Monday, 16 March 2020

मात-पिता तुम मेरे शरण गहूँ किसकी...




गर्मी में ठंडा अहसास कराती माँ, जाड़े में कुनकुनी धूप बन जाती माँ...



               इन्सान तो क्या देवता भी
               आँचल में पले तेरे
               है स्वर्ग इसी दुनिया में
               क़दमों के तले तेरे
               ममता ही लुटाये जिसके नयन, हो...
               ममता ही लुटाये जिसके नयन
               ऐसी कोई मूरत क्या होगी
               ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग
               भगवान की सूरत क्या होगी, क्या होगी
               पर इसकी ज़रूरत क्या होगी.......
फ़िल्म दादी माँ (1966)का मजरूह सुलतानपुरी जी का लिखा, संगीतकार रोशन और गायक महेन्द्र कपूर एवं मन्ना डे द्वारा स्वरबद्ध किया यह गीत हिन्दी सिनेमा में अपना अमूल्य स्थान रखता है। आज भी इस गीत को सुनकर हमें अपनी माँ की याद आ जाती है।     
अगर एक ही शब्द में सागर की कल्पना करनी हो तो वो शब्द माँहोगा-ईश्वर का प्रतिरूप-चाहे वो जन्मदात्री हो या पालन करने वाली। यह माँ की विराटता है, अपनत्व है, ममता है कि हम जिसे भी दिल के क़रीब भीतर तक महसूस करते हैं, आदर देते हैं उसको माँकहकर  पुकारते हैं। चाहे वो धरती माँ हों, गाय माता हों, भारत माता हों या गंगा माँ, माँ नर्मदा, माँ शिप्रा, माँ गोदावरी, माँ कावेरी..आदि। इतना ही नहीं, यह अकारण ही नहीं रहा होगा कि हम प्रात: स्मरणीय देवियों (दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि) को भी माँकहकर ही पुकारते हैं। इतना ही नहीं परमपिता परमेश्वर से भी तो हम आरती गाते हुए यही कहते हैं-मात-पिता तुम मेरे शरण गहूँ किसकी/तुम बिन और न दूजा आस करूं जिसकी...।    किसी का शेर है और हम उसे यहाँ माँके लिए कहना चाहते हैं: जुबां पे नाम जो आए जुबान खुशबू दे/मैं उसको सोचूँ तो सारा मकान खुशबू दे।
अब एक नज़र पाश्चात्य विद्वानों के मत पर भी डाल लेते हैं। रुडयार्ड किपलिंग का मानना है, God could not be everywhere, and therefore he made mothers.” ( अर्थात् भगवान हर जगह नहीं हो सकता, और इसलिए उसने माँ को बनाया)। अब्राहम लिंकन कहते हैं, “All that I am, or hope to be, I owe to my angel mother.” (अर्थात् मैं आज जो कुछ भी हूँ, जो कुछ भी होऊंगा, इसके लिए मैं मेरी प्यारी माँ का अहसानमंद हूँ)। रोबर्ट ब्राउनिंग लिखते हैं, “Motherhood: All love begins and ends there.” (अर्थात् मातृत्व: सभी प्यार जहाँ शुरू और खत्म होते हैं”)। रूमी का मत है, “We are born of love; Love is our mother.” (अर्थात् हम प्रेम से पैदा हुए हैं, प्रेम हमारी माता है”)
माँ की महिमा को गाते-गुनगुनाते आज हम आपको डॉ. अनिल चौधरी जी के मुक्तक संग्रह ममता के दीपके महकते गुलाबों के गुलदस्ते से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। जहाँ शब्दों के पीछे छिपा प्रेम/ममता/वात्सल्य और पीड़ा/सम्वेदना/चिन्तन मुखर हो उठते हैं। उनके मुक्तकों में प्रेम है, त्याग है, बलिदान है, कहीं पीड़ा और व्यथा भी है,  आशा है, प्रत्याशा है...। प्रस्तुत मुक्तक संग्रह में पावन रिश्तों की ख़ुशबू है, चन्दन की ख़ुशबू है, पावन मन की ख़ुशबू है, हमारे वतन की माटी की ख़ुशबू है। उनके मुक्तकों से गुज़रते हुए हम इन तमाम ख़ुश्बुओं से अपने को सराबोर पाते हैं और  देर तक उसी में डूबे रह जाते हैं। आइये अब हम आपको मुक्तकों के इस उपवन की भीनी-भीनी ख़ुशबू से रु-ब-रु कराने हेतु माँ सरस्वती की वन्दना के साथ निमंत्रण देते हैं-नई डगर पर माँ तेरा अभिनंदन है/शत-शत बार तुझे माँ वीणा वन्दन है/हर मन को उजला रखना शीतलता से/हर लेना संताप यहाँ जो क्रंदन है





डॉ. अनिल चौधरी 














जन्म के पूर्व से ही माँ से हमारा एक अदृश्य रिश्ता जुड़ जाता है। गर्भ से ही वो हमारा भरण-पोषण करती है और फ़िर जन्म लेने के बाद भी हमें स्तनपान करा जीवन देती है। उसकी देखरेख, छत्रछाया में ही हम पलते-बढ़ते हैं। इसी संदर्भ में यहाँ यह दोहे दृष्टव्य हैं: सीने से तो दूध पिलाती है माता/आँखों से अमृत बरसाती है माता/ममता बरसे उसके अंतस से केवल/यूँ ही श्रेष्ठ बतायी जाती है माता, धूप कभी यदि काया को झुलसाती है/माँ की ममता साया सी बन जाती है/माँ कोई आघात नहीं सहने देती/हर संकट की ढाल स्वयं बन जाती है, घुटनों के बल चलता बच्चा देख रही/उसकी कीड़ा में कल बीता देख रही/नाम करेगा रोशन कल माँ बापू का/माँ बालक में कल का सपना देख रही, पहला पाठ सभी को माँ सिखलाती है/जग से परिचय माँ ही तो करवाती है/संस्कार से भर देती है खाली मन/सत्य, प्रेम का अर्थ हमें समझाती है, भूखे बच्चों को जब बहका देती/चन्दा को पूरी रोटी, बदला देती/झूठी आशा देकर माँ कितना टूटी/फिर भी अपनी पीड़ाएँ झुठला देती, उल्टा-सीधा काम नहीं करने देती/बढ़ते पाँव नहीं पीछे धरने देती/क़दमों को माँ धीरज देती धीरे से/मंजिल हो सुनसान नहीं डरने देती। माँ का प्रेम अद्भुत है, उसके बिना इस जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती-सीप बीच ज्यों सच्चा मोती होती है माँ/इंद्रधनुष की रेखाओं सी होती है माँ/कितने ही किरदार सजाए माँ जीती है/निर्मल गंगा-धारा जैसी होती है माँ, माँ ही जीवन की परिभाषा होती है/माँ ही जीवन की अभिलाषा होती है/माँ के मन में तीनों लोक विराजे हैं/माँ ही जीवन की जिज्ञासा होती है, माँ में ही विज्ञान दिखाई देता है/माँ में ही ईमान दिखाई देता है/माँ के रूपों में मंदिर है सजा हुआ/माँ में ही भगवान दिखाई देता है। वो अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं-ऐसा इक संसार नहीं देखा मैंने/बिन फूलों का हार नहीं देखा मैंने/ममता का मतलब ढूँढा जब जीवन में/माँ जैसा किरदार नहीं देखा मैंने, जिसने माँ का इक-इक सपना तोड़ा हो/जिसने माँ का हाथ भँवर में छोड़ा हो/लेकिन फिर भी माँ को उसकी चिंता है/जिसने माँ को तन्हा करके छोड़ा हो, माँ अंबर की एक धनक बन जाती है/माँ बिजली सी एक चमक बन जाती है/बच्चे चाहे कैसे हो पर माँ अपनी/बच्चों खातिर एक दमक बन जाती है। शायद उसकी इसी महानता की वजह से-सब धर्मों ने माँ का ही गुणगान किया/सब धर्मों ने माँ पर ही अभिमान किया/देवों ने भी उच्च उसी को माना है/जीवन में जिसने माँ का सम्मान किया। इसलिए वो सभी को समझाते हुए कहना चाहते हैं-बूढ़ी माँ को कोई उलझन मत देना/उसकी आँखों को तुम चंदन मत देना/ग़र तुमने माँ की सेवा को छोड़ दिया/फिर अपने मस्तक को चंदन मत देना, जिस पथ निकला, फैला हुआ कुहासा है/राहों पर भटकाती घोर निराशा है/बिन ममता के ऐसी बाधा आयेगी/माँ है तो हर पथ पर जागी आशा है, माँ जब हमसे दूर बहुत हो जायेगी/दूर तलक अँधियारा सा हो जायेगी/कौन उगायेगा सूरज इन पलकों पर/दूर अगर आँखों से माँ हो जाएगी
तमाम जीवन पर दृष्टि डालते हुए उनका मन यही कह उठता है-सरिता में भी माँ का आँचल देखा है/लहरों में आँखों का काजल देखा है/फ़िर से बचपन वाली गोद मुझे दे दो/गोदी ने ममता का बादल देखा है, माँ पर जितना लिक्खूँ उतना कम दिखता है/माँ का रिश्ता मुझे स्वर्ग के सम दिखता है/माँ बेटी है, माँ बहिना है, माँ बचपन है/माँ का रूप मुझे हर पल अनुपम दिखता है, बाहर आकर माँ की याद सताती है/माँ की महिमा का एहसास कराती है/शाम ढले जब तन्हा मैं हो जाता हूँ/तन्हाई माँ का मतलब बतलाती है। और अंतत: इतना सब कुछ कह लेने के बाद भी वो कह उठते हैं-माँ की ममता का कैसे मंजर लिक्खूँ/आसमान को कैसे मैं छप्पर लिक्खूँ/गागर में सागर माँ ही भर सकती है/माँ बिन कैसे दीवारों को घर लिक्खूँ, माँ रामायण की चौपाई लगती है/ममता की जीवित रूबाई लगती है/माँ के बोल शहद में डूबे होते हैं/माँ मुरली की, एक शहनाई लगती है
इस सबके बावजूद यह हक़ीक़त है कि हमारे जीवन में माँ के साथ-साथ पिता का स्थान भी महत्त्वपूर्ण होता है। यूँ भी हमारे समाज की संरचना ही कुछ ऐसी है कि हम चाहे समानता की कितनी ही बात क्यों न करें पर बिना पुरूष के स्त्री को जीवन जीने में तमाम चुनौतियों/परेशानियों का सामना करना पड़ता है। मनोवैज्ञानिक आधार पर भी एक बच्चे के स्वस्थ विकास के लिए माता और पिता दोनों की भूमिका अहम् मानी गई है। डॉ. अनिल ने भी अपनी पुस्तक में अंत में पिता की भूमिका को अच्छे से समझते हुए शानदार मुक्तक दिये हैं-मैंने खुद को तन्हाई में पाया अब/मात-पिता का दर्द समझ में आया अब/कैसी-कैसी क़ुरबानी दी दोनों ने/बाप बना तू हर मंजर दुहराया अब, ‘बारिश में छाता बनकर बापू आता/धूप किसी पर आये बरगद बन जाता/अपने सर पर सारे मौसम रख लेता/पर्वत रस्ता रोके तो टकरा जाता, बापू जैसे ही बाहर से, घर आते/घर में शोर-शराबे बिल्कुल थम जाते/बापू का डर भी तो बहुत जरूरी है/भय से बापू अनुशासन समझा पाते, बाहर से जो अड़ियल पर्वत जैसा था/बच्चों ने भी जिसको पत्थर समझा था/लेकिन उसके दिल में कब किसने झाँका/जब देखा तो पाया, बापू शीशा था। वो आगे लिखते हैं-बाबू जी बाहर की पीड़ा ढोते हैं/लेकिन घर आकर कितना खुश होते हैं?/बच्चों की मुस्कान कहीं खो जाए ना/खुशियों के दाने आँखों में बोते हैं, पापा घर में होते तो रोशन बिजली/उनकी बातें जैसे आँगन में तितली/पापा के साये में जब सिमटें लम्हे/सारी दुनिया हो जाती उजली-उजली, पापा धीरे से समझाया करते हैं/थोड़ी-थोड़ी धूप दिखाया करते हैं/बाहर की दुनिया में कैसे पाँव धरो/पापा हमको रोज़ बताया करते हैं, पापा बिन हर मंजिल सूनी-सूनी है/पापा बिन हर राह कठिन पथरीली है/पापा बिन जीवन का लक्ष्य अधूरा है/पापा बिन पलकों की छतरी गीली है, बापू का दिल सागर जैसा होता है/आँखों में संसार अनोखा होता है/बच्चों की आशाओं, सपनों का बोझा/बापू अपने कंधे पर ही ढोता है
बिटिया के प्रति भी उन्होंने विशेष रूप से कुछ लिखा है-माँ समझे बेटी की छोटी सी दुनिया/लाकर देती बेटी को नन्ही गुड़िया/बिटिया गुड्डे, गुड़ियों में खो जाती है/माँ लगती उसको जादू की इक पुड़िया, बाबुल के नैनो में बसती है बेटी/बाबुल को माँ से भी प्यारी है बेटी/बेटी के मन में वह हिम्मत भरता है/बाबुल रोता है जब रोती है बेटी। यह हक़ीक़त है कि माँ की ममता और पिता की क्षमता का अंदाज़ा लगा पाना असंभव है। यही सोचते/समझते हुए वो कह उठते हैं-पापा भी तो माँ के जैसा ही जीते/एक ज़माने भर की धूप वही पीते/माँ घर को देखे है, पापा दुनिया को/घाव हमारे मिलकर दोनों ही सीते, मात-पिता बैलों की जोड़ी बन जाते/बच्चों की सूखी धरती को सरसाते/जैसे बादल फसलों को पानी देता/वैसे ही बच्चों की दुनिया चमकाते। अच्छी औलाद से माता-पिता का परिश्रम/जीवन सार्थक हो उठता है-घर भर की तस्वीर बदल जाती है/बच्चों की तक़दीर बदल जाती है/बच्चे मात-पिता के आज्ञाकारी हों/किस्मत की ताबीर बदल जाती है। इस सन्दर्भ में वो मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम को याद करते हुए लिखते हैं-मात-पिता की आज्ञा में श्रीराम ने भी वनवास किया/राजा होते भी सन्यासी जीवन सारा वास किया/इसीलिए तो राम अमर हैं, जीवित है उनकी मर्यादा/मात-पिता को ही माना था वन में ही मधुमास किया
अब इस चर्चा को यहीं पर समेटते हुए हम डॉ. अनिल चौधरी जी को इस मुक्तक संग्रह के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हैं। संग्रह का कवर पेज बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैंजिसके लिए प्रकाशक अविचल प्रकाशनसाधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं कि साहित्य जगत् में उनके मुक्तक संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। अब हम अपनी वाणी को उनके इस मुक्तक के साथ विराम देते हैं:
       मैं परदेसी, दूर  हुई माँ, फिर  भी साथ निभाती है,
       विविध रूप धर मेरे सम्मुख, बार-बार आ जाती है;
       मेरे  हाथों में  दे  जाती, परम  लेखनी  रचना  की-
       गीत,  ग़ज़ल,  दोहे, चौपाई, कानों में कह जाती है।


इत्यलम्।।



सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश



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पुस्तक- ममता के दीप (मुक्तक संग्रह)
लेखक :  डॉ. अनिल चौधरी
प्रकाशक : अविचल प्रकाशन, बिजनौर-246 701 (उ.प्र.)
मूल्य: 150/-रूपये, पृष्ठ-80
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Sunday, 15 March 2020

वर्तमान परिवेश को चित्रित करता दोहा-संग्रह ‘दोहों की बारात’




मुसलमान गीता पढ़ें, हिन्दू वाचै कुरान। सारा जग दिल से कहे, भारत देश महान।।



आज के इस माहौल में जब सम्वेदनाएं लुप्त-प्राय: होती दिख रही हैं और अपनत्व, प्रेम, विश्वास को स्वार्थ, घृणा और छल-कपट लीलते जा रहे हैं, ऐसे परिवेश में लेखक को अत्यंत सजग रहकर लिखने की आवश्यकता  है। जो समाज को, इस देश को और उसकी नौजवान पीढ़ी को अपनी संस्कृति और संस्कार की रक्षा करते हुए वक्त के साथ कन्धा मिलाकर सही दिशा में चलना सिखा सकें। हमें अपार प्रसन्नता है कि उन तमाम लेखकों/कवियों में श्री देवराज काला जी का सृजन-कार्य इन मायनों में रेखांकित किये जाने योग्य है, जो अपनी लेखनी के माध्यम से इस ज़िम्मेदारी के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। शिक्षा विभाग, हिमाचल प्रदेश से कला अध्यापक के पद से 2007 में सेवानिवृत हुए, साहित्य और कला में विशिष्ट रूचि और दखल रखने वाले, देवराज काला जी अब अपने पूरे परिवार के संग लेखकों की प्रिय और अत्यंत रमणीय नगरी देहरादून में स्थायी रूप से निवास कर साहित्य-कला-सृजन-कर्म में साधनारत हैं। वहाँ का अनन्यतम प्राकृतिक सौंदर्य उनके काव्य-कला-सौंदर्य में चार चाँद लगाने का पुनीत कार्य करता है, जिसका प्रमाण स्पष्ट रूप से उनके चित्रों और साहित्य में देखा जा सकता है।
आज हम आपको देवराज काला जी के दोहा-संकलन ‘दोहों की बारात’ से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। दोहा प्राचीन काल से कवियों का प्रिय छंद रहा है। हिंदी साहित्य में दोहे की उपस्थिति सदैव बनी रही है। दोहा मुक्तक काव्य का प्रधान छंद है। यह तीखी भावव्यंजना, शब्द विन्यास और प्रभावशाली लघु चित्रों को प्रस्तुत करने की अपूर्व क्षमता लिए होता है। विद्वजनों की खोज के अनुसार कालिदास रचित नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम’ में अपभ्रंश में इस छंद का प्राचीनतम प्रयोग मिलता है। तदोपरान्त सातवीं शताब्दी में सिद्ध कवि ‘सरहपा’ ने इसका प्रयोग  किया। आगे चलकर सूरदास और मीरा ने अपने पदों में इसका प्रयोग किया है। सतसई साहित्य के अतिरिक्त भक्ति युग में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस और मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत कथा में इसका प्रयोग किया है। अमीर खुसरो ने दोहे को प्रेम और आध्यात्मिकता का आधार बनाया और गुरुनानक देव जी ने भी अपनी साधना में दोहे को सँजोया। कबीरदास ने दोहों को गाँव-गाँव की गली-चौपाल तक पहुँचाया। उन्होंने जीवन की तमाम विषमताओं, खोखले रीति-रिवाज़ और आडम्बरों पर अपने दोहों के माध्यम से कड़ा प्रहार कर आम आदमी की चेतना को जगाने का प्रयास किया। अब्दुलरहीम खानखाना (रहीम) के दोहों को भी खूब लोकप्रियता मिली। एक-एक दोहे में गागर में सागर की तरह गंभीर अर्थ और अनुभव समेटे कबीर और रहीम के दोहे आज भी हमें कंठस्थ हैं और हम अक्सर उनका उपयोग दैनिक जीवन में वार्तालाप तक में करते हैं। बिहारी ने दोहों की लोकप्रियता में चार-चाँद लगा दिये- ‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर/देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’। कहा जाता है कि जयपुर के महाराजा जयसिंह के दरबार में बिहारी जी को एक दोहे पर एक स्वर्ण मुद्रा पुरस्कार स्वरूप दी जाती थी (वाह! इसे कहते हैं कवि के लिए स्वर्णिम युग!)। बिहारी जी के इस दोहे ने-‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहीं विकास इहि काल/अली कली सौं हौं बिंध्यौं, आगे कौन हवाल’-महाराज के जीवन की दशा और दिशा को बदल दिया था।  अत: संक्षेप में बिना किसी तर्क के यह कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में दोहा सदा लोकप्रिय छंद रहा है। शायद यही वजह है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी दोहाकारों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पुरानी परम्परा से हटकर आज के तमाम कवि अपने समय, परिवेश में आये बदलाव का चित्रण बड़ी कुशलता के साथ अपने दोहों के माध्यम से कर रहे हैं। आज हर पत्र-पत्रिका में दोहे प्रकाशित हो रहे हैं और इस भागमभाग वाली जिन्दगी में भी दोहे को भरपूर स्नेह मिल रहा है। चलिए अब इस माहौल में आपको ‘दोहों की बारात’ में ले चलते हैं।



आज हम सब भविष्य की चिंता किए बगैर अपने स्वार्थ में अंधे होकर अपने व्यवसायिक फ़ायदे में लगे हैं। नदियों से अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर बस्तियाँ और शहर बसाना हो या बालिका-भ्रूण हत्याएं, सब कुछ पर कवि के आहत मन के यह दोहे यहाँ दृष्टव्य हैं-‘पृथ्वी उपग्रह का हमें, करना है उपचार/पर्यावरण अति शुद्ध हो, पर्वत हो निर्भार’, ‘प्रदूषण के प्रभाव से, कंपित हुए पहाड़/भू-स्खलन होने लगा, शासन करे जुगाड़’, ‘प्रेमाकुल कल-कल नदी, पहुंची सागर तीर/कहे समंदर मत पास आ, तेरा गंदा नीर’, ‘नारी करुण पुकार है, नारी प्रणय की धार/नारी ही है सृष्टि का, प्रथम सुमन उपहार’। इंटरनेट के युग में आज हम अपने परिवार से, स्वजनों से कहीं दूर होते जा रहे हैं। आज के परिवेश में ये दोहे दृष्टव्य हैं-‘इन दोहों में भेद है, ज्यों जीवन में भेद/सम्बन्धों में छेद है, ज्यों छलनी में छेद’, ‘होते वाद-विवाद हैं, बनते नहीं सम्वाद/अपनापन ना हो जहाँ, प्रेम प्यार अपवाद’। देवराज जी खेतों की हरियाली, गाँव, पुष्प, प्रेम आदि को भुला नहीं पाते और बासन्ती ऋतु में गाँव की पुरानी स्मृति आज भी उनके हृदय में हूक पैदा करती है-‘कुहु कुहु कूके कोकिला, आयी मदन बहार/कली सपन में देखती, डोली और कहार’, ‘ऋतू बासन्ती आ गयी, दहके देह पलाश/प्रीतम से मिलने चली, मन में लिये हुलास’।
शहरी जीवन की मृत/कृत्रिम संवेदनाएँ, मुखौटे लगाकर जीने की विवशता और आज की पुस्तक-शिक्षा से वो संतुष्ट नहीं दिखते-‘पोथी पढ़ने से यहाँ, मिल पाता कुछ ज्ञान/मानव तन के वेश में, होते ना शैतान’। रीति/रिवाजों, परम्पराओं और धर्म के नाम पर दैहिक/मानसिक/आर्थिक शोषण के किस्से आज हर तरफ़ सुनने को मिलते रहते हैं। इसी सन्दर्भ में हम उनके कुछ दोहों का यहाँ उल्लेख करना चाहेंगे-‘पण्डित मुल्ला पादरी, धर्म के ठेकेदार/करें धर्म के नाम पे, नफ़रत का व्यापार’, ‘सभी नशे मैंने किये, सबका मस्त सुवाद/धर्म भयंकर है नशा, उकसाता ज़ेहाद’, ‘दया-धर्म के नाम पे, होती लूट खसोट/धर्म भीरु लुट के सुखी, नहीं खोलते होंठ’, ‘नारी को मिलते रहे, सदियों से बाज़ार/तीनों मुद्दे आज भी, धोखा नफ़रत प्यार’।
संक्षेप में, कहने का तात्पर्य यही है कि उन्होंने अपनी सजग और सचेतन दृष्टि से राजनैतिक परिवेश से लेकर शिक्षा, समाज, संस्कृति, संस्कार और आदर्शों/मूल्यों पर अपनी कलम धारदार और पैने ढंग से बखूबी चलायी है, जो उनके दोहों को अपनी पहचान देने में पूर्ण रूप से सक्षम है। हमें विश्वाश है कि श्री देवराज काला जी के इस दोहा-संग्रह का हिंदी साहित्य जगत् में भरपूर स्वागत होगा। उनके सृजन-कर्म हेतु हम उन्हें सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को इन दोहों के संग विराम देते हैं:
                 वरिष्ठ जन अरू नार का, करो सदा सम्मान
                 इनके कारण ही मिले, हर घर को पहचान
                                         ***
                 पेड़ लगाकर तुम करो, प्रकृति का श्रृंगार
                 नदिया पोखर ताल हैं, जीवन का आधार

इति शुभम्।।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश


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पुस्तक- दोहों की बारात (दोहा-संग्रह)
लेखक :  देवराज काला
प्रकाशक : उद्योग नगर प्रकाशनगाज़ियाबाद (उ.प्र.)
मूल्य: 250/- रुपये

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Friday, 13 March 2020

आरती में और होंगे थाल में उनको सजाओ, मैं दिया पगडंडियों का मुझे पथ में ही जलाओ




  
चाँदनी के दौर में मैं धूप पर लिखता रहा...



नवगीत की औपचारिक शुरुआत नयी कविता के दौर में उसके समानांतर मानी जाती है। हालाँकि, इसकी स्थापना से पहले महाकवि निराला के बहुत सारे गीत नवगीत हैं। नवगीत समय के सापेक्ष चल उसकी हर चुनौती को स्वीकार करता है। नवगीत रचने में सकारात्मक सोच लिए कुछ प्रभावशाली और नए ढंग से, वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए, नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करते हुए तुकान्त की जगह लयात्मकता और गेयता को अधिक प्रमुखता दी जाती है। इसमें संस्कृति व लोकतत्व का समावेश होना आवश्यक है। यद्यपि इसे छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है तदापि लयात्मकता और गेयता का निर्वाह पूरे नवगीत में होना आवश्यक है। डा. मोहन अवस्थी के अनुसार-“नवगीत एक यौगिक शब्द है जिसमें नव (नयी कविता) और गीत (गीत विधा) का समावेश है”। नवगीत अब समकालीन गीत के सफ़र की ओर अग्रसर है। आज हम आपको इसी सफ़र के एक यात्री श्री जयकृष्ण राय तुषार जी के गीत-नवगीत संग्रह कुछ फूलों के कुछ मौसम के’ से रू-ब-रू करा रहे हैं। संग्रह के फ्लैप पर संस्कृत के विद्वान डॉ. राम विनय सिंह जी (एसोसिएट प्रोफ़ेसर) ने ‘विमुक्तिबीजं परं गीतम्’ के अंतर्गत ‘गीत’ की चिरन्तन चेतना/यात्रा को सुन्दर वाणी दी है। 
















चलिए, बिना किसी अतिरिक्त भूमिका के अब हम आपको तुषार जी के इस ‘कुछ फूलों के कुछ मौसम के’ गीतों के उपवन में लेकर चलते हैं। प्रेयसी/प्रियतमा काव्य लेखन के लिए सदा से प्रिय विषय रही है। तुषार जी लिखते हैं-‘तुमसे ही/कविता में लय है/जीवन में संवाद है/यह वसंत भी/प्रिये! तुम्हारे/अधरों का अनुवाद है...’। इसी अनुवाद के क्रम में वो उसकी प्रशंसा कुछ यूँ करते हैं-‘लहरों पर/जलते दीपों की/लौ तेरी आँखें/तुम्हें देख/झुक जातीं फूलों की/कोमल शाखें/तुम्हें लिखूँ/उर्वशी, मेनका/या लिख दूँ आसिन/कुछ फूलों के/कुछ मौसम के/रंग नहीं अनगिन/तुम्हें देखकर/बदला करतीं/उपमाएँ पल-छिन’। कहने को इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है पर ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा...’। सो सबसे पहले हम बात करते हैं उस अन्नदाता की, जो दिन-रात खेत में मेहनत कर प्राणों से प्यारी फ़सल उगाता है-‘बहुत/मुश्किल से/हवा में लहलहाते धान/ये नहीं हैं/धान/प्यारे ये हमारे प्रान!/ जोंक पाँवों में/लिपटकर/पीती रही खून/खुरपियों से/उँगलियाँ काटी/बढ़े नाखून/गाल में/बस एक बीड़ा/रहा दिन भर पान!/सिर्फ़ अपना/हौंसला है/खेत-क्यारी में/बीज-पानी/उर्वरक/सब कुछ उधारी में/पर्व होली का/इसी से/इसी से रमज़ान’। यह दुखद ही कहा जाएगा कि किसानों की कठिन ज़िन्दगी उन्हें दो वक़्त का ठीक से भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाती-‘हम किसान हैं/कठिन ज़िन्दगी/फ़िर भी हर मौसम में गाते/धूप-छाँह से/नदी-पहाड़ों से/हैं अपने रिश्ते-नाते/सूखे खेत/बरसना मेघों/हमको नहीं अकाल चाहिए/हम किसान/बुनकर के वंशज/हमको रोटी-दाल चाहिए/हमें चाँदनी चौक/मुम्बई और/नहीं भोपाल चाहिए’। आज आए दिन हम किसानों की आत्महत्या की ख़बरें अख़बार में पढ़ते रहते हैं-‘अन्नदाता/आपदा की/जंग में हारे/प्यास से/व्याकुल रहे/कुछ भूख के मारे/इन्द्र प्रमुदित/बिना जल के/मेघ घेरे में/ सूर्य तो/उगता रहा हर दिन/मगर कुछ/वन फूल/अब भी हैं अँधेरे में’।
यह हक़ीकत है कि प्रगति के नाम पर हम दिन-प्रतिदिन यांत्रिक होते चले गए। आज फ़ेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर, इन्सटाग्राम आदि का उपयोग करते-करते हम भले ही विश्व से जुड़ने का दावा करें पर यह कड़वा सत्य है कि हम अपनों से कटकर ख़ुद में सिमटते जा रहे हैं। इसी व्यथा को महसूस करती ये पंक्तियाँ देखिए-‘ यंत्रवत/होने लगे/संवेदना के स्वर/मौन-सा रहने लगा है/कहकहों का घर/कैद हैं/हम आधुनिकता के/प्रभावों में/फूल तो/हैं किन्तु/बासीपन हवाओं में/लिख रहे/मौसम/सुहाना हम कथाओं में...’, और ‘कहकहे/दालान के चुप/मौन हँसता, मौन गाता/सभी हैं, माँ-पिता/ताऊ, बहन/भाभी और भ्राता/सभी घर/वातानुकूलित/मगर रिश्तों में गलन है/अज़नबी की/तरह घर के लोग/ये कैसा चलन है/हम कहाँ पर/खड़े हैं ऐ/सभ्यता तुझको नमन है!’ शायद इसीलिए वो नये साल से यह कहते हैं-‘रिश्तों को/धार मिले/कहकहे दालान को/गहगहे गुलाब मिलें/मुरझाते लॉन को/बच्चों को/परीकथा/तितली, इतवार मिले/बड़ों को/प्रणाम कहे/छोटों को प्यार मिले/नये साल/आना तो/सबको उपहार मिले’।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ की संस्कृति और नारी को बराबर का हक़ देने की बात करने वाले इस देश में आज नारी शोषण का जो अमानवीय दौर चल रहा है, उस पर व्यथित हो कवि का यह लिखना स्वाभाविक है-‘हरे वन की/चाह में फ़िर/पंख चिड़ियों के जले हैं/यहाँ ऋतुएँ हैं तिलस्मी/और मौसम दोगले हैं’ और ‘कलमुँहे दिन/बेटियों के लिए/कब मंगल हुए/सभ्यता/किस अर्थ की/यदि ये शहर जंगल हुए/फूल की/हर शाख/काँटों से लदी होगी/औरतें होंगी/तभी तो/यह सदी होगी/हिमशिखर/होंगे तभी/उजली नदी होगी...’। वो नारी को आह्वान करते हुए कहते हैं-‘अबला नारी/एक मिथक है/इसी मिथक को तोड़ो/अपनी शर्तों पर/समाज से/रिश्ता-नाता जोड़ो/रिश्तों का/आधार अँगूठी/हरगिज नहीं बनाना/अब शकुंतला दुष्यंतों के/झाँसे में मत आना/महलों की/पीड़ा मत सहना/आश्रम में रह जाना...’।
वर्तमान के अराजकता भरे परिवेश को चित्रित करती ये पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं-‘बहुत दिनों से/इस मौसम को/बदल रहे हैं लोग/अलग-अलग/खेमों में बँटकर/निकल रहे हैं लोग/हम दुनिया को/बदल रहे पर/खुद को नहीं बदलते/अंधे की/लाठी लेकर के/चौरस्तों पर चलते/बिना आग के/अदहन जैसे/उबल रहे हैं लोग...’। वो व्यवस्था से दु:खी हो कह उठते हैं-‘इस बदले/मौसम से ज्यादा/फूलों की आँखों में जल है/हदें पार/कर गयी सियासत/राजनीति में छल ही छल है...’।
कभी किसी ज़माने में यह माना जाता था कि आदमी गाँव से शहर में जाकर शिष्ट और सभ्य बनेगा पर हक़ीकत कुछ और ही रही। शहर में और विशेषकर महानगर में जीवन जीते व्यक्ति की व्यथा भरी हक़ीकत यहाँ मुखर हो उठी है-‘भीड़ में/यह शहर/पॉकेटमार जैसा है/यहाँ पर/मेहमान/सिर पर भार जैसा है/भीड़ में/तनहा हमेशा/हम सभी चलते/शहर के/एकांत में/हमको सभी छलते/ढूँढने से/भी यहाँ/परिचित नहीं मिलते...’ और ‘आदमखोर/शहर में/सबकी घातें होती हैं/घर लौटें तो/रोज़गार की/बातें होती हैं/सोते-जगते/अंधकार के/चित्र उभरते हैं/सलवट वाले/माथ लिए/हर गली गुज़रते हैं/ हम इस पीढ़ी के/नायक/क्या जीते मरते हैं...’।
कुछ भी हो जाए पर माँ तो बस माँ होती है, वो चाहे जन्मदात्री हो या गंगा माँ-‘सब अपने/ही/उसको छलते हैं/थके हुए/पाँव/मगर चलते हैं/अपना दुःख/कब/किससे कहती है/रिश्तों का/दंश/रोज सहती है/माँ भी/तो गंगा-सी बहती है...’। स्मृति शेष माता-पिता पर दो गीतों की ये पंक्तियाँ मन को छू जाती हैं-‘मौन में तुम/गीत चिड़ियों का/अँधेरे में दिया हो/माँ हमारे/गीत का स्वर/औ ग़ज़ल का काफ़िया हो/आज भी/यादें तुम्हारी/हैं मेरा संबल/माँ! नहीं हो/तुम कठिन है/मुश्किलों का हल/अब बताओ/किसे लाऊँ/फूल, गंगाजल...’ और ‘पिता! हमने/गलतियाँ की हैं/क्षमा करना/हमें दे/आशीष घर/धन-धान्य से भरना/तुम/हमारे गीत में/ईमान में रहना/यज्ञ की/आहुति/कथा के पान में रहना/पिता!घर की/खिड़कियों/दालान में रहना...’।
प्रयाग में रहते हुए उसकी चर्चा के बिना तो सब अधूरा ही लगेगा न! प्रयाग पर मुग्ध हो तुषार जी लिखते हैं-‘संगम की यह रेत/साधुओं, सिद्ध, फ़कीरों की/यह प्रयोग की भूमि/नहीं ये महज़ लकीरों की/इसके पीछे राजा चलता/रानी चलती है/यह प्रयाग है/यहाँ धर्म की ध्वजा निकलती है/यमुना आकर यहीं/बहन गंगा से मिलती है...’।
इस तरह तुषार जी के नवगीतों की गंगा प्रयाग, बनारस, काशी, मगहर, मुम्बई, भोपाल, दिल्ली आदि से होते हुए आपके मन-आँगन तक का सफ़र बख़ूबी तय करेगी। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बदलते समय के साथ समाज, परिवार व आपसी रिश्तों में हुए बदलाव और उनकी पीड़ा को केंद्र में रखकर रचित तुषार जी का यह संग्रह नवगीतों का एक नायाब गुलदस्ता है, जो पाठक को बाँधे रखने में पूर्णरूपेण सक्षम है। एक सहज मौलिकता, भाषा में नयापन और नए बिम्ब मन को मोह कर इस संग्रह को पठनीय, संग्रहणीय और अविस्मरणीय बनाते हैं। संग्रह का कवर पेज बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैंजिसके लिए प्रकाशक ‘साहित्य भंडार, इलाहाबाद’ साधुवाद के पात्र हैं।
हम तुषार जी को इस सृजन कर्म हेतु और साथ ही उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मंजुला राय और बेटी सौम्या राय को उनके जीवन-संघर्ष और लेखन-यात्रा में निरंतर सहयोग/आत्मबल देने हेतु हार्दिक साधुवाद और शुभकामनाएं देते हुए संग्रह के एक गीत की इन पंक्तियों के साथ अपनी वाणी को विराम देते हैं-‘गीत नहीं मरता है साथी, लोकरंग में रहता है/जैसे कल-कल झरना बहता, वैसे ही यह बहता है/...इसको गाती तीजनबाई, भीमसेन भी गाता है/विद्यापति तुलसी मीरा से, इसका रिश्ता नाता है/यह कबीर की साखी के संग/लिए लुकाठी रहता है/गीत नहीं मरता है साथी...।
इत्यलम्।।


सारिका मुकेश
 (तमिलनाडु)

सारिका मुकेश

                                                 
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पुस्तक- कुछ फूलों के कुछ मौसम के (गीत-नवगीत संग्रह)
गीतकार-  श्री जयकृष्ण राय तुषार
प्रकाशक- साहित्य भंडार, इलाहाबाद (उ.प्र.)
मूल्य- 100/- रुपये
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सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।



                                                ऊँ

मातृ आदेश से वन के लिए प्रस्थान करते श्री राम...


'होबेल' का मत है, “वह संस्कृति ही है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से, एक समूह को दूसरे समूहों से और एक समाज को दूसरे समाजों से अलग करती है।
विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो विभिन्न कालखण्ड में नष्ट होती रही हैं परन्तु भारतीय संस्कृति आदि काल से अजर-अमर बनी है (कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा)। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित कर अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। शायद यही कारण है कि पाश्चात्य विद्वान भी अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं।
हमारे धार्मिक ग्रन्थ हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। जिस प्रकार वेदों और शास्त्रों ने हमारे कल्याण के लिए नाना प्रकार के मंत्र प्रदान किए हैं, उसी प्रकार रामायण ने मानव जाति के लिए एक आदर्श आचार संहिता प्रदान की है। रामायण हमारे लिए एक आदर्श ग्रंथ है। सच कहा जाए तो आज यह विश्व-ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। यह हमें सिखाती है कि एक आदर्श जीवन क्या है और मनुष्य को उसके लिए कैसे आचरण करना चाहिए। यह हमें पुरूष से पुरूषोत्तम के सफ़र पर ले जाती है। ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काम मोहितं’।। तमसा नदी के तीर्थ पर प्रेम क्रीड़ा में मग्न क्रौंच-वध की हृदय विदारक घटना के बाद वाल्मीकि के मुख से निकला यह श्लोक ही तदन्तर ब्रह्मा के आशीर्वाद से रामायण सृजन करने के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। रामायण की रचना सर्वप्रथम आदि कवि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में की थी। तदुपरांत राम के जीवन को आधार बनाकर अनेकों राम-काव्य लिखे गये। हिन्दी में बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने अद्वितीय महाकाव्य रामचरितमानस की रचना कर जनमानस को आलोकित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया और यह गाथा आज हमारे जीवन में रच-बस गई है। राम हमारे आदर्श हैं। राम हमारी संस्कृति और परम्परा के प्रणेता/वाहक हैं। आज भी हम रामराज्य जैसे (आदर्श) सुराज का दिवास्वप्न देखते हैं। रामराज्य का वर्णन करते हुए बाबा तुलसीदास कहते हैं-“दैहिक दैविक भौतिक तापा/राम राज नहिं काहुहि ब्यापा/सब नर करहिं परस्पर प्रीती/चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती...”॥
आज हम आपको वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार श्री कुशलेंद्र श्रीवास्तव द्वारा रचित राम वन गमन पर आधारित नाट्य पुस्तक ‘मातृ आदेश’ से रू-ब-रू करा रहे हैं। काल की गति गहन है। मात्र चौबीस घंटों के कालक्रम ने राम को राजकुमार से युवराज और फ़िर पुरुषोत्तम बनने की राह पर चलने को कैसे उद्यत किया, यही इस पुस्तक की विषयवस्तु है। श्री राम: शरणम् नम:/लोकामि रामं भजे के साथ पुस्तक का आरम्भ इन पंक्तियों के साथ होता है-‘जब किसी राष्ट्र पर संकट के बादल मंडराने वाले होते हैं तब उस देश के क्या राजा और क्या प्रजा अत्याधिक गरिमा को आत्मसात कर गर्वोन्मुखी हो उठते हैं। त्वरित निर्णय की समीपस्थ गली थामकर सोचने-विचारने जैसी लम्बी राह को त्याग गतिशील हो जाते हैं और  गली में बैठा संकट उन्हें अपने आगोश में ले अट्ठहास कर उठता है’। पुस्तक का सार आरम्भ में यहीं सुस्पष्ट हो चला है।




श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव   














इसमें अनेकों पंक्तियाँ ऐसी बन पड़ी हैं, जो सूक्ति वाक्य की तरह हमें अनुभव प्रदान करते हुए दिशा-निर्देश देकर हमारा मार्गदर्शन करती हैं। सरल सहज होते हुए भी सम्वाद अपना वैशिष्ट्य उत्पन्न करने में सफ़ल रहे हैं। उदाहरणार्थ कुछ विभिन्न दृश्यों के सम्वाद दृष्टव्य हैं-‘एक दिन असंतुलित हुए राजमुकुट को संतुलित करने के क्रम में महाराज दशरथ की निगाह दर्पण में कानों के पास राजमुकुट के नीचे छिपे श्वेत केशों पर पड़ी तो कुछ क्षण तक वैचारिक अवस्था में स्थिर बैठ उन्होंने गुरुवर वशिष्ठ के समक्ष भरी हुई राजसभा में राम को युवराज चुन, उसका राजतिलक कर, स्वयं वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर ईश्वर भक्ति में शेष जीवन अर्पित करने का निर्णय लिया। गुरू वशिष्ठ ने सुखद अनुभूति लिए यह सूचना स्वयं राम तक पहुँचाने राजमहल पहुँचते हैं। राम-‘गुरूवर’ किस अपराध का दण्ड है जो सेवक को न बुलाकर स्वयं को कष्ट देना पड़ा। वशिष्ठ-राम वशिष्ठ भी एक इन्सान ही है। जो ख़ुशी में खुश और कष्टों में दुखी भी हो सकता है। राम-राम के रहते आप पर कष्ट आए और मैं अ-ज्ञान सुखों का भोग करता रहूँ। वशिष्ठ-पर ख़ुशी तो आ ही सकती है राम...राम आज तुम इस विशाल राष्ट्र के युवराज बना दिए गए हो और कल तुम्हारा राजतिलक होने वाला है। राम-पर...सिर्फ़...राम...। वशिष्ठ-प्रजाजन की भावना, राजन का विश्वास और मेरा अनुमोदन ही सिर्फ़ और सिर्फ़ राम का चुनाव है। राम-मैं इसे सभी पूज्यों की भावना मानता हूँ गुरूवर पर...। वशिष्ठ-“गुरू का आदेश, राजसभा द्वारा पारित प्रस्ताव तुम्हें पर की परिधि के अन्दर रहने को बाध्य करता है युवराज राम। राम-यु...व...रा...ज...रा...म’। अब कुछ अन्य स्थल पर ये सम्वाद देखिए—>> राम-सीता सम्वाद: राम: ‘...क्या यह गलत नहीं हो रहा सीते! हम चार भाई जो शरीर के अंगों की तरह एक दूसरे से जुड़े हैं। जिनके चार शरीरों में एक आत्मा वास करती हो। जिनके स्नेह, प्यार, सम्मान के सामने को दूसरा अतीत का उदहारण पेश न किया जा सकता हो उनको उपेक्षित कर सिर्फ़ एक राम को ही युवराज और राज दिया जा रहा है। सीता: ...आखिर आपकी अभिलाषा क्या है प्रभु? राम: राम को वन का राज्य दिया जाय जहाँ वह वसुन्धरा के वास्तविक रूप को देख सके। जहाँ भील, किन्नर, वानर जाति की प्रेममयी मूर्तियों को अपनत्व दे उन्हें सभ्यता की शिक्षा दे सके। जहाँ नदी के जल का कल-कल, स्वतन्त्र विचरते पक्षियों का कलरव, वृक्षों के अहसासी ध्वनि का घन-घन श्रवित कर सके।...सिंहासन से प्रसारित घोषणा का उपहास नहीं होगा, माता की इच्छा का पालन होगा। पुरूषार्थ का निरादर होगा और क्षत्रिय तपस्वी का भेष बना यहाँ से चला जाएगा। सीता के वन में साथ चलने पर राम उन्हें समझाते हुए कहते हैं:...’सीते’ वन में न ऐश्वर्य होगा और न ही सुख। सीता:...पर शांति तो होगी। पति के थके-मांदे चरणों को जब गोद में रखकर सहलाऊँगी तब उस सुख की तुलना करना कठिन होगा स्वामी। वृक्षों के पत्तों से बने बिछौने पर अपने स्वामी को निद्रित करने हेतु जब ये सीता माथा सहलाएगी, उस जैसे ऐश्वर्य की तुलना किससे करूँ?...
राजा दशरथ और कैकई सम्वाद: राजा दशरथ:...महारानी सूर्यवंशियों का सत्य वचन अतीत और वर्तमान की ओछी सीमाओं से परे है। सत्य सदा वर्तमान ही है, यही स्थिति मेरे वचन की है।...महारानी असंयत हो जाने से होश भी नहीं रहता...अनर्गल प्रलाप से पूर्व हृदय को झाँककर देखो कैकेयी। कैकेयी:...पर मुझे आज होश आ गया है। मेरे वरदानों को अनर्गल प्रलाप की संज्ञा से अलंकृत कर वरदानों की अवहेलना न कीजिए महाराज।
राम-दशरथ सम्वाद: राम:...मुझे माँ ने सब कुछ बता दिया है पिताजी। इतनी छोटी सी अभिलाषा माँ की...उस पर आपका इस तरह दुखित होना। पिताजी, माँ...माँ होती है। वो अन्य के लिए कुछ भी हो पर अपने पुत्र के लिए हमेशा ही वात्सल्यमयी होती है।...उन्होंने जो कुछ किया निश्चित ही उसमें मेरी ही भलाई दिखी होगी जो वर्तमान में भले दृष्टिगोचर न हो पर भविष्य सुखद होगा। मातृ आदेश का मैं पूर्णता से लाभ उठाऊँगा।
राम अपनी माँ कौशल्या से मिलने पहुँचते हैं। राम:...गतिशील समय अपनी गति से इस शुभ लग्न की बाँधने में असमर्थ लगता है माँ।... कौशल्या: अगर यह वचन केवल पिता का होता तो मेरा आदेश तुम्हारे क़दम को वापिस रोक देती पर यह आदेश एक माँ का है जिसकी पूर्ति एक बेटे के लिए आवश्यक है पर...पर...ये माँ क्या करे जो सम्पूर्ण निशा बेटे के राजतिलक का समारोह चित्रों की भाँति देखती रही है। उस माँ को क्या करना चाहिए बेटा, जो आशीर्वाद देना चाहती थी, उसे वन गमन की आज्ञा देनी पड़ रही है।...
राम लक्ष्मण का यह सम्वाद कितना मधुर है: लक्ष्मण: भैया! मेरे माता-पिता आप ही हैं। मैं सदैव आपकी छाया में रहा हूँ। आज जब सेवा का अवसर आया तब मुझे आप रोक रहे हैं...क्यों?...मेरा जहाँ आदर्श न हो वहां मेरा अस्तित्व ही नहीं है आप मेरे आदर्श हो भैया।...सिर्फ़ भैया ही नहीं ये लक्ष्मण भी उनके क़दम पर क़दम साथ देने, उनके पीछे ही वन की और प्रस्थान करना चाहता है।...माँ सुमित्रा लक्ष्मण से कहती हैं-‘मुझे तुझसे ऐसी ही आशा थी बेटा। बचपन में वो तेरे बालसखा ज़रूर थे पर वर्तमान में वो तेरे मात, पिता, गुरू सभी का समन्वित रूप हैं। मैं माँ सिर्फ़ इसलिए हूँ कि मैंने तुझको जन्म दिया है पर वात्सल्य स्नेह, वात्सल्य शिक्षा, वात्सल्य छाया, तुझे राम के सान्निध्य में प्राप्त हुई है। आज ईश्वर ने भले ही अशुभ किया है पर तुझे ईश्वर की अपने ऊपर कृपा ही माननी चाहिए बेटा। वन में राम, बहू सीता की सेवा करने का एकमात्र अधिकारी तू ही होगा, उससे बढ़कर सौभाग्य भला किसे प्राप्त हो सकता है...’।
यह पुस्तक इतनी सरल, सहज, बोधगम्य भाषा और प्रवाहमयी शैली में लिखी गई है कि आप एक बार इसे पढ़ने को उठा लें तो फ़िर पूरी करके ही रखेंगे। यद्यपि कथावस्तु जानी-पहचानी है परन्तु फ़िर भी इसमें रोचकता और कौतुकता बनी रहती है। हम इस विशिष्ट सृजन-कर्म के लिए श्री कुशलेन्द्र जी को तहे-दिल से बधाई और साधुवाद देते हुए अपनी वाणी को यही विराम देते हैं-‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा’।।

जय श्री राम।।


सारिका मुकेश
 (तमिलनाडु)


सारिका मुकेश


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पुस्तक- मातृ आदेश (राम वनगमन पर आधारित नाटक)
लेखक :  श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव  
प्रकाशक : कुशल प्रकाशन, गाडरवारा (म.प्र.)
मूल्य: 50/-रूपये
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