Tuesday, 10 March 2020

मानवीय मूल्यों और समाज की विसंगतियों से सरोकार रखता कविता संग्रह ‘साँसों के अनुबंध’



112 पृष्ठों की पुस्तक साँसों के अनुबंधमें विविध विषयों पर आधारित 81 कविताएं हैं। किसी भी पुस्तक को हाथ में लेते ही सर्वप्रथम मेरी निगाह लेखक के दो शब्द पर ठिठक जाती है और वो पढ़कर ही मेरी उत्सुकता मुझे पुस्तक पढने को प्रेरित करती है और तभी समीक्षा का मानस भी बनता है। अच्छी कविता वह है जो पात्रों के वैचारिक द्वंद्व के कुहासे को छाँटकर उनमे संजीवनी का आह्लाद भर दे और एक नई जीवन दृष्टि विकसित कर दे। इस दृष्टि से संग्रह की अनेक कविताओं को सफलता मिली है। संग्रह में भाषा की त्रुटियाँ ढूँढे से नहीं मिलीं। मन्नू भंडारी व्  राजेन्द्र यादव संयुक्त रूप से लिखने वाले दंपत्ति रचनाकार थे, उसी तरह सारिका व मुकेश त्यागी भी संग-साथ अपनी रचनाओं को गढ़ते रहे हैं। आपका यह चौथा कविता-संग्रह है, जिसमें वो अपनी संवेदनाओं को पाठक के समक्ष साझा कर रहे हैं। आधुनिक प्रेम, पहली ही कविता ने मुझे आकर्षित किया। आज प्रेम कैसे प्रसिद्धि के कारण रसातल में जा रहा है, तो आधुनिक जीवन शैली के कारण हम प्रकृति का आनंद भी नहीं ले पा रहे हैं। किसी गणित के समीकरण जैसा हो गया है प्रेम-जीवन का गणित धन, ऋण, गुणा, भाग। समय के साथ परिवर्तन की वो बहार आई, उसने ऐसा रुख लिया कि जहाँ माता-पिता या घर के बुजुर्गों की तस्वीर शोभायमान होनी चाहिए वहाँ अब मॉडर्न आर्ट लगाए (सजाए) जा रहे हैं, तो आधुनिक जीवन कैसे प्रकृति के साये से दूर बंद कमरे में बिताया जाता है, इसकी पीड़ा भी व्यक्त है। इस संग्रह में बुद्ध का दर्शन भी मौजूद है-अपने दीप स्वयं बनो।’ ‘रात का हाथ पकड़ चाँद तारे और आकाश को को देखने का मंजर कितना सुहाना हो सकता है तो,आँसू जब छलक जाएं तो मन कितना निर्मल और शांत हो जाता है और मैं मुग्ध होकर देखता तुम्हें चुपचाप तो सवाल के सवाल में कितने ख्याल होते हैं, एक बेहतरीन कविता बन पड़ी है। पल भर में भुला देता है अतीत की डांट को, मार को, फटकार को, याद रखता है सदा वर्तमान में मिले प्यार को, दुलार को...हम बड़े कैसे मन में किसी बात की गाँठ बाँध लेते हैं पर बच्चे वो तो होते हैं मन के सच्चे, पल में डांट-मार, झिड़की सब भुला देते हैं व अतीत को भूलकर वर्तमान में जीने का सबक सिखा देते हैं जो कि लेखक द्वय के डेढ़ वर्षीय पुत्र अगस्त्यने उन्हें सिखाया। 









सारिका मुकेश 











किसी भी रचनाकार के सुख व संतोष का पल वो ही होता है जब उसकी कलम कुछ सृजन करती है, तब उसे अहसास होता है कि लिखते रहने का संघर्ष संवेदनाओं के स्त्रोत सूखने नहीं देगा व हमारे होने का पता देगा। हर पाठक की पीड़ा को बयां करती एक बहुत ही मार्मिक कविता है अख़बार, हमें पता है उसमें नीति-अनीति, हत्या, लूट, बलात्कार की ही ख़बर होती है जो हमारी चाय को कड़वा कर देती है, फिर भी हम उसी अख़बार से अपनी सुबह का श्रीगणेश करते हैं। अख़बार के साथ उगता है दिन जैसे मरुस्थल में उगती है धूप। इस एक लाइन में पूरी कविता का मर्म व दर्द दोनों ही छुपा है। हम (पाठक) कल्पना कर सकते हैं कि मरुस्थल की धूप कैसी व क्या होती है, वैसा ही होता है अख़बार। प्रेम, परमात्मा व कविता को पाना है तो उसमें स्वयं को डुबकी लगानी पड़ती है, तभी उसका रसास्वादन करने का सुख मिलता है। कबीर ने कहा है-जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूड़त डरा, रहा किनारे बैठ। प्रकृति और मनुष्य के बीच अंतर्संबंध और उनके द्वंद्व को, माता-पिता को चुकाए ऋण का मार्मिक वर्णन, जीवन का चक्र, वसंत के आने पर कैसे होता है प्रकृति का श्रृंगार...हरे भरे पेड़ लहलहा कर झूमने लगते हैं...तो पर्यावरण के प्रति प्रेम, वृक्षारोपण की महत्ता व पेड़ों के लिए सहोदर का भाव व उसी भाव में पिता की स्मृति कोमल व संवेदनशील ह्रदय का परिचायक है। जख्म पत्ता-पत्ता है, दर्द डाली-डाली है, ऐ चमन कुछ तू ही बता, कौन तेरा माली है...साँवली-सलोनी में एक ऐसा रहस्य है जिसका सच केवल वही जानता है...इस कविता में स्त्री की चुप्पी बड़ी सहजता से मुखर हो उठती है और उसकी चंचल आँखें कह जाती हैं जीवन का अर्थ ही है शायद आशा-प्रत्याशा...। इस डिज़िटल युग में जब हम मोबाइल के अधीन हो गए हैं या यूँ कहिये कि एडिक्ट हो गए हैं तब मोबाइल के ख़राब होने पर हमारी सारी गतिविधियाँ कैसे लुंज-पुंज हो जाती हैं, उसका बहुत अच्छा चित्रण (वर्णन) करते-करते वो जीवन दर्शन व दार्शनिक अंदाज़ में अपनी कलम चलाते हैं-यूँ भी किसी काम के नहीं होते ठहरा हुआ जल, ठहरा हुआ वक़्त, ठहरे हुए दृश्य, ठहरे हुए इन्सान, लक्ष्मी, नदी, जिंदगी, सफ़लता, सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य...सब कुछ तो है चलायमान इसलिए वेदों में कहा गया है: चरैवेति चरैवेति...।
फ़ेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप पर हमारे हजारों दोस्त पर हम अपने आसपास वालों से बेख़बर हैं। आभासी दुनिया में अपनापन ढूँढ़ते हैं। कविता को चुकी हुई विधा कह देने के बावजूद दुनियाभर में भावनाएं, संवेदनाएं, संघर्ष, पीड़ा, हताशा,वेदना, साहस और प्यार को कविता के माध्यम से ही व्यक्त किया जा रहा है। न सिर्फ आज ऐसा हो रहा है बल्कि इतिहास में भी ऐसा ही हुआ है। इसी बात की तसदीक करता है-साँसों के अनुबंधकाव्य-संग्रह। आज्ञाकारी पुत्री की कविता में बहुत करारा तंज है जो दहेज़ लोभियों पर कसा गया है-बस धन दौलत हो, गाड़ी हो, बंगला हो, जीवन हो ठाठ-बाट कातो आज्ञाकारी पुत्र कविता में कवि मन कह रहा है कि चाहे लकड़ी से कर दो मेरा विवाह, यूँ भी अंतर कोई खास नहीं है दोनों में; लड़की और लकड़ी में, एक चिता तक पहुँचाती है तो दूसरी चिता पर सजाई जाती है। कवि की पीड़ा या पीड़ा से उपजी कविता है हिन्दी कवि। इसमें कवि ने सिर्फ़ अपना ही दर्द नहीं बयां किया है अपितु हर एक कवि का, हर एक लेखक का दर्दे-हाल इसमें समावेश है। कैसी विडम्बना और कैसा उपहास है कि हिन्दी कवि को कपड़े पर जमी धूल की तरह झाड़ दिया जाता है, जबकि उसकी रूह, जज़बात रक्त व पसीना सब कुछ कलम के साथ बहता है। हर कवि की हर लेखक की पीड़ा को बयां करती है यह कविता। पर अधिकांशत: पुरस्कारों का सृजन से कोई सरोकार नहीं होता है। यह तो समीकरणों और आपसी सहमति की शिरणी भर है। कामकाजी कमसिन लड़कियाँ कैसे अपने काम को एन्जॉय कर रही हैं विपरीत परिस्थितियों में, यह कवि मन रोज देखता है...तो एक्सचेंज ऑफर में जीवन ने मृत्यु की ओर जा रही सड़क पर कैसे एग्जिट ले ली थी यह बख़ूबी दर्शाया गया है। जीवन का चित्रण है ओस की बूँदे। यूँ भी बिना विदा हुए आगमन, बिना बिछुड़े हुए मिलन कहाँ संभव है??? यह बात कही गई है सच की लकीरेंमें...इसी से अपनी एक बात याद आ गई, मैं सोचती हूँ जिन्दा रहेंगे तो मिलेंगेनहीं अपितु मिलते रहेंगे तो जिंदा रहेंगेयह कैसा मखौलछीजती मानवीय संवेदनाओं का, महँगाई, अराजकता व भ्रष्टाचार, स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता की हकीकत कहती कविता है। जिन्दगी की किताब के पन्ने कभी ख़त्म नहीं होते, पुरानी अनुभूति का अव्यक्त भाव कवि के भीतर जमी बर्फ को पिंघला देता है। अभिलाषामें एक आशा की चिंगारी के साथ आते हुए और एक ज्वलंत नैराश्य के साथ जाते हुए ह्रदय पर तने बोझ को भाप लेने की क्षमता ने हौंसला बढ़ाया है। साँसों के अनुबंधको पढ़ते हुए लगा जैसे कवि मन शब्दों के रेखाचित्र खींचने की कला में माहिर है। कभी लगे मधुकलश तो कभी लगे विष का प्यालालम्बी आयु की चाह उसकी साँसों में रफ़्तार घोलने लगी थी। किसी जगह पौराणिक आख्यान के द्वारा बात को कहा गया है-चीख-चीख कर मांग रही द्रौपदी अपनी अस्मिता के लिए अब तक इन्साफ़...तो कर्ण व रावण तथा सीता का भी है बखान...। पिता चाहे न रहे पर उनका वरदहस्त हमेशा साथ रहता है...पापा! तो क्या सच में तुम आ जाते हो वहाँ से...एक बार चले जाने के बाद नहीं लौटता है कोई जहाँ से...। सबसे अनमोल होते हैं चुम्बन...रिश्तों की यह दुनिया है निराली पर फिर भी तुमसे मिलने की है बेकरारी। माँकी महिमा को शब्द कम पर अर्थ अधिक में व्यक्त किया गया है, माँ से बड़ा न शब्द कोई, माँ ही है भगवानमैं जब भी तुमसे मिलता हूँबेहतर कविता है। राधाश्याम की राधा, जिसमें प्रेम की अविरत धारा बहती है। चिड़ियों की चहक, अपार्टमेंट्स के लोग, स्वप्न, जलते हुए रिश्ते, वेश्या...वेश्या तुम्हारी सुरक्षा तुम्हारी जिम्मेदारी है क्योंकि आदमियों की इच्छाएं अंधी होती हैं, उनके लिए अपनी दैहिक प्यास को किसी भी तरह से बुझाने के लिए क्षण ही पर्याप्त होते हैं। यादें मन के लिए संबल हैं, कभी दरी हैं तो कभी कंबल हैं। बहुत सुन्दर उपमा के द्वारा अपनी बात कही है। फूल का मनपढ़कर स्मृति में मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक, माखनलाल चतुर्वेदी की कविता का स्मरण हो आया। किताब का हश्रदेख लिखने वालों की पीड़ा का बखूबी वर्णन किया है। इन कविताओं के अतिरिक्त जीवनचर्या, माँ जानती है, रहे सदा बस यूँ ही बहती, मेरे पास मेरी माँ है, मेरा घर, आ गया बुढ़ापाऔर और फिर लीन हो गई एक बूँदआदि कविताएं भी उल्लेखनीय हैं।
समाज की विसंगतियों को उजागर करती सारिका मुकेश की इन कविताओं में कहीं प्रहार तो कहीं पीड़ा व प्रेम की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है व संवेदनाओं से दूर जा रहे पाठक को उद्वेलित करती हैं। एक भाव और मन में आया...अगर काव्य-संग्रह में यह बात स्पष्ट होती कि कौन सी अभिव्यक्ति नारी मन की है और कौन सी पुरुष मन की तो ज्यादा बेहतर होता...। आपकी लेखनी नित नए प्रतिमान स्थापित करे...इसी शुभभाव के साथ...

सुश्री पदमा राजेन्द्र










समीक्षक- सुश्री पदमा राजेन्द्र
24, अनुराग नगर, इंदौर (म.प्र.)




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पुस्तक-साँसों के अनुबंध (काव्य-संग्रह),  
कविद्वय-सारिका मुकेश
प्रकाशक-संजीव प्रकाशन, दिल्ली-110 002
सजिल्द संस्करण मूल्य : रु. 200/-
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