यह एकदम सच है कि आज किसी को भी किसी से कुछ
सुनने की बर्दाश्त नहीं है। बड़ों की बात तो छोड़िए, आप छोटे बच्चों को भी कुछ नहीं
कह सकते। उन्हें भी कुछ समझाने से पूर्व बहुत सोचना पड़ता है। ऐसे माहौल में उन
व्यक्तियों को जो प्रशासनिक ज़िम्मेदारी में सेवारत हैं, किसी मंत्रालय में किसी
विशिष्ट पद पर फेविकोल के जोड़ से चिपके हैं या फ़िर राजनीति में सक्रिय हैं, उनके
बारे में कुछ कहना या लिखना-‘जल में रहकर मगरमच्छ से बैर’ लेने जैसा है या ‘आ बैल
मुझे मार को चरितार्थ करने जैसा’। सच में उनके विरोध में कुछ कहना या लिखना किसी
बिच्छू को छेड़ने से कम ज़ोखिम का कार्य नहीं है पर क्या करें कुछ लोग आज भी इस
मुगालते में जीते हैं कि उसके कन्धों पर समाज की ज़िम्मेदारी है, उनका लिखा समाज का
आईना है और वो क्रांति ला सकता है (जिसके प्रमाण में वो इतिहास का हवाला दे आपको
संतुष्ट करने को भी तत्पर दिखते हैं)। इस असार संसार में ऐसे वीरोचित कार्यों का
बीड़ा उठाने के लिए जिस विशेष जीव का नाम समाज में प्रसिद्ध है उसे या तो पत्रकार
कहते हैं या साहित्यकार/व्यंग्यकार। ये दोनों ही अपनी जान को जोखिम में डालकर,
लोगों की उपेक्षा, घृणा, अपमान और तिरस्कार का पुरस्कार पाकर भी अपने कार्यों को
बखूबी अंजाम देते हैं। अब अगर कोई व्यंग्यकार के साथ-साथ पत्रकार भी हो तो यही
कहना उचित होगा कि ‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’। यह एक कहावत है पर हम सभी आज इस
तथ्य से अवगत हैं कि करेला और नीम हमारे लिए एक विशिष्ट औषधि हैं, यह स्वभाव से
भले ही कड़वे लगें पर अन्तोगत्वा हमारे लिए बेहद लाभप्रद/संजीवनी हैं। हम सभी जानते
हैं कि पिछले कुछ बरसों में करेले का जूस पिला-पिला कर एक बाबा खूब प्रसिद्ध हुए
हैं और नीम की प्रसिद्धि का आलम तो यह है कि आज बाज़ार में साबुन, तेल, टूथपेस्ट
आदि तक में नीम देखा/सुना जाता है।
खैर, हमारा उद्देश्य यहाँ इनकी किसी प्रोडक्ट
के प्रचार का नहीं है बल्कि हम तो आज आपको इस नीम और करेले की संजीवनी का दर्शन
लिए सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार/पत्रकार श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव के दो
व्यंग्य-संग्रहों से रूबरू कराने के लिए उपस्थित हुए हैं। पेशे से पत्रकार,
सम्पादक कुशलेन्द्र जी अत्यंत विनम्र, मिलनसार और कर्त्तव्यपरायण सामाजिक प्राणी
हैं। प्रभु श्री राम कथा से इनका विशेष आत्मिक स्नेह/लगाव है। ‘राम वनगमन’ और
‘राम-भरत मिलाप’ पर नाट्य रूपांतरण की इनकी दो कृतियाँ प्रकाशित और बहुचर्चित हो
प्रसिद्धि पा चुकी हैं। व्यंग्यकार के रूप में भी इनकी ख़ूब ख्याति है और इन्हें
अनेकों सम्मान/पुरूस्कार प्राप्त हुए हैं पर इस सब के बावजूद उनकी सहजता, सरलता और
आत्मीयता उन्हें और अधिक विशिष्ट और अद्वितीय बनाती है। वो भरत जैसा जीवन जीते हुए
राम के जैसे साहसिक/वीरोचित कार्य-समाज की विद्रूपताओं का विनाश करने हेतु व्यंग्य
के तीर-तुणीर लिए तत्पर दिखते हैं। कभी-कभी तो विश्वास ही नहीं होता कि इतना
मृदुभाषी शख्स व्यंग्य लिख सकता है (‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी
देखना हो कई बार देखना’)।
श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव के सद्यः प्रकाशित
दो व्यंग्य-संग्रह-‘साहब परेशान हैं’ और ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’ हमारे सम्मुख
उपस्थित हैं। उनके व्यंग्यों से गुज़रते हुए हमें यह विशिष्ट अनुभव हुआ कि तीर जैसे
चुभने वाले व्यंग्य को भी इतनी मीठी चाशनी में पेश किया जा सकता है (जलेबी भी तो
टेढ़ी होने के बावजूद मीठी ही होती है न!) और व्यंग्य की रणभूमि में कहीं भी और
किसी भी विषय पर लिखते हुए प्रेम की कथा ठीक वैसे ही बुनी जा सकती है जैसे
सुप्रसिद्ध साहित्यकार लिओ टॉलस्टॉय ने अपने विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास ‘वार एन्ड
पीस’ में बुनी थी। यहाँ ‘साहब परेशान हैं’ संग्रह में इसका जीवंत उदाहरण है
‘स्वच्छता अभियान पर लिखा व्यंग्य ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’। कलुआ बाई अपनी छोटी बहन
मुनिया बाई के साथ रोज सुबह-शाम आम आदमी के लिए आवश्यक दिनचर्या को पूर्णता की और
ले जाने के लिए हाथ में लोटा लेकर गाँव के बाहर की और निकल जाया करती थी। कलुआ के
साथ चौथी कक्षा तक पढ़ चुका रामलाल भी इसी समय अपने हाथ में लोटा लेकर निकलता था।
...यह क्रम उनका दो साल से निरंतर चलता आ रहा था। फ़िर एक दिन सरकार ने ऐलान कर
दिया की अब हर घर में टॉयलेट यानी शौचालय बनेंगे। टॉयलेट एक प्रेमकथा का दूसरा
हिस्सा यहाँ से आरंभ हुआ।...कलुआ उदास हो गई। टॉयलेट बन जाएगा तो वे फ़िर लोटा लेकर
बाहर नहीं जा सकेंगे। उसे उदास देखकर रामलाल भी उदास हो गया। उस दिन तीनों उदासी
के वातावरण में ही अपने-अपने लोटे का पानी विसर्जित कर वापस लौटे।...टॉयलेट का काम
निपट गया। कलुआ और मुनिया का बाहर जाना बंद हो गया। इस कारण से रामलाल भी अपने घर
में स्वच्छता अभियान को निपटाता रहा। ऐसा लगा कि ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ का दी एन्ड
हो गया है। तभी तेज आँधी चली और पूरी ताकत से बरसात आरम्भ हो गई...घरों में रेत से
बने शौचालय पानी में बह चुके थे...रेत नदी में जाकर मिल चुकी थी ‘नदी का पानी नदी
में जाए’।...सारे बिल निकल चुके थे, बंदरबांट हो चुकी थी। बंदरबांट होते ही साहब
ने अपना ट्रांसफर दूसरे जिले के शौचालय बनाने के लिए करा लिया था। मौसम खुल चुका
था। कलुआ खुश थी, मुनिया प्रसन्न थी...वो शाम
होने का इंतज़ार कर रही थीं। शाम होते ही वे अपना लोटा लेकर बाहर जाती दिखीं,
रामलाल भी उनके पीछे लोटा लिए चल रहा था...।
इसी तरह दूसरे व्यंग्य संग्रह ‘करवा चौथ पर पति
दर्शन’ में ‘चलो अंगूठा लगाएं’ का उल्लेख करना चाहेंगे। इस में लेखक ने वर्तमान
परिवेश में अंगूठे की महत्ता पर बढ़िया से लिखा है। ‘मैया मोरी मैं नहीं अंगूठा
देऊ...’ से इस लेख का आरम्भ हुआ है।...अंगूठा दिखाना अब ‘स्टेटस सिंबल बन गया है।
एक अंगूठा दिखाओ बस समझ लो आपने वो सब कह दिया जो आप कहना चाह रहे थे...अंगूठा अब
आम आदमी की पहचान हो गया। आधार कार्ड तभी बनेगा जब आपका स्वयं का अंगूठा होगा। एक
अदद अंगूठे के बिना आपका बैंक खाता नहीं खुल सकता।...इतना बड़ा शरीर आपकी पहचान
नहीं है एक जरा सा अंगूठा आपकी पहचान बन गया है। आप अंगूठा संभालकर रखने लगे हैं।
आपकी नाक भले ही कट जाए पर अंगूठा नहीं कटना चाहिए। ‘ये अंगूठा मुझे दे दो
ठाकुर...’। ‘नहीं! आप मेरी नाक ले लो पर अंगूठा नहीं दूँगा’।...आम लोगों से अपील
की जाती है कि अपने-अपने अंगूठे को संभाल कर रखें, यही आपकी पहचान है, अंगूठा न
होने की स्थिति में आप मृत मान लिए जाएंगे...।
यह तो एक छोटी-सी बानगी भर है क्योंकि स्थानाभाव
के चलते यहाँ विस्तृत चर्चा कर पाना संभव नहीं है परन्तु हमें पूरा यकीन है कि आप
जब इन दोनों व्यंग्य-संग्रहों के विविध विषयों पर लिखे व्यंग्यों से ख़ुद गुजरेंगे
तो श्री कुशलेन्द्र जी की लेखनी के कायल हो जाएंगे। हमें विश्वास है कि उनके यह
व्यंग्य-संग्रह साहित्य जगत् में सराहे जाएंगे और अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाएंगे।
दोनों संग्रहों के आकर्षक मुखपृष्ठ तथा उत्कृष्ट कोटि के काग़ज़ और सुन्दर छपाई के
लिए प्रकाशक ‘अनुराधा प्रकाशन’ साधुवाद के पात्र हैं। हम श्री कुशलेन्द्र जी को
उनके अहर्निश सृजन-कर्म हेतु हार्दिक साधुवाद/बधाई और शुभकामनाएं देते हुए भविष्य
में भी उनसे अन्य श्रेष्ठ कृतियों की अपेक्षा रखते हुए इस चर्चा को यहीं विराम
देते हैं।
इत्यलम्।।
सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)
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सारिका मुकेश |
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व्यंग्य संग्रह – ‘साहब परेशान हैं’ और ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’
व्यंग्यकार - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
प्रकाशक – अनुराधा प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रत्येक का मूल्य: 150/-रूपये
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Hardik Badhai ��������������
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