Friday, 26 June 2020

डिज़िटल युग में शाश्वत मूल्यों की सूक्ष्म पड़ताल करता कहानी-संग्रह




सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री अमृता प्रीतम जी ने अपने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था-...रचना ज़िन्दगी की आलोचना होती है-ज़िन्दगी की कल्पना की ओर से की गयी ज़िन्दगी के यथार्थ की आलोचना, ज़िन्दगी की सक्षमता की ओर से की गयी ज़िन्दगी की अक्षमता की आलोचना। पर लेखक के पास उसका चिन्तन समुद्रमन्थन जैसा होता है। उसके पास अहसास की शिद्दत होती है, चिन्तन की गहराई होती है और बयान का अंदाज़ होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि उसे आलोचना का हक़ इसलिए हाँसिल होता है कि उसे ज़िन्दगी से बेपनाह इश्क़ होता है...। आज हम आपको ऐसे ही एक लेखक श्री अमरेन्द्र कुमार सिंह जी से रू-ब-रू कराने हेतु उनके कहानी संग्रह जठराग्नि से आगे... के साथ उपस्थित हैं। पेशे से केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षक श्री अमरेन्द्र जी पत्रकारिता और हिन्दी की हास्य-व्यंग्य प्रधान पत्रिका जी.एस.के. शिष्ट विनोदके संचालन/सम्पादन से भी जुड़े हैं।
इस कहानी-संग्रह में नौ कहानियाँ संकलित हैं। श्री मार्कण्डेय त्रिपाठी (पूर्व सहसम्पादक-नवनीत, मुम्बई) जी द्वारा लिखी भूमिका संग्रह पर अच्छा प्रकाश डालती है। कथ्य की दृष्टि से यह कहानियाँ विविधवर्णी हैं। शब्दों की क्लिष्टता से दूर रह बिना किसी आडम्बर के सरल, सहज और संप्रेषणीय भाषा से बुनी उनकी कहानियों में मनोवैज्ञानिकअस्तित्वगत और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ जीवन के सामान्य और भयावह सच लिए रोजमर्रा की घटनाएँ शब्द-चित्रण से सजीव हो उठती हैं। इनमें विचारधारा की आँच, कुव्यवस्था के प्रति रोष और गिरते मूल्यों के प्रति विषाद/चिन्ता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। कुल मिलाकर उनकी मनोव्यथा यही है कि वो इस सुसभ्य मानव से पूछना चाहते हैं-तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना/भी तुम्हें नहीं आया/एक बात पूछूँ-(उत्तर दोगे?)/तब कैसे सीखा डसना-/विष कहाँ पाया? (-अज्ञेय)



श्री अमरेन्द्र कुमार सिंह 
















शीर्षक कहानी जठराग्नि से आगेरघुनाथ बाबू के घर में काम करने वाले नौकर दीनानाथ की कहानी है। माँ-बाप की असमी मृत्यु हो जाने के कारण दूसरे गाँव से भटकता हुआ इस गाँव में आया था। रघुनाथ बाबू ने उसे अपने घर नौकर रख लिया था। फ़िर एक दिन उनके बेटे आलोक बाबू ने उसे लात मारकर घर से निकाल दिया तो वो गाड़ी पकड़कर लखनऊ चला गया पर वहाँ मालिक रघुनाथ बाबू की बहुत याद आई तो गाँव के लिए चल दिया लेकिन जब वो उनके द्वार पर पहुँचा तो वहाँ उनका श्राद्ध चल रहा था। सब आलोक बाबू की जयजयकार कर रहे थे। उसका मन वितृष्णा से भर उठा-ज़िन्दा रहते तो उनकी सेवा सुश्रुषा नहीं की। मुझे भी नहीं करने दिया। अब पाँच तरह की मिठाई खिलाकर अपनी जयजयकार करा रहे हैं। सोचकर दीनानाथ को आलोक बाबू के नाम से भी घिन्न होने लगी और वो भरपेट पानी पी मन्दिर के प्रांगण में गमछा बिछाकर सो गया। घर के नौकर का यह चरित मन को भिंगो देता है। ऐसी ही एक कहानी है-शम्भू। इस कहानी में मुरारी लाल अपने घर के नौकर के साथ अपने अफ़सर बेटे मुन्ना के पास रहने के लिए दिल्ली जाते हैं पर बेटे की पत्नी उन्हें वहाँ से जल्दी टरका देती है और जैसा कि अधिकतर होता है, बेटा भी पत्नी के निर्णय के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहता और अंतत: मुरारीलाल ट्रेन से वापस गाँव लौटते हैं। लौटते वक़्त वो रात भर इस डर से नहीं सो पाते कि बेटे की तरह कहीं शम्भू भी छोड़कर न चला जाए। अगली सुबह शम्भू उनसे कहता है-हम सब समझ गए बाबू साहब। आप डरे हुए थे...पर हम ऐसा कइसे कर सकते हैं? हम ऊपर जाकर क्या जवाब देते बाबू साहब, अगर आपको बीच रास्ता में छोड़कर चले जाते?...मुरारीलाल ने शम्भू के चेहरे को गौर से देखा। फ़िर बड़े संयत स्वर में बोले-शम्भू! तुम्हें तो ऊपर वाले का डर है। सभी लोगों को ऊपर वाले का डर क्यों नहीं है? शम्भू के पास कोई उत्तर नहीं था।ऐसे ही एक कहानी टूटी जिलेबियाँमें नौकर सोगरथ है, जिसका मत है-रोटी का एक टुकड़ा मालकिन दे या न दे, यह मालकिन की मर्जी। उसका एक सूत्री धर्म था-मालिक या मालकिन जो काम करने को दें, उसे पूरी लगन से करना...उसे यह शाश्वत ज्ञान हो गया था कि मालकिन अगर रोटी दे तो खाना उसका धर्म था और न दे तो चुपचाप आँखें मूँदकर सो जाना भी उसी का धर्म था। पूरी उम्र सेवा करने के बाद वह एक दिन घर छोड़कर गंगा किनारे स्थित किसी साधू के आश्रम में चला जाता है और फ़िर एक दिन सहसा छोटे मालिक के सामने प्रगट होता है...उसके हाथ में एक पुड़िया थी। उसने बड़ी सावधानी से पुड़िया को खोला और मेरे सामने बढ़ा दिया। पुड़िया में जिलेबियों के कुछ टूटे हुए रसविहीन टुकड़े थे।...ये क्यों लाए?...बऊआजी हम उमर में त आपसे बड़े हैं न। आपके पास त, हम एतना दिन बाद आए हैं। ख़ाली हाथ कइसे आते, बऊआजी?इन तीनों कहानियों में यह स्पष्ट हो जाता है कि आज सारी सम्वेदनाएँ और पुराने जीवन मूल्य ये ग़रीब कहे/समझे जाने वाले लोग ही निर्वहन कर रहे हैं। शिक्षित होने पर हमें इन मूल्यों को अधिक आत्मसात करना चाहिए था लेकिन पढ़-लिखकर और बड़ा आदमी बन जाने के बाद हम इन्हें तिलांजलि दे देते हैं, जो कि दुखद स्थिति है। हमारी परवरिश और वर्तमान शिक्षा-प्रणाली पर बहुत ही विचारणीय प्रश्न(चिह्न) खड़ा करती हैं ये कहानियाँ! चौखटकहानी में यह दिखाया गया है कि संवेदनाओं और वफादारी में जानवर हमसे अच्छे हैं। एक माँ का इंतजारमें एक माँ का अपने बेटे को काबिल डाक्टर बनाने का त्याग दिखाया गया है, जो अपनी सारी खेती की कमाई बेटे को भेज देती है और सर्दी के मौसम में अपने लिए एक रजाई तक नहीं बनाती और फ़िर...पूस के दूसरे पखवारे की चतुर्दशी थी। पाला आख़िर पड़ ही गया...काकी खाट पर ऐंठी पड़ी थी। पतली रजाई को उन्होंने पूरी ताकत से जकड़ रखा था। शायद ठंड से बचने की उन्होंने पूरी कोशिश की थी पर कपड़ों की कमी ने उन्हें परलोक जाने पर विवश कर दिया था। संग्रह की अंतिम कहानी आश्रमएक ऐसे प्रोफ़ेसर रामनाथन की कहानी है जो रिटायरमेंट लेकर हिमालय की वादियों में रहने वालों की परेशानियों और दुःख को दूर करने के लिए अपनी जमापूँजी और खेती से आने वाली सारी कमाई लगाकर एक आश्रम का सञ्चालन करता है और जल्दी ही इतनी प्रसिद्धि पा लेता है कि स्वयं मुख्यमंत्री वहाँ आते हैं और आश्रम के कार्यों को देख ख़ुश होकर हर संभव मदद देने का वादा करते हैं। रामनाथन/रामस्वामी उस क्षेत्र के लोगों के अंधविश्वासों और उन्हें ओझाओं के झाड़-फूँक से दूर कर, उन्हें बीमारियों से मुक्ति दिलाने हेतु उचित मेडिकल स्वास्थ्य सेवाएँ दिलाता है पर एक दिन-पौ फटने ही वाला था। तभी आश्रम में शोर का एक गुब्बार उठा...रामस्वामी की खून से सनी लाश उनके बिस्तर पर पड़ी थी। खून से सना एक तेज़ धार वाला हथियार पास ही पड़ा था। जिस बीमार महिला को रामस्वामी ने कुछ घंटे पहले अस्पताल भिजवाया था, उसका पति पास ही खड़ा था । उसे आश्रम के कई लोगों ने पकड़ रखा था । लोगों को माज़रा समझते देर नहीं लगी। यह कहानी भीतर तक पीड़ित कर हमें बहुत कुछ सोचने को मज़बूर करती है। 
इस संग्रह में अनेक स्थलों पर (कु)व्यवस्था और हमारी (अ)सभ्यता पर तीख़े प्रहार और रोष प्रगट करते हुए, निष्कर्षतः एक सौ बारह पृष्ठों में सहेजा नौ कहानियों का यह संग्रह खुद में एक ऐसा अनूठा संसार हैजिससे गुज़रकर हम यह सोचने को बाध्य हो उठते हैं कि हम आख़िर जा कहाँ रहे हैं? हमें उम्मीद है कि यह कहानी संग्रह पाठकों के मन को आन्दोलित करेगा और साहित्य जगत् में चर्चित हो अपना स्थान बनाएगा। हम श्री अमरेन्द्र जी को उनके सृजन-कर्म हेतु अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं।
इत्यलम् ।।


सारिका मुकेश
(तमिलनाडू)


सारिका मुकेश 




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पुस्तक-जठराग्नि से आगे... (कहानी संग्रह)
लेखक-अमरेन्द्र कुमार सिंह    
प्रकाशक-लता साहित्य सदनगाजियाबाद-201102 (उ.प्र.)
प्रकाशन वर्ष-2020, मूल्य: 300/-, पृष्ठ-112
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1 comment:

  1. हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!

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