Monday, 15 June 2020

अंतरंग रिश्तों में स्त्री-मन की कोमल भावनाओं को उकेरता औपन्यासिक विशेषांक





इस तथ्य से अब हम सब भली-भाँति अवगत हैं कि आज के  अंतर्जालमयी/आभासी दुनिया के इस युग में जबकि लोगों में पत्रिकाएँ खरीदने/पढ़ने की प्रवृत्ति कम ही बची है, तब हिंदी की पत्रिका स्वयं के बल पर निकाल पाना और उसे लगातार चलाना आसान काम नहीं है और उस पर भी अगर अहिन्दी-भाषी प्रान्त से यह पत्रिका निकालनी हो तो ज़ोखिम और अधिक बढ़ जाता है पर कुछ लोग यह कार्य कई बरसों से सतत करते चले आ रहे हैं। हिंदी की सेवा करने हेतु इस चुनौतीपूर्ण कार्य को अंगीकार करने हेतु ऐसे ही एक शख्स हैं-श्री पंकज त्रिवेदी। उनकी अब तक हिन्दी-गुजराती साहित्य में पैंतीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और वे गुजरात प्रान्त के सुरेन्द्रनगर शहर से पिछले सात बरसों से हिन्दी त्रयमासिक पत्रिका ‘विश्वगाथा’ का सम्पादन/प्रकाशन कर रहे हैं। वे बहुआयामी विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं और अपनी विभिन्न उत्कृष्ट सर्जनात्मक सक्रियता के लिए अनेकों सम्मान और पुरस्कार से नवाज़े जा चुके हैं। आज हम उनकी पत्रिका ‘विश्वगाथा’ (अप्रैल-जून’ 2020) के विशेषांक की चर्चा करने हेतु उपस्थित हुए हैं। यूँ तो तमाम पत्रिकाओं के विशेषांक समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं पर उनमें से कुछ ही संग्रहणीय बन पाते हैं। ऐसा ही संग्रहणीय है ‘विश्वगाथा का यह विशेषांक, जो गुजरात की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री बिन्दु भट्ट जी के चर्चित लघु उपन्यास ‘मीरा याज्ञिक की डायरी’ पर केन्द्रित है, जो मूलत: गुजराती में पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ और फ़िर राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से हिन्दी में अनुदित एवं प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुँचा। अब यह अन्य भी कई भाषाओं में आ चुका है। किसी उपन्यास में डायरी का मिलना तो आम बात है पर डायरी में उपन्यास लिखे जाने के इस अभिनव प्रयोग को देख पाठक एकबारगी अचम्भित और आह्लादित हो उठता है। यह डायरी मीरा याज्ञिक के जरिए मानवीय मन की प्रेममयी सम्वेदनाओं के जुड़ने, बिखरने और टूटने के कोमल अहसासों को बड़ी संजीदगी से रचनात्मक ढंग से शालीनता के संग ऐसे प्रस्तुत करती है कि आप आरम्भ से अंत तक इससे भावनात्मक तौर पर जुड़े रहते हैं। यह नारी विमर्श की बात करती है पर एकतरफ़ा नारीवाद की नहीं। यह किसी भी पूर्वाग्रह को लेकर नहीं चलती और न ही कुछ अपनी और से जबरदस्ती आप पर थोंपना चाहती है। यह तो आपके समक्ष एक ऐसा लाइफ़-स्केच रखती है, जिस पर एक स्वस्थ बहस की आवश्यकता है। इसको पढ़ते हुए हमें कई दफ़ा वर्जीनिया वुल्फ़ की याद आती रही।




 श्री पंकज त्रिवेदी (सम्पादक) 













जैसा कि नाम (‘मीरा याज्ञिक की डायरी’) से ही स्पष्ट है कि इसके केन्द्र में मीरा है। अहमदाबाद की एक यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहकर स्कालरशिप लेकर ‘प्रेमचंदोत्तर उपन्यासों में प्रेम एवं विवाह की समस्याएँ’ पर अपना शोधकार्य करती मीरा को शरीर पर सफ़ेद दाग हैं। स्कूल में पहले उसने इसके लिए बहुत कुछ सहा है, फ़िर एक शिक्षिका वृन्दा उसे प्यार से एक नया नाम देती है-‘कबरी’। मीरा के शब्दों में-“कभी-कभी शब्दों के पार निकल जाता है सम्बन्ध! यह ‘कबरी’ शब्द तो मेरे आत्मविश्वाश की धुरी इसने ही तो मुझे विकृत मनोदशा में फँसने नहीं दिया’। इसी के साथ वृन्दा मीरा की मित्र बन जाती है। वही वृन्दा अब अपनी एम.ए. की परीक्षा की तैयारी करने हेतु मीरा के साथ हॉस्टल में उसका कमरा शेयर करने आ जाती है। मीरा उसका साथ पाकर खुश होती है-‘वृन्दा मेरे रूम में मेरे पलंग पर सोई हुई है, फ़िर भी विश्वास नहीं हो रहा है कि वह आ गई! कई बार हमने साथ रहने की इच्छा की है! अंत में आज वह साकार हुई!” अब वृन्दा और मीरा मित्र हैं-“मैं एकदम बोल पड़ी, क्या मैं अभी भी तुम्हारी शिष्या ही हूँ? कोई उत्तर न दिया, चुपचाप मेरा हाथ पकड़ लिया वृन्दा ने”। धीरे-धीरे यही प्रगाढ़ता उन्हें एक दूसरे के प्रेमपाश में कब जकड़ लेती है, उन्हें पता ही नहीं चलता-“वह बोल रही थी और उसके होंठों की हलचल और आवाज़ की कम्पन से मेरे कन्धों, कर्णमूल, गरदन और गाल के अन्दर कुछ कुलबुला रहा था। कोई राख में ढके अंगारों को फूँक रहा था...कब उसने मेरी गोद में सर रखा, कब उसने मेरे बालों से हमारे चेहरे ढक लिए, कब उसने...पिछले दो दिन से यह मेरी देह भी मेरी नहीं रही, सुबह नहाने बैठी तब अंग-अंग वृन्दा की भाषा बोल रहे थे...गुनगुने पानी का स्पर्श, एक तीव्र रोमांच और अंग-अंग से छलकता सुख...पूरे शरीर में वाणी अँखुआ रही थी...लगता है वृन्दा को चाहने के साथ-साथ मैं अपने शरीर को भी चाहने लगी हूँ”। मीरा की प्रेममयी किश्ती को मानो एक दरिया मिल गई हो, वो बहुत ख़ुश होती है परन्तु कुछ दिनों बाद ही वृन्दा का परिचय मुम्बई यूनिवर्सिटी में रीडर डॉ. अजीत से हो जाता है और वे दोनों विवाह का निर्णय लेते हैं। वृन्दा द्वारा दूरी बनाए जाने से मीरा का कोमल मन आहत हो उठता है। फ़िर एक शिविर में उसकी निकटता कवि उजास के संग बढ़ती है-”मुझे लगता है प्रेम स्वयं एक झंझावत है, सजीव मात्र को आमूलचूल परिवर्तित कर देने वाला, अष्टमी के चाँद के उजाले में समुद्र का किनारा, सामने बैठा उजास और उजास की कविता,,,पहली बार अनुभव किया कि उजास की आँखें मेरी देह और मन की आग के अक्षर पढ़ रही है, जबकि वृन्दा के सम्बन्ध में...हमने शायद धुएँ को ही आग मान लिया था...”। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि यहाँ भी उसकी भावनाएँ छली जाती हैं और अंततः इस रिश्ते से भी मीरा को कभी न भर सकने वाला जख्म ही मिलता है-“मैंने उसकी पकड़ से छिटकने की कोशिश की तो वह और भूखा बनकर दुगुने आवेग से टूट पड़ा। उसकी आँखों के जूनून ने मेरी सारी आर्द्रता सोख ली...मेरी नज़र के सामने वह क्षण बलात्कार के अँधेरे में बदलता जा रहा था और मैं उसमें उजास खोजती रही...क्या वह मुझे केवल भोगना ही चाहता था? यह भी हो कि इस चितकबरे शरीर को वह सहन न कर सका हो। मैं तो वृन्दा की आँखों से ही अपने को देखती रही हूँ, परन्तु हक़ीकत तो...क्या मैं अपने बाह्य रूप की वास्तविकता को भूल गई थी?...नहीं, कुछ भी सुन्दर नहीं, रोमांचक नहीं...ज़रा भी सद्भाव नहीं...सौहार्द्र नहीं...आश्वस्ति नहीं, नहीं...नहीं...। इसके बाद उसका मन किसी काम में नहीं लगता है और वो सोचती है-“यदि रिसर्च का काम न हो रहा हो तो क्या अधिकार है मुझे स्कालरशिप लेने का? घर चली जाऊँ?” और अंत में मीरा अहमदाबाद को छोड़ अपनी मम्मी के पास नवानगर निकलने से पहले आहत मन से लिखती है-‘कुछ भी छोड़कर नहीं जा रही हूँ/सिवा/बीते वक़्त की गंध...’। डायरी के अन्तिम पृष्ठ पर उसका सारा दर्द उभर आया है-“खट...खट...मम्मी का झूला चल रहा है। पता नहीं, कितने बजे हैं? नींद की गोली लेकर सोई थी पर जग गई। पिछली गली में हाँफते, दौड़ते कामातुर सुअर की गुर्राहट, जबड़े की आवाज़...और उससे बचने की कोशिश करती चीखें...पूरे शरीर में एक झुरझुरी दौड़ने के साथ मानो मन-मन का बोझ मुझ पर लदता जा रहा है। पसलियाँ मारे दवाब के मानो अभी टूट जाएँगी...पूरा शरीर पसीने-पसीने...। खट...खट...नाइट लैंप की मैली रौशनी में सामने की ड्रेसिंग टेबल का आईना भी मुझे मम्मी की तरह पहचानने से इनकार कर रहा है। सूजा हुआ चेहरा, पशुओं द्वारा रौंदे गए खेत-सा सिर...। लगातार घुट रही हूँ। पिछले तीन दिनों से इसी कमरे में बन्द पड़ी हूँ...मम्मी एक अक्षर तक नहीं बोलती...अब तो मानो दिशाओं ने भी मुझसे मुँह फ़ेर लिया है...”। यह उपन्यास मन में एक अज़ीब सी कशमकश लिए, न जाने कितने ही प्रश्न हमारे सामने खड़े कर जाता है! समूचे उपन्यास में लेखिका ने शब्दों का उपयोग बहुत सोच-समझकर किया है, जिससे पाठक कहीं भी मुख्य मुद्दे से नहीं भटकता। इस सृजन के लिए लेखिका सुश्री बिन्दु भट्ट जी साधुवाद/प्रशंसा की हक़दार हैं। उपन्यास के साथ-साथ इस पर कई विद्वजनों की संग्रहित आलोचना/समीक्षा पाठक के लिए अन्वेषी दृष्टि का कार्य कर उपन्यास के महत्त्व को रेखांकित करती है। कुल मिलाकर विशेषांक बहुत सुन्दर और संग्रहणीय बन पड़ा है और हम सम्पादक श्री पंकज त्रिवेदी जी को इस अद्वितीय और बेहद अभिनंदनीय अंक हेतु हृदय से बधाई और साधुवाद देते हैं। हमें इस बात की प्रसन्नता है कि उनके कुशल मार्गदर्शन में यह पत्रिका प्रतिष्ठित साहित्य साधकों से रू-ब-रू कराते हुए नवोदित प्रतिभाओं का समग्र दिग्दर्शन करने में पूर्णरूपेण सक्षम है। भविष्य में भी पत्रिका का मार्ग यूँ ही प्रशस्त रहे और यह निरंतर नयी ऊँचाईयाँ छुए, इसी आशा और विश्वास के साथ हम उनके स्वस्थ, यशस्वी और दीर्घ जीवन की मंगलकामनाएं करते हैं।

इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश 


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2 comments:

  1. हार्दिक शुभकामनाएँ!!

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  2. वाह..! वाकई एक संग्रहणीय विशेषांक में समाहित उत्तम लघु उपन्यास की गहन और सटीक समीक्षा...

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