Sunday, 15 March 2020

वर्तमान परिवेश को चित्रित करता दोहा-संग्रह ‘दोहों की बारात’




मुसलमान गीता पढ़ें, हिन्दू वाचै कुरान। सारा जग दिल से कहे, भारत देश महान।।



आज के इस माहौल में जब सम्वेदनाएं लुप्त-प्राय: होती दिख रही हैं और अपनत्व, प्रेम, विश्वास को स्वार्थ, घृणा और छल-कपट लीलते जा रहे हैं, ऐसे परिवेश में लेखक को अत्यंत सजग रहकर लिखने की आवश्यकता  है। जो समाज को, इस देश को और उसकी नौजवान पीढ़ी को अपनी संस्कृति और संस्कार की रक्षा करते हुए वक्त के साथ कन्धा मिलाकर सही दिशा में चलना सिखा सकें। हमें अपार प्रसन्नता है कि उन तमाम लेखकों/कवियों में श्री देवराज काला जी का सृजन-कार्य इन मायनों में रेखांकित किये जाने योग्य है, जो अपनी लेखनी के माध्यम से इस ज़िम्मेदारी के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं। शिक्षा विभाग, हिमाचल प्रदेश से कला अध्यापक के पद से 2007 में सेवानिवृत हुए, साहित्य और कला में विशिष्ट रूचि और दखल रखने वाले, देवराज काला जी अब अपने पूरे परिवार के संग लेखकों की प्रिय और अत्यंत रमणीय नगरी देहरादून में स्थायी रूप से निवास कर साहित्य-कला-सृजन-कर्म में साधनारत हैं। वहाँ का अनन्यतम प्राकृतिक सौंदर्य उनके काव्य-कला-सौंदर्य में चार चाँद लगाने का पुनीत कार्य करता है, जिसका प्रमाण स्पष्ट रूप से उनके चित्रों और साहित्य में देखा जा सकता है।
आज हम आपको देवराज काला जी के दोहा-संकलन ‘दोहों की बारात’ से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं। दोहा प्राचीन काल से कवियों का प्रिय छंद रहा है। हिंदी साहित्य में दोहे की उपस्थिति सदैव बनी रही है। दोहा मुक्तक काव्य का प्रधान छंद है। यह तीखी भावव्यंजना, शब्द विन्यास और प्रभावशाली लघु चित्रों को प्रस्तुत करने की अपूर्व क्षमता लिए होता है। विद्वजनों की खोज के अनुसार कालिदास रचित नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम’ में अपभ्रंश में इस छंद का प्राचीनतम प्रयोग मिलता है। तदोपरान्त सातवीं शताब्दी में सिद्ध कवि ‘सरहपा’ ने इसका प्रयोग  किया। आगे चलकर सूरदास और मीरा ने अपने पदों में इसका प्रयोग किया है। सतसई साहित्य के अतिरिक्त भक्ति युग में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस और मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत कथा में इसका प्रयोग किया है। अमीर खुसरो ने दोहे को प्रेम और आध्यात्मिकता का आधार बनाया और गुरुनानक देव जी ने भी अपनी साधना में दोहे को सँजोया। कबीरदास ने दोहों को गाँव-गाँव की गली-चौपाल तक पहुँचाया। उन्होंने जीवन की तमाम विषमताओं, खोखले रीति-रिवाज़ और आडम्बरों पर अपने दोहों के माध्यम से कड़ा प्रहार कर आम आदमी की चेतना को जगाने का प्रयास किया। अब्दुलरहीम खानखाना (रहीम) के दोहों को भी खूब लोकप्रियता मिली। एक-एक दोहे में गागर में सागर की तरह गंभीर अर्थ और अनुभव समेटे कबीर और रहीम के दोहे आज भी हमें कंठस्थ हैं और हम अक्सर उनका उपयोग दैनिक जीवन में वार्तालाप तक में करते हैं। बिहारी ने दोहों की लोकप्रियता में चार-चाँद लगा दिये- ‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर/देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’। कहा जाता है कि जयपुर के महाराजा जयसिंह के दरबार में बिहारी जी को एक दोहे पर एक स्वर्ण मुद्रा पुरस्कार स्वरूप दी जाती थी (वाह! इसे कहते हैं कवि के लिए स्वर्णिम युग!)। बिहारी जी के इस दोहे ने-‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहीं विकास इहि काल/अली कली सौं हौं बिंध्यौं, आगे कौन हवाल’-महाराज के जीवन की दशा और दिशा को बदल दिया था।  अत: संक्षेप में बिना किसी तर्क के यह कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में दोहा सदा लोकप्रिय छंद रहा है। शायद यही वजह है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी दोहाकारों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पुरानी परम्परा से हटकर आज के तमाम कवि अपने समय, परिवेश में आये बदलाव का चित्रण बड़ी कुशलता के साथ अपने दोहों के माध्यम से कर रहे हैं। आज हर पत्र-पत्रिका में दोहे प्रकाशित हो रहे हैं और इस भागमभाग वाली जिन्दगी में भी दोहे को भरपूर स्नेह मिल रहा है। चलिए अब इस माहौल में आपको ‘दोहों की बारात’ में ले चलते हैं।



आज हम सब भविष्य की चिंता किए बगैर अपने स्वार्थ में अंधे होकर अपने व्यवसायिक फ़ायदे में लगे हैं। नदियों से अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर बस्तियाँ और शहर बसाना हो या बालिका-भ्रूण हत्याएं, सब कुछ पर कवि के आहत मन के यह दोहे यहाँ दृष्टव्य हैं-‘पृथ्वी उपग्रह का हमें, करना है उपचार/पर्यावरण अति शुद्ध हो, पर्वत हो निर्भार’, ‘प्रदूषण के प्रभाव से, कंपित हुए पहाड़/भू-स्खलन होने लगा, शासन करे जुगाड़’, ‘प्रेमाकुल कल-कल नदी, पहुंची सागर तीर/कहे समंदर मत पास आ, तेरा गंदा नीर’, ‘नारी करुण पुकार है, नारी प्रणय की धार/नारी ही है सृष्टि का, प्रथम सुमन उपहार’। इंटरनेट के युग में आज हम अपने परिवार से, स्वजनों से कहीं दूर होते जा रहे हैं। आज के परिवेश में ये दोहे दृष्टव्य हैं-‘इन दोहों में भेद है, ज्यों जीवन में भेद/सम्बन्धों में छेद है, ज्यों छलनी में छेद’, ‘होते वाद-विवाद हैं, बनते नहीं सम्वाद/अपनापन ना हो जहाँ, प्रेम प्यार अपवाद’। देवराज जी खेतों की हरियाली, गाँव, पुष्प, प्रेम आदि को भुला नहीं पाते और बासन्ती ऋतु में गाँव की पुरानी स्मृति आज भी उनके हृदय में हूक पैदा करती है-‘कुहु कुहु कूके कोकिला, आयी मदन बहार/कली सपन में देखती, डोली और कहार’, ‘ऋतू बासन्ती आ गयी, दहके देह पलाश/प्रीतम से मिलने चली, मन में लिये हुलास’।
शहरी जीवन की मृत/कृत्रिम संवेदनाएँ, मुखौटे लगाकर जीने की विवशता और आज की पुस्तक-शिक्षा से वो संतुष्ट नहीं दिखते-‘पोथी पढ़ने से यहाँ, मिल पाता कुछ ज्ञान/मानव तन के वेश में, होते ना शैतान’। रीति/रिवाजों, परम्पराओं और धर्म के नाम पर दैहिक/मानसिक/आर्थिक शोषण के किस्से आज हर तरफ़ सुनने को मिलते रहते हैं। इसी सन्दर्भ में हम उनके कुछ दोहों का यहाँ उल्लेख करना चाहेंगे-‘पण्डित मुल्ला पादरी, धर्म के ठेकेदार/करें धर्म के नाम पे, नफ़रत का व्यापार’, ‘सभी नशे मैंने किये, सबका मस्त सुवाद/धर्म भयंकर है नशा, उकसाता ज़ेहाद’, ‘दया-धर्म के नाम पे, होती लूट खसोट/धर्म भीरु लुट के सुखी, नहीं खोलते होंठ’, ‘नारी को मिलते रहे, सदियों से बाज़ार/तीनों मुद्दे आज भी, धोखा नफ़रत प्यार’।
संक्षेप में, कहने का तात्पर्य यही है कि उन्होंने अपनी सजग और सचेतन दृष्टि से राजनैतिक परिवेश से लेकर शिक्षा, समाज, संस्कृति, संस्कार और आदर्शों/मूल्यों पर अपनी कलम धारदार और पैने ढंग से बखूबी चलायी है, जो उनके दोहों को अपनी पहचान देने में पूर्ण रूप से सक्षम है। हमें विश्वाश है कि श्री देवराज काला जी के इस दोहा-संग्रह का हिंदी साहित्य जगत् में भरपूर स्वागत होगा। उनके सृजन-कर्म हेतु हम उन्हें सादर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को इन दोहों के संग विराम देते हैं:
                 वरिष्ठ जन अरू नार का, करो सदा सम्मान
                 इनके कारण ही मिले, हर घर को पहचान
                                         ***
                 पेड़ लगाकर तुम करो, प्रकृति का श्रृंगार
                 नदिया पोखर ताल हैं, जीवन का आधार

इति शुभम्।।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश


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पुस्तक- दोहों की बारात (दोहा-संग्रह)
लेखक :  देवराज काला
प्रकाशक : उद्योग नगर प्रकाशनगाज़ियाबाद (उ.प्र.)
मूल्य: 250/- रुपये

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