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मैं मरूँगा तो ग़ज़ल का क़ाफ़िया हो
जाऊँगा...
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सुप्रसिद्ध
साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा जी ने लिखा है, “कोई भी श्रेष्ठ लेखक अपनी एक ख़ास साँचे में पड़ी तस्वीर के
भीतर हमेशा नहीं रहना चाहता। वह हमेशा गतिमान रहता है या-रहना चाहता है। उसके
लेखकीय व्यक्तित्व के ‘हस्ताक्षर’ भले
ही एक जैसे रहते हैं, उसके भीतर की दुनिया के अन्दर
अन्तर्सम्बन्धों में हमेशा नए शब्द, ध्वनियाँ, स्वराघात बदलते रहते हैं। एक छवि में उसे ‘रिड्यूस’
करते ही लगता है, कि वह कहीं अधूरा और विकलांग
रह गया है। जिस चौखट में उसे बन्द किया गया था, उसके कितने
जीवंत अंश उसके बाहर झूलते रहते हैं जिन्हें कभी कोई नाम नहीं दिया जाता। लेखक को
उसकी सतत् गत्यात्मकता में पकड़ना उतना ही दूभर है, जितना एक
पक्षी को उसकी उड़ान में पूरा देख पाना...एक अंग पर आँख पड़ते है बाकी देह आँखों से
ओझल हो जाती है। लेखक जितना अधिक विकासशील होगा, उतना ही उसे
एक ‘फ़्रेम’ में बन्द रखना असम्भव होगा”। शायद यही वजह है कि गीत विधा में ख़ूब सराहे जाने वाले और अपनी विशिष्ट
पहचान बनाने वाले श्री राजेन्द्र राजन जी ने अब ग़ज़ल क्षेत्र में सक्रिय हो,
अपने पहले ग़ज़ल संग्रह ‘मुझे आसमान देकर...’
के संग ग़ज़लकारों के मध्य अपनी विशिष्ट उपस्थिति इसी ख़याल के साथ दर्ज़
करा रहे हैं-‘नश्श-ओ-कैफ़े-ग़ज़ल हुस्ने-ग़ज़ल जाने-ग़ज़ल, आ तुझे गीत का
अंदाज़-ए-तरन्नुम दे दूँ’ (श्री बेकल उत्साही)।
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श्री राजेन्द्र राजन |
राजन
जी भूमिका में ही स्पष्ट कर रहे हैं कि इस संकलन के माध्यम से अपने प्रिय पाठकों व
श्रोताओं को ‘ग़ज़ल पढ़ाना’ उनका उद्देश्य नहीं है, बल्कि वो तो इन ग़ज़लों के
बहाने अपने उद्गार-अपनी अनुभूतियों भरा हृदय आपके हवाले कर रहे हैं। इस संग्रह के
लिए उन तमाम साहित्यकारों (जो उनकी इस ग़ज़ल-यात्रा में किसी न किसी माध्यम से उनके
आसपास रहे) के साथ-साथ गीत-ग़ज़ल की समर्थ हस्ताक्षर तथा सुयोग से उनकी सहचरी
श्रीमती विभा मिश्रा (जिन्होंने प्रथम श्रोता/पाठक/समीक्षक के तीनों दायित्वों का
निर्वाह ठीक त्रिवेणी संगम की तरह संपन्न किया है) और सौजन्य-सहयोग के लिए श्री
अनिल पांडे एवं श्री आशीष कुमार पांडे (संबद्ध: कृष्णा देवी पब्लिक स्कूल, सहतवार, बलिया (उ.प्र.) बधाई और साधुवाद के पात्र
हैं।
पुस्तक के फ्लैप पर-उ.प्र.
हिन्दी संस्थान, लखनऊ के भूतपूर्व
कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. उदय प्रताप सिंह जी लिखते हैं, ‘मैंने उनके कुछ शेर पढ़े जो
बहुत ही अच्छे शेर हैं। उनके कुछ शेर इतने प्रभावी और जीवन के सामान्य अनुभव से
जुड़े हुए हैं कि वो सहज रूप से मन को भा जाते हैं और मन में घर कर जाते हैं।...चूँकि
उनके पास अच्छी भाषा है, मुहावरेदार शब्दावली है और उन्हें छंद का भी ज्ञान है,
इसलिए उनकी गज़लें साहित्य के क्षेत्र में स्वीकार की जाएँगी”। ‘गीत गागर’, भोपाल
के सम्पादक श्री दिनेश प्रभात जी का मत है, “राजेन्द्र राजन साहित्य जगत के वो
पंछी हैं, जो अपने दोनों डैनों (गीत और ग़ज़ल) के दम पर निर्बाध, निर्विघ्न,
नित-नूतन आकाश में करिश्माई उड़ान भर रहे हैं। वे ऐसे काँधों के मालिक हैं,
जिनके दाएँ काँधे पर गीत और बाएँ काँधे पर ग़ज़ल बच्चों की
तरह बैठकर इतर रहे हैं और आकाश को मुट्ठी में भरने का प्रयास कर रहे हैं”। गीत और ग़ज़ल
के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर डॉ. कुँअर बेचैन जी ने पुस्तक के पार्श्व पृष्ठ पर अपना लम्बा
अभिमत देते हुए लिखा है-‘...गीतकार राजेन्द्र राजन, जो अब ग़ज़ल भी कह रहे हैं, को
मैं जब से जानता हूँ, वे मुझे प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों की मार्मिक
अनुभूतियों की सशक्त अभिव्यक्ति के कवि लगे...इनके गीतों में जो समर्पण भाव है, वही
इनकी ग़ज़लों में भी हिलोरे मारता है। फ़िर ग़ज़ल तो है ही ऐसी विधा जिसका प्रमुख
तत्त्व ही प्रेम होता है...ग़ज़ल में भाषा की जिस रवानी, लाक्षनिकता और व्यंजना की
आवश्यकता होती है, रदीफ़ और क़ाफ़ियों का निर्वाह होता है, वह सब इनकी ग़ज़लों में
मौजूद है...कुल मिलाकर यह संग्रह पठनीय है।
'फ़िर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल, शायद मिले ग़ज़ल का पता उस गली में चल'...जनाब हबीब जालिब जी के इस शेर के साथ अब हम आपको
पावन-पुनीत, अनछुई-सी अनुभूतियों के सहारे ग़ज़ल यात्रा में
निकले श्री राजेन्द्र राजन जी के ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह ‘मुझे
आसमान देकर...’ के स्नेह-पूरित चमन में लेकर चलते हैं पर यह
याद रहे-‘दीपक
तुम्हारे हाथ है बस्ती है फूँस की/जा तो रहे हो जाओ मगर देख-भाल कर’। इस सफ़र के बारे में वो कहते हैं-‘यूँ
सफ़र तो मुसलसल है लेकिन,
रास्ता कोई दिखता नहीं है/भीड़ में खो गया हूँ मैं गोया, आदमी कोई मिलता नहीं है’।
वो समझ नहीं पाते-‘ये भी अपना,
वो भी अपना, फिर पराया क्या हुआ/क्यूँ ये
दीवारें उठीं, किस बात पे झगड़ा हुआ’।
वो
कहते हैं-‘मैंने
सोचा था चलो कुछ लोग इंसाँ हो गए/किन्तु वे सब सिक्ख,
हिन्दू या मुसलमाँ हो गए/इस चमन में जाति-मज़हब-नफ़रतों के हादसे/कल
तलक तो थे हवाई आज तूफाँ हो गए’।
आज हाल ये है-‘अशआर हैं उखड़े हुए–कुछ
बेतुके से क़ाफ़िये/कोई ऐसे दौर-ए-साज़िश में भला कैसे जिये/जो धरा को दे गया-आकाश-सी
ऊँचाइयाँ/रुसवाइयों के भी सिवा कुछ हो सका उसके लिए/देश में हम चाहते हैं,
अम्न का माहौल हो/शोर पर पाबंदियाँ हैं–धीरे-धीरे खाँसिये’। अब ऐसे माहौल में-‘प्यार
की बातें करूँ या द्वेष की बातें करूँ/इस सभा में कौन से परिवेश की बातें करूँ/आप
मरने-मारने पर हैं उतारू किस तरह/धर्म की या जाति की या देश की बातें करूँ/स्वार्थ
के बदले लुटा बैठे जिसे हम-तुम सभी/क्या उसी सम्बन्ध के अवशेष की बातें करूँ’। ऐसे हालातों में तो-‘जो
इक सही बह्र पर थोड़ा भी बोझ डालें/आओ कि इस ग़ज़ल से वो क़ाफ़िये निकालें/हालात गा रहे
हैं विध्वंस के तराने/गर हो सके सृजन के अहसास को बचा लें’। इसके मूल में कहीं उचित शिक्षा का अभाव है-‘सभ्य
कितने हो गए हम आज के इस दौर में/देखना है तो कभी संसद में जाकर देखिए’।
अब
तो-‘शायद
ही कोई फ़स्ल उगे देश के लिए/ये राजनीति आज की,
बंजर ज़मीन है/जिसमें कि अब सुधार की उम्मीद ही नहीं/इंसानियत तो आज
वो टूटी मशीन है’।
राजन
जी आगे कहते हैं-‘आकाश
जीतने का विज्ञान तो पढ़ाया/अब आदमी को थोड़ा सा प्यार भी पढ़ा लें/जब भी हुआ अकेला
डरता रहा मैं हरदम/तनहाइयों को मेरी ना दहशतें चुरा लें’। सच में-‘आजकल
जी भर गया कुछ इस तरह संसार से/अच्छी ख़बरें खो गईं जैसे किसी अख़बार से/फ़स्ल ऐसी
लहलहाई,
ज़िन्दगी में स्वार्थ की/सारे रिश्ते दीखते हैं, आज खरपतवार से’।
ऐसे
हालात में-‘तीरगी
में इक उजाले की किरन मिल जाए बस/इससे ज़्यादा चाहिए भी क्या किसी फ़नकार से’।
राजन
जी उस किरण का पता यूँ देते हैं-‘दो
दिलों की दूरियाँ को दूर करने के लिए/दर्द का ही गीत कोई गुनगुनाकर देखिए/आप भी
मशहूर शायर एक दिन हो जाएँगे/प्यार को मेरी तरह दिल से निभाकर देखिए’।
बाज़ारवाद और आपाधापी के इस युग में ये शेर
देखिए-‘शाम
को जब घर आया कर/खुद को ही घर लाया कर/दफ़्तर की सारी बातें/दफ़्तर में रख आया कर/सच्चाई
इक खुशबू है/उसका साथ निभाया कर/रहने दे,
जो जैसा है/ज़्यादा मत समझाया कर’। आज दोस्ती का ये आलम है-‘दोस्तों
की वफ़ा पूछ कर मेरा दिल दुखाने लगे/तुम अमावस के माहौल में चाँद को आज़माने लगे’...‘मैं
जुनूँ में दोस्त जिसको उम्र भर कहता रहा/वो मुझे ही मारने की साज़िशें करता रहा/वो
मुझे शैतान कहता था मगर बेचैन था/और मैं ख़ुश था कि उसको आदमी कहता रहा/मैं उसूलों
से बँधा था इसलिए ख़ामोश था/वो मेरी इंसानियत पर फ़ब्तियाँ कसता रहा’। उनका दर्द इन शेरों में देखिए-‘वो
जब तक पास था दिल के तो मुझसे रोज़ मिलता था/मगर अब घर के बेहद पास भी रहकर नहीं
मिलता/बनाया था बड़ी मेहनत से मैंने एक घर जिसमें/मुझे भी चैन से सोने को इक
बिस्तर नहीं मिलता’...‘मेरी हालत तो उस बीमार जैसी हो गई जिसका/न कोई ख़त ही आया हो
न कोई फोन आया हो’...‘मुझे मुझसे मिलाने को कोई अपना नहीं आता/बहुत से लोग आते हैं,
कोई तुझ-सा नहीं आता/मुझे लगता है मेरी आदमीयत मर गई शायद/किसी भी
हादसे पर अब मुझे रोना नहीं आता/नतीजा इसलिए ही गुफ़्तगू का कुछ न निकलेगा/मुझे
कहना नहीं आता तुम्हें सुनना नहीं आता’।
लेकिन
वो जानते हैं-‘गर
रुका सज़दों की ख़ातिर,
मंज़िलें मर जाएँगी/तुमने हाँ कह दी तो मेरी कोशिशें मर जाएँगी/सिर्फ़
इस डर से ये आँखें बंद है इस दौर में/खुल गईं तो ज़िन्दगी की ख़्वाहिशें मर जाएंगी’। अब तो आदमी की हक़ीक़त ये है-‘दुपहरी
अब,
कभी संध्या, कभी जो रात हो जाए/यहाँ के आदमी
भी अब कुछ ऐसे ही सवेरे हैं/बुलाई एक दिन
बैठक जो ज़िम्मेदार लोगों की/तो आए लोग ज़्यादातर
मदारी या सपेरे हैं’।
राजन जी अपने जीवन की कटुता भरे यथार्थ का ज़िक्र
यूँ करते हैं-‘दुनिया
ने मुश्किलों के मुझे यूँ किया हवाले/मुझे आसमान देखकर मेरे पंख नोच डाले/मेरा
जुनून था या-मेरा कुसूर था ये/जो दर्द से पराए-वो मेरे दिल ने पाले’...‘आप
मानें या न मानें,
पर मैं उनसे दूर था/जिन गुनाहों के लिए मैं दूर तक मशहूर था’...‘तीरगी
में अपना सूरज ख़ुद तराशा है यहाँ/इसलिए जो भी सज़ा दे दो मुझे मंजूर है’...‘मुझे ये
डर है कहीं ऐसा सिलसिला न चले/कि जिस्म तो हो मगर रूह का पता न चले/आज हूँ सामने
जो चाहे सज़ा दो लेकिन/मेरे गुनाह की मेरे बाद तो चर्चा न चले’। वो यह अपने लिए ही लिखते हैं-‘ये
सच है वो सभी के दर्द का अनुवाद है फिर क्यूँ/ज़माने की नज़र में सिरफिरा है कह नहीं
सकता’।
ऐसे
में पीड़ा होनी स्वाभाविक है-‘दिलों
में जिनके लगती है वो आँखों से नहीं रोते/जो अपनों के नहीं होते,
किसी के भी नहीं होते/मेरे हालात ने मुझको यही अक्सर सिखाया है/कि
सपने टूट जाते हैं कभी पूरे नहीं होते’। राजन जी के ये शेर तो अत्यंत जीवनोपयोगी
बन पड़े हैं-‘हवा
का साथ देने में टहनियाँ टूट जाती हैं/निभा सकता है तू जितना बस उतना ही निभाया कर’...‘करो कोशिश कि अपनी डाल से चिपके
रहो चिपके/चमन में टूटे पत्तों को दुबारा घर नहीं मिलता’...‘ज़माने
भर की बातें तू कभी दिल में न लाया कर/कभी जब मन लगे भारी ज़रा-सा घूम आया कर’...‘खिलखिलाया
तो महल-सा हो गया था आदमी/किन्तु जब रोने लगा तो आदमी कोना हुआ’...‘कल की बातें
भूलने की एक आदत डाल ले/आज वरना हर लम्हा कल के लिए पछताएगा’। उनकी ये शेर तो हमें बहुत प्रिय हैं-‘ज़िन्दगी
को ख़ूबसूरत दाँव तक ले जाएगी/ये समय की धूप ही छाँव तक ले जाएगी/तू चला चल इस सफ़र
में मील के पत्थर न गिन/वर्ना ये आदत थकन को पाँव तक ले जाएगी’।
लेकिन
आज उम्र के इस पड़ाव पर इतना सब कुछ कहने/लिखने के बाद भी उन्हें लगता है-‘सोचता
कुछ और था मैं और क्या लिखता रहा/ज्यों किसी के संकलन की भूमिका लिखता रहा/एक उलझन
भी कभी मेरी न मुझसे हल हुई/दूसरों को काग़ज़ों पर मशविरा लिखता रहा’।
अब
तो यह महसूस होता है-‘भीनी
ख़ुशबू एक तरफ़ है,
सारा गुलशन एक तरफ़/सारी उम्रें एक तरफ़ हैं, भोला
बचपन एक तरफ़/क्या खोया क्या पाया हमने–जब सोचा तो ये जाना/ढाई आख़र एक तरफ़ हैं–सारा जीवन एक तरफ़’। वो अब शायद यह सोचने लगे हैं-‘एक
ने पत्थर कहा तो एक नहीं पूजा उसे/अपनी-अपनी फ़ितरतों से आदमी मजबूर है/रात-दिन के इस सफ़र में पाँव
भी दुखने लगे/मेरे मालिक गाँव तेरा और
कितनी दूर है’।
कहने
को तो अभी बहुत कुछ है पर स्थानाभाव की वजह से इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम
श्री राजेन्द्र राजन जी को इस ग़ज़ल-संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते
हैं। संग्रह का कवर पेज बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा
उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैं, जिसके लिए प्रकाशक साधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं कि साहित्य जगत
में उनके ग़ज़ल संग्रह का भरपूर स्वागत होगा और उन्हें भुला पाना सहज़ नहीं होगा-
ये
न सोचो सिर्फ़ चादर तानकर सो जाऊँगा
मैं मरूँगा तो ग़ज़ल का काफ़िया हो जाऊँगा
आपको मेरा पता देंगी वतन की धड़कनें
आप बेशक मान लें मैं भीड़ में खो जाऊँगा।
इत्यलम्।।
सारिका मुकेश
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सारिका मुकेश |
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पुस्तक- मुझे आसमान देकर...(ग़ज़ल संग्रह)
पुस्तक- मुझे आसमान देकर...(ग़ज़ल संग्रह)
लेखक : राजेन्द्र राजन
प्रकाशक : सहज प्रकाशन, मुज़फ्फ़रनगर (उ.प्र.)
मूल्य: 250/-रूपये
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