‘शब्दों के
पुल’
हिन्दी
हाइकु काव्य की सशक्त हस्ताक्षर डॉ. सारिका मुकेश का एक उत्कृष्ट हाइकु-संग्रह है, जिसमें उन्होंने अपने लगभग 310 हाइकु संग्रहित किये हैं। कवयित्री डॉ. सारिका
मुकेश का नाम हिन्दी साहित्य जगत के लिए किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनकी
कृतियाँ ‘पानी पर लकीरें’ (कविता संग्रह), ‘एक किरण उजाला’ (कविता संग्रह), ‘खिल उठे पलाश’ (कविता
संग्रह) हिन्दी में तथा ‘टीचिंग इंग्लिश लैंग्वेज: अ न्यू
पर्सपेक्टिव’ अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी हैं। आपको श्री
मुकुंद मुरारी स्मृति साहित्य संस्थान, कानपुर (उ.प्र.)
द्वारा ‘साहित्य श्री
(वर्ष 2012-13) सम्मान’ तथा ‘यदुनंदंस सेवा संस्थान, कानपुर द्वारा समाज में
उल्लेखनीय योगदान हेतु ‘शिक्षा रत्न
सम्मान 2012‘ से सम्मानित किया जा
चुका है।
पुस्तक में संग्रहित हाइकुओं में आशा-निराशा, प्रकृति का मानवीकरण, मीरा के सुर में सुर, स्वच्छंदतावाद, उदात्त प्रेम, रिश्ते-नातों
की खटास, आदर्श-यथार्थ, अपनेपन पर
प्रश्न-चिह्न, लोकविश्वाश, जीवन की
परिभाषा, मिथ्या जगत, यादों का संसार,
ईश्वर भक्ति, रामायण, महाभारत,
अमीरी-गरीबी, संयुक्त परिवारों का विघटन,
खुद व बीबी बच्चों तक सिमटते परिवार, शरीर की
नश्वरता, धरती माता, रूप सलौना,
वसंत की छटा, प्रकृति का रहस्य, बुजुर्गों की उपेक्षा, नारी के विविध रूप तथा उसके
प्रति श्रद्धा, बचपन की किलकारी, घिनौनी
राजनीति आदि सब कुछ है।
हाइकुकारा कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश का
दृष्टिकोण आशावादी है। अपने अनेक हाइकुओं में उन्होनें आशावाद का मंत्र फूँका है।
कतिपय उदाहरण दृष्टव्य हैं:
रखें जीवंत /हर परिस्थिति
में / आशा की ज्योति
कैसी निराशा/ जीवन का
अर्थ / आशा प्रत्याशा
उठाओ हाथ / भर लो आसमान /
मुट्ठी में दोस्त
तुम्हारी आँखें / क्यों
दिल में जलाती / आशा के दीप
छू ले आकाश / मेरे मन के
पाखी / देते विश्वाश
![]() |
सारिका मुकेश |
जीवन सचमुच ही एक अनबूझ पहेली है। इसका उत्तर
खोजते-खोजते जीवन तो समाप्त हो जाता है किन्तु उत्तर नहीं मिलता। विभिन्न
विद्वानों,
दार्शनिकों, संत-महात्माओं व कवि-साहित्यकारों
ने जीवन को अनेक तरह से परिभाषित किया है। हाइकुकारा कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश ने
भी जीवन को अपनी तरह से परिभाषित किया है:
कहाँ सुलझी / जीवन की
पहेली / यहाँ किसी से
दो मीठे बोल / जीवन नहीं
कुछ/ साँसों का खेल
जीवन जैसे / दूब की नोंक
पर / ओस की बूँद
हरेक पल / बढ़ती जाये उम्र
/ घटे जीवन
मौत देती है / जिन्दगी के
द्वार पे / एक दस्तक
कवयित्री ने ‘अपनी
बात’
में लिखा है, ‘‘हाइकु
मुलतः प्रकृति से जुड़े रहे हैं परन्तु चूँकि मनुष्य भी इसी प्रकृति का हिस्सा है
और वैसे भी साहित्य समाज का दर्पण है और समाज व्यक्ति /मनुष्य से बनता है सो
मनुष्य की अनदेखी करना कदापि उचित नहीं होगा। इसीलिए आजकल मनुष्य को केंन्द्र में
रखकर खूब हाइकु लिखे जा रहे हैं”। यहाँ यह कहना समीचीन होगा
कि कवयित्री ने अपनी इसी बात को ध्यान में रखते हुए हाइकु लिखे हैं। डॉ. महावीर
सिंह ने अपनी पुस्तक ‘हाइकु उद्भव
एवं विकास’ में लिखा है, ‘‘बारहवीं शताब्दी से हाइकु रचना में ऋतुबोधक शब्दोंका प्रयोग अनिवार्य सा
था ताकि यह जाना जा सके कि हाइकु की रचना
किस ऋतु में की गई है”। डॉ. सत्यभूषण वर्मा ने भी कहा है,
‘‘ऋतु का हाइकु के साथ गहरा सम्बन्ध है”। जापानी हाइकु की यह मान्यता अब हिन्दी हाइकु में खण्डित होती हुई प्रतीत
होती है किन्तु फिर भी कहीं न कहीं प्रकृति के माध्यम से ऋतु संकेत आ ही जाता है।
कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश के कतिपय प्रकृति परक हाइकु दृष्टव्य हैं-
पूरब दिशा/ प्रातः हो उठी
लाल / निकला सूर्य
गूँजते स्वर / खिल उठी
कलियाँ / हुई सुबह
नई ताजगी / खिला-खिला सा
मन / निकले पक्षी
आया वसंत / धरती ने ओढ़ ली
/ पीली चूनर
वासंती हवा / बाँचती रही
पाती / किसी के नाम
आसमान की / रस्सी पर लटके
/ ये चाँद सितारे
धरती माता / सब कुछ सहती
/ देती जीवन
कवयित्री ने प्रकृति को प्रतीक बनाकर मेहनतकशों
के बिम्ब का कितना अच्छा चित्रण किया है:
घोंसला छोड़ / दानों की
तलाश में / निकले पक्षी
जिस प्रकार कस्तूरी की खोज में हिरण चारों तरफ
भटकता रहता है और यह नहीं जान पाता कि कस्तूरी तो उसी के पास है उसी प्रकार मनुष्य
भी जीवन के भटकाव में रहता है और अपने आप को पहचान नहीं पाता:
भटकते मृग/ कस्तूरी की
खोज में / यहाँ से वहाँ
अस्थिर मन / भोर की हवा
जैसा / कसमसाता
आज के युग में जो नई संस्कृति या कहना चाहिए कि
अपसंस्कृति पनप रही है उसके भयंकर दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। आज अपनापन, मित्रता व प्रेम पर प्रश्न-चिह्न लग गया है तथा सभी एक-दूसरे का गला काटने
को फिर रहे हैं। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं तथा खुद व बीबी बच्चों तक परिवार सिमट
कर रह गयें हैं। संकीर्णता चारों तरफ हावी है यह सब कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश के
कतिपय हाइकुओं में दृष्टव्य है:
बड़ा आश्चर्य / गला काटते
यहाँ / अपने लोग
कैसा विकास / आदमी को
आदमी / काटता आज
बढ़ते रहो / चाहे काटना
पड़े / किसी का गला
इस दौर में / आत्मीयता का
भाव / खो गया कहीं
अब तो यहाँ / आस्तीनों
में हैं साँप / रहो सतर्क
डसा करते / आस्तीनों में
रहकर / अब तो मित्र
इस दौर में / खुद में
संकुचित / हो गये लोग
यूँ मिटा प्यार / खुद में
ही सिमटे / सारे त्यौहार
सिमट गये / सब प्रेम में
अब / भीतर तक
सिमट
गये / मैं मेरी बीबी बच्चे / तक क्यों हम
दिन
का कत्ल / रोज करे सूरज / तो भी महान
करे
आदमी / स्वार्थ सिद्धि के लिए / कैसे प्रपंच
ओपन
सैक्स / हाई फाई जीवन / ऊँचा सेंसेक्स
झूठ
दिखावा / इस दुनिया की ये / नई संस्कृति
जान
ले लेती / अपनी ही प्रेमिका / एक क्षण में
विवेच्य कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश के प्रस्तुत
हाइकु संग्रह में सत्य,
त्याग, सहानुभूति, करूणा,
धर्म, आत्म विश्वाश, विनय,
सन्तोष, श्रद्धा, दानशीलता,
ईमानदारी, सेवा, प्रेम,
अहिंसा, शांति, आस्था,
सहनशक्ति, उदारता, परहित
तथा आनंद आदि मानव मूल्यों को खोजा जा सकता है। उनके कतिपय हाइकुओं में मानव मूल्य
देखें:
आत्मा का रिश्ता / होता
है सच्चा / न टूटे कभी (प्रेम)
नफरत भी / करते हैं
उन्हीं से / जिनसे प्रेम (प्रेम)
संसद मौन / गरीब की व्यथा
को / समझे कौन (करुणा)
धरती माता / सब कुछ सहती
/ देती जीवन (सहन शक्ति व दानशीलता)
जल उठे दीप / जागी एक
किरण / जाग उठा विश्वाश (आत्म विश्वाश)
ओ मेरे कान्हा / रँग दे
चुनरिया / अपने रंग (आस्था)
थाम ले हाथ / दुख में जो
दे साथ / वो तेरा मीत (परहित)
दिल को भाता / मीठी-मीठी
बातों से / मन हर्षाता (आनंद)
पूरी हो साँस / जाये हरि
के पास / बिना प्रयास (धर्म)
सत्य के लिए / दिया राम
का साथ / विभीषण ने (सत्य)
क्यों भूले सत्य / भूल
गये ईश्वर / अहंकार में (सत्य)
कर दो क्षमा / हर एक भूल
को / ओ परम पिता (विनय)
ये जग मिथ्या / है सच्चा
यहाँ सिर्फ / हरि का नाम (त्याग)
प्रीत निभाई / दर्द रहे
अपने / खुशी पराई (उदारता)
जिंदगी भर / सहता रहा सब
/ आम आदमी (सहनशक्ति)
पल भर में / मिटे सब थकान
/ देखूँ जो पुत्र (संतोश)
एक सहारा / बस परमात्मा
का / दूजा ना काई (श्रद्धा)
उपजी पीड़ा / वाल्मीकि के
मन में / क्रौंच वध से (अहिंसा)
अकेला पड़ा / मौन रह
मित्रता / बाकी के दिन (शांति)
सदा से देखा / महँगाई की
मार / मारे गरीब (सहानुभूति)
राम के लिए / अर्पित किया
जहाँ / जै हनुमान (सेवा)
नारी के विविध रूपों का चित्रण कवयित्री ने अपने
कतिपय हाइकुओं में किया है। कहीं उसके प्रति श्रद्धा है तो कहीं उस पर अत्याचारों
व शोषण का चित्रण है:
धरती माता / सब कुछ सहती
/ देती जीवन
गीले में रह / सूखे में
सुलाती माँ / ये कर पाती
ये इबादत / महिला-दिवस
में / लूटी इज्जत
महानता का / जामा पहनाकर
/ किया शोषण
राम तुमने / क्यों दिया
वनवास / स्वयं सीता को
पाँच पांडव / औ‘ अकेली द्रौपदी / करती तृप्त
ठगा तुम्हें भी / सोने के
हिरन ने / वन में सीता
स्त्री की नीयत / कभी
अंकशायिनी / तो कभी जूती
आज भी होती / क्यों
द्रोपदी निर्वस्त्र / भरी सभा में
दुःखी हो मन / दिखाते
क्यों स्त्री तन / ये विज्ञापन
रोज बेधती / पुरूषों की
दृष्टियाँ / नारी तन को
अब न कहो / नारी नर्क का
द्वार / नहीं उद्धार
रसराज श्रृंगार को भी डॉ. सारिका मुकेश के कतिपय
हाइकुओं में स्थान मिला है। संयोग श्रृंगार के कतिपय उदाहरण दृष्टव्य हैं-
छुआ तुमने / गरम हुई
साँसे / पिघले जिस्म
उतरी शाम / मिले प्यासे
बदन / मिटाने प्यास
तुम्हें जो देखा / उभरा
मन बीच / इंद्रधनुष
मन हर्षा / जब मन का मिला
/ तन भी खिला
श्रृंगार के वियोग पक्ष पर भी कवयित्री ने कलम
चलाई है:
छीन ले गयी / मन का सारा
चैन / उसकी याद
मन की पीर / नहीं समझे
कोई / सुबके हीर
हुआ उदास / जब चुभी मन
में / यादों की फाँस
साथी मन के / कभी तो मिलो
मुझे / करूँ प्रतीक्षा
बाल मनोविज्ञान पर भी कवयित्री ने कतिपय हाइकु
रचे हैं। देखें कुछ उदाहरण:
लिखो जो चाहे / बच्चे
होते हैं सदा / कोरी किताब
एक क्षण में/ हर ले पीड़ा
सारी / ये किलकारी
कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश की हिन्दू धर्म में
आस्था है। वे हिन्दू धर्म के अवतार और देवताओं में विश्वाश रखतीं हैं। उन्होंने
कहीं-कहीं मीरा के सुर में भी सुर मिलाया है-
ओ मेरे कान्हा / रँग दे
चुनरिया / अपने रंग
मैं रँग जाऊँ / बस तेरे
रंग में / ओ घनश्याम
समाज में प्रचलित लोक विश्वाशों को भी कवयित्री
के इन हाइकुओं में स्थान मिला है:
अभी भी आते / क्या तुम हर
रात / निधि वन में
निधि वन में / सुना है आज
तक / रास रचाते
यकीन मान / है सबके भीतर
/ वो भगवान
जीवन क्षण भंगुर है। साँसों की डोर कब टूट जाये
कुछ भी पता नहीं। जीवन की इस क्षण भंगुरता को कवयित्री ने इस तरह प्रस्तुत किया
है:
जीवन जैसे / दूब की नोंक
पर / ओस की बूँद
नश्वर देह / है माटी का
पुतला / करे घमंड
मानव मन वर्जनाओं में रहने का आदी नहीं है। वह
खुले आकाश में स्वच्छन्द होकर उड़ाने भरना चाहता है। स्वच्छन्दतावाद को भी कवयित्री
ने कुछ हाइकुओं में प्रस्तुत किया है:
मुक्त होकर / आकाश में
उड़ना / चाहता दिल
वक्त है चलें / सरहदों के
पार / बहें निर्बंध
आज की घिनौनी राजनीति से कवयित्री का मन खिन्न
है। उन्होंने राजनीति पर कटाक्ष किया है:
फैला जहर / सांप्रदायिकता
का / नेता ले मौज
यूँ चाल चली / जिसको मिला
मौका / कुर्सी खींच ली
सेवा के नाम / अपनी जेब
भरें / आज के नेता
आज आम आदमी पीड़ा, घुटन,
संत्रास, अभाव, गरीबी,
महँगाई से त्रस्त है। दैवी आपदाओं का दंश भी उसे झेलना पड़ता है।
कवयित्री ने अपने कतिपय हाइकुओं में इन समस्याओं पर भी कलम चलाई है:
आया तूफान/ पल में हुए
नष्ट / खेत औ‘ खलिहान
क्यों त्राहिमाम / कर रहे
किसान / सड़कों पर
कहाँ समझी / व्यथा मेरे
मन की / कभी किसी ने
सदा से देखा / महँगाई की
मार / मारे गरीब
प्रस्तुत हाइकु संग्रह के कला पक्ष पर दृष्टि
डालने पर हम पाते है कि संग्रह के समस्त हाइकुओं की भाषा आम बोलचाल की खड़ी बोली है
जिसमें अन्य भाषाओं के हिन्दी में रच-पच गये शब्दों को भी स्थान मिला है। फाइल, ओपन, हाई फाई, सेंसेक्स,
बॉस जैसे अंग्रेजी शब्द, जिस्म, ख्याल, इज्जत, नफरत, दर्द, नसीब जैसे अरबी शब्द तथा याद, दिल, वक्त, खुद, खूब, खुशी, गरम, जिन्दगी जैसे फारसी शब्द भी इसमें स्थान पा गये हैं। उन्होंने जापानी
काव्य विधा हाइकु के छन्द का निर्वाह किया है। उन्होंने जापानी काव्य विधा हाइकु
के छन्द विधान जिसमें 5-7-5 वर्ण की तीन पंक्तियों में मात्र
17 अक्षर होते हैं का अक्षरश: पालन किया है। अपवाद स्वरूप एक
हाइकु ऐसा भी है जिसमें 5-7-5 वर्ण क्रम का निर्वाह नहीं
किया गया है। तीसरी पंक्ति में 5 वर्णों के स्थान पर 7 वर्ण हैं, देखें:
आया तूफान / पल में हुए
नश्ट / खेत औ‘ खलिहान
संग्रह के समस्त हाइकुओं में गागर में सागर भरने
का पूरा प्रयास किया गया है। समस्त हाइकुओं में अभिधा, लक्षणा व व्यंजना तीनों ही शब्द शक्तियाँ तथा ओज, माधुर्य
व प्रसाद तीनों ही गुण विद्यमान हैं। अलंकारों की हाइकु जैसे लघु छंद में गुंजाइश
बहुत कम होती है किन्तु फिर भी कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश ने अपने कतिपय हाइकुओं
में अलंकारों की छटा भी बिखेरी है। उनके संग्रहीत हाइकुओं में कतिपय अलंकार देखें:
नई ताजगी / खिला-खिला सा
मन / फैला उजाला (पुनरूक्ति प्रकाश)
तुम्हारी याद / हृदय के
सीप में / मोती के जैसी (उपमा)
अस्थिर मन / भोर की हवा
जैसा / कसमसाता (उपमा)
तुम्हारी यादें / चंदन सी
महँकें / मेरे मन में (उपमा तथा अनुप्रास)
देती दस्तक /
मस्तिष्क-पटल पे / तेरी वों यादें (अनुप्रास, रूपक तथा
मानवीकरण)
दिल को भाता / मीठी-मीठी
बातों से / मन हर्षाता (पुनरूक्ति प्रकाश)
खिले पलाश / कटे हुए पेड़
सा / मन उदास (उपमा)
चमको ऐसे / अनंत ऊँचाई पे
/ ज्यों ध्रुवतारा (उपमा)
यहाँ औ‘ वहाँ / बिखराये रहता / खेल खिलौने (अनुप्रास तथा पदमैत्री)
दिन का कत्ल / रोज करे
सूरज / तो भी महान (विरोधाभास)
मौत देती है / जिन्दगी के
द्वार पे / एक दस्तक (मानवीकरण)
तेरी आँखें में /
झिलमिलाते आँसू / सितारों जैसे (उपमा)
आया वसंत / धरती ने ओढ़ ली
/ पीली चूनर (मानवीकरण)
बजे मृदंग / गूँज उठी
आरती / औ’ गूँजे शंख (नाद
सौंदर्य)
अंत में निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि
कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश का प्रस्तुत हाइकु संग्रह हिन्दी हाइकु संसार में एक
उच्च स्तरीय स्थान बनायेगा,
ऐसा मेरा विश्वाश है। संग्रह के समस्त हाइकु गागर में सागर भरने में
सक्षम हैं। कतिपय स्थानों पर एक ही भावभूमि के अनेक हाइकु आ गये हैं, उनसे बचा जा सकता था। संग्रह डायरी का आनंद भी देता है। इतने अच्छे हाइकु
संग्रह हेतु मेरी हाइकुकार कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश को शुभकामनाएँ।![]() |
डॉ. हरिश्चंद्र शाक्य, डी.लिट्. |
समीक्षक-डॉ. हरिश्चंद्र शाक्य, डी.लिट्.
मैनपुरी - 205001 (उ.प्र.)
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समीक्ष्य कृति: शब्दों के पुल
(हाइकु संग्रह)
लेखिका: सारिका मुकेश
प्रकाशक: जाह्नवी प्रकाशन, दिल्ली-110 095
मूल्य: 200 रूपये, पृष्ठ:
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बधाई हो आपको!
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