Wednesday, 22 April 2020

वर्तमान परिवेश से मुठभेड़ करते मानवीय सरोकारों के व्यंग्य संग्रह


  
यह एकदम सच है कि आज किसी को भी किसी से कुछ सुनने की बर्दाश्त नहीं है। बड़ों की बात तो छोड़िए, आप छोटे बच्चों को भी कुछ नहीं कह सकते। उन्हें भी कुछ समझाने से पूर्व बहुत सोचना पड़ता है। ऐसे माहौल में उन व्यक्तियों को जो प्रशासनिक ज़िम्मेदारी में सेवारत हैं, किसी मंत्रालय में किसी विशिष्ट पद पर फेविकोल के जोड़ से चिपके हैं या फ़िर राजनीति में सक्रिय हैं, उनके बारे में कुछ कहना या लिखना-‘जल में रहकर मगरमच्छ से बैर’ लेने जैसा है या ‘आ बैल मुझे मार को चरितार्थ करने जैसा’। सच में उनके विरोध में कुछ कहना या लिखना किसी बिच्छू को छेड़ने से कम ज़ोखिम का कार्य नहीं है पर क्या करें कुछ लोग आज भी इस मुगालते में जीते हैं कि उसके कन्धों पर समाज की ज़िम्मेदारी है, उनका लिखा समाज का आईना है और वो क्रांति ला सकता है (जिसके प्रमाण में वो इतिहास का हवाला दे आपको संतुष्ट करने को भी तत्पर दिखते हैं)। इस असार संसार में ऐसे वीरोचित कार्यों का बीड़ा उठाने के लिए जिस विशेष जीव का नाम समाज में प्रसिद्ध है उसे या तो पत्रकार कहते हैं या साहित्यकार/व्यंग्यकार। ये दोनों ही अपनी जान को जोखिम में डालकर, लोगों की उपेक्षा, घृणा, अपमान और तिरस्कार का पुरस्कार पाकर भी अपने कार्यों को बखूबी अंजाम देते हैं। अब अगर कोई व्यंग्यकार के साथ-साथ पत्रकार भी हो तो यही कहना उचित होगा कि ‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’। यह एक कहावत है पर हम सभी आज इस तथ्य से अवगत हैं कि करेला और नीम हमारे लिए एक विशिष्ट औषधि हैं, यह स्वभाव से भले ही कड़वे लगें पर अन्तोगत्वा हमारे लिए बेहद लाभप्रद/संजीवनी हैं। हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ बरसों में करेले का जूस पिला-पिला कर एक बाबा खूब प्रसिद्ध हुए हैं और नीम की प्रसिद्धि का आलम तो यह है कि आज बाज़ार में साबुन, तेल, टूथपेस्ट आदि तक में नीम देखा/सुना जाता है। 
खैर, हमारा उद्देश्य यहाँ इनकी किसी प्रोडक्ट के प्रचार का नहीं है बल्कि हम तो आज आपको इस नीम और करेले की संजीवनी का दर्शन लिए सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार/पत्रकार श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव के दो व्यंग्य-संग्रहों से रूबरू कराने के लिए उपस्थित हुए हैं। पेशे से पत्रकार, सम्पादक कुशलेन्द्र जी अत्यंत विनम्र, मिलनसार और कर्त्तव्यपरायण सामाजिक प्राणी हैं। प्रभु श्री राम कथा से इनका विशेष आत्मिक स्नेह/लगाव है। ‘राम वनगमन’ और ‘राम-भरत मिलाप’ पर नाट्य रूपांतरण की इनकी दो कृतियाँ प्रकाशित और बहुचर्चित हो प्रसिद्धि पा चुकी हैं। व्यंग्यकार के रूप में भी इनकी ख़ूब ख्याति है और इन्हें अनेकों सम्मान/पुरूस्कार प्राप्त हुए हैं पर इस सब के बावजूद उनकी सहजता, सरलता और आत्मीयता उन्हें और अधिक विशिष्ट और अद्वितीय बनाती है। वो भरत जैसा जीवन जीते हुए राम के जैसे साहसिक/वीरोचित कार्य-समाज की विद्रूपताओं का विनाश करने हेतु व्यंग्य के तीर-तुणीर लिए तत्पर दिखते हैं। कभी-कभी तो विश्वास ही नहीं होता कि इतना मृदुभाषी शख्स व्यंग्य लिख सकता है (‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना’)।







श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव के सद्यः प्रकाशित दो व्यंग्य-संग्रह-‘साहब परेशान हैं’ और ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’ हमारे सम्मुख उपस्थित हैं। उनके व्यंग्यों से गुज़रते हुए हमें यह विशिष्ट अनुभव हुआ कि तीर जैसे चुभने वाले व्यंग्य को भी इतनी मीठी चाशनी में पेश किया जा सकता है (जलेबी भी तो टेढ़ी होने के बावजूद मीठी ही होती है न!) और व्यंग्य की रणभूमि में कहीं भी और किसी भी विषय पर लिखते हुए प्रेम की कथा ठीक वैसे ही बुनी जा सकती है जैसे सुप्रसिद्ध साहित्यकार लिओ टॉलस्टॉय ने अपने विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास ‘वार एन्ड पीस’ में बुनी थी। यहाँ ‘साहब परेशान हैं’ संग्रह में इसका जीवंत उदाहरण है ‘स्वच्छता अभियान पर लिखा व्यंग्य ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’। कलुआ बाई अपनी छोटी बहन मुनिया बाई के साथ रोज सुबह-शाम आम आदमी के लिए आवश्यक दिनचर्या को पूर्णता की और ले जाने के लिए हाथ में लोटा लेकर गाँव के बाहर की और निकल जाया करती थी। कलुआ के साथ चौथी कक्षा तक पढ़ चुका रामलाल भी इसी समय अपने हाथ में लोटा लेकर निकलता था। ...यह क्रम उनका दो साल से निरंतर चलता आ रहा था। फ़िर एक दिन सरकार ने ऐलान कर दिया की अब हर घर में टॉयलेट यानी शौचालय बनेंगे। टॉयलेट एक प्रेमकथा का दूसरा हिस्सा यहाँ से आरंभ हुआ।...कलुआ उदास हो गई। टॉयलेट बन जाएगा तो वे फ़िर लोटा लेकर बाहर नहीं जा सकेंगे। उसे उदास देखकर रामलाल भी उदास हो गया। उस दिन तीनों उदासी के वातावरण में ही अपने-अपने लोटे का पानी विसर्जित कर वापस लौटे।...टॉयलेट का काम निपट गया। कलुआ और मुनिया का बाहर जाना बंद हो गया। इस कारण से रामलाल भी अपने घर में स्वच्छता अभियान को निपटाता रहा। ऐसा लगा कि ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ का दी एन्ड हो गया है। तभी तेज आँधी चली और पूरी ताकत से बरसात आरम्भ हो गई...घरों में रेत से बने शौचालय पानी में बह चुके थे...रेत नदी में जाकर मिल चुकी थी ‘नदी का पानी नदी में जाए’।...सारे बिल निकल चुके थे, बंदरबांट हो चुकी थी। बंदरबांट होते ही साहब ने अपना ट्रांसफर दूसरे जिले के शौचालय बनाने के लिए करा लिया था। मौसम खुल चुका था।  कलुआ खुश थी, मुनिया प्रसन्न थी...वो शाम होने का इंतज़ार कर रही थीं। शाम होते ही वे अपना लोटा लेकर बाहर जाती दिखीं, रामलाल भी उनके पीछे लोटा लिए चल रहा था...।
इसी तरह दूसरे व्यंग्य संग्रह ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’ में ‘चलो अंगूठा लगाएं’ का उल्लेख करना चाहेंगे। इस में लेखक ने वर्तमान परिवेश में अंगूठे की महत्ता पर बढ़िया से लिखा है। ‘मैया मोरी मैं नहीं अंगूठा देऊ...’ से इस लेख का आरम्भ हुआ है।...अंगूठा दिखाना अब ‘स्टेटस सिंबल बन गया है। एक अंगूठा दिखाओ बस समझ लो आपने वो सब कह दिया जो आप कहना चाह रहे थे...अंगूठा अब आम आदमी की पहचान हो गया। आधार कार्ड तभी बनेगा जब आपका स्वयं का अंगूठा होगा। एक अदद अंगूठे के बिना आपका बैंक खाता नहीं खुल सकता।...इतना बड़ा शरीर आपकी पहचान नहीं है एक जरा सा अंगूठा आपकी पहचान बन गया है। आप अंगूठा संभालकर रखने लगे हैं। आपकी नाक भले ही कट जाए पर अंगूठा नहीं कटना चाहिए। ‘ये अंगूठा मुझे दे दो ठाकुर...’। ‘नहीं! आप मेरी नाक ले लो पर अंगूठा नहीं दूँगा’।...आम लोगों से अपील की जाती है कि अपने-अपने अंगूठे को संभाल कर रखें, यही आपकी पहचान है, अंगूठा न होने की स्थिति में आप मृत मान लिए जाएंगे...।
यह तो एक छोटी-सी बानगी भर है क्योंकि स्थानाभाव के चलते यहाँ विस्तृत चर्चा कर पाना संभव नहीं है परन्तु हमें पूरा यकीन है कि आप जब इन दोनों व्यंग्य-संग्रहों के विविध विषयों पर लिखे व्यंग्यों से ख़ुद गुजरेंगे तो श्री कुशलेन्द्र जी की लेखनी के कायल हो जाएंगे। हमें विश्वास है कि उनके यह व्यंग्य-संग्रह साहित्य जगत् में सराहे जाएंगे और अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाएंगे। दोनों संग्रहों के आकर्षक मुखपृष्ठ तथा उत्कृष्ट कोटि के काग़ज़ और सुन्दर छपाई के लिए प्रकाशक ‘अनुराधा प्रकाशन’ साधुवाद के पात्र हैं। हम श्री कुशलेन्द्र जी को उनके अहर्निश सृजन-कर्म हेतु हार्दिक साधुवाद/बधाई और शुभकामनाएं देते हुए भविष्य में भी उनसे अन्य श्रेष्ठ कृतियों की अपेक्षा रखते हुए इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं।    
इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश


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व्यंग्य संग्रह – ‘साहब परेशान हैं’ और ‘करवा चौथ पर पति दर्शन’
व्यंग्यकार - कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
प्रकाशक  अनुराधा प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रत्येक का मूल्य: 150/-रूपये
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अतलस्पर्शी संवेदनाओं और काव्य सृजन की निपुणता को उजागर करता संग्रह




चाहकर भी, न मिला कभी साथ, रहा अकेला/सच रे मन, तू बहुत अकेला, बड़ा झमेला



अंतश्चेतना की बहुर्मुखी अभिव्यक्ति हैं शब्द! हमारी सकल मानसिक ऊर्जा, बौद्धिक चिंतन, मनोद्वेग, एवं संवेदन बाह्य उदगार तो शब्द के रूप में ही प्रकट होते हैं। इन शब्दों के सही संयोजन के साथ समुचित और मुखरित भाव प्रवाह, भाषा सौंदर्य और काव्यात्मक ध्वनिओं का सम्प्रेषण का भी योग हो जाये, तो निश्चित ही एक मृदुल, मन को मंत्र मुग्ध कर देने वाले मधुश्रुत काव्य  का सृजन हो जाता है। इससे बढ़ कर, यदि  इसे किसी  बहुज्ञ और कुशल रचनाकार की लेखनी मिल जाये, तो उसका असरकारी प्रभाव और प्रभामंडल अत्यधिक विस्तृत सा हो जाता है।
इन शब्दों का सही संयोजन कर गहरी सारगर्भित बात कहने की करिश्माई कला तो हाइकु कविताओं के संग्रह हवा में शब्दकी कवयित्री डॉ. सारिका मुकेश जी से कोई सीखे। एक अतीव सुखद आश्चर्य की अनुभूति हुई मुझे, जब यह पुस्तक मेरे हाथ लगी। लगा, चतुर्दिक अजर, अमर, अविनाशी ध्वनि तरंगें गुंजित हो रही हों, शब्दों की मधुकरियां मन को मंत्र मुग्ध कर रही हों। इसके पूर्व भी इस सुप्रसिद्ध और निष्णात कवियित्रि की दो काव्य पुस्तकें, शब्दों के पुल (हाइकु संग्रह) एवं एक किरण उजाला (लघु छंद संग्रह) पढ़ने का सौभाग्य मुझे मिल चुका है और ये कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि इन पुस्तकों ने भी मेरे मनोमस्तिष्क पर एक अमिट असर छोड़ रखा है। महज चंद शब्दों में गहरे भाव और हृदयस्पर्शी संवेदनाओं को उजागर करना एक जटिल काव्य विधा है और निसंशय इस विधा में डॉ. सारिका मुकेश अति पारंगत प्रतीत हो रही हैं। प्रासंगिक पुस्तक हवा में शब्दभी हाइकु काव्य रूप में होने के कारण महज तीन पंक्तियों, मात्र 17 ( 5-7-5) वर्णों की विशिष्ट कला में, जो साहित्य के क्षेत्र में, मूलत: जापान से आयातित काव्य तकनीक है और जिसने कालचक्र के अल्प अवधि में ही आशातीत लोकप्रियता प्राय: विश्व के सभी साहित्यिक सृजन के क्षेत्र में प्राप्त कर लिया है,  अत्यंत दुष्कर और दुरूह कार्य है, जिसकी परिकल्पना मात्र से मैं तनिक उलझन में पड़ जाता हूँ कि कदाचित यह मुझसे संभव नहीं हो पायेगा, जबकि अनेकानेक काव्य सृजन ( काव्य के प्राय: सभी रंग, रस और शैली में) अतीव सहजता से मैं कर चुका हूँ, जिसे प्रबुद्ध साहित्यकारों ने सराहा भी है।
फिर मैं ये भी मानता हूँ कि कविता सृजन तो एक कार्यवाही है, भले रचना छोटी हो या बड़ी, उसमें सर्जक की बराबर की हिस्सेदारी, अकेलेपन और हमदर्दी का समावेश होना चाहिये। कविता वही सार्थक है, जिसमें निर्बाध भाव प्रवाह, स्वयं के प्रति निकटता, इंसानियत के प्रति मुखरित संदेश और प्रकृति की रहस्यमयी अभिव्यक्ति परिलक्षित हो रही हो। निश्चित ही अभीष्ट काव्य पुस्तक की लघु कविताओं में ये सारी विशेषतायें दृष्टिगोचर हो रही हैं।






          सारिका मुकेश















माँ सरस्वती की अति सुंदर और मनोहर वंदना के साथ इस काव्य पुस्तक की शुरुआत होती है। अपनी निस्पृह मनोकामना को माँ शारदे के सामने कवयित्री यों प्रकट करती हैं-‘हर लो तम/दिखाओ सदमार्ग/भर दो ज्ञान’। कितनी सहजता से माँ की स्तुति करती हैं ये विदुषी रचनाकार-‘माँ सरस्वती/जब कृपा करती/विद्या बढ़ती’, और ये यहीं नहीं रूक जाती, बड़ी सरलता से अपनी चिर्कीषा माँ के समक्ष यों व्यक्त करती हैं-‘माँ सरस्वती/अपनी कृपा करो/विद्या से भरो।
तकरीबन 285 हाइकुओं का संकलन है ये पुस्तक, एक से बढ़ कर एक, अपने आप में अभियक्ति की पूर्णता समेटे हुये। यहाँ सारी हाइकुओं की खुसूसियत पेश कर पाना मेरे लिये न तो मुमकिन है और न ही समीक्षात्मक प्रस्तुति के दृष्टिकोण से सही।
फिर भी बानगी के तौर पर कुछेक कृतियाँ पेश हैं। एक सार्थक संदेश: बोली बोलना एक कला है और डॉ. सारिका कहती हैं-‘पहले सदा/सोचो, परखो, तोलो/तो कुछ बोलो’, ‘नदी से बनो/औरों के काम आओ/ऊँचे से बहो’, ‘वाणी हो मीठी/बनों सबके प्रिय/जैसे कोयल’।
मन के अकेलेपन को कवयित्री यों उजागर करती हैं-‘चाहने पर भी/ना मिला साथ कभी/रहा अकेला’, ‘सच रे मन/तू बहुत अकेला/बड़ा झमेला’, ‘कभी लगता/कोई नहीं अपना/इस जग में’। वाह! मात्र 17 वर्णों में कितनी गहरी और मर्मस्पर्शी अभिव्यंजनाओं को  प्रकट किया है कवयित्री ने, जिसे पढ़कर दिल तन्हाइयों की उदासियों के समुंदर में डूबने सा लगता है।
एक अपनी अन्य रचना में डॉ. सारिका ने सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन की महान कृति ‘मधुशालाका अवलम्बन लेकर सम्प्रति में व्याप्त दुखद और विषम परिस्थियों के प्रति अपनी वेदनाओं को यों व्यक्त किया है-‘बदला युग/बदले पीने वाले/औ मधुशाला’, ‘कहाँ समझा/बच्चन हर कोई/ये मधुशाला’, ‘भाई भाई में/अब बैर बढ़ाती/ये मधुशाला’।
ये तो चंद प्रतिमान हैं , जो कवयित्री की लेखन कौशल्य, विलक्षण प्रतिभा और अतलस्पर्शी संवेदनाओं और काव्य सृजन की निपुणता को उजागर कर रहे हैं। सच तो यह है कि पुस्तक की एक-एक रचना पढ़ने के बाद दिलो-दिमाग पर एक गहरा प्रभाव छोड़ जाती है ।
अंतत: मैं इस रचनाकार की काव्य प्रतिभा की भूरि-भूरि सराहना करते हुये साहित्य के क्षेत्र में इनके समुज्ज्वल भविष्य की अहर्निश कामना करता हूँ और साथ ही पुस्तक की आशातीत लोकप्रियता हेतु सच्चे अंतर्मन से शुभकामनायें सम्प्रेषित करता हूँ।


          सतीश वर्मा
सतीश वर्मा
कवि एवं साहित्यकार
मुम्बई 












पुस्तक का नाम : हवा में शब्द (हाइकु-संग्रह)
कविगण : सारिका मुकेश
प्रकाशन : एस. कुमार एण्ड कम्पनीदिल्ली-110002
कुल पृष्ठ: 112
मूल्य: रु. 200/-






Sunday, 5 April 2020

शब्दों के आईने में वैचारिकता का समुन्दर...






एक प्रश्न जिस पर हुए, सभी देवता मौन। माँ तो माँ है बोलिए, माँ से बढ़कर कौन।।



तू कितनी अच्छी  है
तू कितनी भोली है
प्यारी प्यारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ..
यह जो दुनिया है
वन है काँटों का
तू फुलवारी है
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ...
फ़िल्म जगत की ऐतिहासिक माँ निरुपमा राय जी पर फ़िल्माये फिल्म राजा और रंक (1968)” के इस गीत को कौन भूल सकता है जिसके बोल मशहूर गीतकार आनंद बख्शी साहब ने लिखे और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी के संगीत में स्वर दिया था लता मंगेशकर जी ने। आज भी यह गीत माँपर सर्वश्रेष्ठ गीतों में गिना जाता है और हमें अंदर तक भिंगो देता है।
महात्मा गांधी ने बिल्कुल सही कहा था-यह सम्भव है कि आप सोने को और अधिक चमकीला बना दें, पर कौन है जो अपनी माँ को और अधिक सुन्दर बना सकता है। यह सच है कि माँविश्व की सुन्दरतम्, अनुपम और अद्वितीय कृति है। हमारे पापा (श्री बृजकिशोर त्यागी) जी कहा करते थे-मदर: वोल्यूम्स इन अ वर्ड। अब्राहम लिंकन कहते हैं-नो मैन इज़ पुअर हू हैज अ गोडली मदर” (अर्थात् जिसके पास ईश्वर प्रदत्त माँ है वो आदमी कभी ग़रीब नहीं हो सकता) और हमें बेहद ख़ुशी हो रही है कि हम आज आपको डॉ अजय जनमेजय जी के सात सौ पचपन दोहों को समेटे जिस संग्रह से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, उसका नाम है-माँ तो माँ है। इस संग्रह के रूप में जनमेजय जी ने माँ” के साथ-साथ जीवन की विभिन्न झाँकियों को निरूपित करते दोहों के मोतियों की एक बेशकीमती माला माँ सरस्वती के चरणों में अर्पित कर साहित्य जगत् को एक अमूल्य निधि दी है। राष्ट्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के पूर्व सदस्य और सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा अरुणजी और सुप्रसिद्ध शायर/साहित्यकार जनाब शकील अहमद ख़ान (शकील बिजनौरी) जी द्वारा लिखी शानदार और जानदार भूमिकाएं संग्रह को गंगा-जमुनी तहज़ीब की स्वीकार्यता/मान्यता दिला रही हैं।






माँ से पुस्तक का आरंभ करते हुए बचपन को स्मृत करते हुए यह दोहे देखिए-माँ की मीठी लोरियाँ, माँ की मीठी थप/ले आती थी नींद को, पलकों पर चुपचाप, माँ जो माथा चूमती, माँ जो करती प्यार/मिलना ऐसा प्यार फ़िर, जीवन भर दुश्वार, मंदिर, मस्जिद, औलिया, या पडिया का दान/माँ ने बच्चों के लिए, देखे सब स्थान, माँ का अनुशासन अजय, माँ के तीखे बोल/जब अपने बच्चे हुए, जाना उनका मोल। बचपन में हम राजा होते हैं...हमें किसी बात की चिंता नहीं रहती, जो कुछ भी हुआ माँ से कह हम मुक्त हो जाते हैं। माता-पिता कैसे हमारी ख्वाहिशें पूरी करते हैं, यह तो हम तब जान भी नहीं पाते। इन्हीं भावों को समेटे यह दोहे दृष्टव्य हैं-माना घर में था नहीं, खुशियों का सामान/पर माँ के आँचल तले, मैं था इक सुल्तान, मैं मोती-सा जा छुपा, माँ थी मेरी सीप/मैं शाहों का शाह था, माँ जब रही समीप। जनमेजय जी माँ से इस तरह अभिभूत हैं कि वो अपने जीवन की हर उपलब्धि माँ को ही समर्पित कर देना चाहते हैं...तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। आप यह स्वयं इन दोहों में भली-भाँति देख/समझ सकते हैं-माँ ही मेरी आस है, माँ ही है विश्वास/हर सुख की चाबी मिली, मुझको माँ के पास, ज्ञान मुझे माँ से मिला, जला रोज एक दीप/पढ़ने से ज्यादा गुना, माँ जब रही समीप, माँ ही मेरा धर्म है, माँ ही है ईमान/मुझको माँ से ही मिली, जो भी है पहचान, अम्माँ से ही यश मिला, अम्माँ से ही नाम/मेरे जीवन कथ्य में, माँ ही पूर्ण विराम
वर्तमान परिवेश में वृद्ध माता-पिता के बद्तर रख-रखाव के किस्से आए दिन अख़बार में छपते रहते हैं, जिन्हें पढ़कर हम सभी का मन ख़राब हो उठता है। इसी से व्यथित हो उनकी लेखनी कह उठती है-माँ ने गहने बेच कर, दी बेटे की फ़ीस/अब माँ को धिक्कारता, बेटा न्यायाधीश, जिस माँ ने नौ माह तक, सहा पुत्र का बोझ/रख न सका उस मातु को, बेटा घर कुछ रोज, करे बुजुर्गी में यहाँ, पूरे घर का काम/दुखियारी माँ को कहाँ, मिला कभी आराम, खुश हैं अब बेटे यहाँ, बाँट लिए माँ-बाप/अलग हुए माँ-बाप का, ज़रा नहीं संताप, वृद्धाश्रम में लाड़ला, छोड़ चला माँ-बाप/मन ही मन रोए पिता, कौन सुने आलाप
माता-पिता का क़र्ज़ कोई कभी नहीं चुका सकता है। सभी को एक उपयोगी संदेश देते हुए उनके यह दोहे खूबसूरत बन पड़े हैं-धरा, वायु, माँ, नीर का, ऋण है अगम अपार/बन जाओ भगवान भी, किन्तु न सको उतार, सारे हैं ये बाद में, जप,ताप, तीरथ दान/माँ के चरणों की धरा, होती स्वर्ग समान, माँ की ममता का अजय, किसने पाया छोर/तुम तो बस थामे रहो, जब तक है ये डोर
इस संग्रह में माँ के अतिरिक्त अन्य सामायिक विषयों पर भी बेहतरीन दोहे हैं, जिन्हें पढ़ते हुए जगह-जगह हमें यही लगता है कि यह तो हमारे आसपास की बात कह दी है। भाषा, भाव, विचार नितांत अपने लगते हैं और प्रवाह ऐसा कि आप स्वत: बहते चले जाएं। यही बोधगम्यता इस संग्रह को पाठक का पूर्ण अपनत्व प्रदान कराती है। ऐसा लगता है कि हम अपने गाँव में घर की चौपाल में बैठकर दोहे सुन रहे हैं। नि:संदेह उनके कई दोहे दिल को भीतर तक छू जाते हैं।
यह डॉ. जनमेजय की विशिष्टता है कि तमाम उपलब्धियों/सम्मानों/पुरूस्कारों के अतिरिक्त एक नामचीन बालचिकित्सक होने के बावजूद वो आज तक अपनी माटी से जुड़े हैं और उन्होंने अपनी उस माटी की गंध को न केवल अपने में बल्कि शब्दों तक में जीवंत बनाए रखा है। सरल, सहज़ और हँसमुख दिखने वाले इस शख्स के भीतर कितने समंदर उमड़ते रहते हैं, इसका अंदाज़ा लगा पाना कतई मुश्किल और जोख़िम भरा कार्य है। यहाँ हमें जनाब निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर याद आता है: हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना। 
इसी के साथ हम उनकी सहधर्मिणी आदरणीय पुष्पा भाभी जी को भी साधुवाद देते हैं जिन्होंने तमाम पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ स्वयं वहन कर जनमेजय जी को साहित्य के साथ-साथ नन्हें-मुन्नों को बालसाहित्य उपलब्ध कराने और उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न बनाए रखने के लिए अपनी चिकित्सीय सुविधाएँ/सेवाएँ भी प्रदान करने का निर्विघ्न समय सदा उपलब्ध कराया है। बिना घर-परिवार के सहयोग के ऐसे सारस्वत यज्ञ संपन्न नहीं हो पाते हैं
ईश्वर से प्रार्थना है कि जनमेजय जी की कलम शब्दों के आईने में यूँ ही समाज को वैचारिकता के साथ-साथ प्रेरक शक्ति प्रदान करे। गहरे भावों को लिए अपनी माँ के संग बैठे जनमेजय जी को दर्शाता संग्रह का अत्यन्त आकर्षक कवर पेज तथा उत्कृष्ट कोटि के काग़ज़ और आकर्षक छपाई के लिए प्रकाशक अविचल प्रकाशनसाधुवाद के पात्र हैं। हम आश्वस्त हैं कि साहित्य जगत् में उनके दोहा संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। अब हम अपनी वाणी को उनके इस दोहे के साथ विराम देते हैं:
                  मन में अनहद बज रहा, गया न मेरा ध्यान।
                  बातें  करने  को  उधर, आतुर  थे  भगवान।।

इत्यलम्।।


सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)



सारिका मुकेश



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पुस्तक- माँ तो माँ है (दोहा संग्रह)
लेखक :  डॉ. अजय जनमेजय  
प्रकाशक : अविचल प्रकाशन, बिजनौर-246 701 (उ.प्र.)
मूल्य: 150/-रूपये, पृष्ठ-128
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मानवीय मूल्यों को प्रश्रय देता कहानी-संग्रह






मानवीय मन संवेदनाओं का पिटारा है, इसके भीतर संवेदनाओं से भरा-पूरा एक संसार होता है। न जाने कितने ही क़िस्म के भाव कितने ही रंगों में आकार लेते रहते हैं। गुज़रे ज़माने की स्मृतियाँ समंदर की लहरों की तरह बार-बार लौटकर स्मृति-पटल के साहिल पर सिर पटकती रहती हैं और ज़हन में असंख्य चित्र बनाती है और फ़िर न जाने कितनी ही देर तक हमारा मन उन पुरानी वादियों में विचरण करने लगता है। ज़िन्दगी के उन ख़ूबसूरत लम्हों को हम सदा-सदा के लिए धरोहर के रूप में सहेजकर रख लेना चाहते हैं। अपने मित्रजनों/परिचितों से उनकी चर्चा करना चाहते हैं, उनसे सबको रू-ब-रू कराना चाहते हैं, जिससे उनका जीवन भी प्रेम की इस अमूल्य सुगंध से सराबोर हो सके और इस मरुथल में उनको जीवंतता प्रदान कर जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण बनाने में मदद करे क्योंकि हम सभी जानते हैं कि आज के इस डिजीटल युग में हमारी संवेदनाएँ लुप्त-प्राय: होती दिख रही हैं और अपनत्व, प्रेम, विश्वास को स्वार्थ, घृणा और छल-कपट लीलते जा रहे हैं, ऐसे माहौल में विशुद्ध प्रेम और अपनी सांस्कृतिक विरासत की झलक मात्र से ज्येष्ठ माह की तपती दुपहरी में गंगा-स्नान जैसा सुखद लगता है। हमें बेहद ख़ुशी है कि आज भी लोग इस विषय में न केवल सोचते हैं बल्कि उसे लेखन का विषय भी बनाते हैं।
कुछ इसी तरह प्रेम और अपनी संस्कृति से लबालब भरे शब्द-दीपों को प्रज्ज्वलित कर समाज में जन-चेतना को जागृत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य जो व्यक्ति कर रहे हैं, उन्हीं में श्री बी.एल. गौड़ जी का नाम आदर से लिया जाता है। आज जबकि हम एक अजीब से कोलाहल भरे दौर से गुज़र रहे हैं, ऐसे में सच्चे मार्गदर्शकों की बेहद ज़रूरत है जो समाज को, इस देश को और उसकी नौजवान पीढ़ी को सही दिशा दिखा सकें। हमें अपार प्रसन्नता है कि श्री गौड़ जी अपनी लेखनी के माध्यम से इस देश की जनता को प्रेम और अपनी विराट संस्कृति की हाला का रसास्वादन कराने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं।
श्री बी.एल. गौड़ जी से हमारा शब्द-परिचय एक साहित्यिक पत्रिका में सद्यः प्रकाशित एक गीत के माध्यम से वर्ष फ़रवरी 2017 में हुआ था। कभी-कभी उनसे हमारी फ़ोन पर गुफ़्तगू होती रही, कभी कुछ संदेशों का भी आदान प्रदान हुआ। फिर मार्च माह में उन्होंने अपना एक कहानी-संग्रह ‘मीठी ईद तथा अन्य कहानियाँ’ स्पीड पोस्ट से भिजवाया तो उनकी रचनाशीलता और व्यक्तित्व से और विस्तृत परिचय हुआ। उनका अपनत्व/स्नेह भरा व्यवहार देख हम पति-पत्नी हतप्रभ रह जाते कि बिना हमें देखे-मिले इतने संक्षिप्त से शब्द-परिचय में इतना स्नेह और अपनत्व आज के इस युग में कैसे सम्भव हो सकता है? यह उनकी विनम्रता और सहज, सरल मन के साथ एक विशिष्ट आत्मीयता का ही परिचय देता है। हम उनके इस स्नेह और आत्मीयता के लिए सदा शुक्रगुज़ार रहेंगे कि उन्होंने अपने लेखन यात्रा-क्रम में हमें भी सहभागी होने का अवसर दिया।





12 जून 1936 को अलीगढ जनपद के कौमला गाँव में जन्मे श्री बी. एल.गौड़ जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. और फिर सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और इसके अतिरिक्त इटालियन भाषा में डिप्लोमा और हिंदी विश्वविद्यालय इलाहाबाद से साहित्य रत्न किया। उन्होंने रेलवे में इंजीनियर के पद पर 1958 से 1989 तक कार्य किया और फिर स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने के बाद 1995 में भवन निर्माण कम्पनी ‘गौड़ संस इण्डिया लिमिटेड’ का गठन किया और वर्तमान तक इस कम्पनी के चेयरमैन पद पर आसीन हैं। इसके अतिरिक्त नौ पुस्तकों और तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेख, कविताएँ, कहानियाँ, संस्मरण आदि प्रकाशित होते रहने के साथ-साथ वे ‘दि गौड़संस टाइम्स’ पत्र के सम्पादक के रूप में साहित्यिक जगत् में सुविख्यात हैं। अनेकों सम्मान प्राप्त श्री गौड़ जी को उनके साहित्यिक अवदान को देखते हुए हिंदी विश्वविद्यालय भागलपुर ने उन्हें डी.लिट्. की मानक उपाधि से अलंकृत किया है।
कहानी-संग्रह ‘मीठी ईद तथा अन्य कहानियाँ’ वर्तमान के कैनवास पर अतीत के प्रसंगों के सुंदर कोलाज़ लिए दीखता है। भारतीय संस्कृति की पूजा करने वाले और अपनी मिट्टी से जुड़े श्री गौड़ साहब अक्सर अपनी इन कहानियों में अतीत की जाँच-पड़ताल संवेदनाओं के धरातल पर करते दिखाई देते हैं। उनकी कहानियों में मिट्टी की सौंधी सुगंध, खेतों की हरियाली, गाँव, पुष्प, प्रेम दिखाई पड़ते हैं। शहरी जीवन की कृत्रिमता और मृत होती संवेदनाओं से वो भलीभांति परिचित हैं और वो इसके प्रति चिंतित भी हैं कि यहाँ सब मुखौटे लगाकर जीते हैं। उनकी सजग और सचेतन दृष्टि से, राजनैतिक परिवेश से लेकर शिक्षा, समाज, संस्कृति, धर्म आदि जैसा कोई भी विषय नहीं बच पाया है। इन विषयों से लेकर अपनी संस्कृति, संस्कार और आदर्शों/मूल्यों पर उन्होंने अपनी कलम धारदार और पैने ढंग से बखूबी चलायी है जो उनकी रचनाओं को अपनी पहचान देने में पूर्ण रूप से सक्षम है। तमाम विषमताओं के बावजूद वो जीवन से निराश नहीं हैं, वो शब्द की महत्ता से अच्छी तरह परिचित हैं और उत्साह से भरकर अपने शब्दों के माध्यम से सभी को प्रेम से हँसते हुए जीने का संदेश देते हैं। पुस्तक की शीर्षक कहानी ‘मीठी ईद’ अपने भीतर भाईचारे की गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक अभूतपूर्व मिठास संजोए है और तमाम जगत् को उस मिठास से लिप्त/संलिप्त होने का सपना संजोती है, जिसके लिए कहा जाता है कि ‘सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’। आज के दौर में ऐसी कहानियों की विशेष आवश्यकता है जो आपसी भाईचारे और सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने में सहायक सिद्ध हों। सच कहें तो गौड़ साहब दिल से दिल की बातें करते हैं; कहीं कोई किसी प्रकार की औपचारिकता, बनावट या आडम्बर नहीं है। शायद यही वजह है कि हम कहानी से पूरी तरह जुड़ जाते हैं और उनकी प्रत्येक कहानी जहाँ पर ख़त्म होती है, वहाँ से हमारे मन में विचारों की एक लम्बी श्रृंखला आरम्भ हो जाती है और हम देर तक उसमें डूबे रह जाते हैं। वो इस धरती पर ही स्वर्ग की कामना करते हैं और उन्होंने अपनी इन कहानियों के माध्यम से एक सुखद जीवन जीने का सन्देश जन-जन को देने का सफल प्रयास किया है। हमारे थोड़े से प्रयासों से कितना कुछ बदल सकता है, यह बात इस कहानी-संग्रह को पढ़कर अच्छी तरह समझ में समझ में आ जाती है। सरल और सहज भाषा में लिखी यह पुस्तक आप एक बार पढ़ने को उठा लें तो फिर इसे समाप्त करके ही उठेंगे। कहानियों को पढ़ते हुए आपको ऐसा प्रतीत होगा जैसे लेखक स्वयं आपको कहानी सुना रहे हैं। ये कहानियाँ न केवल बड़े व्यक्तियों के लिए अपितु छोटे बच्चों के लिए सहज सुग्राही हैं। इसका अन्दाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि हमारे पाँच वर्षीय पुत्र औरव और दस वर्षीय पुत्र अगस्त्य को सिर्फ़ एक बार सुना देने से यह कहानियाँ उनको आज कंठस्थ हो गयी हैं और इन कहानियों से उपजी अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने हेतु उसने स्वयं लेखक श्री बी.एल.गौड़ जी से फ़ोन पर देर तक बात भी की, जिनका समाधान उन्होंने बड़े ही आत्मीयपूर्ण ढंग से किया।
कहने को तो अभी बहुत कुछ है पर इन कहानियों की गंगा-यमुना में गोते लगाने और उसमें छिपे अनिर्वचनीय सुख का आनंद आपको स्वयं भी तो लेना है। हम श्री बी.एल.गौड़ जी को उनके सृजन-कर्म हेतु अपनी ओर से सादर हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएँ देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं।

इत्यलम्।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)

सारिका मुकेश






पुस्तक : मीठी ईद तथा अन्य कहानियाँ  (कहानी-संग्रह)
लेखक : बी.एल. गौड़
प्रकाशक : सजग प्रकाशन, दिल्ली-110 092
पेपरबैक संस्करण, मूल्य : रु. 150/-



बिन्दु से सिन्धु तक के सफ़र की दास्ताँ कहता विशेषांक...




 जिंदगी को ख़ूबसूरत दाँव तक ले जाएगी, ये समय की धूप ही तो छाँव तक ले जाएगी



‘ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना...’। सच में यह ज़िन्दगी एक सफ़र ही तो है और जब हम शौहरत, नाम की बुलन्दियों पर, एक ख़ास मुकाम पर पहुँचते हैं तो सुकून के पलों में वहाँ कुछ पल ठहरकर निश्चय ही पीछे के सफ़र को देखने का मन हो आता है...’क्या खोया, क्या पाया जग में’...मन करता है कि गुज़रे हुए पड़ावों को कुछ देर तक मौन रहकर निहारते रहें...कुछ देर फिर से उन पुरानी यादों की ज़िया जाए। कुछ ऐसा ही उपक्रम होता है किसी साहित्यकार पर केन्द्रित किसी पत्रिका का विशेषांक! यह कुछ अर्थों में आम पाठक को उस साहित्यकार की गुजरी हुई जीवन/सृजन यात्रा में शामिल होने का निमंत्रण देता है। इससे लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व के संग उसके कुछ अनछुए पहलुओं से शब्द-परिचय होने में मदद मिलती है। समय-समय पर पत्र-पत्रिकाएँ साहित्यकार विशेषांक निकालते रहते हैं। सच कहें तो धीरे-धीरे यह भी साहित्य की एक विधा ही बनती जा रही है। इसमें प्राय: लेख़क के विषय में अन्य लेखकों की व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा पत्र/साक्षात्कार/समीक्षा आदि के माध्यम से प्रचूर मात्रा में उपलब्ध कराई जाती है। एक ही स्थल पर इतनी सारी सामग्री किसी भी पाठक, लेखक, आलोचक और  शोधकर्त्ता के लिए बहुत उपयोगी साबित होती है। इन्हीं सब विशिष्टताओं के साथ सहारनपुर (उ.प्र.) से प्रकाशित साहित्य की शीतलता और जीवन की जीवंतता का मंत्र लिए सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका “शीतल वाणी” का ताज़ा संयुक्तांक (अक्टूबर 2019-मार्च 2020), गीतवंत राजेन्द्र राजन विशेषांक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हो अपनी सुगंधि से मन को मोह रहा है। राजन जी का मोहक चित्र लिए मुखपृष्ठ, आर्ट पेपर पर बने सुन्दर और ऐतिहासिक चित्रों से सुसज्जित और 164 पृष्ठों में सहेजी बेहतरीन सामग्री लिए यह विशेषांक ‘लव एट फ़र्स्ट साइट’ वाली उक्ति को चरितार्थ करने में पूर्ण-रूपेण सक्षम है। इसके लिए सम्पादक सहित पत्रिका की पूरी टीम साधुवाद की पात्र है। दरअसल पत्रिका के सम्पादक श्री वीरेन्द्र आज़म और राजन जी लम्बे समय से पूर्ण आत्मीयता और प्रेम से जुड़े हैं, जिसकी चमक इस विशेषांक को चार चाँद लगा रही है। ‘अपनी बात’ में श्री वीरेन्द्र जी लिखते हैं-“गीत पंडित राजेन्द्र राजन मेरे अपने शहर के हैं...उनका काव्य सफ़र और मेरा पत्रकारिता सफ़र करीब साढ़े चार दशक पहले साथ-साथ शुरू हुआ...पत्रकारिता में सक्रिय हो जाने के कारण मैं काव्य मंचों पर तो उनका साथ नहीं दे पाया, लेकिन उनकी साढ़े चार दशक की गीत यात्रा से बराबर होकर गुजरा हूँ...उनके जिस गीत ने मुझे उनसे जोड़ा, जो आज भी मेरी अन्तश्चेतना में कुंडली मारकर बैठा है, वह गीत है-मैं पात-पात झर गया...यह अंक राजन जी के साहित्य के प्रति समर्पण और साधना को भी प्रणाम है और ‘शीतलवाणी’ परिवार की ओर से उनका अभिनंदन भी”।


गीतवंत राजेन्द्र राजन विशेषांक


पिछले कई बरसों से लालकिला, दूरदर्शन और तमाम कवि-सम्मेलनों में गीतकार श्री राजेन्द्र ‘राजन’ जी अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। अपने गीतों/मुक्तकों और ग़ज़ल के सहारे प्रेम के इन्द्रधनुषी कैनवास पर शब्द-चित्र बनाकर उन्हें अपने मधुर कंठ से गाकर श्रोताओं के दिल में उभारते/उतारते रहे हैं। जीवन के तमाम उतर-चढ़ाव देखने के बावजूद वो सदा संतुलित बने रहे। आज वो साहित्याकाश में गीतकार के रूप में एक दैदीप्यमान सितारा बनकर जगमगा रहे हैं; तमाम अभावों के बावजूद मुसकुराते हुए...उनके सारे अभाव, दुःख दर्द गीत की धारा में समाहित हो गए हैं। ‘दिलों में जिनके लगती है वो आँखों से नहीं रोते...’, राजन जी के विषय में यह अशआर सोलह आने सच है कि वो आँखों से नहीं रोते पर उससे भी बड़ा सच यह है उनके गीतों/मुक्तकों/शेरों में टीस/पीड़ा/दर्द का स्वर प्राय: मुखर हो उठता है और यही कोयल के कंठ से निकली पपीहे की दर्द भरी रटन ही उनकी यू.एस.पी भी है और ऐसा कोई कवि सम्मलेन नहीं होता जो उनके दो भावप्रवण गीतों-‘केवल दो गीत लिखे मैंने, इक गीत तुम्हारे हँसने का, इक गीत तुम्हारे रोने का’ और ‘मैं पात-पात झर गया, वसन्त लाने के लिए’-के बिना पूर्ण हो जाए। सरल, सहज, निश्छल मन से की गई जीवन के अनेक प्रसंगों की सच्ची अभिव्यक्ति मन को भा जाती है और उनके शेर/गीत ख़ुद-ब-ख़ुद मन में ऐसे रच बस जाते हैं कि जब-तब स्वत: ही जुबान पर आ जाते हैं और हम गुनगुना उठते हैं। वो न केवल बड़ों बल्कि बच्चों तक अपना प्रभाव कायम कर लेते हैं। मेरा पाँच वर्षीय पुत्र औरव सुबह-सुबह स्कूल जाते वक़्त उनका यह शेर कहता है-‘दुनिया ने मुश्किलों के मुझे यूँ किया हवाले, मुझे आसमान देकर मेरे पंख नोच डाले’। वहीं शाम के वक़्त जब हम अपने दोनों पुत्रों को पार्क से घर चलकर पढ़ाई करने को कहते हैं तो हमारा दस वर्षीय पुत्र अगस्त्य गाता है-‘बच्चों की कोमल काया पर मम्मी अधिकार जमाती है, मन रमता है पार्क में पर हमको घर पर ले जाती है, ऐसे में जीने मरने पर खुद को अधिकार कहाँ होगा...’। हमने एक दिन जब राजन जी को यह फ़ोन पर बताया तो वो खूब देर तक हँसते रहे और दोनों बच्चों को कवि बनने का आशीष भी दे डाला। अपनी रचनाओं के माध्यम से सबके दिलों में इस तरह उतर जाना एक रचनाकार की सफ़लता का द्योतक है। वो अपने सृजन-कर्म से पूरी तरह आश्वस्त हैं और अन्य सबको भी बता देना चाहते हैं-‘ये न सोचो सिर्फ़ चादर तानकर सो जाऊँगा, मैं मरूँगा तो ग़ज़ल का काफ़िया हो जाऊँगा’। उनके विषय में कितना और क्या-क्या लिखा जाए-‘है प्यास का नज़रिया क़तरा लगे समुन्दर, चाहे कोई बढ़ा ले चाहे कोई घटा ले’।
इस विशेषांक में राजन जी की सृजनात्मकता और उनके व्यक्तित्त्व को मोहित संगम जैसे कनिष्ठ/युवाओं से लेकर वरिष्ठ गीतकार/साहित्यकार डॉ. कुँअर बेचैन, श्री बुद्धिनाथ मिश्र, डॉ. शिवओम अम्बर, डॉ. हरिओम पवार, डॉ. उदय प्रताप सिंह, डॉ. योगेन्द्र शर्मा ‘अरूण’, डॉ. ब्रजेश मिश्र, डॉ. अश्वघोष, श्री कृष्ण शलभ, श्री सुरेन्द्र शर्मा, डॉ. विष्णु सक्सेना, श्री अरुण जैमिनी, श्रीमती सरिता शर्मा, डॉ. विष्णु सक्सेना, डॉ. प्रवीण शुक्ल, श्री विनीत चौहान, सुश्री सरिता शर्मा, डॉ. कीर्ति काले, डॉ. अनु सपन आदि के साथ-साथ राजन जी की अर्धांगिनी और ग़ज़ल की सशक्त हस्ताक्षर श्रीमती विभा मिश्रा जी के नज़रिये से पाठक एक साथ रू-ब-रू हो सकते हैं। श्रीमती विभा मिश्रा जी ने बहुत कम शब्दों में राजन जी के जीवन और व्यक्तित्व को बख़ूबी समेटा है, जिसे पढ़कर यह अनुमान सहज ही लग जाता है कि राजन जी के यहाँ तक के सफ़र में उनकी अहम् भूमिका रही है और उन्होंने प्रेम में त्याग और समर्पण को पूरी तरह उतारा है। सच ही कहा गया है-‘Behind every successful man, there is a woman’, अर्थात् हर सफ़ल पुरूष के पीछे एक मजबूत स्त्री होती है। 
बाकी तो अब हम बस यही कहेंगे-‘बात बोलेगी, हम नहीं’।
इन सभी विद्वजनों को साधुवाद देते हुए हम स्टार पेपर मिल्स लिमिटेड प्रबंधन के उन तमाम महानुभावों को भी साधुवाद देते हैं, जिन्होंने राजन जी की इस साहित्यिक यात्रा में उन्हें पूर्ण सहयोग दिया, जिससे वो नौकरी के साथ-साथ आज इस मुकाम तक पहुँच सके। अंत में हम श्री राजन जी को इस विशेषांक हेतु असीम शुभकामनाएं और बधाई देते हुए अब इस चर्चा को यहीं पर अल्प-विराम देते हैं क्योंकि अभी तो और भी कितने ही विशेषांक आने हैं। ‘अभी तो नापा है एक आसमान, अभी और कितने आसमान बाकी हैं’। यह सफ़र यूँ ही ज़ारी रहे, निरंतर चलता रहे। चरैवेति! चरैवेति!! चलते रहो! चलते रहो!! यह एक पड़ाव मात्र हो, मंज़िल नहीं...‘तू चला चल इस सफ़र में मील के पत्थर न गिन, वर्ना ये आदत थकन को पाँव तक ले जाएगी’।
 
इत्यलम्।।

सारिका मुकेश
(तमिलनाडु)


सारिका मुकेश


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पत्रिका- शीतल वाणी, अक्टूबर 2019-मार्च 2020 (संयुक्तांक), गीतवंत राजेन्द्र राजन विशेषांक
सम्पादकश्री वीरेन्द्र आज़म
प्रकाशनसहारनपुर (उ.प्र.)
मूल्य: 50/-रूपये
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