Tuesday, 26 November 2019

कितने मन के पहलू हैं अनगिनत भाव के छंदों में...





वैश्वीकरण और भौगोलीकरण के इस वर्तमान युग में संचार क्रांति का प्रमुख स्थान है। आज एक क्लिक से विश्व-सम्पर्क का द्वार खुल जाता है। ब्लॉग, फ़ेसबुक, वाट्सएप, इन्स्टाग्राम, ट्विटर आदि से इलेक्ट्रॉनिक सोशल मीडिया आज अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन चुका है। भागमभाग के इस युग में ट्विटर के छूते-छोटे त्वरित संदशों का उपयोग नेता, राजनेता, लेखक, अभिनेता से लेकर आम आदमी भी धड़ल्ले से कर रहा है। भले ही आज हम अपनों से दूर होते जा रहे हैं पर दूरियों को समेटने में सोशल मीडिया कामयाब हुआ है। आमंत्रण/निमंत्रण से लेकर फूल, बुके, खाने-पीने की वस्तुओं तक का आदान-प्रदान सोशल मीडिया पर दिन-रात चल रहा है। इसने सभी को अपनी बात रखने का पर्याप्त/असीमित स्थान उपलब्ध कराया है। इसके आ जाने से आम आदमी भी कविता, गीत, लघुकथा से लेकर आज कहानी, उपन्यास जैसी विधाओं में न केवल स्वयं को आजमा रहा है बल्कि सिद्ध भी कर रहा है। तमाम दैनिक, साहित्यिक अख़बार भी साहित्य को स्थान देकर कनिष्ठ से वरिष्ठ तक के रचनाकारों की रचना प्रकाशित कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिसमें ‘इंदौर समाचार’ एवं 'स्वैच्छिक दुनिया' का भी प्रमुख स्थान/योगदान है और हिन्दी साहित्य को बढ़ावा देने के इस योगदान के लिए ये सभी बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई के पात्र हैं।
आज हम आपको ऐसे ही एक युवा रचनाकार श्री विजय कुमार कन्नौजिया से रू-ब-रू कराने जा रहे हैं, जिन्होंने इन सुविधाओं का सकारात्मक उपयोग कर अपनी साहित्यिक सृजनशीलता को पल्लवित/पुष्पित कर उसे नए आयाम देकर एक अच्छे मुकाम तक पहुँचाने का प्रयास किया है। जब कभी भी समय मिलता है तो ये कुछ न कुछ लिखते रहते हैं। ईशकृपा से इनकी रचनाएँ कई साझा संकलनों और दैनिक/साप्ताहिक अख़बारों और मासिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। जिसका सुखद परिणाम आज हमारे समक्ष उनके कविता संग्रह ‘प्रेम अगर है, अनबन कैसी...?’ के रूप में उपस्थित है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट हो रहा है, विजय जी की कविताओं का मूल तत्व प्रेम है। प्रेम इस जीवन का मूल तत्व है। प्रेम हमें जीने के लिए नयी ऊर्जा देता है...एक बल देता है, प्रेम एक विश्वाश है...एक निस्वार्थ समर्पण है पर कभी-कभी इस असार संसार के कुछ अनुभव इन परिभाषाओं को हिला डालते हैं। विजय जी की इन कविताओं में प्रतीक्षा है, मनुहार है, शिकवा-गिला है, बनते-बिगड़ते सम्बन्ध हैं तो देखे गए मधुर सपनों का सुख और उनके बिखरने की व्यथा/पीड़ा भी दृष्टव्य है। विजय जी की इन कविताओं की, समय और स्थानाभाव की वजह से, प्रेम के विभिन्न मौसमों की कुछ झलकियाँ ही दे पा रहे हैं। सबसे पहले तो आप प्रेमी युगल की अपने प्रेम और उसके मधुर भाव को सदा बनाए रखने की ख्वाहिश पर ये पंक्तियाँ देखिए-‘नेह का ये स्नेहिल बंधन/यूँ ही सदा बनाए रखना/साथ बिताए हर्ष को यूँ ही/दिल में सदा बसाए रखना...’ और ‘हे मीत मेरे, मनमीत मेरे/मेरे जीवन के हर पथ पर/तुम साथ मेरा देते रहना/मेरे गुनगुनाते होठों पर/संगीत सदा देते रहना...’ । लेकिन अपने प्रिय के व्यवहार में ज़रा सा भी बदलाव आने पर या उसे परेशान देखकर मन चिंतित हो कह उठता है-‘बदले-बदले क्यूँ लगते हो/फिर भी अपने क्यूँ लगते हो/जो होना है होता ही है/सहमे-सहमे क्यूँ लगते हो...जीवन तो है गहरी नदिया/फिर लहरों से क्यूँ डरते हो...’ और फ़िर उसी मौसम में यह पंक्तियाँ देखिए-‘नयन आज आतुर से क्यूँ हैं? मन में कुछ हलचल सी क्यूँ है? पलकों की पंखुड़ियाँ गीली, बारिश सा ये मौसम क्यूँ है?...’ परन्तु कभी-कभी कालांतर में जब परिस्थितियोंवश जीवन में एक अजीब-सा विरह का मोड़ आता है, तब एकाकीपन के गहन अंधकार में फँसा व्यक्ति सोचता है-‘अब तो मलाल भी इस बात का है कि मलाल किससे करूँ? जब कोई साथ नहीं है पाना कहने वाला! अब तो रूठूँ तो रूठूँ किससे? जब कोई पास नहीं है मनाने वाला...’ और उस परिस्थिति में ऐसा लगता है-‘अब तो ख़यालों पर भी बंदिशों का पहरा है...’ और मन ही मन सोचता है-‘रिश्तों में सच्चाई ढूँढूँ, अपनों की परछाई ढूँढूँ/रिश्तों की जो गहराई थी/वो सब अब बदलाव लिए हैं...’ और ‘अब तो डर सा लगता है, इस प्रेम नेह के बंधन से/रिश्तों में तकनीक हो गई, अपनों से तकलीफ़ हो गई...’। लेकिन फ़िर भी उसे इसे इस बात की ख़ुशी होती है कि-‘हमने तो बस प्रीत निभाई, संबंधों की नीति निभाई/स्वार्थ भरी इस दुनिया में भी, हमने मन की रीति निभाई...’। फ़िर एक दिन अचानक बिछड़े प्रेम से मुलाकात होती है-‘उलझन ये है उलझन कैसी? प्रेम अगर है अनबन कैसी?...’ और ‘कितने वर्षों बाद मिले हो, कुछ तो हाल बयाँ कर जाओ/कुछ सुन लो कुछ कह दो अपनी/दिल को कुछ बहला तो जाओ...’। एकाएक ही सब कुछ कितना मधुर और भला लगने लगता है जीवन में एक नयी आशा का संचार होता है और समूचा माहौल खुशनुमा हो जाता है-‘आशाओं की आशा ने एक नए पंख का सृजन किया है/जो अब उड़ने को है आतुर अभिलाषा के अम्बर में...’ और ‘आज फिर से ख़याल आया है, बंद पलकों में ख़्वाब आया है/रुंधे गले की सिसकियों ने जो दस्तक दी है/अब तो आँखों का भी रोने का मन बन आया है...’। प्रेम पुन: जागृत हो उठता है और फ़िर से एक नयी उड़ान का ख़्वाब-‘चलो चलें सपने बुनते हैं/महफ़िल में अपने चुनते हैं/रिश्तों में जो कड़वाहट है/उसका समाधान करते हैं...’।
इन जैसी अन्य तमाम रोमानी कविताओं के साथ-साथ इस संग्रह की कुछ कविताएँ जीवनोपयोगी बन पड़ी हैं, यथा-‘जिंदगी के किसी भी मोड़ पर/जब हों क़दम डगमग कभी/तुम व्यथित होना नहीं/रुकना नहीं, थकना नहीं/होगा सहज फिर पथ तुम्हारा/जिंदगी के मोड़ पर...’ और ‘मन जब व्यथा से उथल-पुथल हो/तुम अपना मन व्यथित न करना/जीवन की हर पगडण्डी पर/सदा निरंतर चलते रहना...’
निष्कर्ष के तौर पर देखा जाए तो यह संग्रह मूलत: कवि के अंतर्मन के कोने में दबे प्रेम के अहसास की व्यथा है, प्रेम में अधूरे रह गए सपनों की दस्तकें हैं, जीवन की रंगोली में भरे जाने वाले प्रेम के रंग हैं, प्रेम के रंग-बिरंगे बनते/बिगड़ते सपने हैं, जिन्हें वह शब्दों में ढालकर कविता को जन्म देते हैं। सरल, सहज और प्रवाहमयी भाषा में लिखी ये कविताएँ मन को भीतर तक भिंगो देती हैं और कुछ क्षणों के लिए हम उसी में खोकर रह जाते हैं। विजय जी का यह प्रथम प्रयास साहित्य जगत में अपनी सीट कन्फर्म कराने में कामयाब हुआ है। भविष्य में उत्तरोत्तर विकास करते रहने की उनको अहर्निश शुभकामनाएं देते हुए हम अपनी वाणी को उनकी कविता की इन पंक्तियों के साथ विराम देते हैं...
‘मन को मत व्यथित करो इतना/सुख-दुःख तो आनी जानी है/यूँ ही कट जाएगा जीवन/जीवन की यही निशानी है...’
                                                इत्यलम्।


सारिका मुकेश



सारिका मुकेश
   
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पुस्तक- प्रेम अगर है, अनबन कैसी (कविता संग्रह)
लेखक :  विजय कन्नौजिया
प्रकाशक : विजय कन्नौजियाजोरबाग, नई दिल्ली
मोबाइल: 9818884701
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Saturday, 23 November 2019

पिय से मिलेंगे जाय, चलो सखी यमुना किनारे...




मानव योनि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है और हिन्दू धर्म मतानुसार यह योनि हमें चौरासी लाख योनियों के बाद मिलती है। बाबा तुलसीदास कहते हैं, ‘बड़ा भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथहीं गावाऔर चण्डीदास जी ने कहा, ‘सुन रे मानुष भाई/सबार ऊपर मानुष सत्य/ताहार ऊपर किछु नाई। प्रेम इस जीवन का मूल तत्व है और यही प्रेम लौकिक से भक्ति मार्ग से होता हुआ अलौकिक रूप धारण कर विराट से साक्षात्कार कराता है...द्वैतमति का आवरण हटा, अनहद आनंद की स्वर लहरी...न मैं एक, न वो और...द्वैत से अद्वैत की ओर...।
हमारे विचार से ज़िक्र प्रेम का चले तो ज़ेहन में सबसे पहले श्री कृष्ण का नाम उभरता है। भक्ति-मार्ग में सर्वाधिक कवियों ने उन्हीं पर लिखा है। सच में श्री कृष्ण का जीवन अद्भुत है। उन्होंने जीवन को...जीवन की हर अवस्था को पूर्ण रूप से ज़िया है...बचपन के कान्हा हो, युवावस्था के रास-रचैया हों, राधा के प्रियतम हों, सुदामा के मित्र हों, अर्जुन के सखा हों, पूर्ण योगी योगेश्वर हों या गीता जैसे अद्भुत ग्रन्थ का ज्ञान देने वाले हों...श्री कृष्ण हर जगह अनुपम हैं, अद्भुत हैं। यही सब तो है कि आज भी उनके प्रति प्रेम में अपना सब कुछ न्यौछावर करने वालों की कमीं न केवल भारत में अपितु विदेश तक में भी नहीं हैं। तन पर बिना कोई भस्म लगाए, बिना गेरुआ वस्त्र पहने, बिना गृह-त्याग और वनवासी हुए, बिना कंठी माला लिए जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहते हुए भगवान के इस अद्भुत रूप पर अब तक न जाने कितने ही लोग मुग्ध हो उठे हैं। मीरा दीवानी बन कहती हैं-‘मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई...’ और ‘बसो मेरे नयन में नन्दलाल...’। रसखान गाते हैं-‘मानुष हो तो वही रसखान, बसो संग गोकुल गाँव के ग्वारन...’ तो सूरदास ने कृष्ण की बाललीला का अद्भुत वर्णन किया है-‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो...’।
भक्ति भाव से भरे मन को तो हर पल ईश्वर का पदचाप सुनाई देता है। कभी वो स्वर्ण तार से धूप बनाकर बाँटने वाला स्वर्णकार दिखाई देता है...तो कभी चाँदनी बुनने को उजला रेशम छाँटता हुआ...तो कभी रजनी के आँचल में हीरे मोती जड़ता श्वेत बर्फ की चादर में किसी तपस्वी-सा दिखता है...तो कभी हृदय में गहरे राज़ छिपाए शांत गहन विस्तृत सागर दिखता है...तो कभी सीप के उर में मोती भरता...तो कभी पतझड़ के पटहीन तरुओं को कुसुमित परिधान पहनाता...कभी आँगन में किलकारी भरते बच्चों में...कभी उनमें बल, बुद्धि, सौन्दर्य, उमंगें, यौवन बन छाता हुआ...और कभी वृद्धावस्था में जर्जर तन के थके पथिक की यात्रा पूरी कराता हुआ...कहाँ नहीं है वो...हर जगह वही तो दिखता है...।
आज भी न जाने कितने ही काव्य संग्रह श्रीकृष्ण भक्ति को समर्पित प्रकाशित होते रहते हैं। इसी क्रम में राधा-कृष्ण भक्ति में लिप्त रामवीर जी का ‘बैरिन भई बाँसुरी’ दूसरा भक्ति गीत संग्रह है। जैसा कि नाम से ही विदित है, यह संग्रह बृजभाषा की मीठी चाशनी से सराबोर है। ज़िक्र कृष्ण का हो और भाषा बृज हो तो बात ही कुछ और होती है यानि सोने में सुहागा। सरल, सहज, बोधगम्य भाषा-शैली में प्रेम-प्रीति-समर्पण और भक्ति से रचे ये गीत आज की इस भागमभाग और कोलाहल भरी ज़िंदगी से दूर एकांत में ले जाकर मन को एक विशिष्ट क़िस्म का सुकून देते हैं।


श्री रामवीर सिंह 'वीर' 















माता सरस्वती की वन्दना से संग्रह का आरम्भ करते हुए रामवीर जी लिखते हैं- ‘स्वर देवी को नमन हमारा/हर उमंग में हर तरंग में/चाहिए माँ आशीष तुम्हारा...’। इसके बाद भी एक अन्य गीत ‘माँ की शरण में’ की ये पंक्तियाँ देखिए-‘मैया कर दो नैया पार/फसा हुआ मैं बीच भंवर में/पहुँचा दे उस पार...’।
काव्य-संकलन की देहरी पर खड़ी हुई कवि के अंतस की मीरा पैरों में बाँध, वीणा के तारों में वेणुवर साध लिए अनगाये गीतों को गाने को आतुर भाव, अक्षत, प्रेम दीप और श्रद्धा का हार लिए मन के मंदिर में पूजा की थाली लिए दीप, गीत, मन, प्राण, ये धड़कन और ये साँसें...सब कुछ अर्पित करने को अपने प्रियतम प्रभुका इंतज़ार कर रही हैं। इन गीतों में प्रतीक्षा है, मनुहार है, शिकवा-गिला है तो प्यार भरी धमकी भी दृष्टव्य है-‘लोक लाज छोड़ि सब, फिरूँ गली-गली अब/ऐसी भई वाबरी बैरिन भई बाँसुरी...’। ‘बाजी रे बाजी रे मुरलिया श्याम की/यमुना के तीर तीर, पवन चले सीर सीर/आई सुगंध जाने किस धाम की...’। ‘पिय से मिलेंगे जाय, चलो सखी यमुना किनारे/खोजेंगे तट तट धाय, चलो सखी यमुना किनारे...’। ‘मन की तुझको माला लाया/श्रृद्धा का मैंने फूल सजाया/खड़े खड़े सब हुआ बेकार, जागो जागो रे कन्हाई...’। ‘कहाँ छुपे मेरे श्याम सलौने ढूँढत ढूँढत सब दिन ढल गया/रैन गई अब होने...’। ‘तू जाने घट घट की प्यारे/क्यों नहीं समझे कष्ट हमारे/करूँ याद तुझको जतन क्या न कीया/बता दे श्याम मेरे जनम क्यों दीया...’। ‘बहुत दिन बीते अजहू न लौटें/क्या हम इतने लगते खोटे/इतना तो मोहन बताना पड़ेगा...’। ‘कोई न मुझको अपना दीखे जो कन्त मिलाये/प्रीतम प्यारे बिना तुम्हारे मोहि सबहि सताये/कहे वीर इस निर्दयी जग ने जीवित ही जलाये’। ‘देर करोगे हाथ मलोगे/फेरि नहीं नाथ देख सकोगे/गहूँ राह मीराबाई की/जिसने विष का पान किया रे...’।  ‘एक झलक लखवे को तेरी/अँखियाँ तरस गई हैं मेरी/और लगाओगे कितने दिन/श्याम पिया मोहे करो सुहागन...’।
रामवीर जी ने उसी साँवरिया के नाम चुनरिया रंगों दी है जो मीरा के गिरधर और राधा के श्याम हैं। गौर से देखा जाए तो यह सब उनके मन के भीतर की छटपटाहट है, एक पुकार है जिसे वह शब्दों में ढालकर गीत को जन्म देते हैं। सरल सहज भाषा में रचे ये प्रेम-भक्ति के गीत मन को भीतर तक भिंगो देते हैं और कुछ क्षणों के लिए हम खुद की सुधि बिसरा देते हैं। 
हमें यकीन है कि भक्ति भाव के रसिकों द्वारा श्री रामवीर सिंह ‘वीर’ जी के इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। हम उनको अहर्निश शुभकामनाएं देते हुए अपनी वाणी को उनके गीत की इन पंक्तियों के साथ विराम देते हैं...
‘भजन करि लै जीवन थोड़ा है/प्रेम करि लै जीवन थोड़ा है, यही नाता हरि ने जोड़ा है...’

सारिका मुकेश
23.11.2019


सारिका मुकेश


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पुस्तक- बैरिन भई बाँसुरी (गीत संग्रह)
लेखक :  डॉ. रामवीर सिंह वीर
प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशननई दिल्ली
मूल्य: 151/- रुपये मात्र
पृष्ठ: 112
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Thursday, 21 November 2019

नयी पीढ़ी को सौंपें यह अमर इतिहास की थाती...





                       बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
                       ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी...

बचपन में पढ़ी हुई सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित झाँसी की रानीकविता की यह पंक्तियाँ प्राय: हमारी जुबान पर आ जाती हैं। ऐतिहासिक पात्रों को आधार बनाकर लेखक नयी पीढ़ी का उसकी अपनी प्राचीन संस्कृति/सभ्यता से न केवल साक्षात्कार कराता है, बल्कि उसे एक नयी दिशा, सोच और ओज भी प्रदान करता है। आज हमारी नई पीढ़ी के लिए ऐसे राष्ट्र-भक्त और संस्कृति का पोषण करने वाले चरित्रों की प्रस्तुति करने वाले लेख़क कम ही बचे हैं। फिर भी यह हमारे लिए अत्यंत सुख की बात है कि वर्तमान परिवेश में ओज के प्रख्यात कवि श्री कृष्ण मित्र जी की काव्यात्मक पुस्तक महाबली छत्रसालहमारी युवा पीढ़ी को इतिहास के एक अमर योद्धा की वीरता और शौर्य से रूबरू कराने में पूर्ण सफ़ल हुई है। ऐसी पुस्तकों के विषय में हम यहाँ स्वयं उन्हीं की वाणी में कहना चाहेंगे-‘महापुरुषों के जीवन से  नया आकाश मिलता है/नये इतिहास के अध्ययन का विश्वाश मिलता है’, और ‘नयी पीढ़ी को सौंपें  यह अमर इतिहास की थाती/यही   आधार है, इस  देश के विश्वाश की थाती’।
इसी के साथ अब वो अपनी पुस्तक का प्रस्तुतिकरण करते हुए लिखते हैं-‘इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत कथा जलती मशालों की/कथा उन शक्ति पुत्रों की अनूठे छ्त्रसालों की/कि जिनके स्मरण से ही शक्ति का आधार मिलता है/नये उत्साह के विश्वाश का संस्कार मिलता है’। 
झाँसी के चारों ओर फैले सौ-सवा सौ मील का क्षेत्र बुंदेलखंड कहलाता है और वहाँ के निवासी बुंदेले पुकारे जाते हैं। इसी बुंदेले वंश में जन्मे वीर चम्पतराय के तीन पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र का नाम था छत्रसाल। वो बचपन से ही वीर था। जब वो दस-बारह बरस की आयु में था तो देवी-मंदिर के एक उत्सव देखने गया, तभी वहाँ पर कुछ मुगल सैनिक मंदिर तोड़ने आ गए। यह जानते ही छत्रसाल ने उन पर हमला कर दिया और मार गिराया। वो पूरी उम्र औरंगजेब के अत्याचारों के खिलाफ़ लड़ता रहा। इसी क्रम में वो राजा जयसिंह और वीर शिवाजी और बाजीराव पेशवा आदि से भी मिला और सभी को अपनी वीरता से चकित किया।
श्री कृष्ण मित्र जी की पुस्तक महाबली छत्रसालके कुछ चित्रण यहाँ प्रस्तुत हैं, देखिए-‘नमन उनको कि जो इस राष्ट्र मन्दिर का पुजारी है/कि जिसने प्राण देकर आरती माँ की उतारी है/फूलों की डलिया वामहस्त दक्षिण कर में तलवार लिए/विजयी मुद्रा में छत्रसाल आ रहा रूप साकार लिए’। शिवाजी और छत्रसाल के मिलन को छत्रसाल के प्रति शिवाजी के उद्गारों को उन्होंने कितनी खूबसूरती से सँवारा  हैं-‘और कहा हे छत्रसाल तुम वीर बहुत अलबेले हो/छत्रिय हो तुम वीर साहसी अद्भुत सुभट बुंदेले हो/विंध्यवासिनी माता के भी सच्चे भक्त पुजारी तुम/माँ की रक्षा करने के भी हो सच्चे अधिकारी तुम’।
ओरछा के देवी के मन्दिर को ध्वस्त करने हेतु औरंगजेब की आज्ञा से फिदाईखान अपने सैनिकों के साथ निकल पड़ता है। यह खबर पाते ही वीर बुंदेले युवकों के जत्थे ग्वालियर की ओर कुछ करते हैं और फिदाईखान को मुँह की खानी पड़ती है। देखिए-‘अनेपक्षित हमले से आया तूफ़ान फिदाईखानों में/भागो भागो का शोर हुआ अतिघोर फिदाईखानों में.....बस इन्हीं क्षणों में छत्रसाल भी पहुँच गया मैदानों में/स्वातंत्र्य समर में कूद पड़ा भर दिया जोश अरमानों में/बिजली सी कड़की दुश्मन पर चहुँओर घिर गया घबराया/उस छत्रसाल के हमलों से मुगलों की टूट गई काया/हर ओर विजय का सिंहनाद थे गूँज रहे जय के नारे/हर हर बम बम जय महाकाल थे बोल रहे सैनिक सारे/मैदान छोड़कर भाग खड़े सब सैन्य फिदाईखानों के/सब ओर छ्त्रसाली ध्वज थे हर कोने में मैदानों के’।
अंत में अपनी काव्य-पुस्तक को विराम देते हुए मित्र जी लिखते हैं-‘वह जीवन पर्यन्त मौत से था खेला/अंतिम समय बयासी का था बुंदेला/आओ उसकी इस समाधि को नमन करें/छत्रसाल जो वीर्यवान था महाबली/बुंदेले सरताज कि करियो भली-भली’।
यह छत्रसाल के चरित्र की विशेषता ही कही जाएगी कि भूषण कवि ने उसके जीवन पर छत्रसाल-बावनीलिखी और आज भी बुन्देलखंडवासी सबेरे उठते ही उसका पुण्यस्मरण करते हुए कहते हैं-छत्रसाल महाबली। करियो भली-भली।।
श्री कृष्ण मित्र जी की यह काव्यात्मक पुस्तक महाबली छत्रसालके जीवन-चरित से हमें रूबरू होने का सुअवसर देती है। आप इसे एक बार गाते हुए पढ़ना शुरू करें तो फिर स्वयं ही इसके साथ-साथ आगे बढ़ते चले जाएंगे और पुस्तक कब ख़त्म हो गई पता ही न चलेगा। हम श्री मित्र जी को इस सांस्कृतिक धरोहर को नयी पीढ़ी को देने के लिए हृदय के अंतर्तम से धन्यवाद देते हैं और उनके स्वस्थ, सुखी और दीर्घ जीवन की कामना करते हैं; वो शतायु हों और इसी तरह हमें अपनी लेखनी से दिशा दिखाते रहें। इत्यलम।


         
सारिका मुकेश

सारिका मुकेश




 पुस्तक का नाम: महाबली छत्रसाल (प्रबंध-काव्य)
लेखक/कवि: श्री कृष्ण मित्र
प्रकाशक: असीम प्रकाशन, गाजियाबाद (उ.प्र.)
मूल्य: 200/- रूपए





Thursday, 14 November 2019

वर्तमान के दर्पण में अतीत को निहारता काव्य संग्रह ‘धूप आती तो है.....’




हम सब भारतवासी बड़े ख़ुशनसीब हैं कि सूर्य देव प्रतिदिन अपनी रश्मिरथी के साथ हमारी पावन भूमि को प्रकाशमान करते हैं। जीवन में कितने ही अंधकार हों पर धूप आती तो है...यही धूप हमें ऊर्जावान कर आशावान बनाए रखती है और हम जीवन की तमाम विषमताओं से लड़ते-जूझते रहते हैं। कुछ ऐसी ही धूप को लेकर शब्दध्वज पत्रिकाका अंक-28 उपस्थित हुआ है श्री पंकज पटेरिया के नवीनतम् काव्य-संग्रह धूप आती तो है.....के रूप में। जीवन की बगिया के तमाम फूलों और काँटों को स्पर्श करती यह धूप आपके भीतर तक उतरकर अपनी पैठ बनाने को आतुर दिखती है और बहुत हद तक सक्षम भी है।
मानवीय मन की अतीत में झाँकने की प्रवृत्ति होती है पर जब वर्तमान सुखद और मधुर स्मृतियों/सुविधाओं  से भरा हो तो मन अतीत को भुला देना चाहता है। फिर यह कैसी विसंगति है कि आज जब हम दिन-प्रतिदिन तमाम सुख और सुविधाओं के संग प्रगति और विकास के पथ पर अग्रसर हैं तब हमारा मन पुराने बीते समय की गली-कूचे में घूमने-फिरने को आमादा है और वो उन खट्टी-मीठी स्मृत/विस्मृत होती स्मृतियों से बाहर ही नहीं आना चाहता।
नर्मदा किनारे होशंगाबाद में रहने की वजह से नदियों से पटौरी जी को विशेष जुड़ाव, आस्था और आत्मीयता के साथ-साथ उनके प्रति मन में एक कौतूहल सा है और कवि मन गा उठता है: जाने कहाँ जाती नदियाँ, गुनगुनाती गाती नदियाँ... इसी के साथ एकाएक वो सूखती जा रही अनेकों नदियों के प्रति चिंतित हो गा उठता है: सूख रही गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा, ताप्ती नदियाँ... और अब बहुत बेचैन रहती नर्मदा, फ़िक्र में डूबी रहती है नर्मदा...क्षीण होती देहयष्टि/गिर रही सेहत/ढह रही सीढ़ियाँ/ गुरजे और तट/सुलगते प्रश्न क्या बचेगी नर्मदा...एक भींगी स्मृति रह जायेगी नर्मदा प्रतिदिन कटते हुए वनों को देख सुप्रसिद्ध साहित्यकार/कवि श्री भवानी प्रसाद मिश्र जी को याद करते हुए यह पंक्तियाँ देखिएभवानी भाई का घना/जंगल लुट रहा है/सतपुरा सीने पर/ पत्थर रख रो रहा है/गोद में जिसकी पली बढ़ी नर्मदा प्रकृति से उनका एक आत्मीयता का रिश्ता है। वो अपनी इन कविताओं में रोज सुबह आँगन में डोलती और चावल बीनती पत्नी को छेड़ती गोरैया, सलेटी शाल ओढ़े रेवा का दर्शन करने आती हुई साँझ, आग उगलते भट्टी से शहर में कच्ची दीवारों शीश महल से अच्छा कच्चे छप्पर वाला अपना घर... और फूलों का अख़बार बाँचती गुनगुनी धूप....ओस का टॉप और दूबिया जींस पहन गुलाबी स्कार्फ़ लपेटे आँखों में उतरती यादों की धूप/जाड़े की धूप... के साथ-साथ एक शाम अपने घर ईशान परिसर से हाईवे पर घूमने जाते हुए एकाएक तवा कॉलोनी के आवास एच-34 के द्वार के सामने नीलगिरी के उन तीन पेड़ों को याद करते हैं, जिनके नीचे घुटैयाँ-घुटैयाँ लुढ़कते चलते-फिरते उनके बच्चों लकी-मिकी की किलकारियाँ गूँजती थीं, जो पत्नी रीता को मंद-मंद मुस्काते आशीष लुटाते थे। नीलगिरी के उन पेड़ों के प्रति कृतज्ञता प्रगट करते हुए यह पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं: हमारे कितने संकटों को/अपने सीने पर झेलते रहे तने खड़े हुए/और घर आँगन में मौज मस्ती भरी/कटती रही हमारी जिन्दगी....नीलगिरी के तीन पेड़ तुम सदा झूमते रहते हो/हमारे मन आँगन में/और आज भी, और रोज भी, हमारी यादों में/बजते रहते तुम्हारी पत्तियों के मंजीरे प्रकृति के प्रति इतनी आत्मीयता, विनम्र धन्यवाद ज्ञापन और अहोभाव पटेरिया जी की विशेष पूँजी हैं। ईश्वर इसमें दिन-रात तरक्की करे और प्रकृति के प्रति यही आत्मीयता और प्रेम आम जनमानस को भी प्रदान करे।
अम्मा और पिता जी को स्मरण करते हुए भी कविता सुंदर बन पड़ी हैं: अम्मा के जाते ही घर टूट गया/सबको जोड़े था वह धागा छूट गया...इस तरह मुँह फेर लिया आईनों ने/जैसे अपना साया भी रूठ गया और यह कविताएं: अम्मा का विश्वाश हमारे बाबू जी थे/घर की बुनियाद हमारे बाबू जी थे...ता उमर सलामती की दुआए दे गए, चूमकर माथा सारी बलाये ले गए... 
वर्तमान का चित्रण करने में भी वो पूरी तरह से सफ़ल रहे हैं। उनकी नज़र में आज भी हालत पहले जैसे है हैं, लगता है कुछ नहीं बदला...मुंशी प्रेमचंद का होरी/आज भी जिंदा है/हमारे आसपास मौजूद है/उसकी तकलीफ़ें आज भी हरी हैं...वो आज भी फटी, बड़ी लंगोटी में क़र्ज़ से लदा अफ़सरशाही के सामने हाथ जोड़े रहमोंकरम की भीख मांगने को विवश है और अच्छे दिन की प्रतीक्षा कर रहा है: राग दरबारी जारी है/वही तमाशा जारी है... अच्छे दिन के स्वागत में/आँखें बिछी हमारी हैं
आत्मीय सम्बन्ध तो अब किताबी बातें हो गए। पुराने दिनों और आज के दौर के यथार्थ को रेखांकित करती दो कविताओं की यह पंक्तियाँ देखिए: गर्मी जाड़ा बारिशें तब भी होती थी/दुःख तकलीफें सभी तब भी होती थी/कितना अच्छा था लेकिन जो वक्त गुज़र गया/आधे-पौने में भी गुज़र ख़ुशी-ख़ुशी होती थी... तथा आज के बदले हुए दौर पर ये पंक्तियाँ: संबंधों के धुंधले दर्पण/जाये कहाँ उदास मन...और ऐसे माहौल में-किसके घर मिल आएं/बोल बैठ बतिया आएं...घर के दर्पण मुह फेरे हैं/आस-पड़ौस गूँगे-बहरे हैं/कैसे उत्सव कैसे मेले/खुद में बंद कैद अकेले हैं....’ अंत में पटेरिया जी कहते हैं: अब तो फ्लैटों में बंद हो गए लोग/2-बीएचके, 3-बीएचके में कैद हो गए लोग/अब तो बस उगती जा रही हैं/ कॉलोनियां-कॉलोनियां /जिनमें रहते हैं बेगाने-बेगानियाँ
श्री पटेरिया जी का यह काव्य-संग्रह क्लिष्ट शाब्दिक आडम्बर से दूर सरल सहज भाषा में अपनी अनुभूतियों/संवेदनाओं और सामायिक मुद्दों पर पाठक को आदि से अंत तक बांधे रखने में सफ़ल है। सच कहें तो इसके माध्यम से पटेरिया जी काव्य-सम्वाद करते नज़र आते हैं और यही इस संग्रह की आत्मिक विशेषता है। हम इस सृजन के लिए उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ देते हैं। हमें विश्वाश है कि साहित्य प्रेमी उनके इस काव्य-सम्वाद से न केवल खुद जुड़ेंगे बल्कि इसको आगे बढ़ाएंगे।
अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि जीवन में हमेशा आशावान और ऊर्जावान रहकर अपने कार्य-क्षेत्र में आगे आगे बढ़ते रहिए:
                              माना कि जीवन में दुश्वारियाँ हमें बहुत सताती तो हैं
                              रुक-रुक कर सही, छन-छन कर सही, धूप आती तो है।


सारिका मुकेश


 
सारिका मुकेश

Monday, 11 November 2019

मौज़ूदा समय के आसपास 'शब्दों के कैनवास'





डॉ. सारिका मुकेश का हाइकु-संग्रह शब्दों के कैनवास मेरे सम्मुख है। इससे पूर्व उनके तीन हाइकु-संग्रह पाठकों द्वारा अत्यन्त स्नेह से देखे और पढ़े गए हैं। प्रत्येक पृष्ठ पर तीन-तीन हाइकु दे कर पाठक के लिये सुविधाजनक स्थिति बना दी गई है । हाइकु कब और कहाँ पर लिखा गया हैयह विवरण भी प्रत्येक हाइकु के साथ उसके नीचे अंकित है। अपने प्रिय पुत्रों अगस्त्य और औरव को समर्पित डॉ. सारिका मुकेश का यह हाइकु-संग्रह कवि के जीवन की डायरी लगता हैजिसमें उन्होंने अपने हर सुख-दु:खअपने हर अनुभव के यथार्थ को हाइकु के रुप में कलमबद्ध कर इस जगत् से साझा करने का प्रयास किया है। कुल 112 पृष्ठ की सम्पूर्ण पुस्तक में अनेक विषयों को स्थान दिया गया है ।  







सारिका मुकेश













हाइकु मूल रूप से एक जापानी विधा हैजिसका प्रचलन आजकल हिंदी साहित्य में जोरों पर हैआजकल हिंदी में हाइकु विधा पर खूब पुस्तकें आ रही हैंमात्र तीन पंक्तियों और केवल 17 (5+7+5=17) वर्णों में पूर्ण रूप से व्यक्त होने वाला हाइकु दिखने में भले ही छोटा-सा लगे पर यह स्वयं में एक पूर्ण कविता है। यथा:चहके पक्षी/खिल उठी कलियाँ/हुई सुबह और ईश्वर शक्ति/मन का तम हरे/मूल्य से परे-इसको पढ़ने के लिए कितना समय चाहिएमगर इसकी स्वाभाविकता को पढ़ने के लिए बुद्धि-कौशल की क्षमता की प्रशंशा की जानी चाहिए। हाइकु की समर्थता पर ही हाइकु को इतनी प्रशंसा मिली है कि अचंभित होकर मुख से यही निकलता है: हुआ अचंभा/अदना-सा हाइकु/इत्ती प्रशंसा
 इस नये हाइकु-संग्रह का प्रारम्भ वन्दना से किया गया है: पुकारे मन/आ भी जाओ प्रभु/दे दो दर्शन‘करूँ वन्दन/आन बसो हे प्रभु/मन आँगन‘माँ सरस्वती/तुझको समर्पित/प्रथम दीप और पुस्तक का अंतिम हाइकु सदा मैं करूँ/बस तेरा ही ध्यान/हे भगवान,  ईश्वर के प्रति अगाध आस्था और प्रेम के रूप में देखे जा सकते हैं।
प्रकृति के पग-पग परिवर्तित होते स्वरूप का वर्णन भी यहाँ प्रभावी रूप से देखा और उसका आनन्द लिया जा सकता है: महकी हवा/पेड़ों पे आया बौर/बौराया मनइच्छा अनंत/रूप का नहीं अंत/सुनो वसंतपुष्पों के जैसी/महकती हुई-सी/दिखी सुबहखिला-सा मन/चहक उठे पक्षी/हुई सुबहकली खिलती/जैसे अबोध शिशु/खोले अँखियाँ
इस संग्रह में करुणा और प्रेम दोनों मानवीय भाव की अजस्त्र धारा निनादित है। दृष्टव्य: हर ले पीड़ा/तेरी एक मुसकान/ओ मेरे प्राणदेख के तुम्हें/हो उठे प्रज्ज्वलित/आशा के दीपजिसे भी कभी/तूने प्रेम से छुआ/पारस हुआतुझ-सा प्यार/ना मिल सका कहीं/ढूँढा संसार‘बसूँ तुम में/मैं बनकर खुश्बू/जैसे गुलाबये अभिलाषा/पढ़ सको तो पढ़ो/मन की भाषाले चल वहाँ/हो जहाँ ताज़ी हवा/खुला आकाश
आज की दुनिया में प्रेम के स्थान पर छल-कपट, चालबाज़ी और पैसा आ गए हैं। इस माहौल में ये हाइकु देखिए: चलन कैसा/हो गया सब कुछ/पैसा ही पैसानिकला काम/हो गए उड़न-छू/फिर कौन तूना हो यकीन/क्यों टूटते विश्वाश/पल भर मेंक्या करूँ यकीं/लूटा किए अपने/मुझे ता-उम्र और ये कैसी दास्ताँ/डुबोया अपनों ने/सदा कारवाँ 
मानव जीवन के यथार्थ को बख़ूबी उकेरते ये हाइकु दृष्टव्य हैं: उम्र का बोझ/अधेड़ लालसाएं/अतृप्त प्यासबढ़ती कहाँ/घटे वक़्त के संग/हमारी उम्रझुर्रियों बीच/वक़्त के हस्ताक्षर/चेहरे पर और थका पथिक/मृत्यु आई निकट/खो गए तट। वृद्धावस्था आज एक समस्या-सी बन गई है। विदेशों में बसे बच्चे और यहाँ एकांतवास की पीड़ा भोगते माता-पिता आज की कड़वी सच्चाई हैं: आया बुढ़ापा/नहीं है ज़रूरत/हमारी अब, नहीं है वक्त/हमारे लिए अब/किसी के पास, कभी तो बच्चे/पंछियों की तरह/आते मिलनेयह दर्द लाज़िमी है क्योंकि हर किसी की यह चाह होती है: इतना मिले/दो वक़्त का भोजन/थोड़ा-सा प्यार
नारी की दशा और दिशा पर प्रकाश डालते ये हाइकु सामाजिक और वैचारिकता के धरातल की भी एक पड़ताल हैं: अजीब व्याख्या/करें चीरहरण/पूजते नारीले के अक्सर/बचे फिरते दुष्ट/धर्म की ओटओ रे मानव/क्यों करे शर्मसार/यूँ मानवताबदले युग/मानव तुम कभी/हुए न सभ्य। आप सोच सकते हैं कि कितनी मानसिक पीड़ा के साथ इन हाइकुओं की उत्पत्ति हुई होगी: मासूम कली/पड़ी दुष्ट हाथों/धूल में मिली, ‘चीखती रही/गूँजते रहे बस/हवा में शब्द’, वामा होने की/कितनी ही दामिनी/भोगती सज़ाबेबस नारी/अजीब-सा माहौल/कैसा मखौल
ये तो महज बानगी है...पता नहीं ऐसे कितने ही हाइकु इस संग्रह में संकलित हैंजिन्हें बार-बार पढ़ने को मन करता है। सब हाइकु अंतस को स्पर्श कर जाते हैं। पुस्तक के पार्श्व पृष्ठ पर इस पुस्तक के नामकरण को जन्म देते विचारों को इस कविता के रूप में उभारा गया है: यहाँ-वहाँइधर-उधर/हर जगहहर कहीं/हीरे-माणिक-मोतियों से/बिखरे पड़े दीखते हैं शब्द/कभी शोर करते/तो कभी मौन से पड़े/कभी अजनबियों से प्रेम करते/कभी अपनों से लड़े/कभी गीता का संदेश बने/कभी बने गुरुवाणी/कभी रामायणमहाभारत बन गए/कभी पुराण और वेदों की वाणी/जहाँ कहीं भी नज़र जाती है/दूर हो या पास/सर्वत्र बिखरे दीखते हैं मुझे/शब्दों के कैनवास। इसी भाव को समेटे इस हाइकु का भी ज़वाब नहीं-यहाँ से वहाँ/शब्दों के कैनवास/रंग बिरंगे
मुझे विश्वास है कि साहित्य जगत में इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा। संकलन का कवर पेज भी बहुत आकर्षक और गहरे भावों को लिए दिखता है तथा उत्कृष्ट कोटि का काग़ज़ और आकर्षक छपाई इसे और भी पठनीय और संग्रहणीय बना देते हैंजिसके लिए प्रकाशक साधुवाद के पात्र हैं।
अंत में, इनकी लेखन-प्रक्रिया अनेकानेक ऊँचाइयों को स्पर्श कर साहित्य को समृद्ध करें, इसी कामना के साथ डॉ. सारिका मुकेश को हार्दिक बधाई देते हुए इस संग्रह के अपने अन्य पसंदीदा इन तीन हाइकुओं के साथ विदा लेती हूँ: ‘मैं और तुम/अपने समय के/ये हस्ताक्षर’, ‘यूँ काम आओ/ज्यों लाइटहाउस/राह दिखाए’  और दीप से बनो/बिखराओ उजाला/मिटाओ तम’।



                                                            अनामिका त्यागी, द्वारका, दिल्ली




पुस्तक का नाम: शब्दों के कैनवास (हाइकु-संग्रह)
ISBN:          978-81-88464-65-4
कवि: डॉ. सारिका मुकेश
प्रकाशन: जाह्नवी प्रकाशनदिल्ली-110095
कुल पृष्ठ: 112
मूल्य: रु. 250/-




Wednesday, 6 November 2019

मानवीय संवेदनाओं का पिटारा है काव्यसंग्रह “अगर इज़ाज़त हो”




मानव मन सदा से संवेदनशील रहा है और यही गुण उसके भीतर एक छटपटाहट, एक अज़ीब क़िस्म की बेचैनी उत्पन्न करता है। अगर इसी बेचैनी को व्यक्त करने के लिए कोई कविता को माध्यम बनाए और कविता कहने से पूर्व आपकी इजाज़त माँगे तो दिल में ऐसे शख्स की विनम्रता के लिए कुछ स्नेह तो अवश्य उमड़ता है। जी हाँ,  कोलकाता के श्री दीनेश चन्द्र प्रसाद 'दीनेश' ने अपने  काव्यसंग्रह का नाम ही रखा है-'अगर इज़ाज़त हो'। यह उनका प्रथम संग्रह है। इस संग्रह में जगह-जगह संवेदनाएँ बिखरी पड़ी हैं। ग़ौर से देखा जाए तो यह सब कवि के मन के भीतर की छटपटाहट है, जिसे लिखकर किसी को दुःख पहुँचाने या अपमानित करने का उसका उद्देश्य कदापि नहीं है, बल्कि वो तो इसे शब्दों में ढालकर कविता की शक्ल में काग़ज़ के वक्ष पर शायद इस आशा से उतार रहा है कि शायद इससे कहीं कुछ सकारात्मक परिवर्तन हो जाए। संग्रह की भूमिका में अपने लेखन और इस संग्रह की कविताओं के विषय में स्वयं कवि ने काफ़ी कुछ स्पष्ट कर दिया है। उनमें न केवल समकालीन वास्तविकताओं को समझने-परखने की क्षमता  है, अपितु विषमताओं के प्रति मन में एक कड़वाहट है और अकुलाहट है इनका रुख मोड़ने की। प्रस्तुत कविता-संग्रह इसका साक्ष्य साबित हो; ऐसी कामना है।

यह हक़ीक़त है कि हम भले ही कितनी समता की बातें कर लें पर आज भी हमारी आधी आबादी पूर्ण रूप से न तो स्वतंत्र ही हो सकी है और न ही उसे बराबरी का दर्ज़ा मिल सका है। यह समस्या सिर्फ़ हमारे देश भारत की ही नहीं बल्कि कमोबेश समूचे विश्व की है। स्त्री-जीवन की आज भी अपनी अनेक समस्याएं हैं, जिन पर विमर्श होना चाहिए। ऐसे ही कुछ मुद्दों पर जब दीनेश जी की कलम चलती है तो संवेदनाएं भीतर से निकलकर आती हैं और बात कुछ अलग दिखती है। उनकी लेखनी से स्त्री-विमर्श में न तो कोई झूठी हमदर्दी दिखती है और न ही झूठे अहंकार की मालिकाना बू आती है। इन विसंगतियो को देखकर दीनेश जी विचलित होते हैं लेकिन साथ ही साथ वो अपनी पुरानी संस्कृति के संवाहक हैं और उसके संरक्षण हेतु भी चिंतित और कार्यरत दिखाई पड़ते हैं। बात भी सही है, नैतिकता और आदर्श के संग कहीं समझौता न करना पड़े, तब स्वतंत्रता और समानता के सही मानी होंगे वरना उसकी स्थिति सामान्य से भी बद्तर ही कही जाएगी। 'माँ' पर लिखी उनकी कविताओं में वात्सल्य की विशिष्ट महक आती है।
उनके लेखन का कैनवास विस्तृत है। उनकी सजग और सचेतन दृष्टि से दैनिक जीवन की तमाम अनुभूतियों के साथ-साथ राजनैतिक परिवेश से लेकर शिक्षा, समाज, संस्कृति, धर्म आदि जैसा कोई भी विषय नहीं बच पाया है और उन्होंने अपनी कलम बखूबी चलायी है, जो उन्हें अलग पहचान देने में सक्षम होगी।
निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है कि उनके इस संग्रह को पढ़ने के बाद एक तरह की अज़ीब-सी बेचैनी महसूस होती है और पाठक को सोचते रहने को विवश करती हैं। जो उनके प्रथम प्रयास को प्रशंसनीय बनाती है और उनके आशावान भविष्य की ओर संकेत भी करती है।
उत्तम क़िस्म के काग़ज़ पर छपी इस पुस्तक का श्री सुनील निंबरे द्वारा बनाया कवर पेज सुन्दर है और छपाई भी आकर्षक और पठनीय है, जिसके लिए मुद्रक एवं प्रकाशक, आर. के.पब्लिकेशन, मुंबई बधाई के पात्र हैं ।  
हमें यकीन है कि उनका यह प्रथम काव्य-संग्रह साहित्य-प्रेमियों को रुचिकर लगेगा और इसका स्वागत होगा। हम अंतस की गहराइयों से कवि श्री दीनेश जी को हार्दिक बधाई देते हैं, साथ ही भविष्य में लेखन-प्रक्रिया जारी रख हिंदी साहित्य में निरंतर संवृद्धि करने हेतु अपनी अहर्निश शुभकामनाएं देते हुए अपनी वाणी को यहीं विराम देते हैं।
इत्यलम।।

                               
सारिका मुकेश
 
सारिका मुकेश
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पुस्तक : अगर इजाज़त हो (कविता संग्रह)
लेखक :  श्री दिनेश चन्द्र प्रसाद 'दीनेश'
प्रकाशक : आर के पब्लिकेशन, दहिसर, मुम्बई
मूल्य: 175/-
पृष्ठ: 122
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