Friday, 13 March 2020

सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।



                                                ऊँ

मातृ आदेश से वन के लिए प्रस्थान करते श्री राम...


'होबेल' का मत है, “वह संस्कृति ही है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से, एक समूह को दूसरे समूहों से और एक समाज को दूसरे समाजों से अलग करती है।
विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो विभिन्न कालखण्ड में नष्ट होती रही हैं परन्तु भारतीय संस्कृति आदि काल से अजर-अमर बनी है (कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा)। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित कर अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। शायद यही कारण है कि पाश्चात्य विद्वान भी अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं।
हमारे धार्मिक ग्रन्थ हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। जिस प्रकार वेदों और शास्त्रों ने हमारे कल्याण के लिए नाना प्रकार के मंत्र प्रदान किए हैं, उसी प्रकार रामायण ने मानव जाति के लिए एक आदर्श आचार संहिता प्रदान की है। रामायण हमारे लिए एक आदर्श ग्रंथ है। सच कहा जाए तो आज यह विश्व-ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। यह हमें सिखाती है कि एक आदर्श जीवन क्या है और मनुष्य को उसके लिए कैसे आचरण करना चाहिए। यह हमें पुरूष से पुरूषोत्तम के सफ़र पर ले जाती है। ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काम मोहितं’।। तमसा नदी के तीर्थ पर प्रेम क्रीड़ा में मग्न क्रौंच-वध की हृदय विदारक घटना के बाद वाल्मीकि के मुख से निकला यह श्लोक ही तदन्तर ब्रह्मा के आशीर्वाद से रामायण सृजन करने के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। रामायण की रचना सर्वप्रथम आदि कवि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में की थी। तदुपरांत राम के जीवन को आधार बनाकर अनेकों राम-काव्य लिखे गये। हिन्दी में बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने अद्वितीय महाकाव्य रामचरितमानस की रचना कर जनमानस को आलोकित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया और यह गाथा आज हमारे जीवन में रच-बस गई है। राम हमारे आदर्श हैं। राम हमारी संस्कृति और परम्परा के प्रणेता/वाहक हैं। आज भी हम रामराज्य जैसे (आदर्श) सुराज का दिवास्वप्न देखते हैं। रामराज्य का वर्णन करते हुए बाबा तुलसीदास कहते हैं-“दैहिक दैविक भौतिक तापा/राम राज नहिं काहुहि ब्यापा/सब नर करहिं परस्पर प्रीती/चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती...”॥
आज हम आपको वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार श्री कुशलेंद्र श्रीवास्तव द्वारा रचित राम वन गमन पर आधारित नाट्य पुस्तक ‘मातृ आदेश’ से रू-ब-रू करा रहे हैं। काल की गति गहन है। मात्र चौबीस घंटों के कालक्रम ने राम को राजकुमार से युवराज और फ़िर पुरुषोत्तम बनने की राह पर चलने को कैसे उद्यत किया, यही इस पुस्तक की विषयवस्तु है। श्री राम: शरणम् नम:/लोकामि रामं भजे के साथ पुस्तक का आरम्भ इन पंक्तियों के साथ होता है-‘जब किसी राष्ट्र पर संकट के बादल मंडराने वाले होते हैं तब उस देश के क्या राजा और क्या प्रजा अत्याधिक गरिमा को आत्मसात कर गर्वोन्मुखी हो उठते हैं। त्वरित निर्णय की समीपस्थ गली थामकर सोचने-विचारने जैसी लम्बी राह को त्याग गतिशील हो जाते हैं और  गली में बैठा संकट उन्हें अपने आगोश में ले अट्ठहास कर उठता है’। पुस्तक का सार आरम्भ में यहीं सुस्पष्ट हो चला है।




श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव   














इसमें अनेकों पंक्तियाँ ऐसी बन पड़ी हैं, जो सूक्ति वाक्य की तरह हमें अनुभव प्रदान करते हुए दिशा-निर्देश देकर हमारा मार्गदर्शन करती हैं। सरल सहज होते हुए भी सम्वाद अपना वैशिष्ट्य उत्पन्न करने में सफ़ल रहे हैं। उदाहरणार्थ कुछ विभिन्न दृश्यों के सम्वाद दृष्टव्य हैं-‘एक दिन असंतुलित हुए राजमुकुट को संतुलित करने के क्रम में महाराज दशरथ की निगाह दर्पण में कानों के पास राजमुकुट के नीचे छिपे श्वेत केशों पर पड़ी तो कुछ क्षण तक वैचारिक अवस्था में स्थिर बैठ उन्होंने गुरुवर वशिष्ठ के समक्ष भरी हुई राजसभा में राम को युवराज चुन, उसका राजतिलक कर, स्वयं वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर ईश्वर भक्ति में शेष जीवन अर्पित करने का निर्णय लिया। गुरू वशिष्ठ ने सुखद अनुभूति लिए यह सूचना स्वयं राम तक पहुँचाने राजमहल पहुँचते हैं। राम-‘गुरूवर’ किस अपराध का दण्ड है जो सेवक को न बुलाकर स्वयं को कष्ट देना पड़ा। वशिष्ठ-राम वशिष्ठ भी एक इन्सान ही है। जो ख़ुशी में खुश और कष्टों में दुखी भी हो सकता है। राम-राम के रहते आप पर कष्ट आए और मैं अ-ज्ञान सुखों का भोग करता रहूँ। वशिष्ठ-पर ख़ुशी तो आ ही सकती है राम...राम आज तुम इस विशाल राष्ट्र के युवराज बना दिए गए हो और कल तुम्हारा राजतिलक होने वाला है। राम-पर...सिर्फ़...राम...। वशिष्ठ-प्रजाजन की भावना, राजन का विश्वास और मेरा अनुमोदन ही सिर्फ़ और सिर्फ़ राम का चुनाव है। राम-मैं इसे सभी पूज्यों की भावना मानता हूँ गुरूवर पर...। वशिष्ठ-“गुरू का आदेश, राजसभा द्वारा पारित प्रस्ताव तुम्हें पर की परिधि के अन्दर रहने को बाध्य करता है युवराज राम। राम-यु...व...रा...ज...रा...म’। अब कुछ अन्य स्थल पर ये सम्वाद देखिए—>> राम-सीता सम्वाद: राम: ‘...क्या यह गलत नहीं हो रहा सीते! हम चार भाई जो शरीर के अंगों की तरह एक दूसरे से जुड़े हैं। जिनके चार शरीरों में एक आत्मा वास करती हो। जिनके स्नेह, प्यार, सम्मान के सामने को दूसरा अतीत का उदहारण पेश न किया जा सकता हो उनको उपेक्षित कर सिर्फ़ एक राम को ही युवराज और राज दिया जा रहा है। सीता: ...आखिर आपकी अभिलाषा क्या है प्रभु? राम: राम को वन का राज्य दिया जाय जहाँ वह वसुन्धरा के वास्तविक रूप को देख सके। जहाँ भील, किन्नर, वानर जाति की प्रेममयी मूर्तियों को अपनत्व दे उन्हें सभ्यता की शिक्षा दे सके। जहाँ नदी के जल का कल-कल, स्वतन्त्र विचरते पक्षियों का कलरव, वृक्षों के अहसासी ध्वनि का घन-घन श्रवित कर सके।...सिंहासन से प्रसारित घोषणा का उपहास नहीं होगा, माता की इच्छा का पालन होगा। पुरूषार्थ का निरादर होगा और क्षत्रिय तपस्वी का भेष बना यहाँ से चला जाएगा। सीता के वन में साथ चलने पर राम उन्हें समझाते हुए कहते हैं:...’सीते’ वन में न ऐश्वर्य होगा और न ही सुख। सीता:...पर शांति तो होगी। पति के थके-मांदे चरणों को जब गोद में रखकर सहलाऊँगी तब उस सुख की तुलना करना कठिन होगा स्वामी। वृक्षों के पत्तों से बने बिछौने पर अपने स्वामी को निद्रित करने हेतु जब ये सीता माथा सहलाएगी, उस जैसे ऐश्वर्य की तुलना किससे करूँ?...
राजा दशरथ और कैकई सम्वाद: राजा दशरथ:...महारानी सूर्यवंशियों का सत्य वचन अतीत और वर्तमान की ओछी सीमाओं से परे है। सत्य सदा वर्तमान ही है, यही स्थिति मेरे वचन की है।...महारानी असंयत हो जाने से होश भी नहीं रहता...अनर्गल प्रलाप से पूर्व हृदय को झाँककर देखो कैकेयी। कैकेयी:...पर मुझे आज होश आ गया है। मेरे वरदानों को अनर्गल प्रलाप की संज्ञा से अलंकृत कर वरदानों की अवहेलना न कीजिए महाराज।
राम-दशरथ सम्वाद: राम:...मुझे माँ ने सब कुछ बता दिया है पिताजी। इतनी छोटी सी अभिलाषा माँ की...उस पर आपका इस तरह दुखित होना। पिताजी, माँ...माँ होती है। वो अन्य के लिए कुछ भी हो पर अपने पुत्र के लिए हमेशा ही वात्सल्यमयी होती है।...उन्होंने जो कुछ किया निश्चित ही उसमें मेरी ही भलाई दिखी होगी जो वर्तमान में भले दृष्टिगोचर न हो पर भविष्य सुखद होगा। मातृ आदेश का मैं पूर्णता से लाभ उठाऊँगा।
राम अपनी माँ कौशल्या से मिलने पहुँचते हैं। राम:...गतिशील समय अपनी गति से इस शुभ लग्न की बाँधने में असमर्थ लगता है माँ।... कौशल्या: अगर यह वचन केवल पिता का होता तो मेरा आदेश तुम्हारे क़दम को वापिस रोक देती पर यह आदेश एक माँ का है जिसकी पूर्ति एक बेटे के लिए आवश्यक है पर...पर...ये माँ क्या करे जो सम्पूर्ण निशा बेटे के राजतिलक का समारोह चित्रों की भाँति देखती रही है। उस माँ को क्या करना चाहिए बेटा, जो आशीर्वाद देना चाहती थी, उसे वन गमन की आज्ञा देनी पड़ रही है।...
राम लक्ष्मण का यह सम्वाद कितना मधुर है: लक्ष्मण: भैया! मेरे माता-पिता आप ही हैं। मैं सदैव आपकी छाया में रहा हूँ। आज जब सेवा का अवसर आया तब मुझे आप रोक रहे हैं...क्यों?...मेरा जहाँ आदर्श न हो वहां मेरा अस्तित्व ही नहीं है आप मेरे आदर्श हो भैया।...सिर्फ़ भैया ही नहीं ये लक्ष्मण भी उनके क़दम पर क़दम साथ देने, उनके पीछे ही वन की और प्रस्थान करना चाहता है।...माँ सुमित्रा लक्ष्मण से कहती हैं-‘मुझे तुझसे ऐसी ही आशा थी बेटा। बचपन में वो तेरे बालसखा ज़रूर थे पर वर्तमान में वो तेरे मात, पिता, गुरू सभी का समन्वित रूप हैं। मैं माँ सिर्फ़ इसलिए हूँ कि मैंने तुझको जन्म दिया है पर वात्सल्य स्नेह, वात्सल्य शिक्षा, वात्सल्य छाया, तुझे राम के सान्निध्य में प्राप्त हुई है। आज ईश्वर ने भले ही अशुभ किया है पर तुझे ईश्वर की अपने ऊपर कृपा ही माननी चाहिए बेटा। वन में राम, बहू सीता की सेवा करने का एकमात्र अधिकारी तू ही होगा, उससे बढ़कर सौभाग्य भला किसे प्राप्त हो सकता है...’।
यह पुस्तक इतनी सरल, सहज, बोधगम्य भाषा और प्रवाहमयी शैली में लिखी गई है कि आप एक बार इसे पढ़ने को उठा लें तो फ़िर पूरी करके ही रखेंगे। यद्यपि कथावस्तु जानी-पहचानी है परन्तु फ़िर भी इसमें रोचकता और कौतुकता बनी रहती है। हम इस विशिष्ट सृजन-कर्म के लिए श्री कुशलेन्द्र जी को तहे-दिल से बधाई और साधुवाद देते हुए अपनी वाणी को यही विराम देते हैं-‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा’।।

जय श्री राम।।


सारिका मुकेश
 (तमिलनाडु)


सारिका मुकेश


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पुस्तक- मातृ आदेश (राम वनगमन पर आधारित नाटक)
लेखक :  श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव  
प्रकाशक : कुशल प्रकाशन, गाडरवारा (म.प्र.)
मूल्य: 50/-रूपये
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