Friday, 31 January 2020

आहटों से सवाल करते हुए शब्दों से मानवीय संवेदनाओं के पुल बनाते श्री राजेन्द्र राजन...



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        मैं मरूँगा तो ग़ज़ल का क़ाफ़िया हो जाऊँगा...
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सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री निर्मल वर्मा जी ने लिखा है, “कोई भी श्रेष्ठ लेखक अपनी एक ख़ास साँचे में पड़ी तस्वीर के भीतर हमेशा नहीं रहना चाहता। वह हमेशा गतिमान रहता है या-रहना चाहता है। उसके लेखकीय व्यक्तित्व के हस्ताक्षरभले ही एक जैसे रहते हैं, उसके भीतर की दुनिया के अन्दर अन्तर्सम्बन्धों में हमेशा नए शब्द, ध्वनियाँ, स्वराघात बदलते रहते हैं। एक छवि में उसे रिड्यूसकरते ही लगता है, कि वह कहीं अधूरा और विकलांग रह गया है। जिस चौखट में उसे बन्द किया गया था, उसके कितने जीवंत अंश उसके बाहर झूलते रहते हैं जिन्हें कभी कोई नाम नहीं दिया जाता। लेखक को उसकी सतत् गत्यात्मकता में पकड़ना उतना ही दूभर है, जितना एक पक्षी को उसकी उड़ान में पूरा देख पाना...एक अंग पर आँख पड़ते है बाकी देह आँखों से ओझल हो जाती है। लेखक जितना अधिक विकासशील होगा, उतना ही उसे एक फ़्रेममें बन्द रखना असम्भव होगा। शायद यही वजह है कि गीत विधा में ख़ूब सराहे जाने वाले और अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले श्री राजेन्द्र राजन जी ने अब ग़ज़ल क्षेत्र में सक्रिय हो, अपने पहले ग़ज़ल संग्रह मुझे आसमान देकर...के संग ग़ज़लकारों के मध्य अपनी विशिष्ट उपस्थिति इसी ख़याल के साथ दर्ज़ करा रहे हैं-‘नश्श-ओ-कैफ़े-ग़ज़ल हुस्ने-ग़ज़ल जाने-ग़ज़ल, आ तुझे गीत का अंदाज़-ए-तरन्नुम दे दूँ’ (श्री बेकल उत्साही)।

श्री राजेन्द्र राजन 



राजन जी भूमिका में ही स्पष्ट कर रहे हैं कि इस संकलन के माध्यम से अपने प्रिय पाठकों व श्रोताओं को ग़ज़ल पढ़ानाउनका उद्देश्य नहीं है, बल्कि वो तो इन ग़ज़लों के बहाने अपने उद्गार-अपनी अनुभूतियों भरा हृदय आपके हवाले कर रहे हैं। इस संग्रह के लिए उन तमाम साहित्यकारों (जो उनकी इस ग़ज़ल-यात्रा में किसी न किसी माध्यम से उनके आसपास रहे) के साथ-साथ गीत-ग़ज़ल की समर्थ हस्ताक्षर तथा सुयोग से उनकी सहचरी श्रीमती विभा मिश्रा (जिन्होंने प्रथम श्रोता/पाठक/समीक्षक के तीनों दायित्वों का निर्वाह ठीक त्रिवेणी संगम की तरह संपन्न किया है) और सौजन्य-सहयोग के लिए श्री अनिल पांडे एवं श्री आशीष कुमार पांडे (संबद्ध: कृष्णा देवी पब्लिक स्कूल, सहतवार, बलिया (उ.प्र.) बधाई और साधुवाद के पात्र हैं।
पुस्तक के फ्लैप पर-उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ  के भूतपूर्व कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. उदय प्रताप सिंह जी लिखते हैं, ‘मैंने उनके कुछ शेर पढ़े जो बहुत ही अच्छे शेर हैं। उनके कुछ शेर इतने प्रभावी और जीवन के सामान्य अनुभव से जुड़े हुए हैं कि वो सहज रूप से मन को भा जाते हैं और मन में घर कर जाते हैं।...चूँकि उनके पास अच्छी भाषा है, मुहावरेदार शब्दावली है और उन्हें छंद का भी ज्ञान है, इसलिए उनकी गज़लें साहित्य के क्षेत्र में स्वीकार की जाएँगी”। ‘गीत गागर’, भोपाल के सम्पादक श्री दिनेश प्रभात जी का मत है, “राजेन्द्र राजन साहित्य जगत के वो पंछी हैं, जो अपने दोनों डैनों (गीत और ग़ज़ल) के दम पर निर्बाध, निर्विघ्न, नित-नूतन आकाश में करिश्माई उड़ान भर रहे हैं। वे ऐसे काँधों के मालिक हैं, जिनके  दाएँ  काँधे पर गीत और बाएँ काँधे पर ग़ज़ल बच्चों की तरह बैठकर इतर रहे हैं और आकाश को मुट्ठी में भरने का प्रयास कर रहे हैं”। गीत और ग़ज़ल के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर डॉ. कुँअर बेचैन जी ने पुस्तक के पार्श्व पृष्ठ पर अपना लम्बा अभिमत देते हुए लिखा है-‘...गीतकार राजेन्द्र राजन, जो अब ग़ज़ल भी कह रहे हैं, को मैं जब से जानता हूँ, वे मुझे प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों की मार्मिक अनुभूतियों की सशक्त अभिव्यक्ति के कवि लगे...इनके गीतों में जो समर्पण भाव है, वही इनकी ग़ज़लों में भी हिलोरे मारता है। फ़िर ग़ज़ल तो है ही ऐसी विधा जिसका प्रमुख तत्त्व ही प्रेम होता है...ग़ज़ल में भाषा की जिस रवानी, लाक्षनिकता और व्यंजना की आवश्यकता होती है, रदीफ़ और क़ाफ़ियों का निर्वाह होता है, वह सब इनकी ग़ज़लों में मौजूद है...कुल मिलाकर यह संग्रह पठनीय है।
'फ़िर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल, शायद  मिले ग़ज़ल का पता उस गली में चल'...जनाब हबीब जालिब जी के इस शेर के साथ अब हम आपको पावन-पुनीत, अनछुई-सी अनुभूतियों के सहारे ग़ज़ल यात्रा में निकले श्री राजेन्द्र राजन जी के ताज़ा ग़ज़ल-संग्रह मुझे आसमान देकर...के स्नेह-पूरित चमन में लेकर चलते हैं पर यह याद रहे-‘दीपक तुम्हारे हाथ है बस्ती है फूँस की/जा तो रहे हो जाओ मगर देख-भाल कर’। इस सफ़र के बारे में वो कहते हैं-‘यूँ सफ़र तो मुसलसल है लेकिन, रास्ता कोई दिखता नहीं है/भीड़ में खो गया हूँ मैं गोया, आदमी कोई मिलता नहीं है’ वो समझ नहीं पाते-‘ये भी अपना, वो भी अपना, फिर पराया क्या हुआ/क्यूँ ये दीवारें उठीं, किस बात पे झगड़ा हुआ’ वो कहते हैं-‘मैंने सोचा था चलो कुछ लोग इंसाँ हो गए/किन्तु वे सब सिक्ख, हिन्दू या मुसलमाँ हो गए/इस चमन में जाति-मज़हब-नफ़रतों के हादसे/कल तलक तो थे हवाई आज तूफाँ हो गए’ आज हाल ये है-‘अशआर हैं उखड़े हुएकुछ बेतुके से क़ाफ़िये/कोई ऐसे दौर-ए-साज़िश में भला कैसे जिये/जो धरा को दे गया-आकाश-सी ऊँचाइयाँ/रुसवाइयों के भी सिवा कुछ हो सका उसके लिए/देश में हम चाहते हैं, अम्न का माहौल हो/शोर पर पाबंदियाँ हैंधीरे-धीरे खाँसिये’। अब ऐसे माहौल में-‘प्यार की बातें करूँ या द्वेष की बातें करूँ/इस सभा में कौन से परिवेश की बातें करूँ/आप मरने-मारने पर हैं उतारू किस तरह/धर्म की या जाति की या देश की बातें करूँ/स्वार्थ के बदले लुटा बैठे जिसे हम-तुम सभी/क्या उसी सम्बन्ध के अवशेष की बातें करूँ’। ऐसे हालातों में तो-‘जो इक सही बह्र पर थोड़ा भी बोझ डालें/आओ कि इस ग़ज़ल से वो क़ाफ़िये निकालें/हालात गा रहे हैं विध्वंस के तराने/गर हो सके सृजन के अहसास को बचा लें’। इसके मूल में कहीं उचित शिक्षा का अभाव है-‘सभ्य कितने हो गए हम आज के इस दौर में/देखना है तो कभी संसद में जाकर देखिए’ अब तो-‘शायद ही कोई फ़स्ल उगे देश के लिए/ये राजनीति आज की, बंजर ज़मीन है/जिसमें कि अब सुधार की उम्मीद ही नहीं/इंसानियत तो आज वो टूटी मशीन है’ राजन जी आगे कहते हैं-‘आकाश जीतने का विज्ञान तो पढ़ाया/अब आदमी को थोड़ा सा प्यार भी पढ़ा लें/जब भी हुआ अकेला डरता रहा मैं हरदम/तनहाइयों को मेरी ना दहशतें चुरा लें’। सच में-‘आजकल जी भर गया कुछ इस तरह संसार से/अच्छी ख़बरें खो गईं जैसे किसी अख़बार से/फ़स्ल ऐसी लहलहाई, ज़िन्दगी में स्वार्थ की/सारे रिश्ते दीखते हैं, आज खरपतवार से’ ऐसे हालात में-‘तीरगी में इक उजाले की किरन मिल जाए बस/इससे ज़्यादा चाहिए भी क्या किसी फ़नकार से’ राजन जी उस किरण का पता यूँ देते हैं-‘दो दिलों की दूरियाँ को दूर करने के लिए/दर्द का ही गीत कोई गुनगुनाकर देखिए/आप भी मशहूर शायर एक दिन हो जाएँगे/प्यार को मेरी तरह दिल से निभाकर देखिए’
बाज़ारवाद और आपाधापी के इस युग में ये शेर देखिए-‘शाम को जब घर आया कर/खुद को ही घर लाया कर/दफ़्तर की सारी बातें/दफ़्तर में रख आया कर/सच्चाई इक खुशबू है/उसका साथ निभाया कर/रहने दे, जो जैसा है/ज़्यादा मत समझाया कर’आज दोस्ती का ये आलम है-‘दोस्तों की वफ़ा पूछ कर मेरा दिल दुखाने लगे/तुम अमावस के माहौल में चाँद को आज़माने लगे’...‘मैं जुनूँ में दोस्त जिसको उम्र भर कहता रहा/वो मुझे ही मारने की साज़िशें करता रहा/वो मुझे शैतान कहता था मगर बेचैन था/और मैं ख़ुश था कि उसको आदमी कहता रहा/मैं उसूलों से बँधा था इसलिए ख़ामोश था/वो मेरी इंसानियत पर फ़ब्तियाँ कसता रहा’। उनका दर्द इन शेरों में देखिए-‘वो जब तक पास था दिल के तो मुझसे रोज़ मिलता था/मगर अब घर के बेहद पास भी रहकर नहीं मिलता/बनाया था बड़ी मेहनत से मैंने एक घर जिसमें/मुझे भी चैन से सोने को इक बिस्तर नहीं मिलता’...‘मेरी हालत तो उस बीमार जैसी हो गई जिसका/न कोई ख़त ही आया हो न कोई फोन आया हो’...‘मुझे मुझसे मिलाने को कोई अपना नहीं आता/बहुत से लोग आते हैं, कोई तुझ-सा नहीं आता/मुझे लगता है मेरी आदमीयत मर गई शायद/किसी भी हादसे पर अब मुझे रोना नहीं आता/नतीजा इसलिए ही गुफ़्तगू का कुछ न निकलेगा/मुझे कहना नहीं आता तुम्हें सुनना नहीं आता’ लेकिन वो जानते हैं-‘गर रुका सज़दों की ख़ातिर, मंज़िलें मर जाएँगी/तुमने हाँ कह दी तो मेरी कोशिशें मर जाएँगी/सिर्फ़ इस डर से ये आँखें बंद है इस दौर में/खुल गईं तो ज़िन्दगी की ख़्वाहिशें मर जाएंगी’। अब तो आदमी की हक़ीक़त ये है-‘दुपहरी अब, कभी संध्या, कभी जो रात हो जाए/यहाँ के आदमी भी अब कुछ ऐसे ही सवेरे  हैं/बुलाई एक दिन बैठक जो ज़िम्मेदार लोगों की/तो आए लोग ज़्यादातर  मदारी या सपेरे हैं’
राजन जी अपने जीवन की कटुता भरे यथार्थ का ज़िक्र यूँ करते हैं-‘दुनिया ने मुश्किलों के मुझे यूँ किया हवाले/मुझे आसमान देखकर मेरे पंख नोच डाले/मेरा जुनून था या-मेरा कुसूर था ये/जो दर्द से पराए-वो मेरे दिल ने पाले’...‘आप मानें या न मानें, पर मैं उनसे दूर था/जिन गुनाहों के लिए मैं दूर तक मशहूर था’...‘तीरगी में अपना सूरज ख़ुद तराशा है यहाँ/इसलिए जो भी सज़ा दे दो मुझे मंजूर है’...‘मुझे ये डर है कहीं ऐसा सिलसिला न चले/कि जिस्म तो हो मगर रूह का पता न चले/आज हूँ सामने जो चाहे सज़ा दो लेकिन/मेरे गुनाह की मेरे बाद तो चर्चा न चले’। वो यह अपने लिए ही लिखते हैं-‘ये सच है वो सभी के दर्द का अनुवाद है फिर क्यूँ/ज़माने की नज़र में सिरफिरा है कह नहीं सकता’ ऐसे में पीड़ा होनी स्वाभाविक है-‘दिलों में जिनके लगती है वो आँखों से नहीं रोते/जो अपनों के नहीं होते, किसी के भी नहीं होते/मेरे हालात ने मुझको यही अक्सर सिखाया है/कि सपने टूट जाते हैं कभी पूरे नहीं होते’राजन जी के ये शेर तो अत्यंत जीवनोपयोगी बन पड़े हैं-‘हवा का साथ देने में टहनियाँ टूट जाती हैं/निभा सकता है तू जितना बस उतना ही निभाया कर’...‘करो कोशिश कि अपनी डाल से चिपके रहो चिपके/चमन में टूटे पत्तों को दुबारा घर नहीं मिलता’...‘ज़माने भर की बातें तू कभी दिल में न लाया कर/कभी जब मन लगे भारी ज़रा-सा घूम आया कर’...‘खिलखिलाया तो महल-सा हो गया था आदमी/किन्तु जब रोने लगा तो आदमी कोना हुआ’...‘कल की बातें भूलने की एक आदत डाल ले/आज वरना हर लम्हा कल के लिए पछताएगा’। उनकी ये शेर तो हमें बहुत प्रिय हैं-‘ज़िन्दगी को ख़ूबसूरत दाँव तक ले जाएगी/ये समय की धूप ही छाँव तक ले जाएगी/तू चला चल इस सफ़र में मील के पत्थर न गिन/वर्ना ये आदत थकन को पाँव तक ले जाएगी’ लेकिन आज उम्र के इस पड़ाव पर इतना सब कुछ कहने/लिखने के बाद भी उन्हें लगता है-‘सोचता कुछ और था मैं और क्या लिखता रहा/ज्यों किसी के संकलन की भूमिका लिखता रहा/एक उलझन भी कभी मेरी न मुझसे हल हुई/दूसरों को काग़ज़ों पर मशविरा लिखता रहा’ अब तो यह महसूस होता है-‘भीनी ख़ुशबू एक तरफ़ है, सारा गुलशन एक तरफ़/सारी उम्रें एक तरफ़ हैं, भोला बचपन एक तरफ़/क्या खोया क्या पाया हमनेजब सोचा तो ये जाना/ढाई आख़र एक तरफ़ हैंसारा जीवन एक तरफ़’। वो अब शायद यह सोचने लगे हैं-‘एक ने पत्थर कहा तो एक नहीं पूजा उसे/अपनी-अपनी फ़ितरतों  से आदमी मजबूर है/रात-दिन के इस सफ़र में पाँव भी दुखने लगे/मेरे मालिक गाँव  तेरा और कितनी दूर है’
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर स्थानाभाव की वजह से इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम श्री राजेन्द्र राजन जी को इस ग़ज़ल-संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हैं संग्रह का कवर पेज बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैंजिसके लिए प्रकाशक साधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं कि साहित्य जगत में उनके ग़ज़ल संग्रह का भरपूर स्वागत होगा और उन्हें भुला पाना सहज़ नहीं होगा-
                    ये न सोचो सिर्फ़ चादर तानकर सो जाऊँगा
                    मैं मरूँगा तो ग़ज़ल का काफ़िया हो जाऊँगा
                    आपको  मेरा पता  देंगी  वतन  की  धड़कनें
                    आप  बेशक  मान लें  मैं भीड़ में खो जाऊँगा

इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
      


सारिका मुकेश


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पुस्तक- मुझे आसमान देकर...(ग़ज़ल संग्रह)
लेखक :  राजेन्द्र राजन 
प्रकाशक : सहज प्रकाशन, मुज़फ्फ़रनगर (उ.प्र.)
मूल्य: 250/-रूपये
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Saturday, 25 January 2020

जीवन के सांध्यकाल में स्मृतियों के लॉकर को खँगालते ओमीश परुथी





                         किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,
                         किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
                         किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,
                         जीना इसी का नाम है...

फ़िल्म ‘अनाड़ी’ के इस गीत के रचयिता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र जी की तरह तमाम साहित्यकारों ने इस तरह के न जाने कितने ही गीतों के माध्यम से जीवन को व्याख्यायित किया है। मनुष्य की योनि दुर्लभ है और हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार यह हमें चौरासी लाख योनियों के बाद मिलती है। हम सभी अपने-अपने जीवन को अपनी सूझबूझ, ज्ञान और समझ से अच्छी तरह से गुज़ारने का प्रयत्न करते हैं। जीवन के सांध्यकाल में गहन एकांत के क्षणों में बैठकर इस गुजरे जीवन को स्मृत कर उसका आँकलन करने (क्या खोया क्या पाया जग में...) की प्रवृत्ति मानव मन में सदा से रही है। ज़िन्दगी की गुल्लक से स्मृतियों के सिक्कों को देर तक छूना, चूमना और निहारना कितना सुखद और अपनापन-भरा लगता है। तमाम साहित्यकारों ने इस सांध्यकाल के चिंतन पर बेहतरीन काव्य-सृजन किया है, यथा-‘सिमटा पंख साँझ की लाली, जा बैठी अब तरू शिखरों पर/ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरने चंचल स्वर्णिम निर्झर/सूर्य क्षितिज पर होता ओझल...(पंत)’, ‘इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा...’, “मैं जीवन में कुछ कर न सका...’ और ‘बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन मधुशाला...(बच्चन)”, ‘आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे...(पंडित नरेंद्र शर्मा)’,  ‘नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी निकल गई, पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई, हसरतें न निकल सकीं उम्र पर निकल गई...कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे...(नीरज)’, ‘यही जाना कि कुछ न जाना हाए, सो भी इक उम्र में हुआ मालूम. (मीर तक़ी मीर)’...।


   
डॉ. ओमीश परुथी 

आज हम आपको जीवन के सांध्यकाल में लिखी डॉ. ओमीश परुथी जी की कविताओं के सद्य: प्रकाशित संग्रह ‘अस्ताचल के उजाले’ से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। ये कविताएं उनके व्यतीत हुए समस्त जीवन का अनुभव हैं, दृष्टांत हैं, जिन्होंने उनके मन को न जाने कितने बरसों तक भीतर ही भीतर मथा है और अब काव्य-नवनीत के रूप में यह पुस्तकाकार रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। कोई भी लेखक जब निजी अनुभव को काग़ज़ पर उतारता है, तो वो उसे इतने बड़े कैनवास पर उतारता है कि वह सब पाठकों को अपना निजी अनुभव प्रतीत होता है और वो उनका हो जाता है फ़िर लेख़क का उसमें निजी कुछ शेष नहीं रह जाता। यही लेखन की विशेषता है कि जो कभी आपका रहा हो वो सबका हो जाए और लेखन की यही परम उपलब्धि भी है। उनका काव्य-जगत् एक विस्तृत वैचारिक कैनवास पर यथार्थवाद के विभिन्न रंग बिखेरता दिखाई देता है। इसमें जीवन की तमाम जटिलताओं, विडम्बनाओं और  विसंगतियों पर सोच-विचार किया गया है। ये उनकी निजी सम्वेदनाएँ हैं जो काग़ज़ पर शब्दों की शक्ल में मुखरित हो उठी हैं-‘कितनी नदियाँ/निर्झर कितने/महज़ तहखानों में बंद/स्वप्न सजीले/संकल्प हठीले/जीवन-ओढ़नी पर लगे पैबंद/...उल्लास अस्त/भाव पस्त/छलनी लिए खड़ा था छंद/महारथी महान्/सारथि गुणवान/सत्य घेरने को लामबंद’। कविता जीवन के इसी माहौल में पलती-बढ़ती है। गुरूदेव टैगोर ने ताज़महल को काल के कपोल पर ठहरा हुआ आँसू कहा था। परुथी जी लिखते हैं-‘बहते-बहते/जो आँसू/इतिहास के कपोल पर/थम जाता है/काल की शिला पर/जम जाता है/महाप्राण होता है वह/काव्यधारा को कर सिंचित/करता काव्यधारा प्रवाहित’।
जीवन के सांध्यकाल में एकाएक ही अपनी अवस्था का ख़याल आता है-‘चेहरे पर उम्रदराज़ी के निशां/सिर पर सोहे सफ़ेदी/आँखों के तले ग़मों की सोजिश/कर रहे ये निशां बयां/अपनी तो रुत बीत गई/सूनी हो गई उनकी आँखें/न प्रेम, न प्रीत रही/अज़नबी-से हो गए दोस्त/ज़िन्दगी अपनी रीत गई...’, ‘बयार के वे झोंके/थपकियाँ जिनकी महसूसते/जीवन था कटा/निकल जाते हैं अब निकट से/मुँह फेरे, परसे बिना/मानो कभी परसा न हो/पर्त दर पर्त/काई की मोटी पर्तें/जा रही जमतीं/ज़िन्दगी चलती पल भर/फ़िर ठहर थमती’। ऐसे में उसे लगता है-‘कोई होता/मेरी दहकती जमीं पर/बन बहता/बयार का झोंका/चुन लेता/आँख के क़तरे/जा आकाश में बोता/कोई होता!’ फ़िर उसे लगता है कि एक प्रकृति ही है जो आज भी आत्मीय बनी हुई है-‘आदित्य अब भी देता है आशीष/चाँद देख मुस्काता है/बयार ने भी कहाँ छोड़ा/मेरे घर आना-जाना/बाँहों में भर लिपटाना/घास बिछ पैर के तलवों से/चुन लेती है अब भी थकान/प्रकृति और आत्मीय हुई/दूर हुआ भले ही इंसान’। प्रकृति की कृपा सच में अपार है-‘‘झरती है रात भर/तेरी कृपा अरूप/होती दिन में साकार/ले रवि किरणों का रूप/धरा में तेरा/सघन रूप साकार/अनगिन तेरी छवियाँ/अनगिन रूपाकार!!’, ‘हे ब्रह्म! अनादि, अनंत! हे अनाविल, प्रिय कंत!तुम ही धरा की आद्य गंध/तुम ही साँसों का अनुबंध/...कौन जाने सीमा आपकी/कौन जाने है अंत?/वर्चस्व आपका सर्वत्र व्याप्त/फ़ैला वैभव दिग्दिगंत।’ सच में यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम प्रकृति को देख/समझ नहीं पाते वर्ना-‘उस शक्तिमय/शाश्वत शिल्पी ने/न जाने कितनी/लिख दी हैं इबारतें/जिन्हें बिन पढ़े/गुजर जाते हैं/बहुत पास से हम/मगर, जरा ठिठक/देख पाएं कुदरत को/एकटक, एकात्म भाव से/तो उषा से उद्गीथ/चाँदनी से चौपाई/कमल से कवित्त/मेघों से मल्हार/सुनाई देंगे/सरोवर पर सवैये/नद पर नाद/महासागर पर महाकाव्य/उमगते दिखाई देंगे...’। माँ प्रकृति का ही रूप है-माँ/शब्द लघु कितना/जैसे तुलसी-पात/अर्थ मगर दीर्घ इतना/जैसे बरगद-गात/...माँ शब्द शबनम का क़तरा/जैसे करुणा मनभावन/अर्थ मगर इतना भीगा/जैसे बरसता सावन...’।
लड़की के जीवन का यह सामाजिक तथ्य भी कितना अजीब है न-‘लड़की मायके में/पराया धन/ससुराल में/लड़की पराए घर की/अपनत्व से/सदैव अपरिचित/भारतीय नारी/या चिर विस्थापित’। आज के इस भयावह माहौल में तो-‘मैं रोज़/यह सोच के सोता हूँ/अब इससे भी नीचे कहाँ तक गिरेगा आदमी?/पर अगली सुबह/अख़बार का बचा हुआ/कोई पाक़ कोना/भी काला हुआ होता है/कहीं कमीनगी की पीक/कहीं खून के छींटे/कर देते हैं विचलित/वह फ़िर कर देता है/हतप्रभ, अवाक्!’ चिंताजनक बात यह है कि न्याय की उम्मीद भी आज क्षीण होती दिखती है-‘अब भी संविधान हमारा/न माने जाने वाले/कानूनों का पुलिंदा है/देश में लोकतंत्र/बाहुबलियों के सहारे जिंदा है’।
जीवन के आखरी पड़ाव पर कुल मिलाकर यही लगता है-‘वही क़िस्से/वही कहानियाँ/वही मरहले/वही किरदार/न जुनून न जिज्ञासा/ज़िन्दगी बार-बार पढ़ी किताब...’, और अंततः यही लगता है-‘चलकर भी/पहुँचे न कहीं/पहुँच कर भी/नहीं ठहराव’ और ‘कहानी जो न पहुँची/किसी अंजाम तक/बेज़बान, बदनसीब उस कहानी का/मासूम-सा आग़ाज़ हूँ मैं’।
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर समय और स्थान की सीमा की वजह से विश्राम लेना होगा। हमें यकीन है कि परुथी जी के इस काव्य-संग्रह का हिंदी साहित्य जगत् में इसका भरपूर स्वागत होगा। हम उनके सृजन-कर्म हेतु उनको हार्दिक बधाई और उनके स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने हेतु अनेकों शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को सुप्रसिद्ध कवि श्री केदारनाथ सिंह जी की कविता 'उस आदमी को देखो' की इन पंक्तियों के साथ विराम देते हैं:
                               ‘मुझे आदमी का सड़क पार करना
                                हमेशा अच्छा लगता है
                                क्योंकि इस तरह
                                एक उम्मीद सी होती है
                                कि दुनिया जो इस तरफ़ है
                                शायद उससे कुछ बेहतर हो
                                सड़क के उस तरफ़’।

इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
25 जनवरी 2020

सारिका मुकेश



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पुस्तक: अस्ताचल के उजाले (काव्य-संग्रह)
लेखक:  ओमीश परुथी  
प्रथम संस्करण: 2020
प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रेजरी, नई दिल्ली-110017
मूल्य: 295/-रूपये
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Friday, 24 January 2020

बहुमुखी विलक्षण प्रतिभा के धनी और सरल, सहज व्यक्तित्व: अशोक अंजुम




तकदीर बनाने वाले तूने कमी न की,
अब किसको क्या मिला यह मुकद्दर की बात है

आज हम आपको एक ऐसे शख्स से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, जो प्रतिभा के मामले में मुक़द्दर के धनी हैं। पेशे से स्कूल में शिक्षक श्री अशोक अंजुम अलीगढ़ (उ.प्र.) में रहकर हिन्दी की एक सुप्रसिद्ध त्रैमासिक पत्रिका ‘अभिनव प्रयास’ का संपादन/प्रकाशन करते हैं और पर्यावरण को समर्पित पत्रिका ‘हमारी धरती’ के सलाहकार सम्पादक भी हैं। वो बढ़िया रेखाचित्र/कार्टून बनाते हैं और लेखन की अनेक विधाओं में स्वयं को सिद्ध कर चुके हैं। वैसे मूल रूप से हास्य-व्यंग्य उनके भीतर इस तरह रचा-बसा है कि न केवल वाट्सएप बल्कि फोन पर बातें करते हुए भी उसके दर्शन सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।
हिन्दी साहित्य में साहित्यकारों के व्यक्तित्त्व और कृतित्व पर शोध/लघु-शोध/लेख के साथ-साथ समय-समय पर पत्रिकाओं के विशेषांक निकलते रहने की परम्परा भी रही है। इनसे हमें उस साहित्यकार के विषय में काफ़ी जानकारी एक साथ एक ही स्थान पर आसानी से मिल जाती है। ये विशेषांक अक्सर वरिष्ठ साहित्यकारों के निकलते हैं पर कभी-कभी किसी युवा साहित्यकार का कार्य प्रभावोत्पादक होने पर इसका अपवाद भी पाया जाता है। इसी अपवाद के क्रम में श्री अशोक अंजुम पर आधारित यह विशेषांक हमारे सम्मुख रखा है। श्री राकेश भ्रमर के सम्पादन और डॉ. सफलता सरोज के अतिथि सम्पादन में यह विशेषांक जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘प्राची’ ने निकाला है। इसमें अंजुम जी की रचनात्मकता और उनके व्यक्तित्त्व को अन्य साहित्यिक सुधीजनों के लेखों/आलेखों/पत्रों के माध्यम से समझने का सफलतम प्रयास किया गया है, जिसमें डॉ. सारिका मुकेश जैसे कनिष्ठ/युवाओं से लेकर गीत ऋषि नीरज, डॉ. कुँअर बेचैन, डॉ. शिवओम अम्बर, श्री राजेन्द्र नाथ रहबर, श्री अभिलाष जी, श्री हस्तीमल हस्ती, डॉ अशोक चक्रधर, डॉ. सुरेश अवस्थी, श्री सूर्यभानु गुप्त, श्री माणिक वर्मा, डॉ. राजेश कुमार, डॉ. विष्णु सक्सेना, सुश्री सरिता शर्मा, डॉ. कुमार विश्वाश जैसे सुप्रसिद्ध/वरिष्ठ रचनाकारों के नज़रिये से पाठक एक साथ रु-ब-रु हो सकते हैं।
श्री अशोक अंजुम काव्य-मंचों पर व्यंग्य-कवि, ग़ज़लकार और दोहाकार के रूप में चर्चित और ‘अलीगढ़ एंथम’ के रचयिता हैं। हास्य-व्यंग्य, गीत-संग्रह, ग़ज़ल, कविता, दोहा, लघुकथा आदि विधाओं पर अट्ठारह मौलिक और सैंतीस सम्पादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अब तक विभिन्न भाषाओं में इनकी रचनाओं का अनुवाद हो चुका है। इसके अतिरिक्त डॉ. जितेन्द्र जौहर द्वारा सम्पादित ‘अशोक अंजुम: व्यक्ति एवं अभिव्यक्ति’ प्रकाशित हुई है। इनकी रचनाएं अनेकों पाठ्यक्रम में सम्मिलित हुई हैं और अनेकों शोध-ग्रंथों में प्रमुखता से उनका उल्लेख हुआ है। टी.वी. के दर्जनों चैनल्स पर अनेकों बार काव्य-पथ कर चुके अंजुम अनेकों सम्मान और पुरस्कार प्राप्त कर चके हैं। जिसमें एक लाख एक हज़ार रूपए का प्रशासन द्वारा प्रदत्त ‘नीरज पुरस्कार-२०१४’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रो. डॉ. शेख मुख्तियार शेख वहाब, औरंगाबाद, महाराष्ट्के निर्देशन में सुश्री राबन मुल्ला खुदाबख्श जी आपके ग़ज़ल साहित्य में अभिव्यक्त विभिन्न चेतनाओं पर शोध कार्य कर रही हैं। हमारा मानना है कि हिंदी साहित्य के समकालीन इतिहास में अंजुम जी का समस्त साहित्यिक योगदान अवश्य सराहा जाएगा। ईश्वर से कामना है कि वो अपने सम्पूर्ण कार्य क्षेत्र में सदैव इसी तरह प्रगतिशील रहें।
आईए, अब बिना किसी अतिरिक्त भूमिका के उनके कुछ चर्चित शेरों और दोहों का लुत्फ़ उठा लिया जाए-‘हम हैं गायक वक़्त के, सच सच करते बात/हर युग में जीते रहे बनकर हम सुकरात’, ‘रात स्वप्न में दोस्तों देखे अज़ब प्रसंग/संसद में मुज़रा हुआ, चंबल में सत्संग’, ‘अरी व्यवस्था क्या कहें तेरा नहीं जवाब.जिनको पानी चाहिए उनको मिले शराब’, ‘ना जाने किस जन्म के, भोग रही है भोग/कुर्सी तेरे भाग्य में, दो  कौड़ी के लोग’, ‘ये राजनीती भी तो तवायफ़ से कम नहीं/पकड़ा है उसका हाथ, इधर छोड़ रही है’, ‘मैं मंदिर में नहीं जाता/मैं मस्जिद भी नहीं जाता/मगर जिस दर पे झुक जाऊँ/वो तेरा दर निकलता है’, ‘पत्तियाँ हिलती नहीं, ख़ामोश हैं/पूछती किसका पता रुककर हवा’, ‘साबुत हैं सर और अभी/फेंको पत्थर और अभी’, ‘थरथराता प्राण का यह पुल/कहाँ हो तुम?’, आमंत्रण देता रहा, प्रिया तुम्हारा गाँव/सपनों में चलते रहे रात-रात भर पाँव’, ‘मैंने पूछा कि क्यों नहीं आए/उसने मुस्का के कह दिया बस यूँ ही’, ‘मधुमय बंधन बाँधकर, कल लौटी बारात/हरी काँच की चूड़ियाँ खनकीं सारी रात’, ‘कि मेरे सर पे है माँ की दुआओं का घना साया/मुझे एहसास ये हर एक डर से दूर रखता है’, ‘है बहुत कुछ पास, फिर भी कुछ नहीं है/ज़िन्दगी की झील में काई जमी है’, ‘खाना-पीना, हँसी-ठिठोली, सारा कारोबार अलग/जाने क्या-क्या कर देती है, आँगन की दीवार अलग’, ‘लोग कहते हो उम्दा लिखते हो/मैं ये खोजूँ लिख रहा कौन’...।
अंत में, हम अंजुम जी के स्वस्थ, यशस्वी और दीर्घ जीवन की कामना हुए उन्हें हिंदी साहित्य में निरंतर संवृद्धि करने हेतु अपनी अहर्निश शुभकामनाएं और अनंत हार्दिक बधाई ज्ञापित करते हैं। हमें यकीन है कि श्री अशोक अंजुम जी पर केन्द्रित यह विशेषांक समस्त साहित्य-प्रेमियों और शोधार्थियों के लिए न केवल पठनीय बल्कि उपयोगी तथा संग्रहणीय सिद्ध होगा और हिंदी साहित्य जगत् में इसका भरपूर स्वागत होगा। हिंदी साहित्य जगत् इस विशेषांक के माध्यम से अंजुम जी के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व से और अधिक अच्छी तरह से रू--रू हो सकेगा। अब उन्हीं के इस शेर के साथ विदा-
                  ‘जहाँ तक तुम नहीं जाते, जहाँ तक हम नहीं जाते
                  वहाँ  के  मोतियों  को  एक  शायर  ढूँढ़  लेता  है’।

इत्यलम।।


सारिका मुकेश
24 जनवरी 2020



सारिका मुकेश





Wednesday, 8 January 2020

नीर की पीर को आज सुनते चलें...





                   इतनी ममता नदियों को भी जहाँ माता कह के बुलाते हैं,
                   इतना आदर भगवान तो क्या पत्थर भी पूजे जाते हैं...

हिंदी सिनेमा जगत् के महान अभिनेता, निर्माता, निर्देशक और भारत कुमार के नाम से मशहूर श्री मनोज कुमार जी की सुप्रसिद्ध फ़िल्म ‘पूरब और पश्चिम’ (1970) के इस गीत से हम भारतवासियों के मन में नदियों के प्रति अटूट प्रेम/निष्ठा/आस्था/श्रद्धा भाव का निर्वहन स्पष्ट हो जाता है। आज भी माँ गंगा और माँ नर्मदा आदि में स्नान का और उनके तट पर संध्या के वक़्त होने वाली भव्य आरती का अपना विशिष्ट महत्त्व है। कुम्भ के महान पर्व से तो आज सभी भली-भाँति परिचित हैं। अब ऐसे परिवेश में किसी ऐसे कवि का मन इससे कैसे अछूता रह सकता है, जिसका जीवन ही माँ गंगा के किनारे स्थित शहरों में व्यतीत हुआ हो और हर सुख-दुख में नदियाँ उसके जीवन का कुछ यूँ अभिन्न/अहम् हिस्सा बन गई हो-‘मुझमें भी कल तक बहती थी, कल-कल करती एक नदी/मेरे आँसू जब भी छलके, रही छलकती एक नदी/मैं भी नाचा बूँदों के संग, चली ठुमकती एक नदी/ मैं रोया तो मेरे अंदर, रही सिसकती एक नदी’ लेकिन आज उसे ऐसा लगता है-‘जुल्मों पर चुप मुझे देखकर, रही दहकती एक नदी/पत्थर पर सिर चली फोड़ती, पैर पटकती एक नदी...और शायद इसीलिए डॉ. अजय जनमेजय जी अपनी ख़ामोशी को तोड़ते हुए समूचा गीत-संग्रह ही नदी-गीत-संग्रह ‘नदी के जलते हुए सवाल’ के रूप में लेकर प्रस्तुत हैं।
प्रसिद्ध बाल चिकित्सक के रूप में प्रतिष्ठित डॉ. जनमेजय, शिशु और माता के प्रेममयी रिश्ते की सम्वेदनाओं को क्लीनिक में प्रतिदिन देखते और महसूस करते हैं और इसीलिए उनके गीतों में नदियों के प्रति यह प्रेम/सम्वेदना स्पष्ट रूप से मुखर हो उठे हैं। अब हम बिना किसी अतिरिक्त भूमिका के उनके गीतों का संक्षिप्त परिचय कराते हैं। नदी के माध्यम से जीवन के लिए एक अत्यंत उपयोगी सन्देश देता संग्रह का आरम्भ दृष्टव्य है-‘उसे रुकना नहीं भाया, उसे थमना नहीं भाया/किया हर प्राण वो सिंचित, जो किंचित पास में आया/नदी की ये सरलता ही—अलकनंदा बनाती है/उसे गंगा बनाती है...। नदी की महत्ता पर ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘औषधियों से युक्त हैं, नदियों की सब धार/नदियों ने उर्वर किए, बंजर और कछार...’। सही में हमारा जीवन नदियों से भीतर तक जुड़ा है-‘जगा भोर में सूर्य, नदी में बिम्ब लगे बनने/ओस नहाए पेड़, नदी तट मन्त्र लगे जपने...’, और  हमारे तमाम संस्कार नदी के संग जुड़े हैं-‘मृत्यु, जीवन, ब्याह, मुंडन, नाम में/माँ रही है साक्षी हर काम में/जब वजू को हाथ कुछ आगे बढ़े/तो नदी की देह तक, संदल हुई/फ़िर नदी की रेत में हलचल हुई...’। इन्हीं नदियों के निर्मल/पावन जल को हमने आज मलिन करके रख दिया है...’नीर बेचैन है बात किससे कहे/इसलिए अनमनी बह रही है नदी...’। कवि के अनुसार-एक नदी जो सबके मन में बहती है/अगर सुनें तो सबसे कुछ ये कहती है...-‘फ़िर तुम्हारे पाँव आए इस तरफ़/फ़िर नदी की रेत में हलचल हुई...थे जहाँ मेले सदा सद्भाव के, हैं वहाँ अवशेष अब पथराव के/फ़िर नदी के तट घृणित दंगे हुए, पर नदी बहती रही, घायल हुई/फ़िर नदी की रेत में हलचल हुई...’ और ‘हाल क्या करके रखा है, घाट देखो/अट गए हैं गंदगी से फाट देखो/नीर भी मैला हुआ है आज मेरा/गम हुए हैं आज मेले हाट देखो/पीर इकली मैं भला कब तक दहूँगी?/ले प्रदूषित जल भला कब तक बहूँगी...’।
यह अत्यंत दुखद है कि आज हमारी नदियों की स्थिति बड़ी दयनीय हो चली है-‘सूखते-सूखते इक नदी खो गई/कब किसी ने सुनी उस नदी की व्यथा/जल भी ऐसा हुआ, विष का प्याला लगे/इक नदी सूखकर, आज नाला लगे/और फ़िर ये हुआ-/जल रुका तो रुका एक नदी सो गई/कब किसी ने सुनी उस नदी की व्यथा...’ इसलिए कवि को लगता है-‘जंगल में निर्मल था जिसका, वनवासी-सा रूप/निकट शहर के नदिया का तन, किसने किया कुरूप?’....’प्रश्न पूछना बहुत ज़रूरी/ऐसी भी थी क्या मजबूरी/तट को छोड़ गई है नदिया-तट को छोड़ गई.../जिसका कल-कल नीर सदा ही/प्यास बुझाता था औरों की/जिसका शीतल जल छूने से/थकन मिटाता था औरों की/वो जल गायब है नदिया से/लगता है सूखे के संग में/कर गठजोड़ गई है नदिया/तट को छोड़ गई है नदिया तट को छोड़ गई...’। व्यथित होकर जनमेजय जी प्रश्न करते हैं-‘नदी जो सरल रही है, वही क्यों विकल रही है?’ और नदी के बाँध बनने पर पूछते हैं-‘जब नहीं सीमा कभी लाँघी नदी, पूछता हूँ क्यों गई बाँधी नदी?...’ नदी की यह व्यथा इन शब्दों में कितनी मार्मिक हो उठी है-‘बोल सकती थी मगर बोली नहीं, पीर में अपनी जुबां खोली नहीं/क्यूँ उसे रुकना पड़ा यूँ राह में?/क्यूँ उसे बाँधा गया किस चाह में?/एक पल ठिठकी चिपट कर बाँध से/फ़िर नदी रोई लिपटकर बाँध से...’ और ‘रोकते हैं बाँध मेरी धार को भी/यूं बदलकर रख दिया व्यवहार को भी/पुत्र जैसे काम कोई भी नहीं हैं/और मुझसे चाहते हो प्यार को भी/पुत्र हो तो पीर मैं अब सब सहूँगी/ ले प्रदूषित जल भला कब तक बहूँगी/यूँ तो नदिया हूँ, नदिया ही रहूँगी....’।
सच में, नदी के प्रति उनका यह अगाध प्रेम ही है कि उसका हृदय द्रवित हो कह उठता है-‘कैसा कारावास नदी को, सारे ही संत्रास नदी को...’ और ‘दर्द के कुछ शंख लेकर, पीर की कुछ सीपियाँ/सूखती जाती नदी के, पास बस तन्हाइयाँ...’। यह सच में कितना दुखद है-‘जिनकी खातिर बही अनवरत, उनके ही जंजालों में/नदी घिर गई फिर से देखो, उलझे चाँद सवालों में/बैठ नदी के तट पर हमने, नदी वास्ते पीर बुनी/घुले नदी में रोज़ रसायन, चीख़ नदी की नहीं सुनी/ढूँढ़ रही है फ़िर भी जीवन, नदिया शातिर चालों में/नदी घिर गई फ़िर से देखो, उलझे चंद सवालों में/देह नदी की चीर रहे हैं, धन के लोभी रोज़ाना/इनको दिखती अपनी जेबें, दुख नदी का कब जाना?/ज्यों-ज्यों लालच बढ़ा खनन का, नदिया घिरी दलालों में/नदी घिर गई फ़िर से देखो, उलझे चंद सवालों में...’, कवि जानता है-‘फन फैलाए लेती तृष्णा, खनन माफ़िया द्वार/ऐसे में नदिया का मुश्किल होना है उद्धार...’ क्योंकि उसे प्रशासन से भी आशा की ज्योति नहीं दिखती-‘फ़िर पानी पर खींच लकीरें नक़्शे पास किए/पीर नहीं समझी नदिया की सबने नोट पिए/जिन पर सत्ता की चाबी, वो बैठे मिले तटस्थ/दर्द बढ़ा तो नदी हो गई, कुंठाओं से ग्रस्त..’।
हमारे देश में आज पीने के पानी की समस्या हो रही है। जिस देश में कभी दूध और पावन जल की नदियाँ बहती थीं उसमें आज पानी बीस रुपए लीटर बिक रहा है। जल संरक्षण पर जनमेजय जी की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-‘जल तो जल है, जल ही कल है, जल बिन होगी घोर तबाही/जल को व्यर्थ बहाकर हमने-की है भारी लापरवाही..है सबकी अब ज़िम्मेदारी, बूँद-बूँद अब नीर बचाएं/बारिश का जल करें सुरक्षित, व्यर्थ न उसको कभी बहाएँ...’।
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ गीतकार डॉ. ब्रजेश मिश्र के मतानुसार-‘सभी गीत लय, प्रवाह व् गेयता से युक्त हैं एवं छंद विधान के अनुशासन में पूर्णतया निबद्ध हैं। साथ ही ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अवधारणा से अनुप्रमाणित होंने के कारण इनमें जगत्-कल्याण की उदात्त भावना भी निहित है, जो इनको श्रेष्ठ गीतों की श्रेणी में स्थापित करती है’।
अंत में, नदी की तमाम समस्याओं से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों को हृदय-स्पर्शी ढंग से, अपने गीतों के माध्यम से उठाते हुए जनमानस तक पहुँचाने का एक प्रशंसनीय और अभिनंदनीय कार्य करने हेतु डॉ. अजय जनमेजय जी को हमारा हृदय से साधुवाद और अनन्त शुभकामनाएँ। जनमेजय की इन पंक्तियों के साथ इसी कामना के साथ आपसे विदा लेते हैं-
                               ‘नीर हर पल बहे, नीर कल-कल बहे
                               गुनगुनाती नदी खिलखिलाती चले
                               प्यार को जो सभी पर लुटाती चले
                               कर्म के मर्म को बस सिखाती चले
                               है जगत् में नदी की तभी मान्यता...’।

इत्यलम्।

डा. सारिका मुकेश
सारिका मुकेश

      
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पुस्तक- नदी के जलते हुए सवाल (नदी-गीत-संग्रह)
लेखक :  डा. अजय जनमेजय 
प्रकाशक : अविचल प्रकाशन, बिजनौर (उ.प्र.)
मूल्य: 200/- रुपये
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Friday, 3 January 2020

अतीत को परिभाषित करती हुई कविताओं का संग्रह “हाँ! तुम जरूर आओगी”





आज वैश्वीकरण/भूमंडलीकरण के इस संचार क्रांति के युग में जीते हुए हमारे जीवन और मूल्यों में अनेकों परिवर्तन हुए हैं। वसुधैवकुटुम्बकम्की संस्कृति में विश्वाश रखने वाले हम लोग आज खुद में सिमटकर खोते जा रहे हैं। जीवन परिवर्तनशील है, यहाँ क्षण-प्रतिक्षण सब कुछ बदलता है। किसी ने सच कहा है कि हम जिस नदी में आज स्नान करते हैं, उसी नदी में दोबारा स्नान करना असंभव है। परिवर्तन इस संसार का नियम है। परिवर्तन बुरा भी नहीं होता परंतु उससे होने वाले परिणामों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। कहीं कुछ अतिरिक्त मिलता है तो कहीं बहुत कुछ पीछे छूट भी जाता है, यह एक शाश्वत नियम है परंतु यह भी हकीकत है कि हम प्राय: अपने गुजरे समय को याद कर वर्तमान का आँकलन करते रहते हैं और यह भी सदा से सच रहा है कि अपने युग की सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला। आज हम आपको गुजरात से निकलने वाली हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका ‘विश्वगाथा’ के सम्पादक श्री पंकज त्रिवेदी जी के काव्य-संग्रह हाँ! तुम जरूर आओगीसे रू-ब-रू करवा रहे हैं, जिसमें अतीत की जाँच-पड़ताल संवेदनाओं के धरातल पर की गई है। पंकज जी मिट्टी से जुड़े व्यक्ति रहे हैं और चाहकर भी अपनी पुरानी मिट्टी, गाँव, खलिहान, पुष्प, प्रेम के साथ-साथ माता-पिता, बहन को भुला नहीं पाते और उन्हें कविताओं के माध्यम से स्मरण करते दिखाई पड़ते हैं-‘यही धूप/मेरे गाँव के तालाब में पानी पर नृत्य करते हुए/मेरी आँखों को चकाचौंध कर रही थी/मेरे भीतर दिव्य उजास फैलाती हुई/मेरी प्रसन्नता बढाती हुई वही धूप आज भी/मुझ पर बरस रही है/जैसे कि मेरी मेहनतकश माँ का आशीर्वाद हो’, और पिता को स्मरण करते हुए ये पंक्तियाँ-‘एक वक्त था जब मेरे आने के/इंतजार में पिता जी बैठे रहते थे/सूखी आँखों में सपने लिए/कुछ कहने को बेकरार से/किताबें-पत्रिकाएँ भी तो वो ही करती हैं/पिता जी की तरह/चैन-बेचैन से/कभी धैर्य से/इंतजार करती हैं मेरा’। स्वयं के विषय में उनकी यह पंक्तियाँ उनको अच्छे से परिभाषित करती हैं-‘मैं/कुछ भी तो नहीं हूँ/मिट्टी से जुड़ा हुआ हूँ बस/हवा में उड़ना तो आता है मुझे/मगर मेरा गर्भनाल मिट्टी से ही जुड़ा है/वो माँ है मेरी/और माँ से कैसे छूट पाऊँगा मैं?/उसकी सुगंध और संस्कार/मैं कर्जदार हूँ उसका...’।





श्री पंकज त्रिवेदी 

माँ और बहन का स्नेह उनके मन पर इस तरह हावी है कि उन्हें अपनी प्रियतमा में कभी माँ दिखती है तो कभी बेटी ही माँ और बहन का स्मरण करा जाती है...वैसे अगर ध्यान से देखा जाए तो यह सच है कि एक ही नारी समय-समय पर हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रगट होती है-‘बेटी को देखता हूँ तो/उसके चहरे में माँ की ममता/बहन का शरारत भरा स्नेह/रिसता है...’ और ‘मेरी थकान को उतारती मीठी बातों से/प्रियतमा से कब माँ बन जाती हो तुम’।
वो आज शहरी जीवन जीते हुए याद करते हैं कि जब गाँव शहर की ओर भाग रहा था तो उस क्रम में कितना ही कुछ तब पीछे छूट गया था-‘गाँव का आदमी जब/शहर की ओर भागने लगा था/सब कुछ पाने की चाह से/कितना लाचार था और बेबस भी.../बँगलों में भले लगाए हों पेड़ मगर/वो स्पर्श मिलता नहीं मिट्टी का/गाँव में छोड़कर आए थे नंगे पाँव के निशाँ/दूध दूहती माँ का प्यार/गाय की मीठी नज़र/मक्खन से भरे बर्तनों से उठती सुगंध/छूट गया है प्यार हर चीज से/माँ वृद्धाश्रम में बैठी, हमारा समय भी हो गया...’।

अक्सर हम यह देखते हैं कि ग़रीबों में आज भी रिश्तों की मिठास, अपनापन, जुड़ाव अधिक है। वो हर पल को साथ रहकर आनंद से बिताते हैं, वहाँ शायद एक-दूसरे से अपेक्षाएं कम है और हर कोई अपने दायित्व को जल्दी समझ जाता है और वे जल्दी ही आत्मनिर्भर होने की सोचते हैं। समझदारी वहाँ जल्दी प्रवेश कर जाती है और वहाँ आज भी रिश्तों का महत्त्व है शायद। पंकज जी कहते हैं-‘यहाँ से न माँ, न बाप जाते हैं वृद्धाश्रम में/न फड़फड़ाते हैं यहाँ डिवोर्स के काग़ज़/गरीबी ने हमें जकड़ लिया है भले/मगर जकड़न भी है/रिश्तों की रेशमी डोर की...’। पंकज जी शहरी जीवन की कृत्रिमता को वो भलीभांति पहचानते हैं । वो जानते हैं कि यहाँ सब मुखौटे लगाकर जीते हैं, यहाँ संवेदनाएँ भी मृत हो चुकी हैं या फिर वो भी कृत्रिम ही हैं, शायद इसीलिए वो लिखते हैं-‘मेरे आँसू को/तराशने की कोशिश मत करो/न उसे खरीदने की.../मेरे आँसू/ऐसे नहीं जो तोड़ सको/खरीद सको और जब चाहो पा सको’। हम सभी जानते हैं कि आज आदमी बदल चुका है, वो अहसान के बदले आँखे तरेरता है। बदलते हालात में आदमी की बदलती फ़ितरत पर ये पंक्तियाँ देखें-‘आज/वक्त बदल गया है/कल तक तुम्हारे आदेश पे चलते थे/जो लोग और वक्त/आज तुम्हारे सामने खड़े हैं सीना तानकर’।

वो अपने अतीत के गर्भ में दबे प्रेम को आज भी महसूस कर उस पर कुछ लिखना चाहते हैं पर उस पर वक्त की एक ऐसी गर्त चढ़ चुकी है कि अब उस पर लिखे जाना क्या कल्पना तक कर पाना संभव नहीं जान पड़ता-‘न जाने कब काँच की खिड़की से/झाँकती हुई तुम.../मेरे दिल में उतर जाती हो और मैं/अपनी कलम को उसी अतीत में डुबो कर/लम्हा-लम्हा अलेखता हुआ/फिर से तुम्हारे साथ एक नयी जिंदगी/बसर करने का मन बनाता हूँ/मगर देखता हूँ तो मेरे अहसासों की स्याही अब/बर्फ़ बन गयी है और तुम भी शायद/ऐसा ही महसूस करती हुई/लौटने लगती हो उसी पगडंडी से/पहाड़ियों की ओर/जिसके उस पार अक्सर कल्पना भी नहीं/पहुँच पाती...’।
आज हम सब अपने-अपने सलीब खुद ढो रहे हैं। एक पुराने गीत की याद आ रही है, ‘चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला। आज हम भीड़ में होते हुए भी प्राय: खुद को अकेला महसूस करते हैं, आज की इसी स्थिति पर वो यूँ लिखते हैं-‘मेले में अकेले और/अकेले में मेले सा/फिर भी अंदर से कुछ टूटता हुआ/कुछ अधूरेपन की कसक लिए/पूर्णता की चाह में आगे बढ़ता हुआ.../बुद्ध की महिमा गाते गाते/बुद्धत्व की ओर/बढ़ रहा हूँ मैं!’
अच्छी किताबें हमारे जीवन को सजाती-सँवारती हैं। हमें तो सदा से ही इनसे ज्यादा प्यारा साथी और कोई नहीं लगा। अच्छी किताबें हमारे जीवन को सही दिशा देकर जीवन की दशा बदल, जीवन में उजाला भर देती हैं। इसी तथ्य को पंकज जी ने इन शब्दों में उभारा है-‘किताबों के पन्नों पर खिलती धूप से/काले अक्षर भी सुनहरे बन जाते हैं/मन समृद्धि से भर जाता है/अच्छे विचारों से उभरते शब्द/मेरे अंदर जी रहे इंसान को/आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते हैं सदा’।
इस संसार में प्रेम का स्वरूप सदा से भिन्न रहा है और वो सदा से मानव मन को तपती हुई दुपहरी जैसे जीवन में शीतल हवा के झोंकों से आनंदित करता रहा है। प्रेम में अपने प्रेमी को स्वीकारने की अद्भुत क्षमता होती है, हम स्वयं को दूसरे की हिसाब से ढाल लेते हैं और शायद यही वजह उस रिश्ते को अद्वितीय बना डालती है। पंकज जी विस्मित हो लिखते हैं- ‘आजकल किसे फुर्सत है/सपने देखने की.../मगर मैं तो हमेशा देखता हूँ/एक सपना/और सपने में तुम आती-जाती रहती हो/हवा का झोंका बनकर।’...‘मेरे निर्बंध व्यक्तित्व की मुखरता को/तुमने कैसे स्वीकार कर लिया है.../अपने हर शब्द में खुलता खिलता हूँ मैं/और तुम उसी अंदाज़ में ढल जाती हो/मेरी ख़ुशी के लिए/मैं ताज्जुब में हूँ।’
इस सबके बावजूद पंकज जी अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति कुछ यूँ आश्वस्त हैं-मेरी पहचान, मेरी हैसियत से भी ज्यादा है...परंतु फिर भी पता नहीं ऐसा क्या है और कौन है वो जिसकी प्रतीक्षा पंकज जी के दिल में अपनी जड़े जमाए बैठी है और वो पूर्ण रूप से आश्वस्त हैं कि वो ज़रूर आएगी! हम भी उन्हें अपनी शुभकामनाएँ देते हैं कि उनकी प्रतीक्षा पूरी हो और उनका लेखन-कर्म बराबर चलता रहे। तो लीजिए, इस काव्य-संग्रह की अंतिम पंक्तियाँ आपकी सेवा में पेश हैं-‘मुझे मालूम है-/न समय तय है और न तिथि.../बस-एक उम्मीद बाँध बैठा हूँ/जो दूर-दूर तक एक दिए की तरह/टिमटिमाती हुई नज़र आती है मुझे/मैं उम्मीद पर अब भी कायम हूँ,/हाँ, तुम ज़रूर आओगी!/इसी दहलीज़ पे...ज़रूर आओगी !/हाँ, तुम ज़रूर आओगी!!



सारिका मुकेश

सारिका मुकेश

                                     




किताब का नाम- हाँ ! तुम ज़रूर आओगी (काव्य-संग्रह)

लेखक का नाम- पंकज त्रिवेदी
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद (उ.प्र.)
मूल्य-20/= रूपए