चाँदनी के दौर में मैं धूप पर लिखता
रहा...
नवगीत की औपचारिक शुरुआत नयी कविता के दौर में
उसके समानांतर मानी जाती है। हालाँकि, इसकी स्थापना से पहले महाकवि निराला के बहुत
सारे गीत नवगीत हैं। नवगीत समय के सापेक्ष चल उसकी हर चुनौती को स्वीकार करता है। नवगीत
रचने में सकारात्मक सोच लिए कुछ प्रभावशाली और नए ढंग से, वैज्ञानिक दृष्टिकोण
लिए, नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करते हुए तुकान्त की जगह लयात्मकता और
गेयता को अधिक प्रमुखता दी जाती है। इसमें संस्कृति व लोकतत्व का समावेश होना
आवश्यक है। यद्यपि इसे छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है तदापि लयात्मकता और गेयता
का निर्वाह पूरे नवगीत में होना आवश्यक है। डा. मोहन अवस्थी के अनुसार-“नवगीत एक यौगिक
शब्द है जिसमें नव (नयी कविता) और गीत (गीत विधा) का समावेश है”। नवगीत अब समकालीन
गीत के सफ़र की ओर अग्रसर है। आज हम आपको इसी सफ़र के एक यात्री श्री जयकृष्ण राय
तुषार जी के गीत-नवगीत संग्रह ‘कुछ फूलों
के कुछ मौसम के’ से रू-ब-रू करा रहे हैं। संग्रह के फ्लैप पर संस्कृत के विद्वान
डॉ. राम विनय सिंह जी (एसोसिएट प्रोफ़ेसर) ने ‘विमुक्तिबीजं परं गीतम्’ के अंतर्गत
‘गीत’ की चिरन्तन चेतना/यात्रा को सुन्दर वाणी दी है।
चलिए, बिना किसी अतिरिक्त भूमिका के अब हम आपको
तुषार जी के इस ‘कुछ फूलों के कुछ मौसम के’ गीतों के उपवन में लेकर चलते हैं।
प्रेयसी/प्रियतमा काव्य लेखन के लिए सदा से प्रिय विषय रही है। तुषार जी लिखते
हैं-‘तुमसे ही/कविता में लय है/जीवन में संवाद है/यह वसंत भी/प्रिये!
तुम्हारे/अधरों का अनुवाद है...’। इसी अनुवाद के क्रम में वो उसकी प्रशंसा कुछ यूँ
करते हैं-‘लहरों पर/जलते दीपों की/लौ तेरी आँखें/तुम्हें देख/झुक जातीं फूलों
की/कोमल शाखें/तुम्हें लिखूँ/उर्वशी, मेनका/या लिख दूँ आसिन/कुछ फूलों के/कुछ मौसम
के/रंग नहीं अनगिन/तुम्हें देखकर/बदला करतीं/उपमाएँ पल-छिन’। कहने को इस पर बहुत
कुछ कहा जा सकता है पर ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा...’। सो सबसे पहले
हम बात करते हैं उस अन्नदाता की, जो दिन-रात खेत में मेहनत कर प्राणों से प्यारी
फ़सल उगाता है-‘बहुत/मुश्किल से/हवा में लहलहाते धान/ये नहीं हैं/धान/प्यारे ये
हमारे प्रान!/ जोंक पाँवों में/लिपटकर/पीती रही खून/खुरपियों से/उँगलियाँ काटी/बढ़े
नाखून/गाल में/बस एक बीड़ा/रहा दिन भर पान!/सिर्फ़ अपना/हौंसला है/खेत-क्यारी में/बीज-पानी/उर्वरक/सब
कुछ उधारी में/पर्व होली का/इसी से/इसी से रमज़ान’। यह दुखद ही कहा जाएगा कि
किसानों की कठिन ज़िन्दगी उन्हें दो वक़्त का ठीक से भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाती-‘हम
किसान हैं/कठिन ज़िन्दगी/फ़िर भी हर मौसम में गाते/धूप-छाँह से/नदी-पहाड़ों से/हैं
अपने रिश्ते-नाते/सूखे खेत/बरसना मेघों/हमको नहीं अकाल चाहिए/हम किसान/बुनकर के
वंशज/हमको रोटी-दाल चाहिए/हमें चाँदनी चौक/मुम्बई और/नहीं भोपाल चाहिए’। आज आए दिन
हम किसानों की आत्महत्या की ख़बरें अख़बार में पढ़ते रहते हैं-‘अन्नदाता/आपदा की/जंग
में हारे/प्यास से/व्याकुल रहे/कुछ भूख के मारे/इन्द्र प्रमुदित/बिना जल के/मेघ
घेरे में/ सूर्य तो/उगता रहा हर दिन/मगर कुछ/वन फूल/अब भी हैं अँधेरे में’।
यह हक़ीकत है कि प्रगति के नाम पर हम
दिन-प्रतिदिन यांत्रिक होते चले गए। आज फ़ेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर, इन्सटाग्राम आदि
का उपयोग करते-करते हम भले ही विश्व से जुड़ने का दावा करें पर यह कड़वा सत्य है कि
हम अपनों से कटकर ख़ुद में सिमटते जा रहे हैं। इसी व्यथा को महसूस करती ये
पंक्तियाँ देखिए-‘ यंत्रवत/होने लगे/संवेदना के स्वर/मौन-सा रहने लगा है/कहकहों का
घर/कैद हैं/हम आधुनिकता के/प्रभावों में/फूल तो/हैं किन्तु/बासीपन हवाओं में/लिख
रहे/मौसम/सुहाना हम कथाओं में...’, और ‘कहकहे/दालान के चुप/मौन हँसता, मौन
गाता/सभी हैं, माँ-पिता/ताऊ, बहन/भाभी और भ्राता/सभी घर/वातानुकूलित/मगर रिश्तों
में गलन है/अज़नबी की/तरह घर के लोग/ये कैसा चलन है/हम कहाँ पर/खड़े हैं ऐ/सभ्यता
तुझको नमन है!’ शायद इसीलिए वो नये साल से यह कहते हैं-‘रिश्तों को/धार मिले/कहकहे
दालान को/गहगहे गुलाब मिलें/मुरझाते लॉन को/बच्चों को/परीकथा/तितली, इतवार
मिले/बड़ों को/प्रणाम कहे/छोटों को प्यार मिले/नये साल/आना तो/सबको उपहार मिले’।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’
की संस्कृति और नारी को बराबर का हक़ देने की बात करने वाले इस देश में आज नारी
शोषण का जो अमानवीय दौर चल रहा है, उस पर व्यथित हो कवि का यह लिखना स्वाभाविक
है-‘हरे वन की/चाह में फ़िर/पंख चिड़ियों के जले हैं/यहाँ ऋतुएँ हैं तिलस्मी/और मौसम
दोगले हैं’ और ‘कलमुँहे दिन/बेटियों के लिए/कब मंगल हुए/सभ्यता/किस अर्थ की/यदि ये
शहर जंगल हुए/फूल की/हर शाख/काँटों से लदी होगी/औरतें होंगी/तभी तो/यह सदी
होगी/हिमशिखर/होंगे तभी/उजली नदी होगी...’। वो नारी को आह्वान करते हुए कहते हैं-‘अबला
नारी/एक मिथक है/इसी मिथक को तोड़ो/अपनी शर्तों पर/समाज से/रिश्ता-नाता
जोड़ो/रिश्तों का/आधार अँगूठी/हरगिज नहीं बनाना/अब शकुंतला दुष्यंतों के/झाँसे में
मत आना/महलों की/पीड़ा मत सहना/आश्रम में रह जाना...’।
वर्तमान के अराजकता भरे परिवेश को चित्रित करती
ये पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं-‘बहुत दिनों से/इस मौसम को/बदल रहे हैं
लोग/अलग-अलग/खेमों में बँटकर/निकल रहे हैं लोग/हम दुनिया को/बदल रहे पर/खुद को
नहीं बदलते/अंधे की/लाठी लेकर के/चौरस्तों पर चलते/बिना आग के/अदहन जैसे/उबल रहे
हैं लोग...’। वो व्यवस्था से दु:खी हो कह उठते हैं-‘इस बदले/मौसम से ज्यादा/फूलों
की आँखों में जल है/हदें पार/कर गयी सियासत/राजनीति में छल ही छल है...’।
कभी किसी ज़माने में यह माना जाता था कि आदमी
गाँव से शहर में जाकर शिष्ट और सभ्य बनेगा पर हक़ीकत कुछ और ही रही। शहर में और
विशेषकर महानगर में जीवन जीते व्यक्ति की व्यथा भरी हक़ीकत यहाँ मुखर हो उठी है-‘भीड़
में/यह शहर/पॉकेटमार जैसा है/यहाँ पर/मेहमान/सिर पर भार जैसा है/भीड़ में/तनहा
हमेशा/हम सभी चलते/शहर के/एकांत में/हमको सभी छलते/ढूँढने से/भी यहाँ/परिचित नहीं
मिलते...’ और ‘आदमखोर/शहर में/सबकी घातें होती हैं/घर लौटें तो/रोज़गार की/बातें
होती हैं/सोते-जगते/अंधकार के/चित्र उभरते हैं/सलवट वाले/माथ लिए/हर गली गुज़रते
हैं/ हम इस पीढ़ी के/नायक/क्या जीते मरते हैं...’।
कुछ भी हो जाए पर माँ तो बस माँ होती है, वो
चाहे जन्मदात्री हो या गंगा माँ-‘सब अपने/ही/उसको छलते हैं/थके हुए/पाँव/मगर चलते
हैं/अपना दुःख/कब/किससे कहती है/रिश्तों का/दंश/रोज सहती है/माँ भी/तो गंगा-सी
बहती है...’। स्मृति शेष माता-पिता पर दो गीतों की ये पंक्तियाँ मन को छू जाती
हैं-‘मौन में तुम/गीत चिड़ियों का/अँधेरे में दिया हो/माँ हमारे/गीत का स्वर/औ ग़ज़ल
का काफ़िया हो/आज भी/यादें तुम्हारी/हैं मेरा संबल/माँ! नहीं हो/तुम कठिन
है/मुश्किलों का हल/अब बताओ/किसे लाऊँ/फूल, गंगाजल...’ और ‘पिता! हमने/गलतियाँ की
हैं/क्षमा करना/हमें दे/आशीष घर/धन-धान्य से भरना/तुम/हमारे गीत में/ईमान में
रहना/यज्ञ की/आहुति/कथा के पान में रहना/पिता!घर की/खिड़कियों/दालान में रहना...’।
प्रयाग में रहते हुए उसकी चर्चा के बिना तो सब
अधूरा ही लगेगा न! प्रयाग पर मुग्ध हो तुषार जी लिखते हैं-‘संगम की यह रेत/साधुओं,
सिद्ध, फ़कीरों की/यह प्रयोग की भूमि/नहीं ये महज़ लकीरों की/इसके पीछे राजा
चलता/रानी चलती है/यह प्रयाग है/यहाँ धर्म की ध्वजा निकलती है/यमुना आकर यहीं/बहन
गंगा से मिलती है...’।
इस तरह तुषार जी के नवगीतों की गंगा प्रयाग,
बनारस, काशी, मगहर, मुम्बई, भोपाल, दिल्ली आदि से होते हुए आपके मन-आँगन तक का सफ़र
बख़ूबी तय करेगी। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बदलते समय के साथ समाज, परिवार व
आपसी रिश्तों में हुए बदलाव और उनकी पीड़ा को केंद्र में रखकर रचित तुषार जी का यह
संग्रह नवगीतों का एक नायाब गुलदस्ता है, जो पाठक को बाँधे रखने में पूर्णरूपेण
सक्षम है। एक सहज मौलिकता, भाषा में नयापन और नए बिम्ब मन को मोह कर इस संग्रह को
पठनीय, संग्रहणीय और अविस्मरणीय बनाते हैं। संग्रह का कवर पेज बहुत आकर्षक और गहरे
भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय
और संग्रहणीय बना देते हैं, जिसके लिए प्रकाशक ‘साहित्य भंडार, इलाहाबाद’ साधुवाद के पात्र हैं।
हम तुषार जी को इस सृजन कर्म हेतु और साथ ही
उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मंजुला राय और बेटी सौम्या राय को उनके जीवन-संघर्ष और
लेखन-यात्रा में निरंतर सहयोग/आत्मबल देने हेतु हार्दिक साधुवाद और शुभकामनाएं
देते हुए संग्रह के एक गीत की इन पंक्तियों के साथ अपनी वाणी को विराम देते हैं-‘गीत
नहीं मरता है साथी, लोकरंग में रहता है/जैसे कल-कल झरना बहता, वैसे ही यह बहता
है/...इसको गाती तीजनबाई, भीमसेन भी गाता है/विद्यापति तुलसी मीरा से, इसका रिश्ता
नाता है/यह कबीर की साखी के संग/लिए लुकाठी रहता है/गीत नहीं मरता है साथी...।
इत्यलम्।।
सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)
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पुस्तक- कुछ फूलों के कुछ मौसम के (गीत-नवगीत संग्रह)
पुस्तक- कुछ फूलों के कुछ मौसम के (गीत-नवगीत संग्रह)
गीतकार- श्री जयकृष्ण राय तुषार
प्रकाशक- साहित्य भंडार, इलाहाबाद (उ.प्र.)
मूल्य- 100/- रुपये
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Wah Wah!!
ReplyDeleteआदरणीय प्रोफ़ेसर सारिका जी इतनी अच्छी समीक्षा लिखने के लिए आपका हृदय से आभार
ReplyDelete🌹🌷🙏
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