गर्मी में ठंडा अहसास कराती माँ, जाड़े में कुनकुनी धूप बन जाती माँ...
इन्सान तो क्या देवता भी
आँचल में पले तेरे
है स्वर्ग इसी दुनिया में
क़दमों के तले तेरे
ममता ही लुटाये जिसके नयन, हो...
ममता ही लुटाये जिसके नयन
ऐसी कोई मूरत क्या होगी
ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत से
अलग
भगवान की सूरत क्या होगी, क्या होगी
पर इसकी ज़रूरत क्या होगी.......
फ़िल्म “दादी
माँ (1966)”
का
मजरूह सुलतानपुरी जी का लिखा, संगीतकार रोशन और गायक महेन्द्र
कपूर एवं मन्ना डे द्वारा स्वरबद्ध किया यह गीत हिन्दी सिनेमा में अपना अमूल्य
स्थान रखता है। आज भी इस गीत को सुनकर हमें अपनी माँ की याद आ जाती है।
अगर एक ही शब्द में सागर की कल्पना करनी हो तो
वो शब्द ‘माँ’
होगा-ईश्वर
का प्रतिरूप-चाहे वो जन्मदात्री हो या पालन करने वाली। यह माँ की विराटता है, अपनत्व है, ममता है कि हम जिसे भी दिल के क़रीब भीतर
तक महसूस करते हैं, आदर देते हैं उसको ‘माँ’ कहकर पुकारते हैं। चाहे वो धरती
माँ हों, गाय माता हों, भारत माता हों
या गंगा माँ, माँ नर्मदा, माँ शिप्रा,
माँ गोदावरी, माँ कावेरी..आदि। इतना ही नहीं,
यह अकारण ही नहीं रहा होगा कि हम प्रात: स्मरणीय देवियों (दुर्गा,
सरस्वती, लक्ष्मी, काली
आदि) को भी ‘माँ’ कहकर ही पुकारते हैं। इतना ही नहीं परमपिता
परमेश्वर से भी तो हम आरती गाते हुए यही कहते हैं-“मात-पिता तुम मेरे शरण गहूँ किसकी/तुम बिन और न दूजा आस करूं जिसकी...”। किसी का शेर है और हम उसे यहाँ “माँ” के लिए कहना चाहते हैं: जुबां पे नाम जो आए जुबान खुशबू दे/मैं उसको सोचूँ
तो सारा मकान खुशबू दे।
अब एक नज़र पाश्चात्य विद्वानों के मत पर भी डाल
लेते हैं। रुडयार्ड किपलिंग का मानना है, “God
could not be everywhere, and therefore he made mothers.” ( अर्थात् भगवान हर जगह नहीं हो सकता, और इसलिए उसने
माँ को बनाया)। अब्राहम लिंकन कहते हैं, “All that I am, or hope to be, I
owe to my angel mother.” (अर्थात् मैं आज जो कुछ भी हूँ, जो कुछ भी होऊंगा, इसके लिए मैं मेरी प्यारी माँ का
अहसानमंद हूँ)। रोबर्ट ब्राउनिंग लिखते हैं, “Motherhood: All love begins
and ends there.” (अर्थात् “मातृत्व: सभी
प्यार जहाँ शुरू और खत्म होते हैं”)। रूमी का मत है,
“We are born of love; Love is our mother.” (अर्थात् हम प्रेम से
पैदा हुए हैं, प्रेम हमारी माता है”)।
‘माँ’
की महिमा को गाते-गुनगुनाते आज हम आपको डॉ. अनिल चौधरी जी के मुक्तक संग्रह ‘ममता
के दीप’
के
महकते गुलाबों के गुलदस्ते से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। जहाँ शब्दों के पीछे छिपा
प्रेम/ममता/वात्सल्य और पीड़ा/सम्वेदना/चिन्तन मुखर हो उठते हैं। उनके मुक्तकों में
प्रेम है,
त्याग है, बलिदान है, कहीं
पीड़ा और व्यथा भी है,
आशा है, प्रत्याशा है...। प्रस्तुत मुक्तक संग्रह में
पावन रिश्तों की ख़ुशबू है, चन्दन की ख़ुशबू है, पावन मन की ख़ुशबू है, हमारे वतन की माटी की ख़ुशबू है।
उनके मुक्तकों से गुज़रते हुए हम इन तमाम ख़ुश्बुओं से अपने को सराबोर पाते हैं
और देर तक उसी में डूबे रह जाते हैं। आइये
अब हम आपको मुक्तकों के इस उपवन की भीनी-भीनी ख़ुशबू से रु-ब-रु कराने हेतु माँ
सरस्वती की वन्दना के साथ निमंत्रण देते हैं-‘नई डगर पर माँ तेरा अभिनंदन है/शत-शत बार तुझे माँ वीणा वन्दन है/हर मन को
उजला रखना शीतलता से/हर लेना संताप यहाँ जो क्रंदन है’।
![]() |
डॉ. अनिल चौधरी |
जन्म के पूर्व से ही माँ से हमारा एक अदृश्य
रिश्ता जुड़ जाता है। गर्भ से ही वो हमारा भरण-पोषण करती है और फ़िर जन्म लेने के
बाद भी हमें स्तनपान करा जीवन देती है। उसकी देखरेख, छत्रछाया
में ही हम पलते-बढ़ते हैं। इसी संदर्भ में यहाँ यह दोहे दृष्टव्य हैं: ‘सीने से तो दूध पिलाती है माता/आँखों से अमृत
बरसाती है माता/ममता बरसे उसके अंतस से केवल/यूँ ही श्रेष्ठ बतायी जाती है माता’, ‘धूप कभी यदि काया को
झुलसाती है/माँ की ममता साया सी बन जाती है/माँ कोई आघात नहीं सहने देती/हर संकट
की ढाल स्वयं बन जाती है’, ‘घुटनों के बल चलता बच्चा देख रही/उसकी कीड़ा में कल बीता देख रही/नाम
करेगा रोशन कल माँ बापू का/माँ बालक में कल का सपना देख रही’, ‘पहला पाठ सभी को माँ
सिखलाती है/जग से परिचय माँ ही तो करवाती है/संस्कार से भर देती है खाली मन/सत्य,
प्रेम का अर्थ हमें समझाती है’, ‘भूखे बच्चों को जब बहका देती/चन्दा को पूरी रोटी,
बदला देती/झूठी आशा देकर माँ कितना टूटी/फिर भी अपनी पीड़ाएँ झुठला
देती’, ‘उल्टा-सीधा
काम नहीं करने देती/बढ़ते पाँव नहीं पीछे धरने देती/क़दमों को माँ धीरज देती धीरे
से/मंजिल हो सुनसान नहीं डरने देती’।
माँ का प्रेम अद्भुत है, उसके बिना इस जीवन की कल्पना नहीं
की जा सकती-‘सीप बीच ज्यों सच्चा
मोती होती है माँ/इंद्रधनुष की रेखाओं सी होती है माँ/कितने ही किरदार सजाए माँ
जीती है/निर्मल गंगा-धारा जैसी होती है माँ’, ‘माँ ही जीवन की परिभाषा होती है/माँ ही जीवन की
अभिलाषा होती है/माँ के मन में तीनों लोक विराजे हैं/माँ ही जीवन की जिज्ञासा होती
है’, ‘माँ
में ही विज्ञान दिखाई देता है/माँ में ही ईमान दिखाई देता है/माँ के रूपों में
मंदिर है सजा हुआ/माँ में ही भगवान दिखाई देता है’। वो अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं-‘ऐसा इक संसार नहीं देखा मैंने/बिन फूलों का हार नहीं देखा मैंने/ममता का
मतलब ढूँढा जब जीवन में/माँ जैसा किरदार नहीं देखा मैंने’,
‘जिसने माँ का इक-इक सपना तोड़ा हो/जिसने
माँ का हाथ भँवर में छोड़ा हो/लेकिन फिर भी माँ को उसकी चिंता है/जिसने माँ को
तन्हा करके छोड़ा हो’, ‘माँ अंबर की एक धनक बन जाती है/माँ बिजली सी एक चमक बन जाती है/बच्चे चाहे
कैसे हो पर माँ अपनी/बच्चों खातिर एक दमक बन जाती है’। शायद उसकी इसी महानता की वजह से-‘सब धर्मों ने माँ का ही गुणगान किया/सब धर्मों ने माँ पर ही अभिमान
किया/देवों ने भी उच्च उसी को माना है/जीवन में जिसने माँ का सम्मान किया’। इसलिए वो सभी को समझाते हुए कहना चाहते हैं-‘बूढ़ी माँ को कोई उलझन मत देना/उसकी आँखों को
तुम चंदन मत देना/ग़र तुमने माँ की सेवा को छोड़ दिया/फिर अपने मस्तक को चंदन मत
देना’, ‘जिस पथ निकला, फैला हुआ कुहासा है/राहों पर भटकाती
घोर निराशा है/बिन ममता के ऐसी बाधा आयेगी/माँ है तो हर पथ पर जागी आशा है’, ‘माँ जब हमसे दूर
बहुत हो जायेगी/दूर तलक अँधियारा सा हो जायेगी/कौन उगायेगा सूरज इन पलकों पर/दूर
अगर आँखों से माँ हो जाएगी’।
तमाम जीवन पर दृष्टि डालते हुए उनका मन यही कह
उठता है-‘सरिता
में भी माँ का आँचल देखा है/लहरों में आँखों का काजल देखा है/फ़िर से बचपन वाली गोद
मुझे दे दो/गोदी ने ममता का बादल देखा है’, ‘माँ पर जितना लिक्खूँ उतना कम दिखता है/माँ का
रिश्ता मुझे स्वर्ग के सम दिखता है/माँ बेटी है, माँ बहिना
है, माँ बचपन है/माँ का रूप मुझे हर पल अनुपम दिखता है’, ‘बाहर आकर माँ की याद
सताती है/माँ की महिमा का एहसास कराती है/शाम ढले जब तन्हा मैं हो जाता हूँ/तन्हाई
माँ का मतलब बतलाती है’। और अंतत:
इतना सब कुछ कह लेने के बाद भी वो कह उठते हैं-‘माँ की ममता का कैसे मंजर लिक्खूँ/आसमान को कैसे मैं छप्पर लिक्खूँ/गागर
में सागर माँ ही भर सकती है/माँ बिन कैसे दीवारों को घर लिक्खूँ’, ‘माँ रामायण की चौपाई
लगती है/ममता की जीवित रूबाई लगती है/माँ के बोल शहद में डूबे होते हैं/माँ मुरली
की, एक शहनाई लगती है’।
इस सबके बावजूद यह हक़ीक़त है कि हमारे जीवन में
माँ के साथ-साथ पिता का स्थान भी महत्त्वपूर्ण होता है। यूँ भी हमारे समाज की
संरचना ही कुछ ऐसी है कि हम चाहे समानता की कितनी ही बात क्यों न करें पर बिना
पुरूष के स्त्री को जीवन जीने में तमाम चुनौतियों/परेशानियों का सामना करना पड़ता
है। मनोवैज्ञानिक आधार पर भी एक बच्चे के स्वस्थ विकास के लिए माता और पिता दोनों
की भूमिका अहम् मानी गई है। डॉ. अनिल ने भी अपनी पुस्तक में अंत में पिता की
भूमिका को अच्छे से समझते हुए शानदार मुक्तक दिये हैं-‘मैंने
खुद को तन्हाई में पाया अब/मात-पिता का दर्द समझ में आया अब/कैसी-कैसी क़ुरबानी दी
दोनों ने/बाप बना तू हर मंजर दुहराया अब’, ‘बारिश में छाता बनकर बापू आता/धूप किसी पर आये बरगद बन जाता/अपने सर पर
सारे मौसम रख लेता/पर्वत रस्ता रोके तो टकरा जाता’,
‘बापू जैसे ही बाहर से, घर आते/घर में शोर-शराबे बिल्कुल थम जाते/बापू का डर भी तो बहुत जरूरी
है/भय से बापू अनुशासन समझा पाते’, ‘बाहर से जो अड़ियल पर्वत जैसा था/बच्चों ने भी
जिसको पत्थर समझा था/लेकिन उसके दिल में कब किसने झाँका/जब देखा तो पाया, बापू शीशा था’। वो आगे
लिखते हैं-‘बाबू जी बाहर की पीड़ा
ढोते हैं/लेकिन घर आकर कितना खुश होते हैं?/बच्चों की
मुस्कान कहीं खो जाए ना/खुशियों के दाने आँखों में बोते हैं’, ‘पापा घर में होते तो
रोशन बिजली/उनकी बातें जैसे आँगन में तितली/पापा के साये में जब सिमटें लम्हे/सारी
दुनिया हो जाती उजली-उजली’, ‘पापा धीरे से समझाया करते हैं/थोड़ी-थोड़ी धूप
दिखाया करते हैं/बाहर की दुनिया में कैसे पाँव धरो/पापा हमको रोज़ बताया करते हैं’, ‘पापा बिन हर मंजिल
सूनी-सूनी है/पापा बिन हर राह कठिन पथरीली है/पापा बिन जीवन का लक्ष्य अधूरा
है/पापा बिन पलकों की छतरी गीली है’, ‘बापू का दिल सागर जैसा होता है/आँखों में संसार
अनोखा होता है/बच्चों की आशाओं, सपनों का बोझा/बापू अपने
कंधे पर ही ढोता है’।
बिटिया के प्रति भी उन्होंने विशेष रूप से कुछ
लिखा है-‘माँ
समझे बेटी की छोटी सी दुनिया/लाकर देती बेटी को नन्ही गुड़िया/बिटिया गुड्डे, गुड़ियों में खो जाती है/माँ लगती उसको जादू की इक पुड़िया’, ‘बाबुल के नैनो में
बसती है बेटी/बाबुल को माँ से भी प्यारी है बेटी/बेटी के मन में वह हिम्मत भरता
है/बाबुल रोता है जब रोती है बेटी’।
यह हक़ीक़त है कि माँ की ममता और पिता की क्षमता का अंदाज़ा लगा पाना असंभव है। यही
सोचते/समझते हुए वो कह उठते हैं-‘पापा
भी तो माँ के जैसा ही जीते/एक ज़माने भर की धूप वही पीते/माँ घर को देखे है,
पापा दुनिया को/घाव हमारे मिलकर दोनों ही सीते’, ‘मात-पिता बैलों की
जोड़ी बन जाते/बच्चों की सूखी धरती को सरसाते/जैसे बादल फसलों को पानी देता/वैसे
ही बच्चों की दुनिया चमकाते’। अच्छी
औलाद से माता-पिता का परिश्रम/जीवन सार्थक हो उठता है-‘घर भर की तस्वीर बदल जाती है/बच्चों की तक़दीर बदल जाती है/बच्चे मात-पिता
के आज्ञाकारी हों/किस्मत की ताबीर बदल जाती है’। इस सन्दर्भ में वो मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम को याद करते हुए
लिखते हैं-‘मात-पिता की आज्ञा में
श्रीराम ने भी वनवास किया/राजा होते भी सन्यासी जीवन सारा वास किया/इसीलिए तो राम
अमर हैं, जीवित है उनकी मर्यादा/मात-पिता को ही माना था वन
में ही मधुमास किया’।
अब इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम डॉ. अनिल
चौधरी जी को इस मुक्तक संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हैं। संग्रह का कवर पेज बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा
उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैं, जिसके लिए प्रकाशक ‘अविचल प्रकाशन’ साधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं कि साहित्य जगत् में उनके मुक्तक
संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। अब हम अपनी वाणी को उनके इस मुक्तक के साथ विराम
देते हैं:
मैं परदेसी, दूर हुई माँ, फिर भी साथ निभाती है,
विविध रूप धर मेरे सम्मुख, बार-बार आ जाती है;
मेरे
हाथों में दे
जाती,
परम लेखनी रचना
की-
गीत, ग़ज़ल, दोहे, चौपाई, कानों में कह जाती है।
इत्यलम्।।
सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)
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पुस्तक- ममता के दीप (मुक्तक संग्रह)
पुस्तक- ममता के दीप (मुक्तक संग्रह)
लेखक : डॉ.
अनिल चौधरी
प्रकाशक : अविचल
प्रकाशन, बिजनौर-246 701 (उ.प्र.)
मूल्य: 150/-रूपये, पृष्ठ-80
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