एक प्रश्न जिस पर हुए, सभी देवता मौन। माँ तो माँ है बोलिए, माँ से बढ़कर कौन।।
तू
कितनी अच्छी है
तू
कितनी भोली है
प्यारी
प्यारी है
ओ
माँ,
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ..
यह
जो दुनिया है
वन
है काँटों का
तू
फुलवारी है
ओ
माँ,
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ...
फ़िल्म जगत की ऐतिहासिक माँ निरुपमा राय जी पर फ़िल्माये
फिल्म “राजा
और रंक (1968)”
के इस गीत को कौन भूल सकता है जिसके बोल मशहूर गीतकार आनंद बख्शी
साहब ने लिखे और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी के संगीत में स्वर दिया था लता मंगेशकर
जी ने। आज भी यह गीत “माँ” पर
सर्वश्रेष्ठ गीतों में गिना जाता है और हमें अंदर तक भिंगो देता है।
महात्मा गांधी ने बिल्कुल सही कहा था-‘यह
सम्भव है कि आप सोने को और अधिक चमकीला बना दें, पर कौन है
जो अपनी माँ को और अधिक सुन्दर बना सकता है’। यह सच है कि “माँ” विश्व की सुन्दरतम्, अनुपम
और अद्वितीय कृति है। हमारे पापा (श्री बृजकिशोर त्यागी) जी कहा करते थे-“मदर: वोल्यूम्स इन अ वर्ड”। अब्राहम लिंकन कहते हैं-“नो मैन इज़ पुअर हू हैज अ गोडली मदर” (अर्थात् जिसके
पास ईश्वर प्रदत्त माँ है वो आदमी कभी ग़रीब नहीं हो सकता) और हमें बेहद ख़ुशी हो
रही है कि हम आज आपको डॉ अजय जनमेजय जी के सात सौ पचपन दोहों को समेटे जिस संग्रह
से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, उसका नाम है-“माँ तो माँ है”। इस संग्रह के रूप में जनमेजय जी ने “माँ” के साथ-साथ जीवन की विभिन्न झाँकियों को निरूपित करते दोहों के मोतियों की
एक बेशकीमती माला माँ सरस्वती के चरणों में अर्पित कर साहित्य जगत् को एक अमूल्य
निधि दी है। राष्ट्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के पूर्व
सदस्य और सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’
जी और सुप्रसिद्ध शायर/साहित्यकार जनाब शकील अहमद ख़ान (‘शकील बिजनौरी) जी द्वारा लिखी शानदार और जानदार भूमिकाएं संग्रह को
गंगा-जमुनी तहज़ीब की स्वीकार्यता/मान्यता दिला रही हैं।
वर्तमान परिवेश में वृद्ध माता-पिता के बद्तर
रख-रखाव के किस्से आए दिन अख़बार में छपते रहते हैं, जिन्हें
पढ़कर हम सभी का मन ख़राब हो उठता है। इसी से व्यथित हो उनकी लेखनी कह उठती है-‘माँ ने गहने बेच कर, दी
बेटे की फ़ीस/अब माँ को धिक्कारता, बेटा न्यायाधीश’, ‘जिस माँ ने नौ माह
तक, सहा पुत्र का बोझ/रख न सका उस मातु को, बेटा घर कुछ रोज’, ‘करे बुजुर्गी में यहाँ, पूरे घर का काम/दुखियारी माँ
को कहाँ, मिला कभी आराम’, ‘खुश हैं अब बेटे यहाँ, बाँट
लिए माँ-बाप/अलग हुए माँ-बाप का, ज़रा नहीं संताप’, ‘वृद्धाश्रम में
लाड़ला, छोड़ चला माँ-बाप/मन ही मन रोए पिता, कौन सुने आलाप’।
माता-पिता का क़र्ज़ कोई कभी नहीं चुका सकता है।
सभी को एक उपयोगी संदेश देते हुए उनके यह दोहे खूबसूरत बन पड़े हैं-‘धरा, वायु, माँ, नीर का, ऋण है अगम अपार/बन जाओ भगवान भी, किन्तु न सको उतार’, ‘सारे हैं ये बाद में,
जप,ताप, तीरथ दान/माँ के
चरणों की धरा, होती स्वर्ग समान’,
‘माँ की ममता का ‘अजय’, किसने पाया छोर/तुम
तो बस थामे रहो, जब तक है ये डोर’।
इस संग्रह में माँ के अतिरिक्त अन्य सामायिक
विषयों पर भी बेहतरीन दोहे हैं, जिन्हें पढ़ते हुए जगह-जगह हमें
यही लगता है कि यह तो हमारे आसपास की बात कह दी है। भाषा, भाव,
विचार नितांत अपने लगते हैं और प्रवाह ऐसा कि आप स्वत: बहते चले
जाएं। यही बोधगम्यता इस संग्रह को पाठक का पूर्ण अपनत्व प्रदान कराती है। ऐसा लगता
है कि हम अपने गाँव में घर की चौपाल में बैठकर दोहे सुन रहे हैं। नि:संदेह उनके कई
दोहे दिल को भीतर तक छू जाते हैं।
यह डॉ. जनमेजय की विशिष्टता है कि तमाम
उपलब्धियों/सम्मानों/पुरूस्कारों के अतिरिक्त एक नामचीन बालचिकित्सक होने के
बावजूद वो आज तक अपनी माटी से जुड़े हैं और उन्होंने अपनी उस माटी की गंध को न केवल
अपने में बल्कि शब्दों तक में जीवंत बनाए रखा है। सरल, सहज़ और हँसमुख दिखने वाले इस शख्स के भीतर कितने समंदर उमड़ते रहते हैं,
इसका अंदाज़ा लगा पाना कतई मुश्किल और जोख़िम भरा कार्य है। यहाँ हमें
जनाब निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर याद आता है: “हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना
हो कई बार देखना”।
इसी के साथ हम उनकी सहधर्मिणी आदरणीय पुष्पा भाभी जी को भी साधुवाद देते हैं जिन्होंने तमाम
पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ स्वयं वहन कर जनमेजय जी को साहित्य के साथ-साथ नन्हें-मुन्नों को
बालसाहित्य उपलब्ध कराने और उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न बनाए रखने के लिए अपनी
चिकित्सीय सुविधाएँ/सेवाएँ भी प्रदान करने का निर्विघ्न समय सदा उपलब्ध कराया है। बिना घर-परिवार के सहयोग के ऐसे सारस्वत यज्ञ संपन्न नहीं हो पाते हैं।
ईश्वर से प्रार्थना है कि जनमेजय जी की कलम शब्दों के आईने में यूँ ही समाज को वैचारिकता के साथ-साथ प्रेरक शक्ति प्रदान
करे। गहरे भावों को लिए अपनी माँ के संग बैठे जनमेजय जी को दर्शाता संग्रह का
अत्यन्त आकर्षक कवर पेज तथा उत्कृष्ट कोटि के काग़ज़ और आकर्षक छपाई के लिए प्रकाशक ‘अविचल प्रकाशन’ साधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं कि साहित्य जगत् में उनके दोहा
संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। अब हम अपनी वाणी को उनके इस दोहे के साथ विराम देते
हैं:
मन में अनहद बज रहा, गया न मेरा ध्यान।
बातें
करने को उधर, आतुर थे
भगवान।।
इत्यलम्।।
सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)
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सारिका मुकेश |
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पुस्तक- माँ तो माँ है (दोहा संग्रह)
पुस्तक- माँ तो माँ है (दोहा संग्रह)
लेखक : डॉ. अजय जनमेजय
प्रकाशक : अविचल प्रकाशन, बिजनौर-246 701 (उ.प्र.)
मूल्य: 150/-रूपये, पृष्ठ-128
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हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!
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