Saturday, 19 December 2020

श्री नितीश भूषण जी की औपन्यासिक कृति ‘लव स्वाइप ब्लैकमेल’

 


अंतर्जाल की डगर पे चलना जरा सँभल के...

 

सुप्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण द्वारा लिखी पंक्तियाँ कहीं पढ़ी थीं-रचनात्मकता के मनोविज्ञान का समय के साथ भी एक ख़ास रिश्ता है-अपने समय के साथ, अपने से पहले समय के साथ और आने वाले समय के साथ...। वर्तमान युग डिजिटल युगहै और हम सभी जानते हैं कि आज अंतर्जाल पर एक क्लिक में ही समूचा विश्व हमारे सामने उपस्थित हो जाता है। अंतर्जाल पर आज तमाम सोशल/वेब साइट्स और एप्प उपलब्ध हैं जो हमें विश्व से जोड़ते हैं। आज हम सभी कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप से इन सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं पर कभी-कभी यह अंतर्जाल संबंध हमारे जी का जंजाल भी बन जाते हैं-सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। वर्तमान की इसी पृष्ठभूमि पर श्री नितीश भूषण जी की एक औपन्यासिक कृति लव स्वाइप ब्लैकमेलसे आपको रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। नितीश जी होटल प्रबंधन और मानव संसाधन प्रबंधन की उच्च शिक्षा हाँसिल कर पिछले दो दशकों से आई.टी. सर्विस इंडस्ट्री में सेवारत हैं। वर्तमान में वे गुड़गाँव  में अपने दो बच्चों, पत्नी और माता जी के साथ रहते हैं। 2017-18 में ब्लड कैंसर से संघर्ष करते हुए उनके पिता जी अंततः इस दुनिया से चल बसे। हॉस्पिटल में उनकी देखरेख में रहते हुए उन विषम पलों के बीच ही (शायद उन दु:खद खाली पलों में ख़ुद को जीवंत रखने हेतु समय का सदुपयोग करते हुए) नितीश जी ने प्रस्तुत उपन्यास का अधिकतम भाग रचित किया जो अब सद्यः प्रकाशित उपन्यास के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत है। 









एक अच्छे लेखक के लिए लेखन सिर्फ़ मनोरंजन या समय पास करने का ज़रिया नहीं होता, बल्कि वो अपने लेखन के माध्यम से समाज की कुछ विसंगतियों को उजागर कर पाठक का ध्यान आकृष्ट करता है और उन्हें उसके दुष्परिणामों से अवगत कराता सचेत करने का प्रयत्न करता है। जैसा कि अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार हेनरी फील्डिंग का मानना था कि उपन्यास समाज की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है और जॉन एफ. डब्ल्यू. हर्शेल ने भी कहा था-उपन्यास को, अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में, मैं सभ्यता के सबसे शक्तिशाली इंजिनों में से एक के रूप में मानता हूँ। शायद इसलिए नितीश जी ने अपनी बात कहने के लिए उपन्यास को अपना माध्यम चुना।

रवि, राज और भानु मित्र हैं और वो एम.एन.सी में कार्यरत आज के युवावर्ग की लाइफस्टाइल में मौज़-मस्ती करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। एक बार जब रवि कुछ महिला मित्र बनाने की इच्छा ज़ाहिर करता है तो भानु उसे डेटिंग एप्पसके बारे में बताता है और फ़िर रवि सोफु एप्पडाउनलोड कर लेता है और उस पर सर्च और चैट शुरू हो जाती है। उसके बाद उसके पास महक नाम की किसी लड़की के सन्देश आने लगते हैं और कालान्तर में वो उससे मिलने की इच्छा ज़ाहिर करती है। रवि उससे मिलने का कारण पूछता है तो वो कुछ नहीं बताती और यह कहती है कि मिलने पर उसे सब पता चल जाएगा और उसे धमकी देती है कि अगर उसने उसका कहा नहीं माना तो वो उसकी होने वाली पत्नी वन्दना को सब कुछ बता देगी। अब वो किसी तरह महक से छुटकारा पाना चाहता है और इसी सन्दर्भ में वह अपने मित्रों के साथ विमर्श करना चाहता है और इस तरह रवि, राज और भानु की एक अर्जेंट मीटिंग (छ माह बाद भविष्य की, अध्याय-35) से इस उपन्यास का आरम्भ होता है (यानि इसके बाद कहानी काफ़ी देर तक फ़्लैश बेक में चलती है)। इस मीटिंग में काफ़ी माथापच्ची करने के बाद भानु रवि से महक के संग बातें करने को मना कर देता है और वो महक से ख़ुद अपने तरीक़े से निपट लेने की बात कहता है पर अपने प्लान का ख़ुलासा नहीं करता और फ़िर मीटिंग बर्खाश्त हो जाती है । इसके बाद भानु एक नई सिम लेता है और उससे महक के साथ रवि बनकर सम्पर्क बना लेता है और उसे पूरी तरह अपने विश्वास में ले लेता है। फ़िर दोनों एक दिन रूट्स कैफ़ेमें शाम छह बजे मिलने का प्रोग्राम तय करते हैं और यहीं पर शुरू हो जाता है भानु का गेम प्लान...क्या था ये गेम प्लान और महक से छुटकारा मिला या नहीं? अब इस सबको बेहतर जानने के लिए तो आपको यह उपन्यास स्वयं ही पढ़ना होगा। एक ग़ज़ब का थ्रिल, सस्पेंस और रोमांस भरा हुआ है इस उपन्यास में। इसमें मानवीय रिश्तों की ऊष्मा, खुशबू, सद्भाव, निष्ठा और सहयोग के मनोविज्ञान को बखूबी दिखाया गया है। तमाम स्थलों पर दृश्य जीवन्त हो उठे हैं। फ्रेंड्स इन नीड आर फ्रेंड्स इंडीडलोकोक्ति के साथ ही यहाँ एक नई पंक्ति देखने को मिलती है-फ्रेंड्स इन डीड आर द फ्रेंड फ्रेंड्स यू नीड

सरल, सरस, सहज और प्रवाहमयी भाषा में लिखा यह उपन्यास आप एक बार उठा लें तो फ़िर पूरा किए बिना नहीं रख सकते। कुल मिलाकर हम इस उपन्यास के बारे में यही कहेंगे-शिकवे-गिले हैं प्यार भी है, तकरार है तो मनुहार भी है, खोने का मलाल है दोस्ती की मिसाल है, दोस्तों का आपसी प्रेम बेजोड़ है, कथानक में ग़ज़ब का मोड़ है, सस्पेंस है रोमांस है थ्रिल है, परेशानियों में भले हों घिरे, बावज़ूद इसके सब चिल है, सच्ची प्रीत है सत्य की जीत है, हिंसा न तोड़-फोड़ है उपन्यास बेजोड़ है, ख़ूब रंग जमाएगा और सराहना पाएगा, नितीश जी को अच्छी पहचान दिलाएगा, वाह वाह क्या बात है वाह वाह क्या बात है, ऐसे ही लिखते रहो हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं...

हार्दिक बधाई और मंगलकामनाओं के साथ... 





सारिका मुकेश

(तमिलनाडु)  
19.11.2020      





पुस्तक का नाम-लव स्वाइप ब्लैकमेल (अंग्रेजी उपन्यास)

लेखक-श्री नितीश भूषण    

प्रकाशन-ब्लू रोज पब्लिशर्स, नई दिल्ली 

संस्करण-प्रथम, अप्रैल 2020

मूल्य-298/-रू, पृष्ठ-284

[अमेज़न, फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध]


Friday, 26 June 2020

डिज़िटल युग में शाश्वत मूल्यों की सूक्ष्म पड़ताल करता कहानी-संग्रह




सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री अमृता प्रीतम जी ने अपने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था-...रचना ज़िन्दगी की आलोचना होती है-ज़िन्दगी की कल्पना की ओर से की गयी ज़िन्दगी के यथार्थ की आलोचना, ज़िन्दगी की सक्षमता की ओर से की गयी ज़िन्दगी की अक्षमता की आलोचना। पर लेखक के पास उसका चिन्तन समुद्रमन्थन जैसा होता है। उसके पास अहसास की शिद्दत होती है, चिन्तन की गहराई होती है और बयान का अंदाज़ होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि उसे आलोचना का हक़ इसलिए हाँसिल होता है कि उसे ज़िन्दगी से बेपनाह इश्क़ होता है...। आज हम आपको ऐसे ही एक लेखक श्री अमरेन्द्र कुमार सिंह जी से रू-ब-रू कराने हेतु उनके कहानी संग्रह जठराग्नि से आगे... के साथ उपस्थित हैं। पेशे से केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षक श्री अमरेन्द्र जी पत्रकारिता और हिन्दी की हास्य-व्यंग्य प्रधान पत्रिका जी.एस.के. शिष्ट विनोदके संचालन/सम्पादन से भी जुड़े हैं।
इस कहानी-संग्रह में नौ कहानियाँ संकलित हैं। श्री मार्कण्डेय त्रिपाठी (पूर्व सहसम्पादक-नवनीत, मुम्बई) जी द्वारा लिखी भूमिका संग्रह पर अच्छा प्रकाश डालती है। कथ्य की दृष्टि से यह कहानियाँ विविधवर्णी हैं। शब्दों की क्लिष्टता से दूर रह बिना किसी आडम्बर के सरल, सहज और संप्रेषणीय भाषा से बुनी उनकी कहानियों में मनोवैज्ञानिकअस्तित्वगत और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ जीवन के सामान्य और भयावह सच लिए रोजमर्रा की घटनाएँ शब्द-चित्रण से सजीव हो उठती हैं। इनमें विचारधारा की आँच, कुव्यवस्था के प्रति रोष और गिरते मूल्यों के प्रति विषाद/चिन्ता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। कुल मिलाकर उनकी मनोव्यथा यही है कि वो इस सुसभ्य मानव से पूछना चाहते हैं-तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना/भी तुम्हें नहीं आया/एक बात पूछूँ-(उत्तर दोगे?)/तब कैसे सीखा डसना-/विष कहाँ पाया? (-अज्ञेय)



श्री अमरेन्द्र कुमार सिंह 
















शीर्षक कहानी जठराग्नि से आगेरघुनाथ बाबू के घर में काम करने वाले नौकर दीनानाथ की कहानी है। माँ-बाप की असमी मृत्यु हो जाने के कारण दूसरे गाँव से भटकता हुआ इस गाँव में आया था। रघुनाथ बाबू ने उसे अपने घर नौकर रख लिया था। फ़िर एक दिन उनके बेटे आलोक बाबू ने उसे लात मारकर घर से निकाल दिया तो वो गाड़ी पकड़कर लखनऊ चला गया पर वहाँ मालिक रघुनाथ बाबू की बहुत याद आई तो गाँव के लिए चल दिया लेकिन जब वो उनके द्वार पर पहुँचा तो वहाँ उनका श्राद्ध चल रहा था। सब आलोक बाबू की जयजयकार कर रहे थे। उसका मन वितृष्णा से भर उठा-ज़िन्दा रहते तो उनकी सेवा सुश्रुषा नहीं की। मुझे भी नहीं करने दिया। अब पाँच तरह की मिठाई खिलाकर अपनी जयजयकार करा रहे हैं। सोचकर दीनानाथ को आलोक बाबू के नाम से भी घिन्न होने लगी और वो भरपेट पानी पी मन्दिर के प्रांगण में गमछा बिछाकर सो गया। घर के नौकर का यह चरित मन को भिंगो देता है। ऐसी ही एक कहानी है-शम्भू। इस कहानी में मुरारी लाल अपने घर के नौकर के साथ अपने अफ़सर बेटे मुन्ना के पास रहने के लिए दिल्ली जाते हैं पर बेटे की पत्नी उन्हें वहाँ से जल्दी टरका देती है और जैसा कि अधिकतर होता है, बेटा भी पत्नी के निर्णय के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहता और अंतत: मुरारीलाल ट्रेन से वापस गाँव लौटते हैं। लौटते वक़्त वो रात भर इस डर से नहीं सो पाते कि बेटे की तरह कहीं शम्भू भी छोड़कर न चला जाए। अगली सुबह शम्भू उनसे कहता है-हम सब समझ गए बाबू साहब। आप डरे हुए थे...पर हम ऐसा कइसे कर सकते हैं? हम ऊपर जाकर क्या जवाब देते बाबू साहब, अगर आपको बीच रास्ता में छोड़कर चले जाते?...मुरारीलाल ने शम्भू के चेहरे को गौर से देखा। फ़िर बड़े संयत स्वर में बोले-शम्भू! तुम्हें तो ऊपर वाले का डर है। सभी लोगों को ऊपर वाले का डर क्यों नहीं है? शम्भू के पास कोई उत्तर नहीं था।ऐसे ही एक कहानी टूटी जिलेबियाँमें नौकर सोगरथ है, जिसका मत है-रोटी का एक टुकड़ा मालकिन दे या न दे, यह मालकिन की मर्जी। उसका एक सूत्री धर्म था-मालिक या मालकिन जो काम करने को दें, उसे पूरी लगन से करना...उसे यह शाश्वत ज्ञान हो गया था कि मालकिन अगर रोटी दे तो खाना उसका धर्म था और न दे तो चुपचाप आँखें मूँदकर सो जाना भी उसी का धर्म था। पूरी उम्र सेवा करने के बाद वह एक दिन घर छोड़कर गंगा किनारे स्थित किसी साधू के आश्रम में चला जाता है और फ़िर एक दिन सहसा छोटे मालिक के सामने प्रगट होता है...उसके हाथ में एक पुड़िया थी। उसने बड़ी सावधानी से पुड़िया को खोला और मेरे सामने बढ़ा दिया। पुड़िया में जिलेबियों के कुछ टूटे हुए रसविहीन टुकड़े थे।...ये क्यों लाए?...बऊआजी हम उमर में त आपसे बड़े हैं न। आपके पास त, हम एतना दिन बाद आए हैं। ख़ाली हाथ कइसे आते, बऊआजी?इन तीनों कहानियों में यह स्पष्ट हो जाता है कि आज सारी सम्वेदनाएँ और पुराने जीवन मूल्य ये ग़रीब कहे/समझे जाने वाले लोग ही निर्वहन कर रहे हैं। शिक्षित होने पर हमें इन मूल्यों को अधिक आत्मसात करना चाहिए था लेकिन पढ़-लिखकर और बड़ा आदमी बन जाने के बाद हम इन्हें तिलांजलि दे देते हैं, जो कि दुखद स्थिति है। हमारी परवरिश और वर्तमान शिक्षा-प्रणाली पर बहुत ही विचारणीय प्रश्न(चिह्न) खड़ा करती हैं ये कहानियाँ! चौखटकहानी में यह दिखाया गया है कि संवेदनाओं और वफादारी में जानवर हमसे अच्छे हैं। एक माँ का इंतजारमें एक माँ का अपने बेटे को काबिल डाक्टर बनाने का त्याग दिखाया गया है, जो अपनी सारी खेती की कमाई बेटे को भेज देती है और सर्दी के मौसम में अपने लिए एक रजाई तक नहीं बनाती और फ़िर...पूस के दूसरे पखवारे की चतुर्दशी थी। पाला आख़िर पड़ ही गया...काकी खाट पर ऐंठी पड़ी थी। पतली रजाई को उन्होंने पूरी ताकत से जकड़ रखा था। शायद ठंड से बचने की उन्होंने पूरी कोशिश की थी पर कपड़ों की कमी ने उन्हें परलोक जाने पर विवश कर दिया था। संग्रह की अंतिम कहानी आश्रमएक ऐसे प्रोफ़ेसर रामनाथन की कहानी है जो रिटायरमेंट लेकर हिमालय की वादियों में रहने वालों की परेशानियों और दुःख को दूर करने के लिए अपनी जमापूँजी और खेती से आने वाली सारी कमाई लगाकर एक आश्रम का सञ्चालन करता है और जल्दी ही इतनी प्रसिद्धि पा लेता है कि स्वयं मुख्यमंत्री वहाँ आते हैं और आश्रम के कार्यों को देख ख़ुश होकर हर संभव मदद देने का वादा करते हैं। रामनाथन/रामस्वामी उस क्षेत्र के लोगों के अंधविश्वासों और उन्हें ओझाओं के झाड़-फूँक से दूर कर, उन्हें बीमारियों से मुक्ति दिलाने हेतु उचित मेडिकल स्वास्थ्य सेवाएँ दिलाता है पर एक दिन-पौ फटने ही वाला था। तभी आश्रम में शोर का एक गुब्बार उठा...रामस्वामी की खून से सनी लाश उनके बिस्तर पर पड़ी थी। खून से सना एक तेज़ धार वाला हथियार पास ही पड़ा था। जिस बीमार महिला को रामस्वामी ने कुछ घंटे पहले अस्पताल भिजवाया था, उसका पति पास ही खड़ा था । उसे आश्रम के कई लोगों ने पकड़ रखा था । लोगों को माज़रा समझते देर नहीं लगी। यह कहानी भीतर तक पीड़ित कर हमें बहुत कुछ सोचने को मज़बूर करती है। 
इस संग्रह में अनेक स्थलों पर (कु)व्यवस्था और हमारी (अ)सभ्यता पर तीख़े प्रहार और रोष प्रगट करते हुए, निष्कर्षतः एक सौ बारह पृष्ठों में सहेजा नौ कहानियों का यह संग्रह खुद में एक ऐसा अनूठा संसार हैजिससे गुज़रकर हम यह सोचने को बाध्य हो उठते हैं कि हम आख़िर जा कहाँ रहे हैं? हमें उम्मीद है कि यह कहानी संग्रह पाठकों के मन को आन्दोलित करेगा और साहित्य जगत् में चर्चित हो अपना स्थान बनाएगा। हम श्री अमरेन्द्र जी को उनके सृजन-कर्म हेतु अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं।
इत्यलम् ।।


सारिका मुकेश
(तमिलनाडू)


सारिका मुकेश 




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पुस्तक-जठराग्नि से आगे... (कहानी संग्रह)
लेखक-अमरेन्द्र कुमार सिंह    
प्रकाशक-लता साहित्य सदनगाजियाबाद-201102 (उ.प्र.)
प्रकाशन वर्ष-2020, मूल्य: 300/-, पृष्ठ-112
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Monday, 15 June 2020

अंतरंग रिश्तों में स्त्री-मन की कोमल भावनाओं को उकेरता औपन्यासिक विशेषांक





इस तथ्य से अब हम सब भली-भाँति अवगत हैं कि आज के  अंतर्जालमयी/आभासी दुनिया के इस युग में जबकि लोगों में पत्रिकाएँ खरीदने/पढ़ने की प्रवृत्ति कम ही बची है, तब हिंदी की पत्रिका स्वयं के बल पर निकाल पाना और उसे लगातार चलाना आसान काम नहीं है और उस पर भी अगर अहिन्दी-भाषी प्रान्त से यह पत्रिका निकालनी हो तो ज़ोखिम और अधिक बढ़ जाता है पर कुछ लोग यह कार्य कई बरसों से सतत करते चले आ रहे हैं। हिंदी की सेवा करने हेतु इस चुनौतीपूर्ण कार्य को अंगीकार करने हेतु ऐसे ही एक शख्स हैं-श्री पंकज त्रिवेदी। उनकी अब तक हिन्दी-गुजराती साहित्य में पैंतीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और वे गुजरात प्रान्त के सुरेन्द्रनगर शहर से पिछले सात बरसों से हिन्दी त्रयमासिक पत्रिका ‘विश्वगाथा’ का सम्पादन/प्रकाशन कर रहे हैं। वे बहुआयामी विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं और अपनी विभिन्न उत्कृष्ट सर्जनात्मक सक्रियता के लिए अनेकों सम्मान और पुरस्कार से नवाज़े जा चुके हैं। आज हम उनकी पत्रिका ‘विश्वगाथा’ (अप्रैल-जून’ 2020) के विशेषांक की चर्चा करने हेतु उपस्थित हुए हैं। यूँ तो तमाम पत्रिकाओं के विशेषांक समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं पर उनमें से कुछ ही संग्रहणीय बन पाते हैं। ऐसा ही संग्रहणीय है ‘विश्वगाथा का यह विशेषांक, जो गुजरात की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री बिन्दु भट्ट जी के चर्चित लघु उपन्यास ‘मीरा याज्ञिक की डायरी’ पर केन्द्रित है, जो मूलत: गुजराती में पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ और फ़िर राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से हिन्दी में अनुदित एवं प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुँचा। अब यह अन्य भी कई भाषाओं में आ चुका है। किसी उपन्यास में डायरी का मिलना तो आम बात है पर डायरी में उपन्यास लिखे जाने के इस अभिनव प्रयोग को देख पाठक एकबारगी अचम्भित और आह्लादित हो उठता है। यह डायरी मीरा याज्ञिक के जरिए मानवीय मन की प्रेममयी सम्वेदनाओं के जुड़ने, बिखरने और टूटने के कोमल अहसासों को बड़ी संजीदगी से रचनात्मक ढंग से शालीनता के संग ऐसे प्रस्तुत करती है कि आप आरम्भ से अंत तक इससे भावनात्मक तौर पर जुड़े रहते हैं। यह नारी विमर्श की बात करती है पर एकतरफ़ा नारीवाद की नहीं। यह किसी भी पूर्वाग्रह को लेकर नहीं चलती और न ही कुछ अपनी और से जबरदस्ती आप पर थोंपना चाहती है। यह तो आपके समक्ष एक ऐसा लाइफ़-स्केच रखती है, जिस पर एक स्वस्थ बहस की आवश्यकता है। इसको पढ़ते हुए हमें कई दफ़ा वर्जीनिया वुल्फ़ की याद आती रही।




 श्री पंकज त्रिवेदी (सम्पादक) 













जैसा कि नाम (‘मीरा याज्ञिक की डायरी’) से ही स्पष्ट है कि इसके केन्द्र में मीरा है। अहमदाबाद की एक यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहकर स्कालरशिप लेकर ‘प्रेमचंदोत्तर उपन्यासों में प्रेम एवं विवाह की समस्याएँ’ पर अपना शोधकार्य करती मीरा को शरीर पर सफ़ेद दाग हैं। स्कूल में पहले उसने इसके लिए बहुत कुछ सहा है, फ़िर एक शिक्षिका वृन्दा उसे प्यार से एक नया नाम देती है-‘कबरी’। मीरा के शब्दों में-“कभी-कभी शब्दों के पार निकल जाता है सम्बन्ध! यह ‘कबरी’ शब्द तो मेरे आत्मविश्वाश की धुरी इसने ही तो मुझे विकृत मनोदशा में फँसने नहीं दिया’। इसी के साथ वृन्दा मीरा की मित्र बन जाती है। वही वृन्दा अब अपनी एम.ए. की परीक्षा की तैयारी करने हेतु मीरा के साथ हॉस्टल में उसका कमरा शेयर करने आ जाती है। मीरा उसका साथ पाकर खुश होती है-‘वृन्दा मेरे रूम में मेरे पलंग पर सोई हुई है, फ़िर भी विश्वास नहीं हो रहा है कि वह आ गई! कई बार हमने साथ रहने की इच्छा की है! अंत में आज वह साकार हुई!” अब वृन्दा और मीरा मित्र हैं-“मैं एकदम बोल पड़ी, क्या मैं अभी भी तुम्हारी शिष्या ही हूँ? कोई उत्तर न दिया, चुपचाप मेरा हाथ पकड़ लिया वृन्दा ने”। धीरे-धीरे यही प्रगाढ़ता उन्हें एक दूसरे के प्रेमपाश में कब जकड़ लेती है, उन्हें पता ही नहीं चलता-“वह बोल रही थी और उसके होंठों की हलचल और आवाज़ की कम्पन से मेरे कन्धों, कर्णमूल, गरदन और गाल के अन्दर कुछ कुलबुला रहा था। कोई राख में ढके अंगारों को फूँक रहा था...कब उसने मेरी गोद में सर रखा, कब उसने मेरे बालों से हमारे चेहरे ढक लिए, कब उसने...पिछले दो दिन से यह मेरी देह भी मेरी नहीं रही, सुबह नहाने बैठी तब अंग-अंग वृन्दा की भाषा बोल रहे थे...गुनगुने पानी का स्पर्श, एक तीव्र रोमांच और अंग-अंग से छलकता सुख...पूरे शरीर में वाणी अँखुआ रही थी...लगता है वृन्दा को चाहने के साथ-साथ मैं अपने शरीर को भी चाहने लगी हूँ”। मीरा की प्रेममयी किश्ती को मानो एक दरिया मिल गई हो, वो बहुत ख़ुश होती है परन्तु कुछ दिनों बाद ही वृन्दा का परिचय मुम्बई यूनिवर्सिटी में रीडर डॉ. अजीत से हो जाता है और वे दोनों विवाह का निर्णय लेते हैं। वृन्दा द्वारा दूरी बनाए जाने से मीरा का कोमल मन आहत हो उठता है। फ़िर एक शिविर में उसकी निकटता कवि उजास के संग बढ़ती है-”मुझे लगता है प्रेम स्वयं एक झंझावत है, सजीव मात्र को आमूलचूल परिवर्तित कर देने वाला, अष्टमी के चाँद के उजाले में समुद्र का किनारा, सामने बैठा उजास और उजास की कविता,,,पहली बार अनुभव किया कि उजास की आँखें मेरी देह और मन की आग के अक्षर पढ़ रही है, जबकि वृन्दा के सम्बन्ध में...हमने शायद धुएँ को ही आग मान लिया था...”। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि यहाँ भी उसकी भावनाएँ छली जाती हैं और अंततः इस रिश्ते से भी मीरा को कभी न भर सकने वाला जख्म ही मिलता है-“मैंने उसकी पकड़ से छिटकने की कोशिश की तो वह और भूखा बनकर दुगुने आवेग से टूट पड़ा। उसकी आँखों के जूनून ने मेरी सारी आर्द्रता सोख ली...मेरी नज़र के सामने वह क्षण बलात्कार के अँधेरे में बदलता जा रहा था और मैं उसमें उजास खोजती रही...क्या वह मुझे केवल भोगना ही चाहता था? यह भी हो कि इस चितकबरे शरीर को वह सहन न कर सका हो। मैं तो वृन्दा की आँखों से ही अपने को देखती रही हूँ, परन्तु हक़ीकत तो...क्या मैं अपने बाह्य रूप की वास्तविकता को भूल गई थी?...नहीं, कुछ भी सुन्दर नहीं, रोमांचक नहीं...ज़रा भी सद्भाव नहीं...सौहार्द्र नहीं...आश्वस्ति नहीं, नहीं...नहीं...। इसके बाद उसका मन किसी काम में नहीं लगता है और वो सोचती है-“यदि रिसर्च का काम न हो रहा हो तो क्या अधिकार है मुझे स्कालरशिप लेने का? घर चली जाऊँ?” और अंत में मीरा अहमदाबाद को छोड़ अपनी मम्मी के पास नवानगर निकलने से पहले आहत मन से लिखती है-‘कुछ भी छोड़कर नहीं जा रही हूँ/सिवा/बीते वक़्त की गंध...’। डायरी के अन्तिम पृष्ठ पर उसका सारा दर्द उभर आया है-“खट...खट...मम्मी का झूला चल रहा है। पता नहीं, कितने बजे हैं? नींद की गोली लेकर सोई थी पर जग गई। पिछली गली में हाँफते, दौड़ते कामातुर सुअर की गुर्राहट, जबड़े की आवाज़...और उससे बचने की कोशिश करती चीखें...पूरे शरीर में एक झुरझुरी दौड़ने के साथ मानो मन-मन का बोझ मुझ पर लदता जा रहा है। पसलियाँ मारे दवाब के मानो अभी टूट जाएँगी...पूरा शरीर पसीने-पसीने...। खट...खट...नाइट लैंप की मैली रौशनी में सामने की ड्रेसिंग टेबल का आईना भी मुझे मम्मी की तरह पहचानने से इनकार कर रहा है। सूजा हुआ चेहरा, पशुओं द्वारा रौंदे गए खेत-सा सिर...। लगातार घुट रही हूँ। पिछले तीन दिनों से इसी कमरे में बन्द पड़ी हूँ...मम्मी एक अक्षर तक नहीं बोलती...अब तो मानो दिशाओं ने भी मुझसे मुँह फ़ेर लिया है...”। यह उपन्यास मन में एक अज़ीब सी कशमकश लिए, न जाने कितने ही प्रश्न हमारे सामने खड़े कर जाता है! समूचे उपन्यास में लेखिका ने शब्दों का उपयोग बहुत सोच-समझकर किया है, जिससे पाठक कहीं भी मुख्य मुद्दे से नहीं भटकता। इस सृजन के लिए लेखिका सुश्री बिन्दु भट्ट जी साधुवाद/प्रशंसा की हक़दार हैं। उपन्यास के साथ-साथ इस पर कई विद्वजनों की संग्रहित आलोचना/समीक्षा पाठक के लिए अन्वेषी दृष्टि का कार्य कर उपन्यास के महत्त्व को रेखांकित करती है। कुल मिलाकर विशेषांक बहुत सुन्दर और संग्रहणीय बन पड़ा है और हम सम्पादक श्री पंकज त्रिवेदी जी को इस अद्वितीय और बेहद अभिनंदनीय अंक हेतु हृदय से बधाई और साधुवाद देते हैं। हमें इस बात की प्रसन्नता है कि उनके कुशल मार्गदर्शन में यह पत्रिका प्रतिष्ठित साहित्य साधकों से रू-ब-रू कराते हुए नवोदित प्रतिभाओं का समग्र दिग्दर्शन करने में पूर्णरूपेण सक्षम है। भविष्य में भी पत्रिका का मार्ग यूँ ही प्रशस्त रहे और यह निरंतर नयी ऊँचाईयाँ छुए, इसी आशा और विश्वास के साथ हम उनके स्वस्थ, यशस्वी और दीर्घ जीवन की मंगलकामनाएं करते हैं।

इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश 


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Thursday, 21 May 2020

तितली के पंखों पर बैठकर दुनिया की सैर को निकली डा. अनु सपन




भटका रहे हैं मन को प्रतिबन्ध आजकल के/अँधियार बो रहे हैं अनुबन्ध आजकल के



गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल... सृष्टि के हर स्पन्दन में लय और संगीत विद्यमान है। गीत मानव जीवन का स्वर है, उसकी अभिव्यक्ति है। गीत ही शायद काव्य की सबसे पुरानी विधा है। मानव जीवन के साथ ही लोकगीत का भी जन्म हुआ होगा। महाप्रयाण निराला ने लिखा है-गीत-सृष्टि शाश्वत है। समस्त शब्दों का मूल कारण ध्वनिमय ओंकार है। इसी नि:शब्द-संगीत से स्वर सप्तकों की भी सृष्टि हुई। समस्त विश्व, स्वर का पूंजीभूत रूप है। पाश्चात्य दार्शनिक हीगेल ने लिखा है-गीत सृष्टि की एक विशेष मनोवृत्ति होती है। इच्छा, विचार और भाव उसके आधार होते हैं। केदारनाथ सिंह का कहना है-गीत कविता का एक अत्यन्त निजी स्वर है, गीत सहज़, सीधा और अकृत्रिम होता है। महादेवी वर्मा के विचार से-गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र दुःख-सुखात्मक अनुभूति का वह शब्द-रूप है, जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गीत सम्पूर्ण मानवीय सम्वेदनाओं की सार्थक और संगीतात्मक अभिव्यक्ति है। जब यह व्यक्तिपरक उद्गार से निकल आम आदमी के हृदय की आवाज़ बन जाता है, तो कालजयी हो जाता है।
हमारे देश के कवि सम्मेलनों में अपने कालखण्ड में बच्चन जी और नीरज जी ने जो धूम मचाई, उससे हम सभी परिचित हैं। कालांतर में, गीत को हाशिए पर धकेल देने के अथक प्रयासों के बावजूद, आज भी हर कवि सम्मेलन में अनेक गीतकार अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर डालते हैं। आज हम आपको ऐसी ही एक कवयित्री से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, जिनसे हमारा परिचय सुप्रसिद्ध गीतकार श्री राजेन्द्र राजन जी ने यह कहते हुए कराया-'शाब्दिक लिबास पहने एक गीतात्मक अभिव्यक्तियुक्त संज्ञा के रूप में मंच पर अवतरित होने वाली शख्सियत का नाम है-डा. अनु सपन। डा. कुँअर बेचैन जी के शब्दों में-बड़ी बात यह है कि उनकी रचनाएँ काग़ज़ पर भी रचनाएँ होती हैं और काव्य-मंचों पर भी वे उतनी ही गरिमा लिए होती हैं। गीतकार श्री सुमेर सिंह शैलेश लिखते हैं-देश की कम ही कवयित्रियाँ हैं, जो मंचों से उतरने के बाद साहित्य जगत् में भी प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं, अनुउन्हीं में से एक हैं। आज हम आपसे इन्हीं डा. अनु सपन के गीत-संग्रह , मन! तुझसे बात करूँकी चर्चा करने के लिए उपस्थित हुए हैं।




डा. अनु सपन

















सरस्वती वन्दना से पुस्तक का श्री गणेश हुआ है-नमामि मातु शारदे, नमामि मातु शारदे/ज्ञान के प्रकाश से तू विश्व को सँवार दे/...दूर हो सके तपन हाथ जोड़ती सपन/मन की आँख पढ़ सकूँ मैं मुझको वो सिंगार दे...। माँ सरस्वती की कृपा से, कवयित्री ने मन की आँख से ही इस असार-संसार को देखकर यह संग्रह दिया है। छोटी उम्र से ही जीवन-संघर्ष करते हुए वो इस पुरुष-प्रधान समाज के तमाम अवरोधी पत्थरों के बीच से किसी तरह अपना रास्ता बनाती हुई एक झरने की तरह इस धरा पर अवतरित हुई हैं। पाब्लो नेरूदा ने ठीक ही लिखा है कि लेखक का काम केवल लिखना नहीं है, बल्कि एक तरह से वह सामाजिक प्रतिक्रिया की शक्तियों का सामना करने की चुनौतियाँ भी स्वीकारता है और यह एक बड़ा जोख़िम का काम है, क्योंकि लेखक फ़िर सच्चाई के रखवाले की तरह से बोलता है। अनु जी ने बड़ी निर्भीकता से समाज में व्याप्त स्वार्थ, छल-कपट, दोगले चरित्र आदि पर खुलकर लिखा है। आज की पुरुष-मानसिकता और मंच के वातावरण से वो भली-भाँति परिचित हैं-केंचुली पहने हुए कुछ/लोग ऐसे भी मिले हैं/रूप का उत्कर्ष समझा/था जिन्हें, वे अधखिले हैंऔर प्यार के हर रास्ते के/बीच में अन्धा कुआँ है/प्रीत की हर आग में/लपटें नहीं केवल धुआँ है। नारी अस्मिता पर उनके गीत की यह पंक्तियाँ रेखांकित किए जाने योग्य हैं-इस तरह से मुझे आप मत देखिए, भावसूची नहीं हूँ मैं बाज़ार की/मेरी हर साँस में इक उपन्यास है, कोई कतरन नहीं हूँ मैं अख़बार की स्त्री के कोमल मन पर इन सबके क्रूरतम प्रभाव की पीड़ा/वेदना को बख़ूबी समझा जा सकता है। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताकी संस्कृति पर प्रहार करती हुई वो आगाह कर देना चाहती हैं-देवियों की तरह जिसको पूजा गया/या सभाओं में जिसको नचाया गया/एक औरत को औरत न समझा गया/इक शमा की तरह से जलाया गया/मैं धरा हूँ, धरम है सहनशीलता, वस्तु कोई नहीं हूँ मैं व्यापार की। नारी को समय-समय पर पुरुष ने अपने हिसाब से व्याख्यायित किया, पर वो उसकी महत्ता बताते हुए लिखती हैं-नर्क का द्वार समझो न नारी को तुम/स्वर्ग पाने का वो एक सोपान है/उसके काज़ल को लेकर है काली निशा/उसकी लाली से जगमग ये दिनमान है/उसका आँसू समन्दर पे भारी पड़े, नारी शक्ति है, शोभा है संसार की। स्त्री को सिर्फ़ भोग्या और कामवासना की पूर्ति समझे जाने के तथ्य से वो अच्छी तरह परिचित हैं और इसका सामना कर आगे बढ़ती हैं-मैं कजरारी आँखों वाली/और कभी यौवन की प्याली/मुझको समझे बिना सभी ने/क्या-क्या उपमाएँ दे डालीं...मोहक होना दोष नहीं है, लेकिन इस जग को क्या समझाऊँ/बहुत चाहने वाले मेरे, तो क्या मैं सभी हो जाऊँ/क़दम-क़दम पर हैं छल ही छल, वक़्त कह रहा तू बढ़ती चल
कैसी विडम्बना है कि स्त्री आज भी अपनी बात खुलकर  परिवार/समाज में नहीं कह सकती-हवाओं से बँधी है ज़िन्दगी अनुबन्ध कैसा है/समय का साँस पर तो भी यहाँ प्रतिबन्ध कैसा है, लेकिन वो संसार को बताना चाहती है-मैं कुहासे में लिपटी हुई भोर हूँ/कोई सूरज मिले मैं भी खिल जाऊँगी/हूँ नदी भावना की उमड़ती हुई/एक दिन अपने सागर से मिल जाऊँगी, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह रही-मछरिया हूँ कि जिसकी प्यास को समझा नहीं सागर/जगत ने पोथियाँ पढ़ लीं, न समझा प्रेम का आखर...मेरे भीतर भी चिड़िया का सुकोमल-सा बसेरा है/मगर मजबूरियों के बाज़ ने उसको भी घेरा है/यक़ीनन घोंसले पर कोई विपदा ला नहीं सकती/सभी को ज़िन्दगी के दर्द को, समझा नहीं सकती/वो ऐसा गीत है जिसको कभी मैं, गा नहीं सकती। स्त्री मन के सुकोमल सपनों की अकाल मृत्यु पर वो दुखित हो लिखती हैं-आँखों से सपने छीन लिये दिल के अरमान मिटा डाले/ख़ुशियों से तरसे लोगों ने बेहूदा नियम बना डाले/जो कसमों के सौदागर हैं, सम्बन्धों के व्यापारी हैं/मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारों में जाने कितने व्यभिचारी हैंऔर शायद इसलिए उनका इस व्यवस्था से विश्वास उठ गया है और वो लिखती हैं-मूर्तियाँ पूजना मेरी फ़ितरत नहीं, मैं पुजारिन पसीने के क़िरदार की। अनु जी ने स्त्री के संघर्ष और उसकी जिजीविषा को जिस आत्मीयता और सम्वेदनशीलता के साथ उकेरा है, उसमें उनके अपने आत्मीय सरोकारों की स्पष्ट छाया है-भीड़ भरे चौराहे देखे, परिचय भी तो ख़ूब मिले/सच तो एक सफ़र था केवल, बाक़ी सब झूठे निकले...कितनी नदियाँ रेत हो गईं/इच्छाएँ सब खेत हो गईं। इन तमाम मुश्किलों के बावजूद वो समाज में एक ख़ास बदलाव और चेतना लाने के लिए अपने लेखन के ज़रिए प्रयासरत हैं-अजगरों को प्यार की भाषा सिखाने के लिए, पेड़ चन्दन का बना हूँ अपनी इच्छाओं के साथ-(श्री राजेन्द्र राजन)।  
सफ़र-दर-सफ़र-दर-सफ़र-दर-सफ़र ये/तमन्नाएँ कैसा मकाँ ढूँढती हैं...जीवन के तमाम अनुभवों के बाद एक मुकाम पर उन्हें लगा-मेरे बिगड़े सुरों को भी वही तो साज़ देता है/वो मेरा कौन है जो दूर से आवाज़ देता हैऔर वो उसकी ओर यह सोचते हुए क़दम बढ़ाने लगीं-ये किनारे तो मेरा मुकद्दर नहीं/सिन्धु में इक उफ़नती लहर तो मिले/ना बनूँ राधिका, चाहे मीरा बनूँ/जिसमें अमरत्व हो, वो ज़हर तो मिले। अब उनका मन प्रफ़ुल्लित हो उठा है और जीवन में एक नयी आशा का संचार हुआ है-तितली को बाँहों में भर कर/उसकी चंचलता को जानूँ/मैं असीम में उड़ सकती हूँ/वक़्त मिला खुद को पहचानूँ/उपवन में कब तक मुरझाऊँ, चलूँ दुबारा खिलने को/मैं चली पिया से मिलने को, हाँ चली पिया से मिलने को मिलने के बाद मंजिल सब कुछ रुका-रुका-सा/इच्छाओं की डगर पर अब भागना नहीं हैऔर इसलिए अब वो अपना सब कुछ उस पिया पर न्योछावर कर देने को आतुर हो उठी हैं-मन के बासन्ती सम्बोधन, तेरे नाम तेरे नाम/मेरी खुशियों के वृन्दावन, तेरे नाम, तेरे नाम...जनम-जनम से ढूँढ़ रही मैं, तुमको ही तो साँवरिया/तू मुझमें ही छुपा हुआ है, समझी ना मैं बावरिया/मेरी साँसें मेरा जीवन, तेरे नाम, तेरे नाम...जब-जब मैं देखूँ दरपन तू ही मुझे दिखाई दे/कोई भी आवाज़ सुनूँ, तेरी आवाज़ सुनाई दे/चाहत के ये रोली-चन्दन, तेरे नाम, तेरे नाम। अंतत: उस को पाना ही तो हमारी मन्जिल है और वही इस जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है। इसलिए सन्तुष्ट भाव से अनु जी लिखती हैं-सम्बन्ध जुड़ गया है/मेरी आत्मा से मेरा/रिश्ता है एक केवल/परमात्मा से मेरा/एक शून्य पल रहा है, कोई कल्पना नहीं है/मन संत हो न पाया, पर वासना नहीं है
अनु जी के इस गीत-संग्रह से गुजरते हुए जीवन की धूप-छाँव का सफ़र बड़ा ही प्रीतिकर रहा और उनके इस गीत ने मन को बहुत छुआ-कौन वह जीवन है जो/दुःख-दर्द का हिस्सा नहीं है/मुश्किलें ही मुश्किलें हैं/प्यार का क़िस्सा नहीं है/धीरे-धीरे कहो/जैसे नदिया कहे/धीरे-धीरे बहो/जैसे नदिया बहे। हम उनको इस सृजन कर्म हेतु हार्दिक बधाई और साधुवाद के साथ अपनी अहर्निश शुभकामनाएँ ज्ञापित करते हुए, उनकी इन जीवनोपयोगी पंक्तियों को उद्धृत करते हुए आपसे विदा लेते हैं-
                                ‘क्या कहा किसने कहा औ
                                क्यूँ कहा था वो सभी कुछ भूल जाएँ
                                दूरियाँ मन से निकालें
                                मिल गई नज़दीकियाँ इनको सँभालें
                                उम्र भर ढोते रहे शिकवे-गिले
                                मिलन के नाम कर लें
                                हो गई अब सुबह से शाम
                                चलो आराम कर लें

इत्यलम्।


सारिका मुकेश



सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)









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पुस्तक - आ, मन! तुझसे बात करूँ (गीत-संग्रह)
लेखक -  डा. अनु सपन
प्रकाशक - सहज प्रकाशनमुज़फ्फ़रनगर (उ.प्र.)
मूल्य - 300/-रूपये
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Wednesday, 22 April 2020

वर्तमान परिवेश से मुठभेड़ करते मानवीय सरोकारों के व्यंग्य संग्रह


  
यह एकदम सच है कि आज किसी को भी किसी से कुछ सुनने की बर्दाश्त नहीं है। बड़ों की बात तो छोड़िए, आप छोटे बच्चों को भी कुछ नहीं कह सकते। उन्हें भी कुछ समझाने से पूर्व बहुत सोचना पड़ता है। ऐसे माहौल में उन व्यक्तियों को जो प्रशासनिक ज़िम्मेदारी में सेवारत हैं, किसी मंत्रालय में किसी विशिष्ट पद पर फेविकोल के जोड़ से चिपके हैं या फ़िर राजनीति में सक्रिय हैं, उनके बारे में कुछ कहना या लिखना-‘जल में रहकर मगरमच्छ से बैर’ लेने जैसा है या ‘आ बैल मुझे मार को चरितार्थ करने जैसा’। सच में उनके विरोध में कुछ कहना या लिखना किसी बिच्छू को छेड़ने से कम ज़ोखिम का कार्य नहीं है पर क्या करें कुछ लोग आज भी इस मुगालते में जीते हैं कि उसके कन्धों पर समाज की ज़िम्मेदारी है, उनका लिखा समाज का आईना है और वो क्रांति ला सकता है (जिसके प्रमाण में वो इतिहास का हवाला दे आपको संतुष्ट करने को भी तत्पर दिखते हैं)। इस असार संसार में ऐसे वीरोचित कार्यों का बीड़ा उठाने के लिए जिस विशेष जीव का नाम समाज में प्रसिद्ध है उसे या तो पत्रकार कहते हैं या साहित्यकार/व्यंग्यकार। ये दोनों ही अपनी जान को जोखिम में डालकर, लोगों की उपेक्षा, घृणा, अपमान और तिरस्कार का पुरस्कार पाकर भी अपने कार्यों को बखूबी अंजाम देते हैं। अब अगर कोई व्यंग्यकार के साथ-साथ पत्रकार भी हो तो यही कहना उचित होगा कि ‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’। यह एक कहावत है पर हम सभी आज इस तथ्य से अवगत हैं कि करेला और नीम हमारे लिए एक विशिष्ट औषधि हैं, यह स्वभाव से भले ही कड़वे लगें पर अन्तोगत्वा हमारे लिए बेहद लाभप्रद/संजीवनी हैं। हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ बरसों में करेले का जूस पिला-पिला कर एक बाबा खूब प्रसिद्ध हुए हैं और नीम की प्रसिद्धि का आलम तो यह है कि आज बाज़ार में साबुन, तेल, टूथपेस्ट आदि तक में नीम देखा/सुना जाता है। 
खैर, हमारा उद्देश्य यहाँ इनकी किसी प्रोडक्ट के प्रचार का नहीं है बल्कि हम तो आज आपको इस नीम और करेले की संजीवनी का दर्शन लिए सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार/पत्रकार श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव के दो व्यंग्य-संग्रहों से रूबरू कराने के लिए उपस्थित हुए हैं। पेशे से पत्रकार, सम्पादक कुशलेन्द्र जी अत्यंत विनम्र, मिलनसार और कर्त्तव्यपरायण सामाजिक प्राणी हैं। प्रभु श्री राम कथा से इनका विशेष आत्मिक स्नेह/लगाव है। ‘राम वनगमन’ और ‘राम-भरत मिलाप’ पर नाट्य रूपांतरण की इनकी दो कृतियाँ प्रकाशित और बहुचर्चित हो प्रसिद्धि पा चुकी हैं। व्यंग्यकार के रूप में भी इनकी ख़ूब ख्याति है और इन्हें अनेकों सम्मान/पुरूस्कार प्राप्त हुए हैं पर इस सब के बावजूद उनकी सहजता, सरलता और आत्मीयता उन्हें और अधिक विशिष्ट और अद्वितीय बनाती है। वो भरत जैसा जीवन जीते हुए राम के जैसे साहसिक/वीरोचित कार्य-समाज की विद्रूपताओं का विनाश करने हेतु व्यंग्य के तीर-तुणीर लिए तत्पर दिखते हैं। कभी-कभी तो विश्वास ही नहीं होता कि इतना मृदुभाषी शख्स व्यंग्य लिख सकता है (‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना’)।







श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव के सद्यः प्रकाशित दो व्यंग्य-संग्रह-‘साहब परेशान हैं’ और ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’ हमारे सम्मुख उपस्थित हैं। उनके व्यंग्यों से गुज़रते हुए हमें यह विशिष्ट अनुभव हुआ कि तीर जैसे चुभने वाले व्यंग्य को भी इतनी मीठी चाशनी में पेश किया जा सकता है (जलेबी भी तो टेढ़ी होने के बावजूद मीठी ही होती है न!) और व्यंग्य की रणभूमि में कहीं भी और किसी भी विषय पर लिखते हुए प्रेम की कथा ठीक वैसे ही बुनी जा सकती है जैसे सुप्रसिद्ध साहित्यकार लिओ टॉलस्टॉय ने अपने विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास ‘वार एन्ड पीस’ में बुनी थी। यहाँ ‘साहब परेशान हैं’ संग्रह में इसका जीवंत उदाहरण है ‘स्वच्छता अभियान पर लिखा व्यंग्य ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’। कलुआ बाई अपनी छोटी बहन मुनिया बाई के साथ रोज सुबह-शाम आम आदमी के लिए आवश्यक दिनचर्या को पूर्णता की और ले जाने के लिए हाथ में लोटा लेकर गाँव के बाहर की और निकल जाया करती थी। कलुआ के साथ चौथी कक्षा तक पढ़ चुका रामलाल भी इसी समय अपने हाथ में लोटा लेकर निकलता था। ...यह क्रम उनका दो साल से निरंतर चलता आ रहा था। फ़िर एक दिन सरकार ने ऐलान कर दिया की अब हर घर में टॉयलेट यानी शौचालय बनेंगे। टॉयलेट एक प्रेमकथा का दूसरा हिस्सा यहाँ से आरंभ हुआ।...कलुआ उदास हो गई। टॉयलेट बन जाएगा तो वे फ़िर लोटा लेकर बाहर नहीं जा सकेंगे। उसे उदास देखकर रामलाल भी उदास हो गया। उस दिन तीनों उदासी के वातावरण में ही अपने-अपने लोटे का पानी विसर्जित कर वापस लौटे।...टॉयलेट का काम निपट गया। कलुआ और मुनिया का बाहर जाना बंद हो गया। इस कारण से रामलाल भी अपने घर में स्वच्छता अभियान को निपटाता रहा। ऐसा लगा कि ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ का दी एन्ड हो गया है। तभी तेज आँधी चली और पूरी ताकत से बरसात आरम्भ हो गई...घरों में रेत से बने शौचालय पानी में बह चुके थे...रेत नदी में जाकर मिल चुकी थी ‘नदी का पानी नदी में जाए’।...सारे बिल निकल चुके थे, बंदरबांट हो चुकी थी। बंदरबांट होते ही साहब ने अपना ट्रांसफर दूसरे जिले के शौचालय बनाने के लिए करा लिया था। मौसम खुल चुका था।  कलुआ खुश थी, मुनिया प्रसन्न थी...वो शाम होने का इंतज़ार कर रही थीं। शाम होते ही वे अपना लोटा लेकर बाहर जाती दिखीं, रामलाल भी उनके पीछे लोटा लिए चल रहा था...।
इसी तरह दूसरे व्यंग्य संग्रह ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’ में ‘चलो अंगूठा लगाएं’ का उल्लेख करना चाहेंगे। इस में लेखक ने वर्तमान परिवेश में अंगूठे की महत्ता पर बढ़िया से लिखा है। ‘मैया मोरी मैं नहीं अंगूठा देऊ...’ से इस लेख का आरम्भ हुआ है।...अंगूठा दिखाना अब ‘स्टेटस सिंबल बन गया है। एक अंगूठा दिखाओ बस समझ लो आपने वो सब कह दिया जो आप कहना चाह रहे थे...अंगूठा अब आम आदमी की पहचान हो गया। आधार कार्ड तभी बनेगा जब आपका स्वयं का अंगूठा होगा। एक अदद अंगूठे के बिना आपका बैंक खाता नहीं खुल सकता।...इतना बड़ा शरीर आपकी पहचान नहीं है एक जरा सा अंगूठा आपकी पहचान बन गया है। आप अंगूठा संभालकर रखने लगे हैं। आपकी नाक भले ही कट जाए पर अंगूठा नहीं कटना चाहिए। ‘ये अंगूठा मुझे दे दो ठाकुर...’। ‘नहीं! आप मेरी नाक ले लो पर अंगूठा नहीं दूँगा’।...आम लोगों से अपील की जाती है कि अपने-अपने अंगूठे को संभाल कर रखें, यही आपकी पहचान है, अंगूठा न होने की स्थिति में आप मृत मान लिए जाएंगे...।
यह तो एक छोटी-सी बानगी भर है क्योंकि स्थानाभाव के चलते यहाँ विस्तृत चर्चा कर पाना संभव नहीं है परन्तु हमें पूरा यकीन है कि आप जब इन दोनों व्यंग्य-संग्रहों के विविध विषयों पर लिखे व्यंग्यों से ख़ुद गुजरेंगे तो श्री कुशलेन्द्र जी की लेखनी के कायल हो जाएंगे। हमें विश्वास है कि उनके यह व्यंग्य-संग्रह साहित्य जगत् में सराहे जाएंगे और अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाएंगे। दोनों संग्रहों के आकर्षक मुखपृष्ठ तथा उत्कृष्ट कोटि के काग़ज़ और सुन्दर छपाई के लिए प्रकाशक ‘अनुराधा प्रकाशन’ साधुवाद के पात्र हैं। हम श्री कुशलेन्द्र जी को उनके अहर्निश सृजन-कर्म हेतु हार्दिक साधुवाद/बधाई और शुभकामनाएं देते हुए भविष्य में भी उनसे अन्य श्रेष्ठ कृतियों की अपेक्षा रखते हुए इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं।    
इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश


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व्यंग्य संग्रह – ‘साहब परेशान हैं’ और ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’
व्यंग्यकार - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
प्रकाशक  अनुराधा प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रत्येक का मूल्य: 150/-रूपये
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