोई कतरन नहीं हूँ मैं अख़बार की स्त्री के कोमल मन पर इन सबके क्रूरतम प्रभाव की पीड़ा/वेदना को बख़ूबी समझा जा सकता है। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताकी संस्कृति पर प्रहार करती हुई वो आगाह कर देना चाहती हैं-देवियों की तरह जिसको पूजा गया/या सभाओं में जिसको नचाया गया/एक औरत को औरत न समझा गया/इक शमा की तरह से जलाया गया/मैं धरा हूँ, धरम है सहनशीलता, वस्तु कोई नहीं हूँ मैं व्यापार की। नारी को समय-समय पर पुरुष ने अपने हिसाब से व्याख्यायित किया, पर वो उसकी महत्ता बताते हुए लिखती हैं-नर्क का द्वार समझो न नारी को तुम/स्वर्ग पाने का वो एक सोपान है/उसके काज़ल को लेकर है काली निशा/उसकी लाली से जगमग ये दिनमान है/उसका आँसू समन्दर पे भारी पड़े, नारी शक्ति है, शोभा है संसार की। स्त्री को सिर्फ़ भोग्या और कामवासना की पूर्ति समझे जाने के तथ्य से वो अच्छी तरह परिचित हैं और इसका सामना कर आगे बढ़ती हैं-मैं कजरारी आँखों वाली/और कभी यौवन की प्याली/मुझको समझे बिना सभी ने/क्या-क्या उपमाएँ दे डालीं...मोहक होना दोष नहीं है, लेकिन इस जग को क्या समझाऊँ/बहुत चाहने वाले मेरे, तो क्या मैं सभी हो जाऊँ/क़दम-क़दम पर हैं छल ही छल, वक़्त कह रहा तू बढ़ती चल
कैसी विडम्बना है कि स्त्री आज भी अपनी बात खुलकर  परिवार/समाज में नहीं कह सकती-हवाओं से बँधी है ज़िन्दगी अनुबन्ध कैसा है/समय का साँस पर तो भी यहाँ प्रतिबन्ध कैसा है, लेकिन वो संसार को बताना चाहती है-मैं कुहासे में लिपटी हुई भोर हूँ/कोई सूरज मिले मैं भी खिल जाऊँगी/हूँ नदी भावना की उमड़ती हुई/एक दिन अपने सागर से मिल जाऊँगी, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह रही-मछरिया हूँ कि जिसकी प्यास को समझा नहीं सागर/जगत ने पोथियाँ पढ़ लीं, न समझा प्रेम का आखर...मेरे भीतर भी चिड़िया का सुकोमल-सा बसेरा है/मगर मजबूरियों के बाज़ ने उसको भी घेरा है/यक़ीनन घोंसले पर कोई विपदा ला नहीं सकती/सभी को ज़िन्दगी के दर्द को, समझा नहीं सकती/वो ऐसा गीत है जिसको कभी मैं, गा नहीं सकती। स्त्री मन के सुकोमल सपनों की अकाल मृत्यु पर वो दुखित हो लिखती हैं-आँखों से सपने छीन लिये दिल के अरमान मिटा डाले/ख़ुशियों से तरसे लोगों ने बेहूदा नियम बना डाले/जो कसमों के सौदागर हैं, सम्बन्धों के व्यापारी हैं/मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारों में जाने कितने व्यभिचारी हैंऔर शायद इसलिए उनका इस व्यवस्था से विश्वास उठ गया है और वो लिखती हैं-मूर्तियाँ पूजना मेरी फ़ितरत नहीं, मैं पुजारिन पसीने के क़िरदार की। अनु जी ने स्त्री के संघर्ष और उसकी जिजीविषा को जिस आत्मीयता और सम्वेदनशीलता के साथ उकेरा है, उसमें उनके अपने आत्मीय सरोकारों की स्पष्ट छाया है-भीड़ भरे चौराहे देखे, परिचय भी तो ख़ूब मिले/सच तो एक सफ़र था केवल, बाक़ी सब झूठे निकले...कितनी नदियाँ रेत हो गईं/इच्छाएँ सब खेत हो गईं। इन तमाम मुश्किलों के बावजूद वो समाज में एक ख़ास बदलाव और चेतना लाने के लिए अपने लेखन के ज़रिए प्रयासरत हैं-अजगरों को प्यार की भाषा सिखाने के लिए, पेड़ चन्दन का बना हूँ अपनी इच्छाओं के साथ-(श्री राजेन्द्र राजन)।  
सफ़र-दर-सफ़र-दर-सफ़र-दर-सफ़र ये/तमन्नाएँ कैसा मकाँ ढूँढती हैं...जीवन के तमाम अनुभवों के बाद एक मुकाम पर उन्हें लगा-मेरे बिगड़े सुरों को भी वही तो साज़ देता है/वो मेरा कौन है जो दूर से आवाज़ देता हैऔर वो उसकी ओर यह सोचते हुए क़दम बढ़ाने लगीं-ये किनारे तो मेरा मुकद्दर नहीं/सिन्धु में इक उफ़नती लहर तो मिले/ना बनूँ राधिका, चाहे मीरा बनूँ/जिसमें अमरत्व हो, वो ज़हर तो मिले। अब उनका मन प्रफ़ुल्लित हो उठा है और जीवन में एक नयी आशा का संचार हुआ है-तितली को बाँहों में भर कर/उसकी चंचलता को जानूँ/मैं असीम में उड़ सकती हूँ/वक़्त मिला खुद को पहचानूँ/उपवन में कब तक मुरझाऊँ, चलूँ दुबारा खिलने को/मैं चली पिया से मिलने को, हाँ चली पिया से मिलने को मिलने के बाद मंजिल सब कुछ रुका-रुका-सा/इच्छाओं की डगर पर अब भागना नहीं हैऔर इसलिए अब वो अपना सब कुछ उस पिया पर न्योछावर कर देने को आतुर हो उठी हैं-मन के बासन्ती सम्बोधन, तेरे नाम तेरे नाम/मेरी खुशियों के वृन्दावन, तेरे नाम, तेरे नाम...जनम-जनम से ढूँढ़ रही मैं, तुमको ही तो साँवरिया/तू मुझमें ही छुपा हुआ है, समझी ना मैं बावरिया/मेरी साँसें मेरा जीवन, तेरे नाम, तेरे नाम...जब-जब मैं देखूँ दरपन तू ही मुझे दिखाई दे/कोई भी आवाज़ सुनूँ, तेरी आवाज़ सुनाई दे/चाहत के ये रोली-चन्दन, तेरे नाम, तेरे नाम। अंतत: उस को पाना ही तो हमारी मन्जिल है और वही इस जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है। इसलिए सन्तुष्ट भाव से अनु जी लिखती हैं-सम्बन्ध जुड़ गया है/मेरी आत्मा से मेरा/रिश्ता है एक केवल/परमात्मा से मेरा/एक शून्य पल रहा है, कोई कल्पना नहीं है/मन संत हो न पाया, पर वासना नहीं है
अनु जी के इस गीत-संग्रह से गुजरते हुए जीवन की धूप-छाँव का सफ़र बड़ा ही प्रीतिकर रहा और उनके इस गीत ने मन को बहुत छुआ-कौन वह जीवन है जो/दुःख-दर्द का हिस्सा नहीं है/मुश्किलें ही मुश्किलें हैं/प्यार का क़िस्सा नहीं है/धीरे-धीरे कहो/जैसे नदिया कहे/धीरे-धीरे बहो/जैसे नदिया बहे। हम उनको इस सृजन कर्म हेतु हार्दिक बधाई और साधुवाद के साथ अपनी अहर्निश शुभकामनाएँ ज्ञापित करते हुए, उनकी इन जीवनोपयोगी पंक्तियों को उद्धृत करते हुए आपसे विदा लेते हैं-
                                ‘क्या कहा किसने कहा औ
                                क्यूँ कहा था वो सभी कुछ भूल जाएँ
                                दूरियाँ मन से निकालें
                                मिल गई नज़दीकियाँ इनको सँभालें
                                उम्र भर ढोते रहे शिकवे-गिले
                                मिलन के नाम कर लें
                                हो गई अब सुबह से शाम
                                चलो आराम कर लें

इत्यलम्।


सारिका मुकेश



सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)









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पुस्तक - आ, मन! तुझसे बात करूँ (गीत-संग्रह)
लेखक -  डा. अनु सपन
प्रकाशक - सहज प्रकाशनमुज़फ्फ़रनगर (उ.प्र.)
मूल्य - 300/-रूपये
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1 comment:

  1. हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!

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